1
सेठ नानकचन्द को आज फिर वही लिफाफा मिला और वही लिखावट सामने आयी तो उसका चेहरा पीला पड़ गया। लिफाफा खोलते हुए हाथ और हृदय काँपने लगे। खत में क्या है, यह उसे खूब मालूम था। इसी तरह के दो खत पहले पा चुके हैं। इस तीसरे खत में भी वहीं धमकियाँ हैं, इसमें उन्हें सन्देह न था। पत्र हाथ में लिए हुए आकाश की ओर ताकने लगे। वह दिल के मजबूत आदमी थे, धमकियों से डरना उन्होंने न सीखा था, मुर्दो से भी अपनी रकम वसूल कर लेते थे। दया या उपकार जैसी मानवीय दुर्बलताएँ उन्हें छू भी न गयी थी, नहीं तो महाजन कैसे बनते! उस पर धर्मनिष्ठ भी थे। हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनते थे। हर मंगल को महाबीर जी को लड्डू चढ़ाते थे, नित्य-प्रति जमुना में स्नान करते थे और हर एकादशी को व्रत रखते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे और इधर जबसे घी में करारा नफा होने लगा था, एक धर्मशाला बनवाने की फिक्र में थे। जमीन ठीक कर ली थी।
उनके असामियों में सैकड़ो ही थवई और बेलदार थे, जो केवल सूद में ही काम को तैयार थे। इन्तजार यही था कि कोई ईट और चूने वाला फँस जाय और दस-बीस हजार का दस्तावेज लिखा ले, तो सूद में ईट और चूना भी मिल जाय। इस धर्मनिष्ठा ने उनकी आत्मा को और भी शक्ति प्रदान कर दी थी। देवताओं के आशीर्वाद औऱ प्रताप से उन्हें कभी किसी सौदे मे घाटा नहीं हुआ और भीषण परिस्थितियों में भी वह स्थिरचित्त रहने के आदी थे; किन्तु जबसे यह धमकियों से भरे पत्र मिलने लगे थे, उन्हें बरबस तरह-तरह की शंकाएँ व्यथित करने लगी थी। कहीं सचमुच डाकूओं ने छापा मारा, तो कौन उनकी सहायता करेगा? दैवी बाधाओं मे तो देवताओं की सहायता पर वह तकिया कर सकते थे, पर सिर पर लटकती हुई इस तलवार के सामने वह श्रद्धा कुछ काम न देती थी। रात को उनके द्वार पर केवल एक चौकीदार रहता था।
अगर दस-बीस हथियारबन्द आदमी आ जायँ तो वह अकेला क्या कर सकता हैं? शायद उनकी आहट पाते ही भाग खड़ा हो। पड़ोसियों में ऐसा कोई नजर न आता था, जो इस संकट में काम आवे। यद्यपि सभी उसके असामी थे या रह चुके थे। लेकिन यह एहसान-फरामोशों का सम्प्रदाय हैं, जिस पतल में खाता हैं, उसी में छेद करता हैं; जिसके द्वार पर अवसर पड़ने पर माक रगडता हैं, उसी का दुश्मन हो जाता हैं। इनसे कोई आशा नहीं। हाँ, किवाड़े सुढृढ हैं; उन्हें तोड़ना आसान नही हैं, फिर अन्दर का दरवाजा भी तो हैं। सौ आदमी लग जायँ तो हिलाये न हिले। और किसी ओर से हमले का खटका नही । इतनी ऊँची सपाट दीवार पर कोई क्या खा के चढेगा? फिर उसके पास राइफलें भी तो हैं। एक राइफल से वह दर्जनों आदमियों को भूनकर रख देंगे। मगर इतने प्रतिबन्धो के होते हुए भी उनके मन में एक हूक-सी समायी रहती थी। कौन जाने चौकीदार भी उन्हीं में मिल गया हो, खिदमतगार भी आस्तीन के साँप हो गये हो! इसलिए वह अब बहुधा अन्दर ही रहते थे। और जब तक मिलने वालों का पता-ठिकाना न पूछ ले, उनसे मिलते न थे। फिर भी दो-चार घंटे तो चौपाल में बैठने ही पड़ते थे; नहीं तो सारा कारोबार मिट्टी में मिल जाता! जितनी देर बाहर रहते, उनके प्राण जैसे सूली पर टँगे रहते थे। उधर उनके मिजाज में बड़ी तब्दीली हो गयी थी। इतने विनम्र और मिष्टभाषी वह कभी न थे। गालियाँ तो क्या, किसी से तू -तकार भी न करते। सूद की दर भी कुछ घटा दी थी; लेकिन फिर भी चित्त को शान्ति न मिलती थी।
2
आखिर कई मिनट तक दिल को मजबूत करने के बाद उन्होंने पत्र खोला, और जैसे गोली लग गयी। सिर में चक्कर आ गया और सारी चीजें नाचती हुई मालूम हुई। साँस फूलने लगी, आँखें फैल गयी। लिखा था, तुमने हमारे दोनों पत्रों पर कुछ भी ध्यान न दिया। शायद तुम समझते होगे कि पुलिस तुम्हारी रक्षा करेंगी; लेकिन यह तुम्हारा भ्रम हैं। पुलिस उस वक़्त आयेंगी, जब हम अपना काम करके सौ कोस निकल गये होंगे। तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया हैं। इसमें हमारा कोई दोष नहीं हैं। हम तुमसे सिर्फ 25 हजार रुपये माँगते हैं। इतने रुपयें दे देना तुम्हारे लिये कुछ मुश्किल नहीं। हमें पता हैं कि तुम्हारे पास एक लाख मोहरें रखी हुई हैं; लेकिन विनाशकाले विपरीत बुद्धि; अब हम तुम्हें और ज्यादा न समझायेंगे। तुमको समझाने की चेष्टा करना ही व्यर्थ हैं; अब हम तुम्हें ज्यादा न समझायेंगे। आज शाम तक अगर रुपये न आ गये, तो रात को तुम्हारे ऊपर धावा होगा। अपनी हिफाजत के लिए जिसे बुलाना चाहो, बुला लो, जितने आदमी और हथियार जमा करना चाहो, जमा कर लो। हम ललकार कर आयेंगे और दिनदहाड़े आयेंगे। हम चोर नहीं हैं, हम वीर हैं और हमारा विश्वास बाहुबल में हैं। हम जानते हैं कि लक्ष्मी उसी के गले में जयमाल डालती हैं, जो धनुष तोड़ सकता हैं, मछली को वेध सकता हैं। यदि…
सेठजी ने तुरन्त बही-खाते बन्द कर दिये और रोकड़ सँभालकर तिजोरी में रख दिया और सामने का द्वार बन्द करके मरे हुए से केसर के पास आकर बोले-आज फिर वहीं खत आया, केसर! आज ही आ रहे हैं।
केसर दोहरे बदन की स्त्री थी, यौवन बीत जाने पर भी युवती, शौक-सिंगार में लिप्त रहने वाली, उस फलहीन वृक्ष की तरह जो पतझड़ में भी हरी-हरी पत्तियों से लदा रहता हैं। सन्तान की विफल कामना में जीवन का बड़ा भाग बिता चुकने के बाद, अब उसे संचित माया को भोगने की धुन सवार रहती थी। मालूम नही, कब आँखें बन्द हो जायँ, फिर यह थाती किसके हाथ लगेगी, कौन जाने? इसलिए उसे सबसे अधिक भय बीमारी का था, जिसे वह मौत का पैगाम समझती थी और नित्य ही कोई-न-कोई दवा खाती रहती थी। काया के इस वस्त्र को उस समय तक उतारना न चाहती थी, जब तक उसमें एक तार भी बाकी रहें। बाल-बच्चे होते तो वह मृत्यु का स्वागत करती, लेकिन अब तो उसके जीवन ही के साथ अन्त था, फिर क्यों न वह अधिक-से-अधिक समय तक जिये। हाँ, वह जीवन निरानन्द अवश्य था, उस मधुर ग्रास की भाँति, जिसे हम इसलिए खा जाते हैं कि रखे-रखे सड़ जायगा।
उसने घबराकर कहा- मैं तुमसे कब से कह रहीं हूँ कि दो-चार महीनों के लिए यहाँ से कहीं भाग चलो, लेकिन तुम सुनते ही नहीं। आखिर क्या करने पर तुले हुए हो?
3
सेठजी सशंक तो थे और यह स्वाभाविक थी- ऐसी दशा में कौन शान्त रह सकता था – लेकिन वह कायर नही थे। उन्हें अब भी विश्वास था कि अगर कोई संकट आ पड़े, तो वह पीछे कदम न हटायेंगे। जो कुछ कमजोरी आ गयी थी, वह संकट को सिर पर देखकर भाग गयी थी। हिरन भी तो भागने की राह न पाकर शिकारी पर चोट कर बैठता हूँ। कभी-कभी नहीं, अक्सर संकट पड़ने पर ही आदमी के जौहर खुलते हैं। इतनी देर में सेठजी ने एक तरह से भावी विपत्ति का सामना करने का पक्का इरादा कर लिया था। डर क्यों, जो कुछ होना हैं, वह होकर रहेगा। अपनी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य हैं, मरना-जीना विधि के हाथ में हैं। सेठानीजी को दिलासा देते हुए बोले- तुम नाहक इतना डरती हो केसर, आखिर वे सब भी तो आदमी हैं, अपनी जान का मोह नहीं उन्हें भी हैं, नहीं तो यह कुकर्म ही क्यों करते? मैं खिड़की की आड़ से दस-बीस आदमियों को गिरा सकता हूँ। पुलिस को इत्तला देने भी जा रहा हूँ। पुलिस का कर्त्तव्य हैं कि हमारी रक्षा करे। हम दस हजार सालाना टैक्स देते हैं, किसलिए? मैं अभी दरोगा जी के पास जाता हूँ। जब सरकार हमसे टैक्स लेती हैं, तो हमारी मदद करना उसका धर्म हो जाता हैं।
राजनीति का यह तत्व उसकी समझ में नहीं आया। वह तो किसी तरह उस भय से मुक्त होना चाहती थी, जो उसके दिल में साँप की भाँति बैठा फुफकार रहा था। पुलिस का उसे जो अनुभव था, उससे चित्त को सन्तोष न होता था। बोली- पुलिसवालों को बहुत देख चुकी । वारदात के समय तो उनकी सूरत नही दिखाई देती। जब वारदात हो चुकती हैं, तब अलबत्ता शान के साथ आकर रोब जमाने लगते हैं।
‘पुलिस तो सरकार का राज चला रही हैं। तुम क्या जानो? ’
‘मैं तो कहती हूँ, यों अगर कल वारदात होने वाली होगी, तो पुलिस को खबर देने से आज ही हो जायेगी। लूट के माल में इनका भी साझा होता हैं। ’
‘जानता हूँ देख चुका हूँ और रोज देखता हूँ; लेकिन मैं तो सरकार को दस हजार का सालाना टैक्स देता हूँ । पुलिसवालों का भी आदर-सत्कार भी करता रहता हूँ । अभी जाड़ों में सुपरिंटेंडेंट साहब आये थे, तो मैं पूरी रसद पहुँचायी थी। एक पूरा कनस्तर घी और एक शक्कर की पूरी बोरी भेज दी थी। यह सब खिलाना- पिलाना किस दिन काम आयेगा। हाँ, आदमी को सोलहों आने दूसरों के भरोसे न बैठना चाहिए; इसलिए मैंने सोचा हैं, तुम्हें भी बन्दूक चलाना सिखा हूँ? हम दोनो बन्दूकें छोड़ना शुरू करेंगे, तो डाकूओं की क्या मजाल हैं कि अन्दर कदम रख सकें? ’
प्रस्ताव हास्यजनक था। केसर ने मुस्कराकर कहा- हाँ और क्या, अब आज मैं बन्दूक चलाना सीखूँगी। तुमको जब देखों, हँसी सूझती हैं।
‘इसमें हँसी की क्या बात हैं? आजकल तो औरतों की फौजें बन रही हैं। सिपाहियों की तरह औरतें भी कवायद करती हैं, बन्दूक चलाती हैं, मैदानों में खेलती हैं। औरतों के घर में बैठने का जमाना अब नहीं हैं।’
‘विलायत की औरतें बन्दूक चलाती होगी, यहाँ की औरतें क्या चलायेंगी। हाँ, हाथ भर की जबान चाहे चला ले।’
‘यहाँ की औरतों ने बहादुरी के जो-जो काम किये हैं, उनसे इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। आज दुनिया उन वृतान्तों को पढ़कर चकित हो जाती हैं।’
‘पुराने जमाने की बातें छोड़ो। तब औरतें बहादुर रही होगी। आज कौन बहादुरी कर रहीं हैं?’
‘वाह! अभी हजारों औरतें घर-बार छोड़कर हँसते-हँसते जेल चली गयी। यह बहादुरी नहीं थीं? अभी पंजाब में हरनाद कुँवर ने अकेले चार सशक्त डाकूओं को गिरफ्तार किया और लाट साहब तक ने उसकी प्रशंसा की।’
‘क्या जाने वे कैसी औरते हैं। मैं तो डाकूओं को देखते ही चक्कर खाकर गिर पडूँगी।’
उसी वक़्त नौकर ने आकर कहा- सरकार, थाने से चार कानिस्टिबिल आये हैं। आपको बुला रहे हैं।
सेठजी ने प्रसन्न होकर कहा- ‘थानेदार भी हैं?’
‘नहीं सरकार, अकेले कानिस्टिबिल हैं।’
‘थानेदार क्यों नहीं आया?’ – यह कहते हुए सेठजी ने पान खाया औऱ बाहर निकले।
सेठजी को देखते ही चारों कानिस्टिबिल ने झुककर सलाम किया, बिल्कुल अंगरेजी कायदे से, मानो अपने किसी अफसर को सैल्यूट कर रहे हो। सेठजी ने उन्हें बेचो पर बैठाया और बोले- दरोगाजी का मिजाज तो अच्छा हैं? मैं तो उनके पास आनेवाला था।
4
चारों में जो सबसे प्रौढ़ था, जिसकी आस्तीन पर कई बिल्ले लगे हुए थे, बोला- आप क्यों तकलीफ करते हैं, वह तो खुद ही आ रहे थे; पर एक बड़ी जरूरी तहकीकात आ गयी, इससे रुक गये। कल आपसे मिलेंगे। जबसे यहाँ डाकूओं की खबरें आयी हैं, बेचारे बहुत घबरायें हुए हैं। आपकी तरफ हमेशा उनका ध्यान रहता हैं। कई बार कह चुके हैं कि मुझे सबसे ज्यादा फिकर सेठजी की हैं। गुमनाम खत तो आपके पास भी आये होगे?
सेठजी ने लापरवाही दिखाकर कहा- अजी, ऐसी चिट्ठियाँ आती ही रहती हैं, इनकी कौन परवाह करता हैं। मेरे पास तो तीन खत आ चुके हैं, मैने किसी से जिक्र भी नहीं किया।
कानिस्टिबिल हँसा- दरोगाजी को खबर मिली थी।
‘सच!’
‘हाँ, साहब? रत्ती-रत्ती खबर मिलती रहती हैं। यहाँ तक मालूम हुआ कि कल आपके मकान पर उनका धावा होनेवाला हैं। जभी तो आज दरोगाजी ने मुझे आपकी खिदमत में भेजा।’
‘मगर वहाँ कैसे खबर पहुँची? मैंने तो किसी से कहा ही नहीं।’
कानिस्टिबिल ने रहस्यमय भाव से कहा- हुजूर, यह न पूछे। इलाके के सबसे बड़े सेठ के पास ऐसे खत आयें और पुलिस को खबर न हो! भला, कोई बात हैं। ऊपर से बराबर ताकीद आती रहती हैं कि सेठजी को शिकायत का कोई मौका न दिया जाय। सुपरिंटेंडेंट साहब की खास ताकीद हैं आपके लिए। और हुजूर, सरकार भी तो आप ही के बूते पर चलती हैं। सेठ-साहुकारों के जान-माल की हिफाजत न करें, तो रहें कहाँ? हमारे होते मजाल हैं कि कोई आपकी तरफ तिरछी आँखों से देख सके; मगर कम्बख्त डाकू इतने दिलेर और तादाद में इतने ज्यादा हैं कि थाने के बाहर उनसे मुकाबला करना मुश्किल हैं। दरोगाजी गारद माँगने की बात सोच रहे थे; मगर ये हत्यारे कहीं एक जगह तो रहते नहीं, आज यहाँ हैं, तो कलम यहाँ से दो सौ कोस पर। गारद मँगाकर ही क्या किया जाय? इलाके की रिआया की तो हमें कुछ ज्यादा फिक्र नहीं, हुजूर मालिक हैं, आपसे क्या छिपाये, किसके पास रखा हैं इतना माल-असबाब! और अगर किसी के पास दो-चार सौ की पूँजी निकल ही आयी तो उसके लिए पुलिस डाकूओं के पीछे अपनी जान हथेली पर लिये न फिरेगी। उन्हें क्या, वह तो छूटते ही गोली चलाते हैं और अक्सर छिप कर। हमारे लिए तो हजार बन्दिशें हैं। कोई बात बिगड़ जाए तो उलटे अपनी ही जान आफत में फँस जाय। हमें तो ऐसे रास्ते पर चलना हैं कि साँप मरे और लाठी न टूटे, इसलिए दरोगाजी ने आपसे यह अर्ज किया हैं कि आपके पास जोखिम की जो चीजें हो, उन्हें लाकर सरकारी खजाने में जमा कर दीजिये। जब यह हंगामा ठंड़ा हो जाय तो मँगवा लीजिएगा। इससे आपको भी बेफ्रिकी हो जाएगी और हम भी जिम्मेदारी से बच जायँगे। नहीं खुदा न करे, कोई वारदात हो जाय, तो हुजूर को तो जो नुकसान हो वह तो हो ही हमारे ऊपर भी जवाबदेही आ जाय। और यह जालिम सिर्फ माल-असबाब लेकर ही तो जान नहीं छोड़ते- खून करते हैं, घर में आग लगा देते हैं, यहाँ तक कि औरतों की बेइज्जती भी करते हैं। हुजूर तो जानते हैं, होता है वही जो तकदीर में लिखा हैं। आप इकबालवाले आदमी हैं, डाकू आपका कुछ नही बिगाड़ सकते। सारा कस्बा आपके लिए जान देने को तैयार हैं। आपका पूजा-पाठ धर्म-कर्म खुदा खुद देख रहा हैं। यह उसकी बरकत हैं कि आप मिट्टी भी छू ले, तो सोना हो जाय; लेकिन आदमी भरसक अपनी हिफाजत करता हैं। हुजूर के पास मोटर हैं ही, जो कुछ रखना हो, उस पर रख दीजिए। हम चार आदमी आपके साथ हैं, कोई खटका नहीं। वहाँ एक मिनट में आपको फुरसत हो जायगी। पता चला हैं कि इस गोल में बीस जवान हैं। दो तो बैरागी बने हुए हैं, दो पंजाबियों के भेस में धुस्से और अलवान बेचते फिरते हैं। इन दोनों के साथ दो बहँगीवाले भी हैं। दो आदमी बलूचियों के भेस में छूरियाँ और ताले बेचते हैं। कहाँ तक गिनाऊँ, हुजूर! हमारे थाने में तो हर एक का हुलिया रखा हुआ हैं।
5
खतरे में आदमी का दिल कमजोर हो जाता हैं और वह ऐसी बातों पर विश्वास कर लेता हैं, जिन पर शायद होश-हवास में न करता। जब किसी दवा से रोगी को लाभ नहीं होता, तो हम दुआ, तावीज, ओझों और सयानों की शरण लेते हैं और वहाँ तो सन्देह का कोई कारण ही न था। सम्भव हैं, दरोगाजी का कुछ स्वार्थ हो, मगर सेठजी इसके लिए तैयार थे। अगर दो-चार सौ बल खाने पड़े, तो कोई बड़ी बात नहीं। ऐसे अवसर तो जीवन में आते ही रहते हैं और इस परिस्थिति में इससे अच्छा दूसरा क्या इन्तजाम हो सकता था; बल्कि इसे तो ईश्वरीय प्रेरणा समझना चाहिए माना, उनके पास दो-दो बन्दूकें हैं, कुछ लोग मदद करने के लिए निकल ही आयेंगे, लेकिन हैं जान जोखिम। उन्होंने निश्चय किया, दरोगाजी की इस कृपा से लाभ उठाना चाहिए। इन्हीं आदमियों के कुछ दे- दिलाकर सारी चीजें निकलवा लेंगे। दूसरो का क्या भरोसा? कहीं कोई चीज़ उड़ा दे तो बस?
उन्होंने इस भाव से कहा, मानो दरोगाजी ने उसपर कोई विशेष कृपा नही की हैं; वह तो उनका कर्त्तव्य ही था- मैने यहाँ ऐसा प्रबन्ध किया था कि यहाँ वह सब आते तो उनके दाँत खट्टे कर दिये जाते। सारा कस्बा मदद के लिए तैयार था। सभी से तो अपना मित्र-भाव हैं, लेकिन दरोगाजी की तजबीज मुझे पसन्द हैं। इसमें वह भी अपनी जिम्मेदारी से बरी हो जाते हैं और मेरे सिर से भी फिक्र का बोझ उतर जाता हैं, लेकिन भीतर से चीजें निकाल-निकालकर लाना मेरे बूते की बात नहीं। आप लोगों की दुआ से नौकर-चाकरों की कमी नहीं हैं, मगर किसकी नीयत कैसी हैं, कौन जान सकता हैं? आप लोग कुछ मदद करें तो काम आसान हो जाय।
हेड कानिस्टिबिल ने बड़ी खुशी से यह सेवा स्वीकार कर ली और बोला- हम सब हुजूर के ताबेदार हैं, इसमें मदद की कौन-सी बात हैं? तलब सरकार से पाते हैं, यह ठीक हैं; मगर देनेवाले तो आप ही हैं। आप केवल सामान हमें दिखाये जायँ, हम बात-की-बात में सारी चीजें निकाल लायेंगे। हुजूर की खिदमत करेंगे तो कुछ इनाम-इकराम मिलेगा ही। तनख्वाह में गुजर नहीं होती सेठजी, आप लोगों की रहम की निगाह न हो, तो एक दिन भी निर्बाह न हो। बाल-बच्चे भूखों मर जायँ। पन्द्रह-बीस रुपये में क्या होता हैं हुजूर, इतना तो हमारे लिए ही पूरा नही पड़ता।
सेठजी ने अन्दर जाकर केसर से यह समाचार कहा तो उसे जैसे आँखें मिल गयीं। बोली- भगवान् ने सहायता की, नहीं मेरे प्राण संकट में पड़े हुए थे। सेठजी ने सर्वज्ञता के भाव से फरमाया- इसी को कहते हैं सरकार का इंतजाम। इसी मूस्तैदी के बल पर सरकार का राज थमा हुआ हैं। कैसी सुव्यवस्था हैं कि जरा- सी कोई बात हो, वहाँ तक खबर पहुँच जाती हैं और तुरन्त उसके रोकथाम का हुक्म हो जाता हैं। और यहाँ ऐसे बुद्ध हैं कि स्वराज्य-स्वराज्य चिल्ला रहे हैं। इनके हाथ में अख्तियार आ जाए तो दिन-दोपहर लूट मच जाय, कोई किसी की न सुने। ऊपर से ताकीद आयी हैं। हाकिमों का आदर-सत्कार कभी निष्फल नहीं जाता। मैं तो सोचता हूँ, कोई बहुमूल्य वस्तु घर में न छोडूँ। साले आये तो अपना-सा मुँह लेकर रह जायँ.
केसर ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा- कुंजी उनके सामने फैंक देना कि जो चीज चाहो निकाल ले जाओ।
‘साले झेंप जायेंगे। ’
‘मुँह में कालिख लग जाएगी। ’
‘धमंड तो देखो कि तिथि तक बता दी। यह नहीं समझे कि अंग्रेजी सरकार का राज हैं। तुम डाल-डाल चलो, हम पात-पात चलते हैं। ’
‘समझे होंगे कि धमकी में आ जायेंगे। ’
तीनों कांस्टेबिलों ने आकर सन्दूकचे और सेफ निकालने शुरू किये। एक बाहर सामान को मोटर पर लाद रहा था और हरेक चीज को नोटबुक पर टाँकता जाता था। आभूषण, मुहरें, नोट, रुपये, कीमती कपड़े, साडियाँ; लहँगे, शाल-दुशाले, सब कार में रख दिये। मामूली बरतन, लोहे-लकड़ी के सामान, फर्श आदि के सिवा घर में और कुछ न बचा। और डाकूओं के लिए ये चीज कौड़ी की भी नहीं। केसर का सिंगारदान खुद सेठजी लाये और हेड के हाथ में देकर बोले- इसे बड़ी हिफाजत से रखना, भाई।
हेड ने सिंगारदान लेकर कहा- मेरे लिए एक-एक तिनका इतना ही कीमती हैं।
सेठजी के मन में सन्देह उठा। पूछा- खजाने कीं कुंजी तो मेरे ही पास रहेगी?
‘और क्या, यह तो मैं पहले ही अर्ज कर चुका; मगर यह सवाल आपके दिल से क्यों पैदा हुआ? ’
‘योंही, पूछा था ’ – सेठजी लज्जित हो गये।
‘नहीं, अगर आपके दिल में कुछ शुबहा हो, तो हम लोग यहाँ भी आपकी खिदमत के लिए हाजिर हैं। हाँ, हम जिम्मेदार न होंगे। ’
‘अजी, नहीं हेड साहब, मैंने योंही पूछ लिया था। यह फिहरिस्त तो मुझे दे दोगे न? ’
‘फिहरिस्त आपको थाने में दारोगाजी के दस्तखत से मिलेगी। इसका क्या एतबार? ’
6
कार पर सारा सामान रख दिया गया। कस्बे के सैकड़ो आदमी तमाशा देख रहे थे। कार बड़ी थी, पर ठसाठस भरी हुई थी। बड़ी मुश्किल से सेठजी के लिए जगह निकली। चारों कांस्टेबिल आगे की सीट पर सिमटकर बैठे।
कार चली। केसर द्वार पर इस तरह खड़ी थी, मानो उसकी बेटी बिदा हो रही हो। बेटी ससुराल जी रही हैं, जहाँ वह मालकिन बनेगी; लेकिन उसका घर सूना किये जा रही हो।
थाना यहाँ से पाँच मील पर था। कस्बे से बाहर निकलते ही पहाड़ो का पथरीला सन्नाटा था, जिसके दामन में हरा-भरा मैदान था और इसी मैदान के बीच में लाल मोरम की सड़के चक्कर खाती हुई लाल साँप-जैसी निकल गयी थी।
हेड ने सेठ से पूछा- यह कहाँ तक सही हैं सेठजी, कि आज से पचीस साल पहले आपके बाप केवल लोटा-डोर लेकर यहाँ खाली हाथ आये थे?
सेठजी ने गर्व करते हुए कहा- ‘बिल्कुल सही हैं। मेरे पास कुल तीन रुपये थे। उसी से आटे-दाल की दूकान खोली थी। तकदीर का खेल हैं, भगवान् की दवा चाहिए, आदमी के बनते-बिगड़ते देर नही लगती। लेकिन मैने कभी पैसे को दाँतों से नहीं पकड़ा। यथाशक्ति धर्म का पालन करता गया। धन की शोभा धर्म ही से हैं, नहीं तो धन से कोई फायदा नही।’
‘आप बिल्कुल ठीक कहते हैं सेठजी। आपकी मूरत बनाकर पूजना चाहिए। तीन रुपये से लाख कमा लेना मामूली काम नहीं हैं! ’
‘आधी रात तक सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती, खाँ साहब!’
‘जंजाल तो हैं ही, मगर भगवान् की ऐसी माया हैं कि आदमी सब कुछ समझकर भी इसमें फँस जाता हैं और सारी उम्र फँसा रहता हैं। मौत आ जाती हैं, तभी छुट्टी मिलती हैं बस, यही अभिलाषा हैं कि कुछ यादगार छोड़ जाऊँ। ’
‘आपके कोई औलाद हुई ही नहीं? ’
‘भाग्य में न थी खाँ साहब, और क्या कहूँ ! जिनके घर में भूनी भाँग नहीं हैं, उनके यहाँ घास-फूस की तरह बच्चे-ही-बच्चे देख लो, जिन्हें भगवान् ने खाने को दिया हैं, वे सन्तान का मुँह देखने को तरसते हैं। ’
‘आप बिल्कुल ठीक कहते हैं, सेठजी! जिन्दगी का मजा सन्तान से हैं। जिसके आगे अन्धेरा हैं, उसके लिए धन-दौलत किस काम का? ’
‘ईश्वर की यही इच्छा हैं तो आदमी क्या करे। मेरा बस चलता, तो मायाजाल से निकल भागता खाँ साहब, एक क्षण-भर यहाँ न रहता, कहीं तीर्थस्थान में बैठकर भगवान् का भजन करता। मगर क्या करूँ? मायाजाल तोड़े नहीं टूटता। ’
‘एक बार दिल मजबूत करके तोड़ क्यों नहीं देते? सब उठाकर गरीबो को बाँट दीजिए। साधु-सन्तों को नही, न मोट ब्राह्मणों को बल्कि उनको, जिनके लिए यह जिन्दगी बोझ हो रही हैं, जिसकी यही आरजू हैं कि मौत आकर उनकी विपत्ति का अन्त कर दे। ’
‘इस मायाजाल को तोड़ना आदमी का काम नहीं हैं खाँ साहब! भगवान् की इच्छा होती हैं, तभी मन में वैराग्य आता हैं। ’
‘आज भगवान् ने आपके ऊपर दया की हैं। हम इस मायाजाल को मकड़ी के जाले की तरह तोड़कर आपको आजाद करने के लिए भेजे गये हैं। भगवान् आपकी भक्ति से प्रसन्न हो गये हैं और आपको इस बन्धन में नही रखना चाहते, जीवन-मुक्त कर देना चाहते हैं।’
‘ऐसी भगवान् की दया हो जाती, तो क्या पूछना खाँ साहब!’
‘भगवान् की ऐसी ही दया है सेठजी, विश्वास मानिए। हमे इसीलिए उन्होंने मृत्युलोक में तैनात किया हैं। हम कितने मायाजाल के कैदियों की बेड़ियाँ काट चुके हैं। आज आपकी बारी हैं।’
सेठजी की नाडियों में जैसे रक्त का प्रवाह बन्द हो गया। सहमी हुई आँखों से सिपाहियों को देखा। फिर बोले – आप बड़े हँसोड़ हो, खाँ साहब?
‘हमारे जीवन का सिद्धान्त हैं कि किसी को कष्ट मत दो; लेकिन ये रुपये वाले कुछ ऐसी औंधी खोंपड़ी के लोग हैं जो उनका उद्धार करने आता हैं, उसी के दुश्मन हो जाते हैं। हम आपकी बेड़ियाँ काटने काटने आये हैं; लेकिन अगर आपसे कहें कि यह सब जमा-जथा और लता-पता छोड़कर घर की राह लीजिए, तो आप चीखना-चिल्लाना शुरू कर देंगे। हम लोग वही खुदाई फौजदार हैं, जिनके इत्तलाई खत आपके पास पहुँच चुके हैं।’
सेठजी मानो आकाश से पाताल में गिर पड़े। सारी ज्ञानेन्द्रियों ने जवाब दे दिया और इसी मूर्च्छा की दशा में वह मोटरकार से नीचे ढकेल दिये गये और गाड़ी चल पड़ी।
सेठजी की चेष्टा जाग पड़ी। बदहवास गाड़ी के पीछे दौड़े- हुजूर, सरकार, तबाह हो जायँगे, दया कीजिए, घर में एक कौड़ी भी नहीं हैं…
हेड साहब ने खिड़की से बाहर हाथ निकला और तीन रुपये जमीन पर फेंक दिये। मोटर की चाल तेज हो गयी।
सेठजी सिर पकड़कर बैठ गये और विक्षिप्त नेत्रों से मोटरकार को देखा, जैसे कोई शव स्वर्गारोही प्राण को देखे। उनके जीवन का स्वप्न उड़ा चला जा रहा था।