तुलां लोहसहस्त्रस्य यत्र खादन्ति मूषिकाः
राजन्स्तत्र हरेच्छ्येनो बालकं नात्र संशयः
जहां मन भर लोहे की तराजू को चूहे खा जाएं
वहां की चील भी बच्चे को उठाकर ले जा सकती है।
एक स्थान पर जीर्णधन नाम का बनिया का लड़का रहता था। धन की खोज में उसने परदेस जाने का विचार किया। उसके घर में विशेष संपत्ति तो थी नहीं, केवल एक मन भर लोहे की तराजू थी। उसे एक महाजन के पास धरोहर रख कर वह विदेश चला गया। विदेश से वापस आने के बाद उसने महाजन से अपनी धरोहर वापस मांगी। महाजन ने कहा - वह लोहे की तराजू तो चूहों ने खा ली।
बनिए का लड़का समझ गया कि वह उसे तराजू देना नहीं चाहता, किंतु अब उपाय कोई नहीं था। कुछ देर सोचकर उसने कहा कोई चिंता नहीं चूहों ने खा डाली, तो चूहों का दोष है, तुम्हारा नहीं। तुम उसकी चिंता ना करो।
थोड़ी देर बाद बनिए ने उस महाजन से कहा - मित्र! नदी पर स्नान के लिए जा रहा हूं। तुम अपने पुत्र धनदेव को मेरे साथ भेज दो, वह भी नहा आएगा।
महाजन बनिए की सज्जनता से बहुत प्रभावित था, इसलिए उसने तत्काल अपने पुत्र को उसके साथ नदी स्थान के लिए भेज दिया। बनिए ने महाजन के पुत्र को वहां से कुछ दूर ले जाकर एक गुफा में बंद कर दिया। गुफा के द्वार पर बड़ी शिला रख दी, जिससे वह निकल कर भाग ना पाए। फिर जब वह महाजन के घर आया, तो महाजन ने पूछा मेरा लड़का भी तो तेरे साथ स्नान के लिए गया था, वह कहां है?
बनिए ने कहा -"उसे चीज उठाकर ले गई।"
महाजन - यह कैसे हो सकता है। कभी चील भी इतने बड़े बच्चे को उठाकर ले जा सकती है?
बनिया - भले आदमी! यदि चील बच्चे को उठाकर नहीं ले जा सकती, तो चूहे भी मन भर भारी लोहे की तराजू को नहीं खा सकते। तुझे बच्चा चाहिए तो तराजू निकाल कर दे दे।
इसी तरह विवाद करते हुए दोनों राजमहल में पहुंचे। वहां न्याय अधिकारी के सामने महाजन ने अपनी दुख कथा सुनाते हुए कहा कि इस बनिए ने मेरा लड़का चुरा लिया है।
धर्माधिकारी ने बनिए से कहा - उसका लड़का इसे दे दो।
बनिया बोला - महाराज! उसे तो चील उठा ले गई है।
धर्माधिकारी - क्या कभी चील भी बच्चे को उठा ले जा सकती है?
बनिया - प्रभु! यदि मन भर भारी तराजू को चूहे खा सकते हैं, तो चील भी बच्चे को उठाकर ले जा सकती है।
धर्माधिकारी के प्रश्न पर बनिए ने सब वृतांत कह सुनाया।
कहानी कहने के बाद दमनक को पर करटक ने फिर कहा - "तूने भी असंभव को संभव बनाने का यत्न किया है। तूने स्वामी का हित चिंतक होकर अहित कर दिया है। ऐसे हित चिंतक मूर्ख मित्रों की अपेक्षा, अहित चिंतक वैरी अच्छे होते हैं। हित चिंतक मूर्ख बंदर से हितसंपादन करते-करते राजा का खून ही कर दिया था।"
दमनक ने पूछा - कैसे?
कटक ने तब बंदर और राजा की यह कहानी सुनाई।
मूर्ख मित्र
पण्डितोऽपि वरं शत्रुर्न मूर्खो हितकारकः
हितचिंतक मूर्ख की अपेक्षा अहितचिंतक बुद्धिमान अच्छा होता है।
किसी राजा के राजमहल में एक बंदर सेवक के रूप में रहता था। वह राजा बहुत विश्वासपात्र और भक्त था। अंतःपुर में ही वह बेरोक-टोक जा सकता था।
एक दिन राजा सो रहे थे और बंदर पंखा झेल रहा था, तो बंदर ने देखा, एक मक्खी बार-बार राजा की छाती पर बैठी तो उसने पूरे बल से मक्खी पर तलवार का हाथ छोड़ दिया। मक्खी तो उड़ गई, किंतु राजा की छाती तलवार की चोट से टुकड़े हो गई। राजा का देहांत हो गया।
कथा सुनाकर करटक ने कहा - इसीलिए मैं मूर्ख मित्र की अपेक्षा विद्वान शत्रु को अच्छा समझता हूं।
इधर दमनक करटक बातचीत कर रहे थे, उधर शेर और बैल का संग्राम चल रहा था। शेर ने थोड़ी देर बाद बैल को इतना घायल कर दिया कि वह जमीन पर गिर कर मर गया।
मित्र हत्या के बाद पिंगलक को बड़ा पश्चाताप हुआ, किंतु दमनक ने आकर पिंगलक को फिर राजनीति का उपदेश दिया। पिंगलक ने दमनक को फिर अपना प्रधानमंत्री बना लिया। दमनक की इच्छा पूरी हुई। पिंगलक दमनक की सहायता से राज कार्य करने लगा।
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
यहां पंचतंत्र का प्रथम तंत्र समाप्त होता है।
अगले हफ्ते मिलते हैं द्वितीय तंत्र के साथ।
द्वितीय तंत्र: मित्र संप्राप्ति
दक्षिण देश के एक प्रांत में महिलारोप्य नाम का एक नगर था। वहां एक विशाल वटवृक्ष की शाखाओं पर लघुपतनक नाम का कौवा रहता था। एक दिन वह अपने आहार की चिंता में शहर की ओर चला ही था कि उसने देखा कि एक काले रंग, फटे पांव और बिखरे बालों वाला यमदूत की तरह भयंकर व्याध उधर ही चला आ रहा है। कौवे को वृक्ष पर रहने वाले अन्य पक्षियों की भी चिंता थी। उन्हें व्याध के चंगुल से बचाने के लिए वह पीछे लौट पड़ा और वहां सब पक्षियों को सावधान कर दिया कि जब यह व्याघ वृक्ष के पास भूमि पर अनाज के दाने बिखेरे तब कोई भी पक्षी उन्हें चुगने के लालच से ना जाए। उन दानों को कालकूट की तरह जहरीला समझे।
कौवा अभी यह कह ही रहा था कि व्याध ने वटवृक्ष के नीचे आकर दाने विखेर दिए और स्वयं दूर जाकर झाड़ी के पीछे छुप गया। पक्षियों ने भी लघुपतनक का उपदेश मानकर दाने नहीं चुगे। वे इन दानों को हलाहल विष की तरह मानते रहे।
किंतु इस बीच में व्याध के सौभाग्य से कबूतरों का एक दल परदेश से उड़ता हुआ वहां आया। उनका मुखिया चित्रग्रीव नाम का कबूतर था। लघुपतनक के बहुत समझाने पर भी वह भूमि पर बिखरे हुए उन दानों को चुगने के लालच को ना रोक सका। परिणाम यह हुआ कि वह अपने परिवार के साथियों समेत जाल में फंस गया। लोभ का यही परिणाम होता है। लोभ से विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है। स्वर्णमय हिरण के लोभ से श्री राम यह ना सोच सके कि कोई हिरण सोने का नहीं हो सकता।
जाल में फंसने के बाद चित्रग्रीव ने अपने साथी कबूतरों को समझा दिया कि वे अब अधिक फड़फड़ाये नहीं या उड़ने की कोशिश ना करें, नहीं तो व्याध उन्हें मार देगा। इसीलिए वह अब अधमरे से हुए जाल में बैठ गए। व्याध ने भी उन्हें शांत देखकर मारा नहीं। जाल समेटकर वह आगे चल पड़ा। चित्रग्रीव ने जब देखा कि अब व्याध निश्चिंत हो गया है और उसका ध्यान दूसरी ओर गया है, तभी उसने अपने साथियों को जाल समेत उड़ जाने का संकेत किया। संकेत पाते ही सब कबूतर जाल लेकर उड़ गए। व्याध को बहुत दुख हुआ। पक्षियों के साथ उसका जाल भी हाथ से निकल गया था। लघुपतनक भी उन उड़ते हुए कबूतरों के साथ उड़ने लगा।
चित्रग्रीव ने जब देखा कि अब व्याध का डर नहीं है, तो उसने अपने साथियों को कहा - व्याध तो लौट गया। अब चिंता की कोई बात नहीं। चलो, हम महिलारोप्य शहर के पूर्वोत्तर भाग की ओर चलें। वहां मेरा घनिष्ट मित्र हिरण्यक नाम का चूहा रहता है। उससे हम अपने जाल को कटवा लेंगे। तभी हम आकाश में स्वच्छंद घूम सकेंगे।
वहां हिरण एक नाम का चूहा अपने 100 बिलों वाले दुर्ग में रहता था। इसीलिए उसे डर नहीं लगता था। चित्रग्रीव ने उसके द्वार पर पहुंचकर आवाज लगाई। वह बोला - मित्र हिरण्यक! शीघ्र आओ। मुझ पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है।
उसकी आवाज सुनकर हिरण्यक अपने ही बिल में छुपे छुपे प्रश्न किया? तुम कौन हो? कहां से आए हो? क्या प्रयोजन है?
चित्रग्रीव ने कहा - मैं चित्रग्रीव नाम का कपोतराज हूं। तुम्हारा मित्र हूं। तुम जल्दी बाहर आओ: मुझे तुमसे विशेष काम है।
यह सुनकर हिरण्यक चूहा अपने बिल से बाहर आया। वहां अपने परम मित्र चित्रग्रीव को देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ, किंतु चित्रग्रीव को अपने साथियों समेत जाल में फंसा देखकर वह चिंतित भी हो गया। उसने कहा - मित्र! यह क्या हो गया तुम्हें?
चित्रग्रीव ने कहा - जीभ के लालच में हम जाल में फंस गए। तुम हमें जाल से मुक्त कर दो।
हिरण्यक जब चित्रग्रीव के जाल का धागा काटने लगा, तब उसने कहा - पहले मेरे साथियों के बंधन काट दो। बाद में मेरे काटना।
चित्रग्रीव - यह मेरे आश्रित हैं, अपने घर बार को छोड़कर मेरे साथ आए हैं। मेरा धर्म है कि पहले इनकी सुख सुविधा को दृष्टि में रखूँ। अपने अनुचरों में किया हुआ विश्वास बड़े से बड़े संकट से रक्षा करता है।
हिरण्यक चित्रग्रीव की यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सब के बंधन काटकर चित्रग्रीव से कहा मित्र! अब अपने घर जाओ। विपत्ति के समय फिर मुझे याद करना। उन्हें भेज कर हिरण्यक चूहा अपने बिल में घुस गया। चित्रग्रीव भी परिवार सहित अपने घर चला गया।
लघुपतनक कौवा यह सब दूर से देख रहा था। वह हिरण्यक के कौशल और उसकी सज्जनता पर मुग्ध हो गया। उसने मन ही मन सोचा यद्यपि मेरा स्वभाव है कि मैं किसी का विश्वास नहीं करता, किसी को अपना हितैषी नहीं मानता, तथापि इस चूहे के गुणों से प्रभावित होकर मैं इसे अपना मित्र बनाना चाहता हूं।
यह सोचकर वह हिरण्यक के दरवाजे पर जाकर चित्रग्रीव के समान ही आवाज बनाकर हिरण्यक को पुकारने लगा। उसकी आवाज सुनकर हिरण्यक ने सोचा यह कौन सा कबूतर है? क्या इसके बंधन कटने से रह गए हैं?
हिरण ने पूछा - तुम कौन हो?
लघुपतनक - मैं लघुपतनक नाम का एक कौवा हूं।
हिरण्यक - मैं तुम्हें नहीं जानता, तुम अपने घर चले जाओ।
लघुपतक - मुझे तुमसे बहुत जरूरी काम है। एक बार दर्शन तो दे दो।
हिरण्यक - मुझे तुम्हें दर्शन देने का कोई प्रयोजन दिखाई नहीं देता।
लघुपतनक - चित्रग्रीव के बंधन काटते देखकर मुझे तुमसे बहुत प्रेम हो गया है। कभी मैं बंधन में पड़ जाऊंगा तो तुम्हारी सेवा में आना पड़ेगा।
हिरण्यक - तुम भोक्ता हो मैं तुम्हारा भोजन हूं। हम में प्रेम कैसा? जाओ दो प्रकृति के विरोधी जीवों में मैत्री नहीं हो सकती।
लघुपतनक - मैं तुम्हारे द्वार पर मित्रता की भीख लेकर आया हूं। तुम मैत्री नहीं करोगे तो मैं यही प्राण दे दूंगा।
हिरण्यक - हम सहज बैरी हैं। हमसे मैत्री नहीं हो सकती।
लघुपतक - मैंने तो कभी तुम्हारे दर्शन भी नहीं किए। हम से बैर कैसा?
हिरण्यक - वैर दो तरह का होता है - सहज और कृत्रिम। तुम मेरे सहज बैरी हो।
लघुपतक - मैं दो तरह के वैरों का लक्षण सुनना चाहता हूं।
हिरण्यक - जो वैर कारण से हो वह कृत्रिम होता है। कारणों से ही उस वैर का अंत भी हो सकता है। स्वभाविक वैर निष्कारण होता है, उसका अंत हो ही नहीं सकता है।
लघुपतनक में बहुत विरोध किया, किंतु हिरण्यक ने मैत्री के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। तब लघुपतनक ने कहा - यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास ना हो तो तुम अपने दिल में छुपे रहो। मैं बिल के बाहर बैठा बैठा ही तुमसे बातें कर लिया करूंगा।
हिरण्यक ने लघुपतनक की यह बात मान ली। किंतु लघुपतनक को सावधान करते हुए कहा - कभी मेरे दिल में प्रवेश करने की चेष्टा मत करना। कौवा इस बात को मान गया। उसने शपथ ली कि कभी वह ऐसा नहीं करेगा।
तब से दोनों मित्र बन गए। ये नित्य प्रति परस्पर बातचीत करते थे। दोनों के दिन बड़े सुख से कटते थे। कौवा कभी इधर उधर से अन्य संग्रह करके चूहे को भेंट भी देता था। मित्रता में आदान-प्रदान स्वभाविक था। धीरे-धीरे दोनों की मैत्री घनिष्ट होती गई। दोनों एक क्षण भी एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे।
बहुत दिन बाद एक दिन आंखों में आंसू भरकर लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा - मित्र! अब मुझे इस देश से विरक्ति हो गई है, इसलिए दूसरे देश में चला जाऊंगा।
कारण पूछने पर उसने कहा - इस देश में अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ गया है। लोग स्वयं भूखे मर रहे हैं। एक दाना भी नहीं रहा। घर - घर में पक्षियों के पकड़ने के लिए जाल बिछ गए हैं। मैं तो भाग्य से ही बच गया। ऐसे देश में रहना ठीक नहीं।
हिरण्यक - कहां जाओगे? लघुपतनक दक्षिण दिशा की ओर एक तालाब है। वहां मंथरक नाम का एक कछुआ रहता है। वह भी मेरा वैसा ही घनिष्ट मित्र है, जैसे तुम हो। उसकी सहायता से मुझे पेट भरने योग्य अन्न, मांस आदि अवश्य मिल जाएगा।
हिरण्यक - यही बात है, तो मैं भी तुम्हारे साथ जाऊंगा। मुझे भी यहां बड़ा दुख है।
लघुपतनक - अब तुम्हें किस बात का दुख है?
हिरण्यक - यह मैं वहीं पहुंचकर तुम्हें बताऊंगा।
लघुपतनक - किंतु मैं तो आकाश में उड़ने वाला हूं, मेरे साथ तुम कैसे जाओगे?
हिरण्यक - मुझे अपने पंखों पर बिठाकर वहां ले चलो।
लघुपतनक यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि वह सपात आदि आठों प्रकार की उड़ने की गतियों से परिचित है। वह उसे सुरक्षित निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचा देगा। यह सुनकर हिरण्यक चूहा लघुपतनक कौवे की पीठ पर बैठ गया। दोनों आकाश में उड़ते हुए तालाब के किनारे पहुंचे।
मंथरक ने जब देखा कि कोई कौवा चूहे को पीठ पर बिठाकर आ रहा है, तो वह डर के मारे पानी में घुस गया। लघुपतनक को उसने पहचाना नहीं।
तब लघुपतनक हिरण्यक को थोड़ी दूर छोड़ कर पानी में लटकती हुई शाखा पर बैठकर जोर जोर से पुकारने लगा - मंथरक - मंथरक, मैं तेरा मित्र लघुपतनक आया हूं। आकर मुझसे मिल।
लघुपतनक की आवाज सुनकर मंथरक खुशी से नाचता हुआ बाहर आया। दोनों ने एक दूसरे का आलिंगन किया। हिरण्यक भी तब वहां आ गया और मंथरक को प्रणाम कर के वहां बैठ गया।
मंथरक ने लघुपतनक से पूछा - यह चूहा कौन है? भक्छय होते हुए भी इसे अपनी पीठ पर कैसे लाया?
लघुपतनक - एक हिरण्यक नाम का चूहा मेरा अभिन्न मित्र है। बड़ा गुनी है। फिर भी किसी दुख से दुखी होकर मेरे साथ यहां आ गया है। इसे अपने देश से वैराग्य हो गया है।
मंथरक - वैराग्य का कारण!
लघुपतनक - यह बात मैंने भी पूछी थी। इसने कहा था, वही चल कर बताऊंगा। मित्र हिरण्यक! अब तुम अपने वैराग्य का कारण बतलाओ। हिरण अपने तब यह कहानी सुनाई।
धन सब क्लेशों की जड़ है
दक्षिण देश के एक प्रांत में महिलारोप्य नामक नगर से थोड़ी दूर महादेव जी का एक मंदिर था। वहां ताम्रचूड़ नाम का भिक्षु रहता था। वह नगर में से भिक्षा मांग कर भोजन कर लेता था और भिक्षा शेष को भिक्षा पात्र में रखकर खूटों पर टांग देता था। सुबह उसी भिक्षा शेष में से थोड़ा-थोड़ा अन्य वह अपने नौकरों को बांट देता था और उन नौकरों से मंदिर की लिपाई - पुताई और सफाई कराता था।
एक दिन मेरे कई जाती भाई चूहों ने मेरे पास आकर कहा - स्वामी! वह ब्राह्मण खूंटी पर भिक्षा शेष वाला पात्र टांग देता है, जिससे हम उस पात्र तक नहीं पहुंच सकते। आप चाहे तो खूंटी पर टंगे पात्र तक पहुंच सकते हैं। आपकी कृपा से हमें भी प्रतिदिन उसमें से अन्न - भोजन मिल सकता है।
उनकी प्रार्थना सुनकर मैं उन्हें साथ लेकर उसी रात वहां पहुंच गया। उछलकर मैं खूंटी पर टंगे पात्र तक पहुंच गया। वहां से अपने साथियों को भी मैंने भरपेट अन्न दिया और स्वयं भी खूब खाया। प्रतिदिन उसी तरह से मैं अपना और अपने साथियों का पेट पालता रहा।
ताम्रचूड़ ब्राह्मण ने इस चोरी से बचने का एक उपाय किया। वह कहीं से बांस का डंडा ले आया और रात भर खूंटी पर टंगी पात्र को खटखटाता रहता है। मैं भी बांस से पिटने के डर से पात्र में नहीं जाता था। सारी रात यही संघर्ष चलता रहता।
कुछ दिन बाद उस मंदिर में बृहत्सिफक नाम का एक सन्यासी अतिथि बनकर आया। ताम्रचूड़ ने उसका बहुत सत्कार किया। रात के समय दोनों में देर तक धर्म चर्चा भी होती रही, किंतु ताम्रचूड़ ने उस चर्चा के बीच भी फटे बांस से भिक्षा पात्र को खटखटाने का कार्यक्रम चालू रखा। आगंतुक सन्यासी को यह बात बहुत बुरी लगी। उसने समझा कि ताम्रचूड़ उनकी बात को पूरे ध्यान से नहीं सुन रहा। इसे उसने अपमान समझा। इसीलिए अत्यंत क्रोधाविष्ट होकर उसने कहा - ताम्रचूड़! तू मेरे साथ मैत्री नहीं निभा रहा। मुझसे पूरे मन से बात भी नहीं करता। मैं भी इसी समय तेरा मंदिर छोड़कर दूसरी जगह चला जाता हूं।
ताम्रचूड़ ने डरते हुए उत्तर दिया - मित्र! तू मेरा अनन्य मित्र है। मेरी व्यग्रता का कारण दूसरा है; वह यह है कि वह दुष्ट चूहा खूंटी पर टंगे भिक्षा पात्र में से वस्तुओं को चुरा कर खा जाता है। चूहे को डराने के लिए ही मैं भिक्षा पात्र को खटका रहा हूं। इस चूहे ने तो उछलने में बिल्ली और बंदर को भी मात दे दिया है।
बृहत्सिफक - चूहे का बिल तुझे मालूम है?
ताम्रचूड़ - नहीं, मैं नहीं जानता।
बृहत्सिफक - हो ना हो उसका बिल भूमि में गड़े किसी खजाने के ऊपर है। तभी उसकी गर्मी से वह इतना उछलता है। कोई भी काम अकारण नहीं होता। कूटे हुए तिलों को यदि कोई बिना कुटे तिलों के भाव बेचने लगे तो भी उसका कारण होता है।
ताम्रचूड़ - कूटे हुए तिलों का उदाहरण आपने कैसा दिया?
बृहत्सिफक ने तब कूटे हुए तिलों की बिक्री की यह कहानी सुनाई।
बिना कारण कार्य नहीं
हेतुरत्र भविष्यति
हर कार्य के कारण की खोज करो,
अकारण कुछ भी नहीं हो सकता।
एक बार मैं चौमासे में एक ब्राह्मण के घर गया था। वहां रहते हुए एक दिन मैंने सुना कि ब्राह्मण और ब्राह्मण - पत्नी में यह बातचीत हो रही थी:
ब्राह्मण - कल सुबह कर्क संक्रांति है, भिक्षा के लिए मैं दूसरे गांव जाऊंगा। वहां एक ब्राह्मण सूर्यदेव की तृप्ति के लिए कुछ दान करना चाहता है।
पत्नी - तुम्हें तो भोजन योग्य अन्य कमाना भी नहीं आता। तेरी पत्नी होकर मैंने कभी सुख नहीं होगा, मिष्ठान नहीं खाए, वस्त्र और आभूषणों की तो बात ही करनी क्या कहनी।
ब्राह्मण - देवी! तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए। अपनी इच्छा के अनुरूप धन किसी को नहीं मिलता। पेट भरने योग्य अन्न तो मैं भी ले ही आता हूं। इससे अधिक की तृष्णा का त्याग कर दो। अति तृष्णा के चक्कर में मनुष्य के माथे पर शिखा हो जाती है।
ब्राह्मणी ने पूछा - यह कैसे?
तब ब्राह्मण ने सूअर, शिकारी और गीदड़ की यह कथा सुनाई :
अति लोभ नाश का मूल
अतितृष्णा न कर्तव्या, तृष्णां नैव परित्यजेत्
लोभ तो स्वाभाविक है,
किंतु अतिशय लोग मनुष्य का सर्वनाश कर देता है।
एक दिन एक शिकारी शिकार की खोज में जंगल की ओर गया। जाते-जाते उसे वन में काले अंजन के पहाड़ जैसा काला बड़ा सूअर दिखाई दिया। उसे देखकर उसने अपनी धनुष की प्रत्यंचा को कानों तक खींच कर निशाना मारा। निशाना ठीक स्थान पर लगा, सूअर घायल होकर शिकारी की ओर दौड़ा। शिकारी भी तीखे दांत वाले सुअर के हमले से गिरकर घायल हो गया। उसका पेट फट गया। शिकारी और शिकार दोनों का अंत हो गया।
इसी बीच एक भटकता और भूख से तड़पता गीदड़ वहां आ निकला। वहां सूअर और शिकारी दोनों को मरा देखकर वह सोचने लगा आज देववश बड़ा अच्छा भोजन मिला है। कई बार बिना उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल जाता है। इसे पूर्व जन्मों का फल भी कहना चाहिए।
यह सोचकर वह शवों के पास जाकर पहले छोटी चीजें खाने लगा। उसे याद आ गया कि अपने धन का उपयोग मनुष्य को धीरे-धीरे ही करना चाहिए। इसका प्रयोग रसायन के प्रयोग की तरह करना उचित है। इस तरह अल्प धन भी बहुत काल तक काम देता है। अतः इसका भोग मैं इस रीति से करूंगा कि बहुत दिन तक उनके उपयोग से मेरी प्राण यात्रा चलती रहे।
यह सोचकर उसने निश्चय किया कि पहले धनुष की डोरी को खाएगा। उस समय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी। उसकी डोरी कमान के दोनों सिरों पर कसकर बंधी हुई थी। गीदड़ ने डोरी को मुख में लेकर चबाया। चबाते ही वह डोरी बहुत तेज वेग से टूट गई और धनुष के कोने का एक सिरा उसके माथे को भेदकर ऊपर निकल गया। मानो माथे पर शिखा निकल आई हो। इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी वही मर गया।
ब्राह्मण ने कहा - इसीलिए मैं कहता हूं कि अतिशय लोभ से माथे पर शिखा हो जाती है।
ब्राह्मणी ने ब्राह्मण की क्या कहानी सुनने के बाद कहा - यदि यही बात है, तो मेरे घर में थोड़े से तिल पड़े हैं। उनका शोधन करके कूट छांटकर अतिथि को खिला देती हूं।
ब्राह्मण उसकी बात से संतुष्ट होकर भिक्षा के लिए दूसरे गांव की ओर चल दिया। ब्राह्मणी ने भी वचनानुसार घर में पड़े तीलों को छांटना शुरू कर दिया। जब उसने तीलों को सुखाने के लिए धूप में फैलाया तो एक कुत्ते ने उन तीलों को मूत्र विष्ठा से खराब कर दिया। ब्राह्मणी बड़ी चिंता में पड़ गई। यही तिल थे, जिन्हें पकाकर उसे अतिथि को भोजन देना था। बहुत विचार के बाद उसने सोचा कि अगर वह इन शोधित तिलों के बदले अशोधित तिल मांगेगी, तो कोई भी दे देगा। इसके उच्छिष्ट होने का किसी को पता भी नहीं लगेगा। यह सोचकर वह उन छंटे हुए तिलों को छाज में रखकर घर घर घूमने लगी और कहने लगी कोई इन छंटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छंटे तिल दे दो।
अचानक यह हुआ कि जिस घर में मैं भिक्षा के लिए गया था, उसी घर में वह भी तिलों को बेचने पहुंच गई और कहने लगी बिना छंटे हुए तिलों के स्थान पर छंटे हुए तिलों को ले लो। उस घर की गृह पत्नी जब यह सौदा करने जा रही थी, तब उसके लड़के ने जो अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था, कहा - माता! इन तिलों को मत लो। कौन पागल होगा जो बिना छंटे तिलों को लेकर छंटे हुए तिल देगा। यह बात निष्कारण नहीं हो सकती। अवश्यमेव इन छंटे हुए तिलों में कोई दोष होगा।
पुत्र के कहने पर माता ने सौदा नहीं किया।
यह कहानी सुनाने के बाद बृहत्सिफक ने ताम्रचूड़ से पूछा - क्या तुम्हें उसके आने जाने का मार्ग मालूम है?
ताम्रचूड़ - भगवन वह तो मालूम नहीं। वह अकेला नहीं आता, दल - बल समेत आता है। उसके साथ ही वह आता है और साथ ही जाता है।
बृहत्सिफक - तुम्हारे पास कोई फावड़ा है?
ताम्रचूड़ ने कहा - हाँ, फावड़ा तो है।
दोनों ने दूसरे दिन फावड़ा लेकर हमारे चूहों के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए बिल तक आने का निश्चय किया। मैं उनकी बातें सुनकर बड़ा चिंतित हुआ। मुझे विश्वास हो गया कि वह इस समय मेरे दुर्ग तक पहुंच कर फावड़े से उसे नष्ट कर देंगे। इसीलिए यह सोचकर मैं अपने दुर्ग की ओर न जाकर किसी अन्य स्थान की ओर चल देता हूं। इस तरह सीधा रास्ता छोड़कर दूसरे रास्ते से जब मैं सदल - बल जा रहा था, तो मैंने देखा कि एक मोटा बिल्ला आ रहा है। यह बिल्ला चूहों की मंडली देख कर उस पर टूट पड़ा। बहुत से चूहे मारे गए। बहुत से घायल हुए। एक भी चूहा ऐसा ना था जो लहूलुहान ना हुआ हो। उन सब ने इस विपत्ति का कारण मुझे ही माना। मैं ही उन्हें असली रास्ते के स्थान पर दूसरे रास्ते से ले जा रहा था। बाद में उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। वह सब पुराने दुर्ग में चले गए।
इस बीच बृहत्सिफक और ताम्रचूड़ भी फावड़ा समेत दुर्ग तक पहुंच गए। वहां पहुंच कर उन्होंने दुर्ग को खोदना शुरू कर दिया। खोदते- खोदते उनके हाथ में खजाना लग गया, जिसकी गर्मी से मैं बंदर और बिल्ली से भी अधिक उछल सकता था। खजाना लेकर दोनों ब्राह्मण मंदिर को लौट गए। मैं जब अपने दुर्ग को गया, तो उसे उजड़ा देख कर मेरा दिल बैठ गया। उसकी यह अवस्था देखी नहीं जाती थी। सोचने लगा क्या करूं? कहां जाऊं? मेरे मन को कहां शांति मिलेगी?
बहुत सोचने के बाद मैं फिर निराशा में डूबा हुआ उसी मंदिर में चला गया, जहां ताम्रचूड़ रहता था। मेरे पैरों की आहट सुन ताम्रचूड़ ने फिर खूंटी पर टंगे भिक्षा पात्र को फटे बांस से पीटना शुरू कर दिया। बृहत्सिफक ने उससे पूछा - मित्र! अभी तू निश्चिंत होकर नहीं सोता। क्या बात है?
ताम्रचूड़ - भगवन! वह चूहा फिर यहां आ गया है। मुझे डर है मेरे भिक्षा शेष को वह फिर ना कहीं खा जाए।
बृहत्सिफक - मित्र! अब डरने की कोई बात नहीं। धन के खजाने के छीनने के साथ उसके उछलने का उत्साह भी नष्ट हो गया। सभी जीवों के साथ ऐसा होता है। धन बल से ही मनुष्य उत्साही होता है, वीर होता है और दूसरों को पराजित करता है। यह सुनकर मैंने पूरे बल से छलांग मारी, किंतु खूंटी पर टंगे भिक्षा तक ना पहुंच सका और मुख के बल जमीन पर गिर पड़ा। मेरे गिरने की आवाज सुनकर मेरा शत्रु बृहत्सिफक ताम्रचूड़ से हंसकर बोला - देख ताम्रचूड़! इस चूहे को देख, खजाना छिन जाने के बाद वह फिर मामूली चूहा ही रह गया है। इसकी छलांग में अब वह वेग नहीं रहा जो पहले था। धन में बड़ा चमत्कार है। धन से ही सब बली होते हैं, पंडित होते हैं। धन के बिना मनुष्य की अवस्था दंत हीन सांप की तरह हो जाती है।
धनाभाव में मेरी भी बड़ी दुर्गति हो गई। मेरे ही नौकर मुझे उलाहना देने लगे कि यह चूहा हमारा पेट पालने योग्य तो है नहीं। हां, हमें बिल्ली को खिलाने योग्य अवश्य है। यह कह कर उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। मेरे साथी मेरे शत्रुओं के साथ मिल गए।
मैंने भी एक दिन सोचा कि मैं फिर मंदिर में जाकर खजाना पाने का यत्न करूंगा। इसमें मेरी मृत्यु भी हो जाए तो भी चिंता नहीं। यह सोचकर मैं फिर मंदिर में गया। मैंने देखा कि ब्राह्मण खजाने की पेटी को सिर के नीचे रख कर सो रहे हैं। मैं पेटी में छिद्र करके जब धन चुराने लगा, तो वे जाग गए। लाठी लेकर वह मेरे पीछे दौड़े। एक लाठी मेरे सिर पर लगी। आयु शेष थी, इसलिए मृत्यु नहीं हुई। किंतु घायल बहुत हो गया। सच तो यह है कि जो धन भाग्य में लिखा होता है, वह तो मिल ही जाता है। संसार की कोई शक्ति उसे हस्तगत होने में बाधा नहीं डाल सकती। इसी लिए मुझे कोई शक नहीं है, जो हमारे हिस्से का है, वह हमारा अवश्य होगा।
इतनी कथा कहने के बाद हिरणयक ने कहा - इसीलिए मुझे वैराग्य हो गया है और इसीलिए मैं लघुपतनक की पीठ पर चढ़कर यहां आ गया हूं।
मंथरक ने आश्वासन देते हुए कहा - मित्र! जवानी और धन की चिंता ना करो। जवानी और धन का उपयोग क्षणिक ही होता है। पहले धन के आर्जन में दुख है, फिर उसके संरक्षण में दुःख। जितने कष्टों से मनुष्य धन का संचय करता है, उससे शतांश कष्टों से भी यदि वह धर्म का संचय करें तो उसे मोक्ष मिल जाए। विदेश प्रवास का भी दुख मत करो। व्यवसाई के लिए कोई स्थान दूर नहीं, विद्वानों के लिए कोई विदेश नहीं और प्रियवादी के लिए कोई पराया नहीं।
इसके अतिरिक्त धन कमाना तो भाग्य की बात है। भाग्य ना हो तो संचित धन भी नष्ट हो जाता है। अभागा आदमी अर्थ उपार्जन करके भी उसका भोग नहीं कर पाता, जैसे मूर्ख सोमिलक नहीं कर पाया था।
हिरण्यक ने पूछा - कैसे?
मंथरक ने तब सोमिलक की यह कथा सुनाई।
भाग्यहीन नर पावत नाहीं
अर्थस्योपार्जनं कृत्वा नैवाभोगं समश्नुते ।
करतलगतमपि नश्यति तु भवितव्यता नास्ति ॥
भाग्य में न हो तो हाथ में आए धन का भी उपभोग नहीं होता।
एक नगर में सोमिलक नाम का एक जुलाहा रहता था। विविध प्रकार के रंगीन और सुन्दर वस्त्र बनाने के बाद भी उसे भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन कभी प्राप्त नहीं होता था। अन्य जुलाहे मोटा-सादा कपड़ा बुनते हुए धनी हो गए थे। उन्हें देखकर एक दिन सोमिलक ने अपनी पत्नी से कहा-प्रिये! देखो मामूली कपड़ा बुनने वाले जुलाहों ने भी कितना धन-वैभव संचित कर लिया है। और मैं इतने सुन्दर, उत्कृष्ट वस्त्र बनाते हुए भी आज तक निर्धन ही हूँ। प्रतीत होता है, यह स्थान मेरे लिए भाग्यशाली नहीं है; अतः विदेश जाकर धनोपार्जन करूंगा।
सोमिलनक-पत्नी ने कहा-प्रियतम! विदेश में धनोपार्जन की कल्पना मिथ्या स्वप्न से अधिक नहीं। धन की प्राप्ति होनी हो तो स्वदेश में ही हो जाती है। न होनी हो तो हथेली में आया धन भी नष्ट हो जाता है। अतः यहीं रहकर व्यवसाय करते रहो, भाग्य में लिखा होगा तो यहीं धन की वर्षा हो जाएगी।
सोमिलक-भाग्य-अभाग्य की बात तो कायर लोग करते हैं। लक्ष्मी उद्योगी और पुरुषार्थी सिंह-नर को प्राप्त होती है। सिंह को भी अपने भोजन के लिए उद्यम करना पड़ता है। मैं भी उद्यम करूंगा; विदेश जाकर धन संचय काम करूँगा।
यह कहकर सोमितक वर्धमानपुर चला गया। वहाँ तीन वर्षों में अपने कौशल से 300 सोने की मुहरे नेकर वह घर की ओर चल दिया। रास्ता लम्बा था। आधे रास्ते में ही दिन ढल गया, शाम हो गई। आसपास कोई घर नहीं था। एक मोटे वृक्ष की शाखा के ऊपर चढ़कर रात बिताई। सोते-साते स्वप्न में आया कि दो भयंकर आकृति के पुरुष आपस में बात कर रहे हैं। एक ने कहा- हे पौरूष, तुझे क्या मालूम नहीं है कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक घन नहीं रह सकता; तब तूने इसे 300 मोहरें क्यों दीं?- दूसरा बोता-हे भाग्य! में तो प्रत्येक पुरुषार्थी को एक बार उसका फल दूँगा। उसे उसके पास रहने देना या नहीं रहने देना तेरे अधीन है।
स्वप्न के बाद सोमिलक की नींद खुली तो देखा मुहरों का पात्र खाली था। इतने कष्टों से संचित धन के इस तरह लुप्त हो जाने से सोमिलक बड़ा दुःखी हुआ और सोचने लगा, अपनी पत्नी को कौन-सा मुख दिखाऊँगा, मित्र क्या कहेंगे? यह सोचकर वह फिर वर्धमान को ही वापस आ गया। वहाँ दिन-रात घोर परिश्रम करके उसने वर्ष भर में ही 500 महरें जमा कर लीं। उन्हें लेकर वह घर की ओर आ रहा था कि आधे रास्ते रात पड़ गई। इस बार वह सोने के लिए ठहरा नहीं, चलता ही गया। किन्तु चलते-चलते ही उसने फिर दोनों-पौरुष और भाग्य-को पहले की तरह बातचीत करते सुना। भाग्य ने फिर वही बात कही-हे पौरुष! क्या तुझे मालूम नहीं कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता; तब तूने 500 मुहरे क्यों दीं? - पौरुप ने वहीं उत्तर दिया- हे भाग्य! में तो प्रत्येक व्यवसायी को एक बार उसका फल दूँगा ही, इससे आगे तेरे अधीन है; उसके पास रहने दें या छीन ले। इस बातचीत के बाद सोमिलक ने जब अपनी मुहरों वाली गठरी देखी तो वह मुहरों से खाली थी।
इस तरह दो बार खाली हाथ होकर सोमिलक का मन बहुत दुःखी हुआ। उसने सोचा- इस धनहीन जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है। आज इस वृक्ष की टहनी से रस्सी बाँधकर उस पर लटक जाता हूँ और यहीं प्राण दे देता हूँ।
गले में फंदा लगा, उसे टहनी से बाँधकर जब वह लटकने वाला ही था कि आकाशवाणी हुई-सोमिलक! ऐसा दुःसाहस मत कर। मैंने ही तेरे धन चुराया है। तेरे भाग्य में भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन का उपयोग नहीं लिखा है। व्यर्थ के धन संचय में अपनी शक्तियाँ नष्ट मत कर। घर जाकर सुख से रह । तेरे साहस से तो मैं प्रसन्न हूँ; तू चाहे तो एक वरदान माँग ले। मैं तेरी इच्छा पूरी करूँगा।
सोमिलक ने कहा- मुझे वरदान में प्रचुर धन दे दो।
अदृष्ट देवता ने उत्तर दिया-धन का क्या उपयोग? तेरे भाग्य में उसका उपभोग नहीं है। भोगरहित धन को लेकर क्या करेगा?
सोमिलक तो धन का भूखा था, बोला- भोग हो या न हो, मुझे धन ही चाहिए। बिना उपयोग या उपभोग के भी धन की बड़ी महिमा है। संसार में वही पूज्य माना जाता है, जिसके पास धन का संचय हो। कृपण और अकुलीन भी समाज में आदर पाते हैं। संसार उनकी ओर आशा लगाए बैठा रहता है; जिस तरह वह गीदड़ बैल से आशा रखकर उसके पीछे पन्द्रह दिन तक घूमता रहा।
भाग्य ने पूछा- किस तरह?
सोमिलक ने फिर बैल और गीदड़ की यह कहानी सुनाई।
उड़ते के पीछे भागना
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि ।।
जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के पीछे भटकता है,
उसका निश्चित धन भी नष्ट हो जाता है।
एक स्थान पर तीक्ष्णविषाण नाम का एक बैल रहता था। बहुत उन्मत्त होने के कारण उसे किसान ने छोड़ दिया था। अपने साथी बैलों से भी छूटकर जंगल में ही मतवाले हाथी की तरह बेरोक-टोक घूमा करता था।
उसी जंगल में प्रलोभक नाम का एक गीदड़ भी था। एक दिन वह अपनी पत्नी सहित नदी के किनारे बैठा था कि वह बैल वहीं पानी पीने आ गया। बेल के मांसल कन्धों पर लटकते हुए मांस को देखकर गीदड़ी ने गीदड़ से कहा-स्वामी, इस बैल की लटकती हुई लोथ को देखो। न जाने किस दिन यह जमीन पर गिर जाए। इसके पीछे-पीछे जाओ-जब यह ज़मीन पर गिरे, ले आना।
गीदड़ ने उत्तर दिया-प्रिये! न जाने यह लोथ गिरे या न गिरे। कब तक इसका पीछा करूँगा? इस व्यर्थ के काम में मुझे मत लगाओ। हम यहाँ चैन से बैठे हैं। जो चूहे इस रास्ते से जाएँगे, उन्हें मारकर ही हम भोजन कर लेंगे। तुझे यहाँ अकेली छोड़कर जाऊँगा तो शायद कोई दूसरा गी ही इस घर को अपना बना ले। अनिश्चित लाभ की आशा में निश्चित वस्तु का परित्याग कभी अच्छा नहीं होगा।
गीदड़ी बोली- मैं नहीं जानती थी कि तू इतना कायर और आलसी है। तुझमें इतना भी उत्साह नहीं है। जो थोड़े से धन से सन्तुष्ट हो जाता है, वह थोड़े से धन को भी गँवा बैठता है। इसके अतिरिक्त अब मैं चूहे के माँस से ऊब गई हूँ। बैल के ये मांस-पिण्ड अब गिरने ही वाले दिखाई देते हैं। इसलिए अब इसका पीछा करना चाहिए।
तब से गीदड़-गीदड़ी दोनों बैल के पीछे घूमने लगे। उनकी आँखें उसके लटकते मांस-पिण्ड पर लगी थीं, लेकिन वह मांस-पिण्ड 'अब गिरा, तब गिरा', लगते हुए भी गिरता नहीं था। अन्त में दस-पन्द्रह दिन इसी तरह बैल का पीछा करने के बाद एक दिन गीदड़ ने कहा-प्रिये! न मालूम यह गिरे भी या नहीं, इसलिए अब इसकी आशा छोड़कर अपनी राह लो।
कहानी सुनने के बाद पौरुष ने कहा- यदि यही बात है, धन की इच्छा इतनी ही प्रबल है, तो तू फिर वर्धमानपुर चला जा। वहाँ दो बनियों के पुत्र हैं, एक गुप्तधन, दूसरा उपभुक्तधन। इन दोनों प्रकार के धनों का स्वरूप जानकर तू किसी एक का वरदान माँगना। यदि तू उपयोग की योग्यता के "तू बिना धन चाहेगा तो तुझे गुप्तधन दे दूंगा। और यदि खर्च के लिए धन चाहेगा तो उपभुक्त धन दे दूँगा।
यह कहकर वह देवता लुप्त हो गया। सोमिलक उसके आदेशानुसार फिर वर्धमान पुर पहुँचा। शाम हो गई थी। पूछता-पाछता वह गुप्तधन के घर चला गया। घर पर उसका किसी ने सत्कार नहीं किया। इसके विपरीत उसे भला-बुरा कहकर गुप्तधन और उसकी पत्नी ने घर से बाहर धकेलना चाहा। किन्तु सोमिलक अपने संकल्पों का पक्का था। सबके विरुद्ध होते हुए भी वह घर में घुसकर जा बैठा। भोजन के समय उसे गुप्तधन ने रूखी-सूखी रोटी दे दी। उसे खाकर वह वहीं सो गया। स्वप्न में उसने फिर दोनों देव देखें। वे बातें कर रहे थे। एक कह रहा था-हे पोरुष! तूने गुप्तधन को भोग्य से इतना अधिक धन क्यों दे दिया कि उसने सोमिलक को भी रोटी गुप्तधन को दे दी। - पौरुष ने उत्तर दिया- मेरा इसमें दोष नहीं। मुझे पुरुष के हाथों धर्म-पालन करवाना ही है, उसका फल देना तेरे अधीन है।
दूसरे दिन गुप्तधन पेचिस से बीमार हो गया और उसे उपवास करना पड़ा। इस तरह उसकी क्षतिपूर्ति हो गई।
सोमिलक अगले दिन सुबह उपभुक्तधन के घर गया। वहाँ उसने भोजनादि द्वारा उसका सत्कार किया। सोने के लिए सुन्दर शय्या भी दी। सोते-सोते उसने फिर सुना, वही दोनों देव बातें कर रहे थे। एक कह रहा था-हे पौरुष! इसने सोमिलक का सत्कार करते हुए बहुत धन व्यय कर दिया है। अब इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी?-दूसरे ने कहा- हे भाग्य! सत्कार के लिए धन व्यय करना मेरा धर्म था, इसका फल देना तेरे अधीन है।
सुबह होने पर सोमिलक ने देखा कि राजदरबार से एक राजपुरुष राजप्रसाद के रूप में धन की भेंट लाकर उपभुक्तधन को दे रहा था। यह देखकर सोमिलक ने विचार किया कि यह संचयरहित उपयुक्त धन ही गुप्तधन से श्रेष्ठ है। जिस धन का दान कर दिया जाए या सत्कार्यों में व्यय कर दिया जाए वह धन संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है।
मन्थरक ने ये कहानियाँ सुनाकर हिरण्यक से कहा कि इस कारण तुझे भी धन-विषयक चिन्ता नहीं करनी चाहिए। तेरा जमीन में गड़ा हुआ खजाना चला गया तो जाने दे। भोग के बिना उसका तेरे लिए उपयोग भी क्या था । उपार्जित धन का सबसे अच्छा संरक्षण यह है कि उसका दान कर दिया जाए। शहद की मक्खियाँ इतना मधु संचय करती हैं, किन्तु उपयोग नहीं कर सकतीं। इस संचय से क्या लाभ?
मन्थरक कछुआ, लघुपतनक कौवा और हिरण्यक चूहा वहाँ बैठे-बैठे यही बातें कर रहे थे कि वहाँ चित्राँग नाम का हरिण कहीं से दौड़ता-हाँफता आ गया। एक व्याघ उसका पीछा कर रहा था। उसे आता देखकर कौवा उड़कर वृक्ष की शाखा पर बैठ गया। हिरण्यक पास के बिल में घुस गया और मन्थरक तालाब के पानी में जा छिपा।
कोवे ने हरिण को अच्छी तरह देखने के बाद मन्थरक से कहा-मित्र मन्थरक! यह तो हरिण के आने की आवाज है। एक प्यासा हरिण पानी पीने के लिए तालाब पर आया है। उसी का यह शब्द है, मनुष्य का नहीं।
मन्थरक- यह हरिण बार-बार पीछे मुड़कर देख रहा है और डरा हुआ-सा है। इसलिए यह प्यास नहीं, बल्कि व्याध के डर से भागा हुआ है। देख तो सही इसके पीछे व्याध आ रहा है या नहीं।
दोनों की बात सुनकर चित्राँग हरिण बोला-मन्थरक! मेरे भय का कारण तुम जान गए हो। मैं व्याध के बाणों से डरकर बड़ी कठिनाई से यहाँ पहुँच पाया हूँ। तुम मेरी रक्षा करो। अब तुम्हारी शरण में हूँ। मुझे कोई ऐसी जगह बतलाओ जहाँ व्याध न पहुँच सके।
मन्थरक ने हरिण को घने जंगलों में भाग जाने की सलाह दी। किन्तु लघुपतनक ने ऊपर से देखकर बतलाया कि व्याध दूसरी दिशा में चले गए हैं, इसलिए अब डर की कोई बात नहीं है। इसके बाद चारों मित्र तालाब के किनारे वृक्षों की छाया में मिलकर देर तक बातें करते रहे।
कुछ समय बाद एक दिन जब कछुआ, कौवा और चूहा बातें कर रहे थे, शाम हो गई। बहुत देर बाद भी हरिण नहीं आया तीनों को सन्देह होने लगा कि कहीं वह व्याध के जाल में तो नहीं फँस गया; अथवा शेर, बाघ आदि ने उस पर हमला न कर दिया हो। घर में बैठे स्वजन अपने प्रवासी प्रियजनों के सम्बन्ध में सदा शकित रहते हैं।
बहुत देर तक भी चित्राँग हरिण नहीं आया तो मन्थरक कछुए ने लघुपतनक कौवे को जंगल में जाकर हरिण को खोजने की सलाह दी। लघुपतनक ने कुछ दूर जाकर ही देखा कि वहाँ चित्राँग एक जाल में बँधा हुआ है। लघुपतनक उसके पास गया। उसे देखकर चित्राँग की आँखों में आँसू आ गए। वह बोला- अब मेरी मृत्यु निश्चित है। अन्तिम समय में तुम्हारे दर्शन करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। प्राण-विसर्जन के समय मित्र-दर्शन बड़ा सुखद होता है। मेरे अपराध क्षमा करना।
लघुपतनक ने धीरज बाँधते हुए कहा-घबराओ मत। मैं अभी हिरण्यक चूहे को बुला लाता हूँ। वह तुम्हारे जाल काट देगा।
यह कहकर वह हिरण्यक के पास चला गया और शीघ्र ही उसे पीठ पर बिठाकर ले आया। हिरण्यक अभी जाल काटने की विधि सोच ही रहा था कि लघुपतनक ने वृक्ष के ऊपर से दूर पर किसी को देखकर कहा-यह तो बहुत बुरा हुआ।
हिरण्यक ने पूछा- क्या कोई व्याध आ रहा है?
लघुपतनक- नहीं, व्याध तो नहीं, किन्तु मन्थरक कछुआ इधर चला आ रहा है।
हिरण्यक - तब तो खुशी की बात है। दुःखी क्यों होता है?
लघुपतनक - दुःखी इसलिए होता हूँ कि व्याध के आने पर मैं ऊपर उड़ जाऊँगा, हिरण्यक बिल में घुस जाएगा, चित्राँग भी छलाँगें मारकर घने जंगल में घुस जाएगा; लेकिन यह मन्थरक कैसे अपनी जान बचाएगा? यही सोचकर चिन्तित हो रहा हूँ।
मन्थरक के वहाँ आने पर हिरण्यक ने मन्थरक से कहा- मित्र! तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया। अब भी वापस लौट जाओ, कहीं व्याध न आ जाए।
मन्थरक ने कहा-
मित्र! मैं अपने मित्र को आपत्ति में जानकर वहाँ नहीं रह सका। सोचा उसकी आपत्ति में हाथ बंटाऊँगा, तभी चला आया ।
ये बातें हो ही रही थीं कि उन्होंने व्याध को उसी ओर आते देखा। उसे देखकर चूहे ने उसी क्षण चित्राँग के बन्धन काट दिए। चित्राँग भी उठकर घूम-घूमकर पीछे देखता हुआ आगे भाग खड़ा हुआ। लघुपतनक वृक्ष पर उड़ गया। हिरण्यक पास के बिल में घुस गया।
व्याध अपने जाल में किसी को न पाकर बड़ा दुःखी हुआ। वहाँ से वापस जाने का मुड़ा ही था कि उसकी दृष्टि धीरे-धीरे जाने वाले मन्थरक पर पड़ गई। उसने सोचा, आज हरिण तो हाथ आया नहीं, कछुए को ही ले चलता हूँ। कछुए को ही आज भोजन बनाऊँगा। उससे ही पेट भरूँगा- यह सोचकर वह कछुए को कन्धे पर डालकर चल दिया। उसे ले जाते देख हिरण्यक और लघुपतनक को बड़ा दुःख हुआ। दोनों मित्र मन्थरक को बड़े प्रेम और आदर से देखते थे। चित्राँग ने भी मन्थरक को व्याध के कन्धों पर देखा तो व्याकुल हो गया। तीनों मित्र मन्थरक की मुक्ति का उपाय सोचने लगे।
कौए ने एक उपाय ढूँढ निकाला। वह यह कि चित्राँग व्याध के मार्ग में तालाब के किनारे जाकर लेट जाए। मैं तब उसे चोंच मारने लगूँगा। व्याध समझेगा कि हरिण मरा हुआ। वह मन्थरक को ज़मीन पर रखकर इसे लेने के लिए जब आएगा तो हिरण्यक जल्दी-जल्दी मन्थरक के बन्धन काट दें। मन्थरक तालाब में घुस जाए और चित्राँग छलाँगें मारकर घने जंगल में चला जाए। मैं उड़कर वृक्ष पर चला ही जाऊँगा। सभी बच जाएँगे, मन्थरक भी छूट जाएगा।
तीनों मित्रों ने यही उपाय किया। चित्राँग तालाब के किनारे मृतवत् जा लेटा। कौवा उसकी गर्दन पर सवार होकर चोंच चलाने लगा। व्याध ने देखा तो समझा कि हरिण जाल से छूटकर दौड़ता-दौड़ता यहाँ मर गया है। उसे लेने के लिए वह जालवद्ध कछुए को जमीन पर छोड़कर आगे बढ़ा तो हिरण्यक ने अपने वज्र समान तीखे दाँतों से जाल के बन्धन काट दिए। मन्थरक पानी में घुस गया चित्राँग भी दौड़ गया।
व्याध ने चित्राँग को हाथ से निकलकर जाते देखा तो आश्चर्य में डूब गया। वापस जाकर जब उसने देखा कि कछुआ भी जाल से निकलकर भाग गया है। तब उसके दुःख की सीमा न रही। वहीं एक शिला पर बैठकर विलाप करने लगा।
दूसरी ओर चारों मित्र, लघुपतनक, मन्थरक, हिरण्यक और चित्राँग प्रसन्नता से फूले न समाते थे। मित्रता के बल पर ही चारों ने व्याध से मुक्ति पाई थी।
मित्रता में बड़ी शक्ति है। मित्र संग्रह करना जीव की सफलता में बड़ा सहायक है। विवेकी व्यक्ति को सदा मित्र प्राप्ति में प्रयत्नशील रहना चाहिए।
उल्लू का अभिषेक
एक एव हितार्थाय तेजस्वी पार्थिवो भुवः
एक राजा के रहते दूसरे को राजा बनाना उचित नहीं
एक बार हंस, तोता, बगुला, कोयल, चातक, कबूतर, उल्लू आदि सब पक्षियों ने सभा करके यह सलाह की कि उनका राजा वैनतेय केवल वासुदेव की भक्ति में लगा रहता है, व्याधों से उनकी रक्षा का कोई उपाय नहीं करता, इसलिए पक्षियों का कोई अन्य राजा चुन लिया जाए। कई दिनों की बैठक के बाद सबने यह सम्मति से सर्वांग सुन्दर उल्लू को राजा चुना।
अभिषेक की तैयारियाँ होने लगी। विविध तीर्थों से पवित्र जल मंगाया गया, सिंहासन पर रत्न जड़े गए, स्वर्णघट भरे गए, मंगलपाठ शुरू हो गया, ब्राह्मणों ने वेद-पाठ शुरू कर दिया, नर्तकियों ने नृत्य की तैयारी कर ली; उलूकराज राज्यसिंहासन पर बैठने ही वाले थे कि कहीं से एक कौवा आ गया।
कौवे ने सोचा, यह समारोह कैसा? यह उत्सव किसलिए? पक्षियों ने भी कौवे को देखा तो आश्चर्य में पड़ गए। उसे तो किसी ने बुलाया ही नहीं था। फिर भी उन्होंने सुन रखा था कि कौवा सबसे चतुर कूट राजनीतिज्ञ पक्षी है; इसलिए उससे मन्त्रणा करने के लिए सब पक्षी उसके चारों ओर इकट्ठे हो गए।
उलूकराज ने राज्याभिषेक की बात सुनकर कौवे ने हँसते हुए कहा-यह चुनाव ठीक नहीं हुआ। मोर, हँस, कोयल, सारस, चक्रवाक, शुक आदि सुन्दर पक्षियों के रहते दिवान्ध उल्लू और टेढ़ी नाक वाले अप्रियदर्शी पक्षी को राजा बनाना उचित नहीं है। वह स्वभाव से ही रौद्र है और कटुभाषी है। फिर अभी तो वैनतेय राजा बैठा है। एक राजा के रहते दूसरे को राज्यासन देना विनाशक है। पृथ्वी पर एक ही सूर्य होता है; वह अपनी आभा से सारे संसार की प्रकाशित कर देता है। एक से अधिक सूर्य होने पर प्रलय हो जाती है। प्रलय में बहुत-से सूर्य निकल आते हैं; उनसे संसार में विपत्ति ही आती है, कल्याण नहीं।
राजा एक ही होता है। उसके नाम-कीर्तन से ही काम बन जाते हैं, चन्द्रमा के नाम से ही खरगोशों ने हाथियों से छुटकारा पाया था।
पक्षियों ने पूछा- कैसे?
कौवे ने तब खरगोश और हाथी की यह कहानी सुनाई।
बड़े नाम की महिमा