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मित्र द्रोह का फल : पंचतंत्र

मित्र द्रोह का फल

किं करोत्येव पाण्डित्यमस्थाने विनियोजितम् 

अयोग्य को मिले ज्ञान का फल विपरीत ही होता है। 

मित्र द्रोह का फल : पंचतंत्र

किसी स्थान पर धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे। एक दिन पापबुद्धि ने सोचा कि धर्मबुद्धि की सहायता से विदेश में जाकर धन पैदा किया जाए दोनों ने देश-देशान्तरों मैं घूमकर प्रचुर धन पैदा किया। जब वे वापस आ रहे थे, तो गांव के पास आकर पापबुद्धि ने सलाह दी की इतने धन के बंधु -बान्धवों के बीच नहीं ले जाना चाहिए। इसे देखकर ईर्ष्या होगी, लोभ होगा। किसी ने किसी बहाने वे बांटकर खाने का यत्न करेंगे। इसीलिए इस धन का ब‌ड़ा भाग ज़मीन में गाड़ देते हैं। जब जरूरत होगी लेते रहेंगे।

मित्र द्रोह का फल : पंचतंत्र

धर्मबुद्धि यह बात मान गया। ज़मीन में गड्ढा खोदकर दोनों ने अपना संचित धन वहां रख दिया और गांव में चले आए।

कुछ दिन बाद पापबुद्धि आधी रात को उसी स्थान पर जाकर सारा धन खोद लाया और ऊपर से मिट्टी डालकर गड्ढा भरकर चला आया।

दूसरे दिन वह धर्मबुद्धि के पास गया और बोला-मित्र! मेरा परिवार बड़ा है। मुझे फिर कुछ धन की ज़रूरत पड़ गई है। चलो, चलकर थोड़ा-थोड़ा और ले आएं।

धर्मबुद्धि मान गया। दोनों ने आकर जब ज़मीन खुदी और वह बर्तन निकाला जिसमें धन रखा था, तो देखा कि वह खाली है। पापबुद्धि सिर पीटकर रोने लगा-मैं लुट गया, धर्मबुद्धि ने मेरा धन चुरा लिया। मैं मर गाया, लुट गया।

दोनों अदालत में धर्माधिकारी के सामने पेश हुए। पाप बुद्धि ने कहा मैं गड्ढे के पास वाले वृक्ष के साक्षी मानने को तैयार‌ हूं। वे जिसे चोर कहेंगे, वह चोर माना जाएगा।

अदालत ने यह बात मान ली और निश्चय किया कि कल वृक्षों की साक्षी ली जाएगी और साक्षी पर ही निर्णय सुनाया जाएगा।

रात को पापबुद्धि ने अपने पिता से कहा-तुम अभी गड्ढे के पास वाले वृक्ष की खोखली जड़ में बैठ जाओ। जब धर्माधिकारी पूछे तो कह देना कि चोर धर्मबुद्धि है।

उसके पिता ने यह किया; वह सवेरे ही वहां जाकर बैठ गया धर्माधिकारी ने जब ऊंचे‌ स्वर।में पुकारा-हे वनदेवता! तुम्हीं साक्षी हो कि इन दोनों में चोर कौन है?

धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्रों की कहानी

तब वृक्ष की में बैठे हुए पापबुद्धि के पिता ने कहा:- धर्मबुद्धि चोर है, उसने ही धन चुराया है।

धर्माधिकारी तथा राजपुरुषों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे अभी अपने धर्मग्रन्थों को देखकर निर्णय देने की तैयारी ही कर रहे थे कि धर्मबुद्धि ने उस वृक्ष को आग लगा दी, जहां से वह आवाज़ आई थी।

थोड़ी देर में पापबुद्धि का पिता आग से झुलसा हुआ उस वृक्ष की जड़ में से निकला। उसने वनदेवता की साक्षी का सच्चा भेद प्रकट कर दिया।

तब राजपुरुष ने पापबुद्धि को उसी वृक्ष की शाखाओं पर लटकाते हुए कहा कि मनुष्य का यह धर्म है कि वह उपाय की चिन्ता के साथ अपाय की भी चिन्ता करे। अन्यथा उसकी वही दशा होती है जो उन बगुलों की हुई थी। जिन्हे नेवले ने मार दिया था।

धर्मबुद्धि ने पूछा-कैसे? राजपुरुषों ने कहा-सुनो:

करने से पहले सोंचो 

                                                                                                                                        To be continued ...

13 comments:

  1. Chor ki chori jyada der tak nahi chhup sakti..

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  2. बहुत ज्ञान वर्धक है कहानी धन्यवाद जी।। शुभ संध्या

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  3. बुरे कर्म का फल अवश्य मिलता है,इसमें साथ देने वाले को भी वही फल भोगना पड़ता है।

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  4. Very nice 👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻

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  5. वाह ऐसा. बस कहानियों में ही हो सकता है ।

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