1. अनाधिकार चेष्टा (बंदर और लकड़ी के खूंटे की कथा)
दूसरे के काम में हस्तक्षेप करना मूर्खता है।
"एक गांव के पास जंगल की सीमा पर मंदिर बन रहा था। वहां के कारीगर दोपहर के समय भोजन के लिए गांव में आ जाते थे।
एक दिन जब वह गांव में आए तो बंदरों का एक दल इधर-उधर घूमता हुआ वहीं आ गया, जहां कारीगरों का काम चल रहा था। कारीगर उस समय वहां नहीं थे। बंदरों ने इधर-उधर उछलना और खेलना शुरू कर दिया।
वही एक कारीगर शहतीर को आधा चीरने के बाद उसमें कील फंसाकर गया था। एक बंदर को यह कौतूहल हुआ कि यह कील यहां क्यों फंसी है? तब आधे चीरे हुए शहतीर पर बैठकर वह अपने दोनों हाथों से कील को बाहर खींचने लगा। कील बहुत मजबूती से वहां गड़ी थी, इसलिए बाहर नहीं निकली।लेकिन बंदर भी हठी था। वह पूरे बल से कील निकालने में जूझ गया।
अंत में भारी झटके के साथ वह कील निकल आई , किंतु उसके निकलते ही बंदर का पिछला भाग शहतीर के चीरे हुए दोनों भागों के बीच में आकर चिपक गया। बंदर वही तड़प तड़प कर मर गया।"
यह कहानी सुनाने के बाद करटक दमनक से कहता है -
इसलिए मैं कहता हूं कि हमें दूसरों के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हमें शेर के भोजन का अवशेष तो मिल ही जाता है, अन्य बातों की चिंता क्यों करें?
दमनक ने कहा - करकट! तुझे तो बस अपने अवशिष्ट आहार की ही चिंता रहती है। स्वामी के हित की तो तुझे परवाह ही नहीं।
करकट- हमारी चिंता से क्या होता है? हमारी गिनती उसके प्रधान सहायकों में तो है ही नहीं। बिना पूछे सम्मति देना मूर्खता है। इससे अपमान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता।
दमनक - प्रधान अप्रधान की बात रहने दो। जो भी स्वामी की अच्छी सेवा करेगा, वह प्रधान बन जाएगा। जो सेवा नहीं करेगा वह प्रधान पद से भी गिर जाएगा। राजा, स्त्री और लता का यही नियम है कि वह पास रहने वाले को ही अपनाते हैं।
करटक - तब क्या किया जाए? अपना अभिप्राय स्पष्ट स्पष्ट कह दो।
दमनक - आज हमारे स्वामी बहुत भयभीत हैं। उनके भय का कारण जानकर संधि, विग्रह, आसन, संश्रय द्वैधीभाव आदि उपायों से हम भय निवारण की सलाह देंगे।
करटक - तुझे कैसे मालूम कि स्वामी भयभीत हैं ?
दमनक- यह जानना कोई कठिन काम नहीं है। मन के भाव छिपे नहीं रहते। चेहरे से, इशारों से, चेष्टा से, भाषण शैली से, आंखों की भ्रूभंगी से वे सबके सामने आ जाते हैं। आज हमारे स्वामी भयभीत हैं उनके भय को दूर करके हम उन्हें अपने वश में कर सकते हैं। तब वह हमें अपना प्रधान सचिव बना लेंगे।
करटक - तू राज सेवा के नियमों से अनभिज्ञ है। स्वामी को वश में कैसे करेगा?
दमनक - मैंने तो बचपन में अपने पिता के संग खेलते खेलते राज सेवा का पाठ पढ़ लिया था। राज सेवा स्वयं एक कला है। मैं उस कला में प्रवीण हूं। यह कहकर दमनक ने राज सेवा के नियमों का निर्देश किया। राजा को संतुष्ट करने और उसकी दृष्टि में सम्मान पाने के अनेक उपाय भी बताए। करटक दमनक की चतुराई देखकर दंग रह गया। उसने भी उसकी बात मान ली और दोनों शेर की राज सभा की ओर चल दिए।
दमनक को आता देखकर पिंगलक द्वारपाल से बोला - हमारे भूतपूर्व मंत्री का पुत्र दमनक आ रहा है उसे हमारे पास बेरोक आने दो। दमनक राज सभा में आकर पिंगलक को प्रणाम करके निर्दिष्ट स्थान पर बैठ गया। पिंगलक ने अपना दाहिना हाथ उठाकर दमनक से कुशल क्षेम पूछते हुए कहा कहो दमनक सब कुशल तो है? बहुत दिनों बाद आए। क्या कोई विशेष प्रयोजन है?
दमनक विशेष प्रयोजन तो कोई भी नहीं, फिर भी सेवक को स्वामी के हित की बात कहने के लिए स्वयं आना चाहिए। राजा के पास उत्तम, मध्यम, अधम सभी प्रकार के सेवक हैं। राजा के लिए सभी का प्रयोजन है। समय पर तिनके का सहारा लेना पड़ता है। सेवक की तो बात ही क्या है?
आपने बहुत दिनों बाद आने का उपालंभ दिया है। उसका भी कारण है। जहां कांच की जगह मणि और मणि के स्थान पर कांच जड़ा जाए, वहां अच्छे सेवक नहीं ठहरते। जहां पारखी नहीं, वहां रत्नों का मूल्य नहीं लगता। स्वामी और सेवक परस्पर आश्रयी होते हैं। उन्हें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए। राजा तो संतुष्ट होकर सेवक को केवल सम्मान देते हैं, किंतु सेवक संतुष्ट होकर राजा के लिए प्राणों की बलि दे देते हैं।
पिंगलक दमनक की बातों से प्रसन्न होकर बोला - तू तो हमारे भूतपूर्व मंत्री का बेटा है। इसलिए तुझे जो कहना है, निश्चिंत होकर कह दे।
दमनक - मैं स्वामी से कुछ एकांत में कहना चाहता हूं। चार कानों में ही भेद की बात सुरक्षित रह सकती है। छह कानों में कोई भेद गुप्त नहीं रह सकता।
तब पिंगलक के इशारे से बाघ, रीछ, चीते आदि सब जानवरों को सभा से बाहर भेज दिया। सभा में एकांत होने के बाद दमनक ने शेर के कानों के पास जाकर प्रश्न किया:
दमनक -स्वामी जब आप पानी पीने गए थे, तब पानी पिए बिना क्यों लौट आए थे? इसका कारण क्या था?
पिंगलक ने जरा सुखी हंसी हंसते हुए उत्तर दिया - कुछ भी नहीं।
दमनक - देव! यदि वह बात कहने योग्य नहीं है, तो मत कहिए। सभी बातें कहने योग्य नहीं होती। कुछ बातें अपने स्त्री से भी छिपाने योग्य होती हैं। कुछ पुत्रों से भी छिपा ली जाती हैं। बहुत अनुरोध पर भी यह बात नहीं कही जाती।
पिंगलक ने सोचा, यह दमनक बुद्धिमान दिखता है; क्यों ना इससे अपने मन की बात कह दी जाए? यह सोच वह कहने लगा :
पिंगलक - दमनक! दूर से जो यह हूंकार की आवाज आ रही है, उसे तुम सुनते हो?
दमनक - सुनता हूं स्वामी! उससे क्या हुआ स्वामी?
पिंगलक - दमनक! मैं ईस वन से चले जाने की बात सोच रहा हूं।
दमनक - किसलिए भगवन!
पिंगलक - इसलिए कि इस वन में कोई दूसरा बलशाली जानवर आ गया है। उसी का यह भयंकर घोर गर्जन है। अपनी आवाज की तरह वह स्वयं भी इतना ही भयंकर होगा। उसका पराक्रम भी इतना ही भयानक होगा।
दमनक - स्वामी! ऊंचे शब्द मात्र से भय करना युक्ति युक्त नहीं है। ऊँचे शब्द तो अनेक प्रकार के होते हैं। भेरी, मृदंग, पटह, शंख, काहल आदि अनेक वाद्य हैं, जिनकी आवाज बहुत ऊंची होती है। उनसे कौन डरता है? यह जंगल आपके पूर्वजों के समय का है। वह यही राज्य करते रहे हैं। इसे इस तरह छोड़कर जाना ठीक नहीं। ढोल भी कितनी जोर से बजता है। गोमायु को उसके अंदर जाकर ही पता लगा कि वह अंदर से खाली था।
पिंगलक ने कहा - गोमायु की कहानी कैसी है?
दमनक ने तब कहा - ध्यान देकर सुनिए:
2. ढोल की पोल (गोमयु गीदड़ की कथा )
To be continued ...
लजवाव
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कथा।
ReplyDeleteलाजवाब अति उत्तम मोहतरमा🙏🙏
ReplyDeleteNice story
ReplyDeleteNice story
ReplyDeleteअनाधिकार चेष्टा नहीं करनी चाहिए।बिना मांगे सलाह नहीं देनी चाहिए।
ReplyDeleteNice story
ReplyDeleteअच्छी कहानी 👌👌
ReplyDeleteआगे पढ़ने के इंतजार में...
Nice story
ReplyDeleteअच्छी सीख देती कहानी
ReplyDeleteNice story
ReplyDeleteशिक्षाप्रद कहानी 👏👏
ReplyDelete