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मार्ग का साथी : पंचतंत्र || Marg ka Sathi : Panchtantra ||

मार्ग का साथी

नैकाकिना गन्तव्यम् ।

अकेले यात्रा मत करो।

मार्ग का साथी : पंचतंत्र || Marg ka Sathi : Panchtantra ||

एक दिन ब्रह्मदत्त नाम का एक ब्राह्मण अपने गाँव से प्रस्थान करने लगा। उसकी माता ने कहा-पुत्र ! कोई न कोई साथी रास्ते के लिए खोज तो अकेले यात्रा नहीं करनी चाहिए। ब्रह्मदत्त ने उत्तर दिया- डरो मत माँ इस मार्ग में कोई उपद्रव नहीं है। मुझे जल्दी जाना है, इतने में साथी नहीं मिलेगा। मेरे पास साथी खोजने का समय नहीं है। माँ ने कुछ और उपाय न देख पड़ोस से एक कर्कट ले लिया और अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को कहा कि यदि तुझे जाना ही है तो इस कर्कट को भी साथ लेता जा यह तुझे बहुत सहायता देगा।

ब्राह्मण-कर्कटक कथा : पंचतंत्र | Brahman aur Kekda : Panchtantra

ब्रह्मदत्त ने माता का कहना मान कर्कट को ही साथी बना लिया। उसे कपूर की डिबिया में रखकर यात्रा के लिए चल दिया।

थोड़ी दूर जाकर वह थक गया और गर्मी बहुत सताने लगी तो उसने मार्ग के एक वृक्ष की छाया में विश्राम लिया। थका हुआ तो था ही, नींद आ गई। उसी वृक्ष के बिल में एक साँप रहता था। जब वह ब्रह्मदत्त के पास आया तो उसे कपूर की गन्ध आ गई। कपूर की गन्ध साँप को प्रिय होती है। साँप ने ब्रह्मदत्त के कपड़ों में से कपूर की डिबिया खोल ली, लेकिन जब उसे खाने लगा, कर्कट ने साँप को मार दिया।

ब्रह्मदत्त जब जागा तो देखा कि पास ही काला साँप मरा पड़ा है। उसके पास कपूर की डिबिया भी पड़ी थी वह समझ गया कि यह काम कर्कट का ही है। प्रसन्न होकर वह सोचने लगा माँ सोच सकती थी कि पुरुष को यात्रा में कभी एकाकी नहीं जाना चाहिए। मैंने श्रद्धापूर्वक माँ का वचन पूरा किया, इसलिए काला साँप मुझे काट नहीं सका; अन्यथा मैं मर जाता।

इस कहानी के बाद स्वर्ण-सिद्धि अपने मित्र चक्रधर को वहीं छोड़कर अपने घर वापस आ गया।

इसके साथ ही पंचतंत्र की कहानियाँ ख़त्म होती हैं। 

मिलकर काम करो : पंचतंत्र || Milkar Kaam Karo : Panchtantra ||

मिलकर काम करो

असंहता विनश्यन्ति

परस्पर मिल-जुलकर काम न करने वाले नष्ट हो जाते हैं।

 मिलकर काम करो : पंचतंत्र || Milkar Kaam Karo : Panchtantra ||

एक तालाब में भारण्ड नाम का एक विचित्र पक्षी रहता था। इसके मुख दो थे, किन्तु पेट एक ही था। एक दिन समुद्र के किनारे घूमते हुए उसे एक अमृत समान मधुर फल मिला। यह फल समुद्र की लहरों ने किनारे पर फेंक दिया गया था। उसे खाते हुए एक मुख बोला-ओह, कितना मीठा है, यह फल! आज तक मैंने अनेक फल खाए, लेकिन इतना स्वादु कोई नहीं था। न जाने किस अमृत बेल का यह फल है।

पंचतंत्र - दो सिर वाला पक्षी (The Bird with Two Heads : Panchtantra)

दूसरा मुख उससे वंचित रह गया था। उसने भी जब उसकी महिमा सुनी तो पहले मुख से कहा-मुझे भी थोड़ा-सा चखने को दे दे। पहला मुख हँसकर बोला- तुझे क्या करना है? हमारा पेट तो एक ही है, उसमें वह चला ही गया है। तृप्ति तो हो ही गई है।

यह कहने के बाद उसने शेष फल अपनी प्रिया को दे दिया। उसे खाकर उसकी प्रेयसी बहुत प्रसन्न हुई। दूसरा मुख उसी दिन विरक्त हो गया और इस तिरस्कार का बदला लेने के उपाय सोचने लगा। अन्त में, एक दिन उसे उपाय सूझ गया। वह कहीं से एक विषफल ले आया। प्रथम मुख को दिखाते हुए उसने कहा- देख! यह विषफल मुझे मिला है। मैं इसे खाने लगा हूँ। प्रथम मुख ने रोकते हुए आग्रह किया मूर्ख! ऐसा मत कर, इसके खाने से हम दोनों मर जाएँगे। द्वितीय मुख ने प्रथम मुख के निषेध करते-करते, अपने अपमान का बदला लेने के लिए विषफल खा लिया। परिणाम यह हुआ कि दोनों मुखोंवाला पक्षी मर गया।

चक्रधर इस कहानी का अभिप्राय समझकर स्वर्ण-सिद्धि से बोला- अच्छी बात है। मेरे पापों का फल तुझे नहीं भोगना चाहिए, तू अपने घर लौट जा। किन्तु, अकेले मत जाना। संसार में कुछ काम ऐसे हैं, जो एकाकी नहीं करने चाहिए। अकेले स्वादु भोजन नहीं खाना चाहिए, सोनेवालों के बीच अकेले जागना ठीक नहीं, मार्ग पर अकेले चलना संकटापन्न है; जटिल विषयों पर अकेले सोचना नहीं चाहिए। मार्ग में कोई सहायक हो तो वह जीवन रक्षा कर सकता है; जैसे कर्कट ने साँप को मारकर ब्राह्मण की प्राण-रक्षा की थी। स्वर्ण-सिद्धि ने कहा- कैसे?

चक्रधर ने यह कहानी कही-

मार्ग का साथी

To be Continued...

जिज्ञासु बनो : पंचतंत्र || Zigyasu Bano : Panchtantra ||

जिज्ञासु बनो

पृच्छकेन सदा भाव्यं पुरुषेण विजानता।

मनुष्य को सदा प्रश्नशील, जिज्ञासु रहना चाहिए।

 जिज्ञासु बनो : पंचतंत्र || Zigyasu Bano : Panchtantra ||

एक जंगल में चंडकर्मा नाम का राक्षस रहता था। जंगल में घूमते-घूमते उसके साथ एक दिन एक ब्राह्मण आ गया। वह राक्षस ब्राह्मण के कन्धे पर बैठ गया। ब्राह्मण के प्रश्न पर वह बोला- ब्राह्मण मैंने व्रत लिया है। गीले पैरों से मैं जमीन को नहीं छू सकता। इसलिए तेरे कन्धों पर बैठा हूँ।

थोड़ी दूर पर जलाशय था। जलाशय में स्नान के लिए जाते हुए राक्षस ने ब्राह्मण को सावधान कर दिया कि जब तक मैं स्नान करता हूँ, तू यहीं बैठकर मेरी प्रतीक्षा कर राक्षस की इच्छा थी कि वह स्नान के बाद ब्राह्मण का वध करके उसे खा जाएगा। ब्राह्मण को भी इसका सन्देह हो गया था। अतः ब्राह्मण अवसर पाकर वहाँ से भाग निकला। उसे मालूम हो चुका था कि राक्षस गीले पैरों से ज़मीन नहीं छू सकता, इसलिए वह उसका पीछा नहीं कर सकेगा।

चतुर ब्राम्हण और राक्षस की कहानी : पंचतन्त्र | Chatur Bramhan Aur Rakshas Ki Kahanai : Panchtantra

ब्राह्मण यदि राक्षस से प्रश्न न करता तो उसे यह भेद कभी मालूम न होता। अतः मनुष्य को प्रश्न करने से कभी चुकना नहीं चाहिए। प्रश्न करने की आदत अनेक बार उसकी जीवन रक्षा कर देती है।

स्वर्ण-सिद्धि ने कहानी सुनकर कहा-यह तो ठीक ही है। दैव अनुकूल हो तो सब काम स्वयं सिद्ध हो जाते है। फिर भी पुरुष को श्रेष्ठ मित्रों के वचनों का पालन करना ही चाहिए। स्वेच्छाचार बुरा है। मित्रों की सलाह से मिल-जुलकर और एक-दूसरे का भला चाहते हुए ही सब काम करने चाहिए। जो लोग एक-दूसरे का भला नहीं चाहते और स्वेच्छया सब काम करते हैं, उनकी दुर्गति वैसी हो होती है। जैसी स्वेच्छाचारी भारण्ड पक्षी की हुई थी।

चक्रधर ने पूछा- वह कैसे?

स्वर्ण-सिद्धि ने तब यह कथा सुनाई

मिलकर काम करो

To be Continued...

भय का भूत : पंचतंत्र || Bhay ka Bhut : Panchtantra ||

भय का भूत

यः परैति स जीवति।

भय का भूत : पंचतंत्र || Bhay ka Bhut : Panchtantra ||

भागनेवाला ही जीवित रहता है।

एक नगर में भद्रसेन नाम का एक राजा रहता था। उसकी कन्या रत्नवती थी। उसे हर समय यही डर रहता था कि कोई राक्षस उसका अपहरण न कर ले। उसके महल के चारों ओर पहरा रहता था, फिर भी वह सदा डर से काँपती रहती थी। रात के समय उसका डर और भी बढ़ जाता था। एक रात एक राक्षस पहरेदारों की नजर बचाकर रत्नवती के घर में घुस गया। घर के एक अन्धेरे कोने में जब वह छिपा हुआ था तो उसने सुना कि रत्नवती अपनी एक सहेली से कह रही है-यह दुष्ट विकाल मुझे हर समय परेशान करता है, इसका कोई उपाय कर।

राजकुमारी के मुख से यह सुनकर राक्षस ने सोचा कि अवश्य ही विकाल नाम का कोई दूसरा राक्षस होगा, जिससे राजकुमारी इतना डरती है। किसी तरह यह जानना चाहिए कि वह कैसा है? कितना बलशाली है? यह सोचकर वह घोड़े का रूप धारण करके अश्वशाला में जा छिपा।

उसी रात कुछ देर बाद एक चोर उस राजमहल में आया। वह वहाँ घोड़ों की चोरी के लिए ही आया था। अश्वशाला में जाकर उसने घोड़ों की देखभाल की और अश्वरूपी राक्षस ने समझा कि अवश्यमेव यह व्यक्ति ही बिकाल राक्षस है और मुझे पहचानकर मेरी हत्या के लिए ही यह मेरी पीठ पर चढ़ा है। किन्तु अब कोई चारा नहीं था। उसके मुँह में लगाम पड़ चुकी थी। चोर के हाथ में चाबुक थी। चाबुक लगते ही वह भाग खड़ा हुआ।

कुछ दूर जाकर चोर ने उसे ठहराने के लिए लगाम खींची, लेकिन घोड़ा भागता ही गया। उसका बेग कम होने के स्थान पर बढ़ता ही गया। तब, चोर के मन में शंका हुई, यह घोड़ा नहीं बल्कि घोड़े की सूरत में कोई राक्षस है, जो मुझे मारना चाहता है। किसी ऊबड़-खाबड़ जगह ले जाकर यह मुझे पटक देगा। मेरी हड्डी-पसली टूट जाएगी।

चोर यह सोच ही रहा था कि सामने वटवृक्ष की एक शाखा आई। घोड़ा उसके नीचे से गुज़रा। चोर ने घोड़े से बचने का उपाय देखकर शाखा को दोनों हाथों से पकड़ लिया। घोड़ा नीचे से गुज़र गया, चोर वृक्ष की शाखा से लटककर बच गया।

उसी वृक्ष पर अश्वरूपी राक्षस का मित्र बन्दर रहता था। उसने डरकर भागते हुए अश्वरूपी राक्षस को बुलाकर कहा  - "मित्र! डरते क्यों हो? यह कोई राक्षस नहीं, बल्कि मामूली मनुष्य है। तुम चाहो तो इसे क्षण में खाकर हजम कर लो।"

चोर को बन्दर पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। बन्दर दूर ऊँची शाखा पर बैठा हुआ था। किन्तु उसकी लम्बी पूँछ चोर के मुख के सामने ही लटक रही थी। चोर ने क्रोधवश उसकी पूँछ को अपने दाँतों में भींचकर चबाना शुरू कर दिया। बन्दर को पीड़ा तो बहुत हुई लेकिन मित्र राक्षस के सामने चोर की शक्ति को कम बताने के लिए वह वहाँ बैठा ही रहा। फिर भी, उसके चेहरे पर पीड़ा की छाया साफ नज़र आ रही थी, उसे देखकर राक्षस ने कहा

- "मित्र! चाहे तुम कुछ भी कहो, किन्तु तुम्हारा चेहरा कह रहा है कि तुम विकाल राक्षस के पंजे में आ गए हो।" यह कहकर वह भाग गया।

यह कहानी सुनाकर स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर से फिर घर वापस जाने की आज्ञा मांगी और उसे लोभ-वृक्ष का फल खाने के लिए वहीं ठहरने का उलाहना दिया।

चक्रधर ने कहा- मित्र! उपालंभ देने से क्या लाभ? यह तो देव का संयोग है अन्धे, कुबड़े और विकृत शरीर व्यक्ति भी संयोग से जन्म लेते हैं, उसके साथ भी न्याय होता है। उसके उद्धार का भी समय आता है।

एक राजा के घर विकृत कन्या हुई थी। दरबारियों ने राजा से निवेदन किया - महाराज! ब्राह्मणों को बुलाकर इसके उद्धार का प्रयत्न कीजिए। मनुष्य को सदा जिज्ञासु रहना चाहिए और प्रश्न पूछते रहना चाहिए। एक बार राक्षसेन्द्र के पंजे में पड़ा हुआ ब्राह्मण केवल प्रश्न के बल पर छूट गया था। प्रश्न की बड़ी महिमा है।

राजा ने पूछा- यह कैसे?

तब दरबारियों ने यह कथा सुनाई

जिज्ञासु बनो

To be Continued...

लोभ बुद्धि पर पर्दा डाल देता है : पंचतंत्र || Lobh Buddhi par Parda Dal deta hai : Panchtantra ||

लोभ बुद्धि पर पर्दा डाल देता है

यो लौल्यात् कुरुते कर्म, नैवोदर्कमवेक्षते । 
बिडम्बनामवाप्नोति स यथा चन्द्रभूषति ॥

बिना परिणाम सोचे चंचल वृत्ति से काम आरम्भ करनेवाला अपनी जय-हँसाई कराता है।  

लोभ बुद्धि पर पर्दा डाल देता है : पंचतंत्र || Lobh Buddhi par Parda Dal deta hai : Panchtantra ||

एक नगर के राजा चन्द्र के पुत्रों को बन्दरों से खेलने का व्यसन था। बन्दरों का सरदार भी बड़ा चतुर था। वह सब बन्दरों को नीतिशास्त्र पढ़ाया करता था। सब बन्दर उसकी आज्ञा का पालन करते थे। राजपुत्र भी उस बन्दरों के सरदार वानरराज को बहुत मानते थे।

उसी नगर के राजगृह में छोटे राजपुत्र के वाहन के लिए कई मेढ़े भी थे। उनमें से एक मेढ़ा बहुत लोभी था। वह जब जी चाहे तब रसोई में घुसकर सब कुछ खा लेता था। रसोइए उसे लकड़ी से मारकर बाहर निकाल देते थे।

बानरराज ने जब यह कलह देखा तो वह चिन्तित हो गया। उसने सोचा, यह कलह किसी दिन सारे बन्दर-समाज के नाश का कारण हो जाएगा। कारण यह कि जिस दिन नौकर इस मेढ़े को जलती लकड़ी से मारेगा, उसी दिन यह मेढ़ा घुड़साल में घुसकर आग लगा देगा। इससे कई घोड़े जल जाएँगे। जलने के घावों को भरने के लिए बन्दरों की चर्बी की माँग पैदा होगी। तब, हम सब मारे जाएंगे।

वानरराज का बदला: पंचतंत्र | Revenge of monkey king: Panchtantra

इतनी दूर की बात सोचने के बाद उसने बन्दरों को सलाह दी कि वे अभी से राजगृह का त्याग कर दें। किन्तु उस समय बन्दरों ने उसकी बात नहीं सुनी। राजगृह में उन्हें मीठे-मीठे फल मिलते थे। उन्हें छोड़कर वे कैसे जाते? उन्होंने वानरराज से कहा कि बुढ़ापे के कारण तुम्हारी बुद्धि मन्द पड़ गई है। हम राजपुत्र के प्रेम-व्यवहार और अमृत समान मीठे फलों को छोड़कर जंगल में नहीं जाएंगे।

वानरराज ने आँखों में आँसू भरकर कहा-मूर्खों तुम इस लोभ का परिणाम नहीं जानते। यह सुख तुम्हें बहुत महंगा पड़ेगा! यह कहकर वानरराज स्वयं राजगृह छोड़कर वन में चला गया।

उसके जाने के बाद एक दिन वही बात हो गई जिससे वानरराज ने वानरों को सावधान किया था। वह लोभी मेढ़ा जब रसोई में गया तो नौकर ने जलती लकड़ी उसपर फेंकी। मेढ़े के बाल जलने लगे। वहाँ से भागकर वह अश्वशाला में घुस गया। उसकी चिनगारियों से अश्वशाला भी जल गई। कुछ घोड़े आग से जलकर वहीं मर गए। कुछ रस्सी तुड़ाकर शाला से भाग गए।

तब राजा ने पशुचिकित्सा में कुशल वैद्यों को बुलाया और उन्हें आग से जले घोड़ों की चिकित्सा करने के लिए कहा। वैद्यों ने आयुर्वेदशास्त्र देखकर सलाह दी कि जले घावों पर बन्दरों की चर्बी की मरहम बनाकर लगाई जाए। राजा ने मरहम बनाने के लिए सब बन्दरों को मारने की आज्ञा दी। सिपाहियों ने सब बन्दरों को पकड़कर लाठियों और पत्थरों से मार दिया।

वानरराज को जब अपने वंश-क्षय का समाचार मिला तो वह बहुत दुःखी हुआ। उसके मन में राजा से बदला लेने की आग भड़क उठी। दिन-रात वह इसी चिन्ता में घुलने लगा। आखिर उसे एक वन में ऐसा तालाब मिला जिसके किनारे मनुष्यों के पदचिन्ह थे। उन चिन्हों से मालूम होता था कि इस तालाब में जितने मनुष्य गए, सब मर गए; कोई वापस नहीं आया। वह समझ गया कि यहाँ अवश्य कोई नरभक्षी मगरमच्छ है। उसका पता लगाने के लिए उसने एक उपाय किया। कमल-नाल लेकर उसका एक सिरा उसने तालाब में डाला और दूसरे सिरे को मुख में लगाकर पानी-पीना शुरू कर दिया।

थोड़ी देर में उसके सामने ही तालाब में से एक कण्ठहार धारण किए हुए मगरमच्छ निकला। उसने कहा-इस तालाब में पानी पीने के लिए आकर कोई वापस नहीं गया, तूने कमल-नाल द्वारा पानी पीने का उपाय करके विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया है। मैं तेरी प्रतिभा पर प्रसन्न हूँ। जो वर मांगेगा, मैं दूंगा। कोई-सा एक वर माँग ले। 

वानरराज ने पूछा- मगरराज! तुम्हारी भक्षण शक्ति कितनी है? 

मगरराज-जल में सैकड़ों, सहस्रों पशु या मनुष्यों को खा सकता है। भूमि पर एक गीदड़ भी नहीं।

वानरराज-एक राजा से मेरा वैर है। यदि तुम यह कण्ठहार मुझे दे दो तो मैं उसके सारे परिवार को तालाब में लाकर तुम्हारा भोजन बना सकता हूँ।

मगरराज ने कण्ठहार दे दिया। वानरराज कण्ठहार पहनकर राजा के महल में चला गया। उस कण्ठहार की चमकदमक से सारा राजमहल जगमगा उठा। राजा ने जब वह कण्ठहार देखा तो पूछा- वानरराज! यह कण्ठहार तुम्हें कहाँ मिला?

वानरराज - राजन्, यहाँ से दूर वन में एक तालाब है। वहाँ रविवार के दिन सुबह के समय जो गोता लगाएगा उसे यह कण्ठहार मिल जाएगा। राजा ने इच्छा प्रकट की कि वह भी समस्त परिवार तथा दरबारियों समेत उस तालाब में जाकर स्नान करेगा, जिससे सबको एक-एक कण्ठहार की प्राप्ति हो जाएगी।

निश्चित दिन राजा समेत सभी लोग वानरराज के साथ तालाब पर पहुँच गए। किसी को वह न सूझा कि ऐसा कभी सम्भव हो सकता? तृष्णा सबको अन्धा बना देती है। सैकड़ों वाला हज़ारों चाहता है; हज़ारों वाला लाखों की तृष्णा रखता है; लखपति करोड़पति बनने की धुन में लगा रहता है। मनुष्य का शरीर जरा-जीर्ण हो जाता है, लेकिन तृष्णा सदा जवान रहती है। राजा की तृष्णा भी उसे काल के मुख तक ले आई।

जितने लोग जलाशय में गए, डूब गए, कोई ऊपर न आया। उन्हें देरी होती देख राजा ने चिन्तित होकर वानरराज की ओर देखा। वानरराज तुरन्त वृक्ष की ऊँची शाखा पर चढ़कर बोला, महाराज! तुम्हारे सब बन्धुओं को जलाशय में बैठे राक्षसों ने खा लिया है। तुमने मेरे कुल का नाश किया था, मैंने तुम्हारा कुल नष्ट कर दिया। मुझे बदला लेना था, ले लिया। जाओ राजमहल को वापस चले जाओ।

राजा क्रोध से पागल हो रहा था, किन्तु अब कोई उपाय नहीं था। वानरराज ने सामान्य नीति का पालन किया था। हिंसा का उत्तर प्रति-हिंसा से और दुष्टता का उत्तर दुष्टता से देना ही व्यावहारिक नीति है। राजा के वापस जाने के बाद मगरराज तालाब से निकला। उसने वानरराजा की बुद्धिमत्ता की बहुत प्रशंसा की।

कहानी कहने के बाद स्वर्ण-सिद्ध ने चक्रधर से घर वापस जाने की आज्ञा माँगी। चक्रधर ने कहा- मुझे विपत्ति में छोड़कर तुम कैसे जा सकते हो? मित्रों का क्या कर्तव्य है? इतने निष्ठुर बनोगे तो नरक में जाओगे। स्वर्ण सिद्ध ने उत्तर दिया- तुम्हें कष्ट से छुड़ाना मेरी शक्ति से बाहर है। बल्कि मुझे भय है कि कहीं तुम्हारे संसर्ग से मैं भी इसी कष्ट से पीड़ित न हो जाऊँ। अब मेरा यहाँ से दूर भाग जाना ही ठीक है, नहीं तो मेरी अवस्था भी विकाल राक्षस के पंजे में फँसे वानर की-सी हो जाएगी।

चक्रधर ने पूछा- किस राक्षस के, कैसे?

स्वर्ण-सिद्धि ने तब राक्षस और वानर की यह कथा सुनाई

भय का भूत

To be Continued...

शेखचिल्ली न बनो : पंचतंत्र || Shekhchilli na Bano : Panchtantra ||

शेखचिल्ली न बनो

अनागतवती चिन्तामभायां करोति क स एव पाण्डुरः शेते सोमशर्मपिता यथा।।

हवाई किले मत बाँधो ।

शेखचिल्ली न बनो : पंचतंत्र || Shekhchilli na Bano : Panchtantra ||

एक नगर में कोई कंजूस व्यक्ति रहता था। उसने भिक्षा से प्राप्त सत्तुओं में से थोड़े-से खाकर शेष से एक घड़ा भर लिया था। उस घड़े को उसने रस्सी से बाँध खूँटी से सरका दिया और उसके नीचे पास ही खटिया उस पर लेटे-लेटे विचित्र सपने देखने लगा और कल्पना के हवाई घोड़े दौड़ाने लगा।

उसने सोचा कि देश में अकाल पड़ेगा तो इन सत्तुओं का मूल्य सौ रुपये हो जाएगा। उन सौ रुपयों से मैं दो बकरियाँ लूँगा। छः महीने में उन दो बकरियों से कई बकरियाँ बन जाएँगी। उन्हें बेचकर एक गाय लूँगा। गायों के बाद भैंस लूँगा और फिर घोड़े ले लूँगा। घोड़े को महंगे दामों में बेचकर मेरे पास बहुत-सा सोना हो जाएगा। सोना बेचकर मैं बहुत बड़ा घर बनाऊँगा। मेरी सम्पत्ति को देखकर कोई भी धनी व्यक्ति अपनी सुरूपवती कन्या का विवाह मुझसे कर देगा। वह मेरी पत्नी बनेगी। उससे जो पुत्र होगा उसका नाम में सोमशर्मा रखूंगा। जब वह घुटनों के बल चलना सीख जाएगा, तो मैं पुस्तक लेकर घुड़शाल के पीछे की दीवार पर बैठा हुआ उसकी बाल लीलाएँ देखूंगा। उसके बाद सोमशर्मा मुझे देखकर माँ की गोद से उतरेगा और मेरी ओर आएगा, तो में उसकी माँ को क्रोध से कहूंगा। अपने बच्चे को संभाल।

शेखचिल्ली न बनो : पंचतंत्र || Shekhchilli na Bano : Panchtantra ||

वह गृहकार्य में व्यस्त होगी, इसलिए मेरा वचन न सुनी तब मैं उठकर उसे पैर की ठोकर से मारूँगा। यह सोचते ही उसका पैर ठोकर मारने के लिए ऊपर उठा। वह पैर सत्तू भरे घड़े पर लगा। घड़ा गिरकर चकनाचूर हो गया। कंजूस व्यक्ति के स्वप्न भी साथ ही चकनाचूर हो गए। 

स्वर्ण-सिद्धि ने कहा-यह बात तो सच है, किन्तु उसका भी क्या दोष लोभ वश सभी अपने कर्मों का फल नहीं देख पाते और उनको वही फल मिलता है जो, चन्द्रभूपति को मिला था।

चक्रधर ने पूछा- यह कैसे हुआ? स्वर्णसिद्धि ने तब यह कथा सुनाई

लोभ बुद्धि पर पर्दा डाल देता है

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मित्र की शिक्षा मानो : पंचतंत्र || Mitra ki Shiksha Mano : Panchtantra ||

मित्र की शिक्षा मानो

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा मित्रोक्तं न करोति यः। 
एव निधनं याति यथा मन्चरकोलिकः।

 मित्र की बात सुनो, पत्नी की नहीं। मित्र की शिक्षा मानो : पंचतंत्र || Mitra ki Shiksha Mano : Panchtantra ||

एक बार मन्थरक नाम के जुलाहे के सब उपकरण, जो कपड़ा बुनने के काम आते थे, टूट गए उपकरणों को फिर बनाने के लिए लकड़ी की ज़रूरत थी। लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी लेकर यह समुद्र तट पर स्थित वन की ओर चल दिया। समुद्र के किनारे पहुँचकर उसने एक वृक्ष देखा और सोचा कि इसकी लकड़ी से उसके सब उपकरण बन जाएँगे। यह सोचकर वृक्ष के तने में वह कुल्हाड़ी मारने को ही था कि वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक देव ने उसे कहा- मैं वृक्ष पर सुख से रहता हूँ और समुद्र की शीतल हवा का आनन्द लेता हूँ। तुम्हारा इस वृक्ष को काटना उचित नहीं। दूसरे के सुख को छीनने वाला कभी सुखी नहीं होता।

जुलाहे ने कहा- मैं भी लाचार हूँ। लकड़ी के बिना मेरे उपकरण नहीं बनेंगे, कपड़ा नहीं बुना जाएगा, जिससे मेरे कुटुम्बी भूखे मर जाएँगे। इसलिए अच्छा यही है कि तुम किसी और वृक्ष का आश्रय लो, मैं इस वृक्ष की शाखाएँ काटने को विवश हूँ।

देव ने कहा- मन्थरक! मैं तुम्हारे उत्तर से प्रसन्न हूँ। तुम कोई भी एक वर माँग लो, मैं उसे पूरा करूंगा, केवल इस वृक्ष को मत काटो। मन्थरक बोला- यदि यही बात है, तो मुझे कुछ देर का अवकाश दो। मैं अभी घर जाकर अपनी पत्नी से और मित्र से सलाह करके तुमसे वर मागूँगा। देव ने कहा- मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा। 

गाँव में पहुँचने के बाद मन्थरक की भेंट अपने एक मित्र नाई से हो गई। उसने उससे पूछा-मित्र! एक देव मुझे वरदान दे रहा है, मैं तुमसे पूछने आया हूँ कि कौन-सा वरदान माँगा जाए? नाई ने कहा - यदि ऐसा है तो राज्य माँग ले मैं तेरा मन्त्री बन जाऊँगा। हम सुख से रहेंगे।

तब, मन्थरक ने अपनी पत्नी से सलाह लेने के बाद वरदान का निश्चय लेने की बात नाई से कही। नाई ने स्त्रियों के साथ ऐसी मन्त्रणा करना नीति - विरुद्ध बतलाया। उसने सम्मति दी कि स्त्रियाँ प्रायः स्वार्थ-परायण होती हैं। अपने सुख-साधन के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी सूझ नहीं सकता। अपने पुत्र को भी जब वे प्यार करती हैं, तो भविष्य में उसके द्वार सुख की कामनाओं से ही करती हैं।

मन्थरक ने फिर भी पत्नी से सलाह लिए बिना कुछ भी न करने का विचार प्रकट किया। घर पहुँचकर वह पत्नी से बोला- आज मुझे एक देव मिला है। वह एक वरदान देने को उद्यत है। नाई की सलाह है कि राज्य माँग लिया जाए तू बता कि कौन-सी चीज़ माँगी जाए?

पत्नी ने उत्तर दिया- राज्य शासन का काम बहुत कष्टप्रद है। सन्धि विग्रह आदि से ही राजा को अवकाश नहीं मिलता। राजमुकुट प्रायः काँटों का ताज होता है। ऐसे राज्य से क्या अभिप्राय जो सुख न दे?

मन्थरक ने कहा-प्रिय! तुम्हारी बात सच है, राजा राम को और राजा नल को भी राज्य प्राप्ति के बाद कोई सुख नहीं मिला था। हमें भी कैसे मिल सकता है? किन्तु प्रश्न यह है कि राज्य न माँगा जाए, तो फिर क्या माँगा जाये। 

मन्थर की पत्नी ने उत्तर दिया- तुम अकेले दो हाथों से जितना कपड़ा बुनते हो उसमें भी हमारा व्यय पूरा हो जाता है। यदि तुम्हारे हाथ दो की जगह चार हों और सिर भी एक की जगह दो हों तो कितना अच्छा हो। तब हमारे पास आज की अपेक्षा दुगुना कपड़ा हो जाएगा। इससे समाज में हमारा मान बढ़ेगा।

मन्दरक को पत्नी की बात जंच गई। समुद्र-तट पर जाकर वह देव से बोला- यदि आप वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दें कि मैं चार हाथ और दो सिर वाला हो जाऊँ।

मन्यस्क के कहने के साथ ही उसका मनोरथ पूरा हो गया। उसके दो सिर और चार हाथ हो गए। किन्तु इस बदली हालत में वह गाँव में आया तो लोगों ने उसे राक्षस समझ लिया और राक्षस-राक्षस कहकर सब उस पर टूट पड़े।

चक्रधर ने कहा- बात तो सच है। पत्नी की सलाह न मानता, और मित्र की ही मानता, तो उसकी जान बच जाती। सभी लोग आशा-रूपी पिशाचिनों से दबे हुए ऐसे काम कर जाते हैं, जो जगत् में हास्यास्पद होते हैं; जैसे सोमशर्मा के पिता ने किया था। स्वर्णसिद्धि किस तरह?

तब चक्रधर ने यह कहानी सुनाई:

शेखचिल्ली न बनो

To be Continued...

पंचतंत्र की सभी कहानियां निति निपुण हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है, पर इन कहानियों में ये एक कहानी ऐसी है, जिससे मैं सहमत नहीं हूँ। वर्तमान में आज नारी हर क्षेत्र में पुरुष के साथ कदम से कदम मिला के चल रहीं हैं, इसमें कहीं से यह निति निपुण नहीं है कि महिलाओं से सलाह ना ली जाये।  

संगीतविशारद गधा : पंचतंत्र || Sangeet Visharad Gadha : Panchtantra ||

संगीतविशारद गधा

साघु मातुल! गीतेन मया प्रोक्तोऽपि न स्थितः। 
अपूर्वोऽयं मणिर्बद्धः सप्राप्तं गीतलक्षणम्॥

मित्र की सलाह मानो ।

संगीतविशारद गधा : पंचतंत्र || Sangeet Visharad Gadha : Panchtantra ||

एक गाँव में उद्धत नाम का गधा रहता था। दिन में धोबी का भार ढोने के बाद रात को वह स्वेच्छा से खेतों में घूमा करता था। पर सुबह वह स्वयं धोबी के पास आ जाता था। रात को खेतों में घूमते-घूमते उसकी जान-पहचान एक गीदड़ से हो गई। गीदड़ मैत्री करने में बड़े चतुर होते हैं। गधे के साथ गीदड़ भी खेतों में जाने लगा। खेत की बाड़ को तोड़कर गधा अन्दर चला जाता और वहाँ गीदड़ के साथ मिलकर कोमल-कोमल ककड़ियाँ खाकर सुबह अपने घर आ जाता था।

एक दिन गधा उमंग में आ गया। चाँदनी रात थी। दूर तक खेत लहलहा रहे थे। गधे ने कहा-मित्र आज कितनी निर्मल चाँदनी खिली है। जी चाहता है, आज खूब गीत गाऊँ। मुझे सब राग-रागिनियाँ आती हैं। तुझे जो गीत पसन्द हो, वही गाऊँगा। भला कौन सा गीत गाऊँ, तू ही बता। 

गीदड़ ने कहा- मामा ! इन बातों को रहने दो। क्यों अनर्थ बखेरते हो? अपनी मुसीबत आप बुलाने से क्या लाभ? शायद, तुम भूल गए कि हम चोरी से खेत में आए हैं। चोर को तो खाँसना भी मना है, और तुम ऊँचे स्वर से राग-रागिनी गाने की सोच रहे हो। और शायद तुम यह भी भूल गए कि तुम्हारा स्वर मधुर नहीं है। तुम्हारी शंखध्वनि दूर-दूर तक जाएगी। इन खेतों के बाहर रखवाले सो रहे हैं। वे जाग गए तो तुम्हारी हड्डियाँ तोड़ देंगे। कल्याण चाहते हो तो इन उमंगों को भूल जाओ। आनन्दपूर्वक अमृत जैसी मीठी ककड़ियों से पेट भरो। संगीत का व्यसन तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है।

गीदड़ की बात सुनकर गधे ने उत्तर दिया-मित्र! तुम वनचर हो, जंगलों में रहते हो, इसीलिए संगीत-सुधा का रसास्वादन तुमने नहीं किया है। तभी तुम ऐसी बात कह रहे हो।

गीदड़ ने कहा-मामा! तुम्हारी बात ही ठीक सही, लेकिन तुम संगीत तो नहीं जानते, केवल गले से ढींचू-ढींचू करना ही जानते हो ।

गधे को गीदड़ की बात पर क्रोध तो बहुत आया किन्तु क्रोध को पीते हुए गधा बोला- गीदड़! यदि मुझे संगीत विद्या का ज्ञान नहीं तो किसको होगा? मैं तीनों ग्रामों, सातों स्वरों, इक्कीस मूर्छनाओं, उनचास तालों, तीनों लयों और तीन मात्राओं के भेदों को जानता हूँ। राग में तीन यति विराम होते हैं, नौ रस होते हैं। छत्तीस राग-रागनियों का मैं पण्डित हूँ। चालीस तरह के संचारी व्यभिचारी भावों को भी मैं जानता हूँ। तब भी तू मुझे रागी नहीं मानता। कारण, कि तू स्वयं राग-विद्या से अनभिज्ञ है।

गीदड़ ने कहा- मामा ! यदि यही बात हैं तो मैं तुझे नहीं रोकूँगा। मैं खेत के दरवाज़े पर खड़ा चौकीदारी करता हूँ, तू जैसा जी चाहे, गाना गा ।

गीदड़ के जाने के बाद गधे ने अपना अलाप शुरू कर दिया। उसे सुनकर खेत के रखवाले दाँत पीसते हुए भागे आए। वहाँ आकर उन्होंने गधे को लाठियों से मार-मारकर ज़मीन पर गिरा दिया। उन्होंने उसके गले में सॉकली भी बाँध दी। गधा भी थोड़ी देर कष्ट में तड़पने के बाद उठ बैठा। गधे का स्वभाव है कि वह बहुत जल्दी कष्ट की बात भूल जाता है। लाठियों की मार की याद मुहूर्त-भर ही उसे सताती है।

गधे ने थोड़ी देर में साँकली तुड़ा ली और भागना शुरू कर दिया। गीदड़ भी उस समय दूर खड़ा तमाशा देख रहा था। मुसकराते हुए वह गधे से बोला- क्यों मामा! मेरे मना करते-करते भी तुमने अलापना शुरू कर दिया ! इसीलिए तुम्हें यह दण्ड मिला। मित्रों की सलाह का ऐसा तिरस्कार करना उचित नहीं है।

चक्रधर ने इस कहानी को सुनने के बाद स्वर्णसिद्धि से कहा- मित्र! बात तो सच है। जिसके पास न स्वयं बुद्धि है और न जो मित्र की सलाह मानता है, वह मन्थरक नाम के जुलाहे की तरह तबाह हो जाता है। स्वर्ण-सिद्धि ने पूछा- वह कैसे? चक्रधर ने तब यह कहानी सुनाई:-

मित्र की शिक्षा मानो

एकबुद्धि की कथा : पंचतंत्र || Ek Buddhi ki Katha : Panchtantra ||

एकबुद्धि की कथा

एकं व्यावहारिकं मनः श्रेयः शतं अव्यावहारिकचित्तात्।

एक व्यवहार बुद्धि सौ अव्यावहारिक बुद्धियों से अच्छी है।

एकबुद्धि की कथा : पंचतंत्र || Ek Buddhi ki Katha : Panchtantra ||

एक तालाब में दो मछलियाँ रहती थीं। एक थी शतबुद्धि (सौ बुद्धियोंवाली) दूसरी थी सहस्रबुद्धि (हजार बुद्धिवाली)। उस तालाब में एक मेंढ़क भी रहता था। उसका नाम था एकबुद्धि। उसके पास एक ही बुद्धि थी। इसलिए उसे बुद्धि पर अभिमान नहीं था। शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि को अपनी चतुराई पर बड़ा अभिमान था।

एक दिन संध्या समय तीनों तालाब के किनारे बातचीत कर रहे थे। उसी समय उन्होंने देखा कि कुछ मछियारे हाथों में जाल लेकर वहाँ आ रहे थे। उनके जाल में बहुत-सी मछलियाँ फँसकर तड़प रही थीं। तालाब के किनारे आकर मछियारे आपस में बात करने लगे। एक ने कहा - इस तालाब में खूब मछलियाँ हैं। पानी भी कम है। कल हम यहाँ आकर मछलियाँ पकड़ेंगे।

दो मछलियों और एक मेंढक की कहानी : पंचतंत्र | The Tale of Two Fishes & A Frog : Panchtantra

सबने उसकी बात का समर्थन किया। कल सुबह यहाँ आने का निश्चय करके मछियारे चले गए। उनके जाने के बाद सब मछलियों ने सभा की। सभी चिन्तित थे कि क्या किया जाए। सबकी चिन्ता का उपहास करते हुए सहस्रबुद्धि ने कहा- डरो मत, दुनिया में सभी दुर्जनों के मन की बात पूरी होने लगे तो संसार में किसी का रहना कठिन हो जाए। सांपों और दुष्टों के अभिप्राय कभी पूरे नहीं होते, इसलिए संसार बना हुआ है। किसी के कथन मात्र से डरना हमारे लिए ठीक नहीं है। 

प्रथम तो वे यहाँ आएँगे ही नहीं, यदि आ भी गए तो मैं अपनी बुद्धि से सबकी रक्षा कर लूँगी। शतबुद्धि ने भी उसका समर्थन करते हुए कहा-बुद्धिमान् के लिए संसार में सब कुछ सम्भव है। जहाँ वायु और प्रकाश की भी गति नहीं होती, यहाँ बुद्धिमानों की बुद्धि पहुँच जाती है। किसी के कथनमात्र से हम अपने पूर्वजों की भूमि को नहीं छोड़ सकते। अपनी जन्मभूमि से जो सुख होता है, वह स्वर्ग में भी नहीं होता। भगवान् ने हमें बुद्धि दी है, भय से भागने के लिए नहीं, बल्कि भय का युक्तिपूर्वक सामना करने के लिए।

तालाब की मछलियों को तो शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि के आश्वासन पर भरोसा हो गया, लेकिन एकबुद्धि मेंढ़क ने कहा- मित्रों! मेरे पास तो एक ही बुद्धि है, वह यहाँ से भाग जाने की सलाह देती है। इसीलिए मैं सुबह होने से पहले ही इस जलाशय को छोड़कर अपनी पत्नी के साथ दूसरे जलाशय में चला जाऊँगा। यह कहकर वह मेंढ़क और मेढकी तालाब से चले गये।

दूसरे दिन अपने वचनानुसार वे मछियारे वहाँ आए। उन्होंने तालाब में जाल बिछा दिया। तालाब की सभी मछलियाँ जाल में फँस गई। शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि ने बचाव के लिए बहुत-से पैंतरे बदले, किन्तु मछियारे भी अनाड़ी न थे। उन्होंने चुन-चुनकर सब मछलियों को जाल में बाँध लिया। सबने तड़प-तड़प कर प्राण दिए ।

संध्या समय मछियारों ने मछलियों से भरे जाल को कन्धे पर उठा लिया। शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि बहुत भारी मछलियाँ थीं। इसीलिए उन्होंने शतबुद्धि को कन्धे पर और सहस्रबुद्धि को हाथों पर लटका लिया था। उनकी दुरवस्था देखकर एकबुद्धि मेंढ़क ने अपनी मेढकी से कहा :

देख प्रिये! मैं कितना दूरदर्शी हूँ। जिस समय शतबुद्धि कन्धों पर और सहस्रबुद्धि हाथों में लटकी जा रही है, उस समय मैं एकबुद्धि इस छोटे-से जलाशय में निर्मल जल में सानन्द विहार कर रहा हूँ। इसलिए मैं कहता हूँ कि विद्या से बुद्धि का स्थान ऊँचा है, और बुद्धि में भी सहस्रबुद्धि की अपेक्षा एकबुद्धि होना अधिक व्यावहारिक है। यह कहानी पूरी होने के बाद चक्रधर ने पूछा :

- तो क्या मित्र की सलाह सदा माननी चाहिए? स्वर्ण-सिद्धि ने उत्तर दिया - मित्र के वचन का उल्लंघन ठीक नहीं है। जो विद्या बुद्धि के अहंकार या लोभवश मित्र की बात को अनसुनी कर देते हैं, वे अपने मित्र गीदड़ की बात न मानने वाले गधे की तरह कष्ट उठाते हैं।

चक्रधर ने पूछा- वह कैसे? स्वर्ण-सिद्धि ने तब यह कथा सुनाई

संगीतविशारद गधा

To Be Continued...

चार मूर्ख युवक : पंचतंत्र || Char Murkh Yuvak : Panchtantra ||

चार मूर्ख युवक

अपि शास्त्रेषु कुशला लोकाचारविवर्जिताः 
सर्वे ते हास्यतां यान्ति यथा ते मूर्खपण्डिताः॥ 

व्यवहार-बुद्धि के बिना पण्डित भी मूर्ख होते हैं।

चार मूर्ख युवक : पंचतंत्र || Char Murkh Yuvak : Panchtantra ||

एक स्थान पर चार युवक रहते थे। चारों विद्याभ्यास के लिए कान्यकुब्ज गए। निरन्तर बारह वर्ष तक विद्या पढ़ने के बाद वे सम्पूर्ण शास्त्रों के पारंगत विद्वान हो गए। किन्तु व्यवहार बुद्धि से चारों खाली थे। विद्याभ्यास के बाद चारों स्वदेश के लिए लौट पड़े। कुछ दूर चलने के बाद रास्ता दो तरफ था। किस मार्ग से जाना चाहिए, इस बात का कोई भी निश्चय न कर पाने पर वे वहीं बैठ गए। इसी समय वहाँ से एक मृत बालक की अर्थी निकली। अर्थी के साथ बहुत-से महाजन भी थे। 'महाजन' नाम से उनमें से एक को कुछ याद आ गया। उसने पुस्तक के पन्ने पलटकर देखा तो लिखा था - महाजनो येन गतः स पन्थाः, अर्थात् जिस मार्ग से महाजन जाए, वही मार्ग है। पुस्तक लिखे को ब्रह्म वाक्य मानने वाले चारों युवक महाजनों के पीछे श्मशान की ओर चल पड़े।

थोड़ी दूर पर श्मशान में उन्होंने एक गधे को खड़ा देखा। गधे को देखते उन्हें शास्त्र की यह बात याद आ गई राजद्वारे श्मशाने च स बान्धवः, अर्थात् राजद्वार और श्मशान में जो खड़ा हो, वह भाई होता है। फिर क्या था, चारों ने उस श्मशान में खड़े गधे को भाई बना लिया। कोई उसके गले से लिपट गया, तो कोई उसके पैर धोने लगा।

इतने में एक ऊँट उधर से गुज़रा। उसे देखकर सब विचार में पड़ गए। यह कौन है? बारह वर्ष तक विद्यालय की चारदीवारी में रहते हुए उन्हें पुस्तक के अतिरिक्त संसार की किसी वस्तु का ज्ञान नहीं था। ऊँट को वेग से भागते हुए देखकर उनमें से एक को पुस्तक में लिखा यह वाक्य याद आ गया कि धर्मस्य त्वरिता गतिः अर्थात् धर्म की गति में बड़ा वेग होता है। उन्हें निश्चय हो गया कि वेग से जानेवाली यह वस्तु अवश्य धर्म है। उसी समय उनमें से एक को याद आया - इष्टं धर्मेण योजयेत्, अर्थात् धर्म का संयोग इष्ट से करा दे। उनकी समझ में इष्ट बान्धव था और ऊँट था धर्म। दोनों का संयोग कराना उन्होंने शास्त्रोक्त मान लिया। बस खींच-खाँचकर उन्होंने ऊँट के गले में गधा गाँध दिया। वह गधा एक धोबी का था। उसे पता लगा तो वह भाग आया। उसे अपनी ओर आता देखकर चारों शास्त्रपारंगत युवक वहाँ से भाग खड़े हुए। 

थोड़ी दूर पर एक नदी थी। नदी में पलाश का एक पत्ता तैरता हुआ आ रहा था। इसे देखते ही उनमें से एक को याद आ गया कि आगमिष्यति यत्पत्रं तदस्मांस्तारयिष्यति, अर्थात् जो पत्ता तैरता हुआ आएगा वही हमारा उद्धार करेगा। उद्धार की इच्छा से वह मूर्ख युवक पत्ते पर लेट गया। पत्ता पानी में डूब गया तो वह भी डूबने लगा। केवल उसकी शिखा पानी से बाहर रह गई। इसी तरह बहते-बहते जब वह दूसरे मूर्ख युवक के पास पहुँचा, तो उसे एक और शास्त्रोक्त वाक्य याद आ गया कि सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पण्डितः, अर्थात् सम्पूर्ण का नाश होते देखकर आधे को बचा लें और आधे का त्याग कर दें। यह याद आते ही उसने बहते हुए पूरे आदमी का आधा भाग बचाने के लिए उसकी शिखा पकड़कर गरदन काट दी। उसके हाथ में केवल सिर का हिस्सा आ गया। देह पानी में बह गई।

उन चार के अब तीन रह गए। गाँव पहुँचने पर तीनों को अलग-अलग घरों में ठहराया गया। वहाँ उन्हें जब भोजन दिया गया तो एक ने सेमियों को यह कहकर छोड़ दिया। दीर्घसूत्री विनश्यति, अर्थात दीर्घ तन्तुवली वस्तु नष्ट हो जाती है। दूसरे को रोटियाँ दी गई तो उसे याद आ गया - अतिविस्तार - विस्तीर्ण तद्भवेन्न चिरायुषम्, अर्थात् बहुत फैली हुई वस्तु आयु को घटाती है। तीसरे को छिद्रवाली वाटिका दी गई तो उसे याद आ गया - छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति, अर्थात् छिद्रवाली वस्तु में बहुत अनर्थ होते हैं। परिणाम यह हुआ कि तीनों की जगहँसाई हुई और तीनों भूखे भी रहे।

व्यवहार-बुद्धि के बिना मनुष्य मूर्ख ही रहते हैं। व्यवहार-बुद्धि भी एक ही होती है। सैकड़ों बुद्धियाँ रखनेवाला सदा डाँवाडोल रहता है। उसकी वही दशा होती है जो शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि मछली की हुई थी। मण्डूक के पास एक ही बुद्धि थी इसलिए वह बच गया।

चक्रधर ने पूछा- यह कैसे हुआ? स्वर्ण-सिद्धि ने तब यह कथा सुनाई:

एकबुद्धि की कथा

To be continued...

वैज्ञानिक मूर्ख : पंचतंत्र || Vaigyanik Murkh : Panchtantra ||

 वैज्ञानिक मूर्ख


वरं बुद्धिर्न सा विद्या विद्याया बुद्धिरुत्तमा। 
बुद्धिहीना विनश्यन्ति यथा ते सिंह कारकाः।

बुद्धि का स्थान विद्या से ऊँचा है।

वैज्ञानिक मूर्ख : पंचतंत्र || Vaigyanik Murkh : Panchtantra ||

एक नगर में चार मित्र रहते थे। उनमें से तीन बड़े वैज्ञानिक थे, किन्तु बुद्धिरहित थे; चौथा वैज्ञानिक नहीं था, किन्तु बुद्धिमानू था। चारों ने सोचा कि विद्या का लाभ तभी हो सकता है, यदि वे विदेशों में जाकर धन-संग्रह करें। इसी विचार से वे विदेश यात्रा को चल पड़े।

कुछ दूर जाकर उनमें से सबसे बड़े ने कहा : -हम चारों विद्वानों में एक विद्याशून्य है, वह केवल बुद्धिमान् है। धनोपार्जन के लिए और धनिकों की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए विद्या आवश्यक है। विद्या के चमत्कार से ही हम उन्हें प्रभावित कर सकते हैं। अतः हम अपने धन का कोई भी भाग इस विद्याहीन को नहीं देंगे। वह चाहे तो घर वापस चला जाए।

दूसरे ने इस बात का समर्थन किया। किन्तु तीसरे ने कहा- यह बात उचित नहीं है। बचपन से ही हम एक-दूसरे के सुख-दुःख के समभागी रहे हैं। हम जो भी धन कमाएँगे, उसमें इसका हिस्सा रहेगा। अपने-पराए की गणना छोटे दिलवालों का काम है। उदार चरित्र व्यक्तियों के लिए सारा संसार ही अपना कुटुम्ब होता है। हमें उदारता दिखलानी चाहिए।

उसकी बात मानकर चारों आगे चल पड़े। दूर जाकर उन्हें जंगल में एक शेर का मृत शरीर मिला। उसके अंग-प्रत्यंग बिखरे हुए थे। तीनों विद्याभिमानी युवकों ने कहा-जाओ, हम अपनी विज्ञान की शिक्षा की परीक्षा करें। विज्ञान के प्रभाव से हम इस मृत शरीर में नया जीवन डाल सकते हैं । - यह कहकर तीनों उसकी हड्डियाँ बटोरने और बिखरे हुए अंगों को मिलाने में लग गए। एक ने अस्थिसंजय किया, दूसरे ने चर्म, माँस, रुधिर संयुक्त किया, तीसरे ने प्राणों के संचार की प्रक्रिया शुरू की। इतने में विज्ञान-शिक्षा से रहित, किन्तु बुद्धिमान् मित्र ने उन्हें सावधान करते हुए कहा ज़रा ठहरो । तुम लोग अपनी विद्या के प्रभाव से शेर को जीवित कर रहे हो। वह जीवित होते ही तुम्हें मारकर खा जाएगा।

वैज्ञानिक मित्रों ने उसकी बात को अनसुना कर दिया। तब वह बुद्धिमान् बोला- यदि तुम्हें अपनी विद्या का चमत्कार दिखलाना ही है, तो दिखलाओ। लेकिन एक क्षण ठहर जाओ, में वृक्ष पर चढ़ जाऊँ। यह कहकर वह वृक्ष पर चढ़ गया।

इतने में तीनों वैज्ञानिकों ने शेर को जीवित कर दिया। जीवित होते ही शेर ने तीनों पर हमला कर दिया। तीनों मारे गए। अतः शास्त्रों में कुशल होना ही पर्याप्त नहीं है। लोक-व्यवहार को समझने और लोकाचार के अनुकूल काम करने की बुद्धि भी होनी चाहिए, अन्यथा लोकाचार-हीन विद्वान भी मूर्ख पण्डितों की तरह उपहास के पात्र बनते हैं।

चक्रधर ने पूछा- कौन से मूर्ख पण्डितों की तरह?

स्वर्ण-सिद्धि युवक ने तब अगली कथा सुनाई:

चार मूर्ख युवक

लालच बुरी बला : पंचतंत्र || Lalach Buri Bla : Panchtantra ||

लालच बुरी बला

अतिलोभो न कर्तव्यो लोभं नैव परित्यजेत् । 
अतिलोभाऽभिभूतस्य चक्रं भ्रमति मस्तके॥

धन के अति लोभ से मनुष्य धन-संचय के चक्र में ऐसा फँस जाता है, जो केवल कष्ट ही कष्ट देता है।

लालच बुरी बला : पंचतंत्र || Lalach Buri Bla : Panchtantra ||

एक नगर में चार ब्राह्मण-पुत्र रहते थे। चारों में गहरी मैत्री थी। चारों ही निर्धन थे। निर्धनता को दूर करने के लिए चारों चिन्तित थे। उन्होंने अनुभव कर लिया था कि अपने बन्धु-बान्धवों में धनहीन जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा शेर-हाथियों से भरे कंटीले जंगल में रहना अच्छा है। निर्धन व्यक्ति को सब अनादर की दृष्टि से देखते हैं, बन्धु-बान्धव भी उससे किनारा कर लेते हैं, अपने ही पुत्र पौत्र भी उससे मुख मोड़ लेते हैं। पत्नी भी उससे विरक्त हो जाती है। मनुष्यलोक में धन के बिना न यश सम्भव है, न सुख। धन हो तो कायर भी वीर हो जाता है, कुरूप भी सुरूप कहलाता है और मूर्ख भी पण्डित बन जाता है।

यह सोचकर उन्होंने धन कमाने के लिए किसी दूसरे देश को जाने का निश्चय किया। अपने बन्धु बान्धवों को छोड़ा, अपनी जन्मभूमि से विदा ली और विदेश यात्रा के लिए चल पड़े।

चलते-चलते क्षिप्रा नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ नदी के शीतल जल में स्नान करने के बाद महाकाल को प्रणाम किया। थोड़ी दूर आगे जाने पर उन्हें एक जटाजूटधारी योगी दिखाई दिए। इन योगिराज का नाम भैरवानन्द था। योगिराज इन चारों नौजवान ब्राह्मणपुत्रों को अपने आश्रम में ले गए और उनसे प्रवास का प्रयोजन पूछा। चारों ने कहा-हम अर्थसिद्धि के लिए यात्री बने हैं। धनोपार्जन ही हमारा लक्ष्य है। अब या तो धन कमाकर ही लौटेंगे या मृत्यु का स्वागत करेंगे। इस धनहीन जीवन से मृत्यु ही अच्छी है। 

योगिराज ने उनके निश्चय की परीक्षा के लिए जब कहा कि धनवान् बनना तो दैव के अधीन है, तब उन्होंने उत्तर दिया-यह सच है कि भाग्य ही पुरुष को धनी बनाता है, किन्तु साहसिक पुरुष भी अवसर का लाभ उठाकर अपने भाग्य का बदला लेते हैं। पुरुष का पौरुष कभी-कभी दैव से भी अधिक बलवान् हो जाता है। इसलिए आप हमें भाग्य का नाम लेकर निरुत्साह न करें। हमने अब धनोपार्जन का प्रण पूरा करके ही लौटने का निश्चय किया है। आप अनेक सिद्धियों को जानते हैं। आप चाहें तो हमें सहायता दे सकते हैं। हमारा पथ-प्रदर्शन कर सकते हैं। योगी होने के कारण आपके पास महती शक्तियाँ हैं। हमारा निश्चय भी महान है। महान ही महान की सहायता करता है।

भैरवानन्द को उनकी दृढ़ता देखकर प्रसन्नता हुई। प्रसन्न होकर धन कमाने का रास्ता बतलाते हुए उन्होंने कहा- तुम हाथों में दीपक लेकर हिमालय पर्वत की ओर जाओ। वहाँ जाते-जाते जब तुम्हारे हाथ का दीपक नीचे गिर पड़े तो ठहर जाओ। जिस स्थान पर दीपक गिरे उसे खोदो। वहीं तुम्हें धन मिलेगा। धन लेकर वापस चले आओ।

चारों युवक हाथों में दीपक लेकर चल पड़े। कुछ दूर जाने के बाद उनमें से एक के हाथ का दीपक भूमि पर गिर पड़ा। उस भूमि को खोदने पर उन्हें ताम्रमयी भूमि मिली। वह ताँबे की खान थी। उसने कहा-यहाँ जितना चाहो, ताँबा ले लो। अन्य युवक बोले-मूर्ख ! ताँबे से दरिद्रता दूर नहीं होगी। हम आगे बढ़ेंगे। आगे इससे अधिक मूल्य की वस्तु मिलेगी। उसने कहा- तुम आगे जाओ, मैं तो यहीं रहूँगा। यह कहकर उसने यथेष्ट ताँबा लिया और घर लौट आया।

शेष तीनों मित्र आगे बढ़े। कुछ दूर जाने के बाद उनमें से एक के हाथ का दीपक ज़मीन पर गिर पड़ा। उसने ज़मीन खोदी तो चाँदी की खान पाई। प्रसन्न होकर बोला- यहाँ जितनी चाहो चाँदी ले लो, आगे मत जाओ । शेष दो मित्र बोले- पीछे ताँबे की खान मिली थी। यहाँ चाँदी की खान मिली है; निश्चय ही आगे सोने की खान मिलेगी। इसलिए हम तो आगे ही बढ़ेंगे। यह कहकर दोनों मित्र आगे बढ़ गए।

उन दो में से एक के हाथ से फिर दीपक गिर गया, खोदने पर उसे सोने की खान मिल गई। उसने कहा-यहाँ जितना चाहो सोना ले लो। हमारी दरिद्रता का अन्त हो जाएगा। सोने से उत्तम कौन-सी चीज़ है। आओ, सोने की खान से यथेष्ट सोना खोद लें और घर ले चलें। उसके मित्र ने उत्तर दिया - मूर्ख ! पहले ताँबा मिला था, फिर चाँदी मिली, अब सोना मिला है; निश्चय ही आगे रत्नों की खान होगी। सोने की खान छोड़ दे और आगे चल । किन्तु वह न माना। उसने कहा- मैं सोना लेकर ही चला जाऊँगा, तुझे आगे जाना हो तो जा ।

अब वह चौथा युवक एकाकी आगे बढ़ा। रास्ता बड़ा विकट था। काँटों से उसके पैर छलनी हो गए। बर्फीले रास्तों पर चलते-चलते शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया, किन्तु वह आगे ही आगे बढ़ता गया।

बहुत दूर जाने के बाद उसे एक मनुष्य मिला, जिसका सारा शरीर से • लथपथ था और जिसके मस्तक पर चक्र घूम रहा था। उसके पास खून जाकर चौथा युवक बोला—तुम कौन हो? तुम्हारे मस्तक पर चक्र क्यों घूम रहा है? यहाँ कहीं जलाशय हो तो बतलाओ, मुझे प्यास लगी है। यह कहते ही उसके मस्तक का चक्र उतरकर ब्राह्मण युवक के मस्तक पर लग गया। युवक के आश्चर्य की सीमा न रही। उसने कष्ट से कराहते हुए पूछा- यह क्या हुआ? यह चक्र तुम्हारे मस्तक से छूटकर मेरे मस्तक पर क्यों लग गया।

अजनवी मनुष्य ने उत्तर दिया-मेरे मस्तक पर भी यह इसी तरह अचानक लग गया था। अब यह तुम्हारे मस्तक से तभी उतरेगा जब कोई व्यक्ति धन के लोभ में घूमता हुआ यहाँ तक पहुँचेगा और तुमसे बात करेगा।

युवक ने पूछा- यह कब होगा? अजनबी- - अब कौन राजा राज्य कर रहा है? युवक - वीणा वत्सराज ।

अजनबी मुझे काल का ज्ञान नहीं। मैं राजा राम के राज्य में दरिद्र हुआ था और सिद्धि का दीपक लेकर यहाँ तक पहुंचा था। मैंने भी एक और मनुष्य से यही प्रश्न किए थे, जो तुमने मुझसे किए हैं। युवक -किन्तु इतने समय में तुम्हें भोजन व जल कैसे मिलता रहा? अजनवी - यह चक्र धन के अति लोभ पुरुष के लिए बना है। इस चक्र के मस्तक पर लगने के बाद मनुष्य को भूख-प्यास, नींद, जरा-मरण आदि नहीं सताते, केवल चक्र घूमने का कष्ट ही सताता रहता है। यह व्यक्ति अनन्त काल तक कष्ट भोगता है।

यह कहकर वह चला गया और वह अति लोभी ब्राह्मण युवक कष्ट भोगने के लिए वहीं रह गया। थोड़ी देर बाद खून से लथपथ हुआ वह इधर-उधर घूमते-घूमते उस मित्र के पास पहुँचा जिसे स्वर्ण की सिद्धि हुई थी, और जो अब स्वर्णकण बटोर रहा था। उससे चक्रधर ब्राह्मण-युवक ने सब वृत्तान्त कह सुनाया। स्वर्ण-सिद्धि युवक ने चक्रधर युवक को कहा कि मैंने तुझे आगे जाने से रोका था तूने अब मेरा कहना नहीं माना। बात यह है कि तुझे ब्राह्मण होने के कारण विद्या तो मिल गई, कुलीनता भी मिली; किन्तु भले-बुरे को परखनेवाली बुद्धि नहीं मिली। विद्या की अपेक्षा बुद्धि का स्थान ऊँचा है। विद्या होते हुए जिनके पास बुद्धि नहीं होती, वे हिंसकारकों की तरह नष्ट हो जाते हैं।

चक्रधर ने पूछा-किन हिंसकारकों की तरह? स्वर्ण-सिद्धि ने तब अगली कथा सुनाई ;

वैज्ञानिक मूर्ख

बिना विचारे जो करे : पंचतंत्र || Bina Vichare jo kare : Panchtantra ||

 बिना विचारे जो करे

अपरीक्ष्य न कर्तव्यं कर्तव्यं सुपरीक्षितम् । पश्चाद्भवति सन्तापो ब्राह्मण्या न कुलाद्य यथा । 

अपरीक्षित काम का परिणाम बुरा होता है

बिना विचारे जो करे : पंचतंत्र || Bina Vichare jo kare : Panchtantra ||

एक बार देवशर्मा नाम के ब्राह्मण के घर जिस दिन पुत्र का जन्म हुआ उसी दिन उसके घर में रहने वाली नकुली ने भी एक नेवले का जन्म दिया । देवशर्मा की पत्नी बहुत दयालु स्वभाव की स्त्री थी। उसने उस छोटे नेवले को भी अपने पुत्र के समान ही पाला-पोसा और बड़ा किया। यह नेवला सदा उसके पुत्र के साथ खेलता था। दोनों में बड़ा प्रेम था। देवशर्मा की पत्नी भी दोनों के प्रेम को देखकर प्रसन्न थी। किन्तु उसके मन में यह शंका हमेशा रहती थी कि कभी यह नेवला उसके पुत्र को न काट खाए। पशु के बुद्धि नहीं होती, मूर्खतावश वह कोई भी अनिष्ट कर सकता है।

एक दिन इस आशंका का बुरा परिणाम निकल आया। उस दिन देवशर्मा की पत्नी अपने पुत्र को एक वृक्ष की छाया में सुलाकर स्वयं पास के जलाशय से पानी भरने गई थी। जाते हुए वह अपने पति देवशर्मा से कह गई थी कि वहीं ठहरकर वह पुत्र की देख-रेख करे, कहीं ऐसा न हो कि नेवला उसे काट खाए। पत्नी के जाने के बाद देवशर्मा ने सोचा कि नेवले और बच्चे में गहरी मैत्री है, नेवला बच्चे को हानि नहीं पहुँचाएगा। यह सोचकर वह अपने सोए हुए बच्चे और नेवले को वृक्ष की छाया में छोड़कर स्वयं भिक्षा के लिए लोभ से कहीं चल पड़ा।

दैववश उसी समय एक काला नाग पास के बिल से बाहर निकला । नेवले ने उसे देख लिया। उसे डर हुआ कि कहीं यह उसके मित्र को न इस ले, इसलिए वह काले नाग पर टूट पड़ा, और स्वयं बहुत क्षत-विक्षत होते हुए भी उसने नाग के खण्ड-खण्ड कर दिए। साँप के मरने के बाद वह उसी दिशा में चल पड़ा, जिधर देवशर्मा की पत्नी पानी भरने गई थी। उसने सोचा कि वह उसकी वीरता की प्रशंसा करेगी, किन्तु हुआ उसके विपरीत । उसकी खून से सनी देह को देखकर ब्राह्मणी-पत्नी का मन उन्हीं पुरानी आशंकाओं से भर गया कि कहीं इसने उसके पुत्र की हत्या न कर दी हो। यह विचार आते ही उसने क्रोध से सिर पर उठाए घड़े को नेवले पर फेंक दिया। छोटा-सा नेवला जल से भरे घड़े की चोट खाकर वहीं मर गया। ब्राह्मण-पत्नी वहाँ से भागती हुई वृक्ष के नीचे पहुँची। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि उसका पुत्र बड़ी शान्ति से सो रहा है और उससे कुछ दूरी पर एक काले साँप का शरीर खण्ड-खण्ड हुआ पड़ा है। तब उसे नेवले की वीरता का ज्ञान हुआ। पश्चात्ताप से उसकी छाती फटने लगी।

इस बीच ब्राह्मण देवशर्मा भी वहाँ आ गया। वहाँ आकर उसने अपनी पत्नी को विलाप करते देखा तो उसका मन भी सशंक्ति हो गया। किन्तु पुत्र को कुशलतापूर्वक सोते देख उसका मन शान्त हुआ। पत्नी ने अपने पति देवशर्मा को रोते-रोते नेवले की मृत्यु का समाचार सुनाया और कहा- मैं तुम्हें यहीं ठहराकर बच्चे की देखभाल के लिए कह गई थी। तुमने भिक्षा के लोभ से मेरा कहना नहीं माना। इसी से यह परिणाम हुआ।

मनुष्य को अतिलोभ नहीं करना चाहिए। अतिलोभ से कई बार मनुष्य के मस्तक पर चक्र लग जाता है?

ब्राह्मण ने पूछा- यह कैसे ? ब्राह्मणी ने तब निम्न कथा सुनाई:

लालच बुरी बला

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अपरीक्षितकारकम् : पंचतंत्र

अपरीक्षितकारकम्

दक्षिण प्रदेश में एक प्रसिद्ध नगर पाटलिपुत्र में मणिभद्र नाम का एक धनिक महाजन रहता था। लोक-सेवा और धर्म-कार्यों में रत रहने से उसके धन-संचय में कुछ कमी आ गई, समाज में मान घट गया। इससे मणिभद्र को बहुत दुःख हुआ। वह दिन-रात चिन्तातुर रहने लगा। वह चिन्ता निष्कारण नहीं थी। धनहीन मनुष्य के गुणों का भी समाज में आदर नहीं होता। 

अपरीक्षितकारकम् : पंचतंत्र

उसके शील-कुल-स्वभाव की श्रेष्ठता भी दरिद्रता में दब जाती है। बुद्धि, ज्ञान और प्रतिभा के सब गुण निर्धनता के तुषार में कुम्हला जाते हैं। जैसे पतझड़ के झंझावात में मौलसिरी के फूल झड़ जाते हैं, उसी तरह घर-परिवार के पोषण की चिन्ता में उसकी बुद्धि कुन्द हो जाती है। घर की घी, तेल, नमक, चावल की निरन्तर चिन्ता प्रखर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति की प्रतिभा को भी खा जाती है। धनहीन घर श्मशान का रूप धारण कर लेता है। प्रियदर्शना पत्नी का सौन्दर्य भी रूखा और निर्जीव प्रतीत होने लगता है। जलाशय में उठते बुलबुलों की तरह उसकी मान-मर्यादा समाज में नष्ट हो जाती है। 

निर्धनता की इन भयानक कल्पनाओं में मणिभद्र का दिल काँप उठा। उसने सोचा, इस अपमानपूर्ण जीवन से मृत्यु अच्छी है। इन्हीं विचारों में डूबा हुआ था कि उसे नींद आ गई। नींद में उसने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में पद्मनिधि ने एक भिक्षु की वेश-भूषा में उसे दर्शन दिए और कहा कि वैराग्य छोड़ दे। तेरे पूर्वजों ने मेरा भरपूर आदर किया था। इसलिए तेरे घर आया हूँ। कल सुबह फिर इसी वेश में तेरे पास आऊँगा। उस समय तू मुझे लाठी की चोट से मार डालना। तब मैं मरकर स्वर्णमय हो जाऊँगा। वह स्वर्ण तेरी गरीबी को हमेशा के लिए मिटा देगा।

सुबह उठने पर मणिभद्र इस स्वप्न की सार्थकता के सम्बन्ध में ही सोचता रहा। उसके मन में विचित्र शंकाएँ उठने लगीं। न जाने यह स्वप्न सत्य था या असत्य, यह सम्भव है या असम्भव, इन्हीं विचारों में उसका मन डाँवाडोल हो रहा था। हर समय धन की चिन्ता के कारण ही शायद उसे धनसंचय का स्वप्न आया था। उसे किसी के मुख से सुनी हुई यह बात याद आ गई कि रोगग्रस्त, शोकातुर, चिन्ताशील और कामार्त मनुष्य के स्वप्न निरर्थक होते हैं। उनकी सार्थकता के लिए आशावादी होना अपने को धोखा देना है।

मणिभद्र यह सोचा ही रहा था कि स्वप्न में देखे हुए भिक्षु के समान ही एक भिक्षु अचानक वहाँ आ गया। उसे देखकर मणिभद्र का चेहरा खिल गया, सपने की बात याद आ गई। उसने पास में पड़ी लाठी उठाई और भिक्षु के सिर पर मार दी। भिक्षु मर गया। भूमि पर गिरने के साथ ही उसका सारा शरीर स्वर्णमय हो गया। मणिभद्र ने उसकी स्वर्णमय मृतदेह को छिप लिया।

किन्तु, उसी समय एक नाई वहाँ आ गया था। उसने यह सब देख लिया था। मणिभद्र ने उसे पर्याप्त धन-वस्त्र आदि का लोभ देकर इस घटना को गुप्त रखने का आग्रह किया। नाई ने वह बात किसी और से तो नहीं कही, किन्तु धन कमाने की इस सरल नीति का स्वयं प्रयोग करने का निश्चय कर लिया। उसने सोचा यदि एक भिक्षु लाठी से चोट खाकर स्वर्णमय हो सकता है। तो दूसरा क्यों नहीं हो सकता। मन ही मन ठान ली कि वह भी कल सुबह कई भिक्षुओं को स्वर्णमय बनाकर एक ही दिन में मणिभद्र की तरह श्रीसम्पन्न हो जाएगा। इसी आशा से वह रात भर सुबह होने की प्रतीक्षा करता रहा, एक पल की नींद नहीं ली।

सुबह उठकर वह भिक्षुओं की खोज में निकला। पास ही भिक्षुओं का एक मन्दिर था। मन्दिर की तीन परिक्रमाएँ करने और अपनी मनोरथ सिद्धि के लिए भगवान बुद्ध से वरदान माँगने के बाद वह मन्दिर के प्रधान भिक्षु के पास गया, उसके चरणों का स्पर्श किया और उचित वन्दना के बाद यह विनम्र निवेदन किया कि आज की भिक्षा के लिए आप समस्त भिक्षुओं समेत मेरे द्वार पर पधारें।

प्रधान भिक्षु ने नाई से कहा- तुम शायद हमारी भिक्षा के नियमों से परिचित नहीं हो। उन ब्राह्मणों के समान नहीं है जो भोजन का निमन्त्रण पाकर गृहस्थों के घर जाते हैं। हम भिक्षु हैं जो यथेष्ठता से घूमते-घूमते किसी भी भक्त श्रावक के घर चले जाते हैं और वहाँ उतना ही भोजन करते हैं, जितना प्राण धारण करने मात्र के लिए पर्याप्त हो, अतः हमें निमन्त्रण न दो। अपने घर जाओ, हम किसी भी दिन तुम्हारे द्वार पर अचानक आ जाएँगे।

नाई को प्रधान भिक्षु की बात से कुछ निराशा हुई, किन्तु उसने नई युक्ति से काम लिया। वह बोला- मैं आपके नियमों से परिचित हूँ, किन्तु मैं आपको भिक्षा के लिए नहीं बुला रहा। मेरा उद्देश्य तो आपको पुस्तक-लेखन की सामग्री देना है। इस महान कार्य की सिद्धि आपके आए बिना नहीं होगी। प्रधान भिक्षु नाई की बात मान गया। नाई ने जल्दी से घर की राह ली। वहाँ जाकर उसने लाठियाँ तैयार कर लीं और उन्हें दरवाज़े के पास रख दिया। 

तैयारी पूरी हो जाने पर वह फिर भिक्षुओं के पास गया और उन्हें घर की ओर ले चला भिक्षुवर्ग भी धन-वस्त्र के लालच से उसके पीछे-पीछे चलने लगा। भिक्षुओं के मन में भी तृष्णा का निवास रहता ही है। जगत् के सब प्रलोभन छोड़ने के बाद भी तृष्णा सम्पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होती। उनके देह के अंगों में जीर्णता आ जाती है, बाल रूखे हो जाते हैं, दाँत टूटकर गिर जाते हैं, आँख-कान बूढ़े हो जाते हैं, केवल मन की तृष्णा ही है, जो अन्तिम श्वास तक जवान रहती है।

उनकी तृष्णा ने ही उन्हें ठग लिया। नाई ने उन्हें घर के अन्दर ले जाकर लाठियों से मारना शुरू कर दिया। उनमें से कुछ तो वहीं धराशाई हो गए। नगर के द्वारपाल भी वहाँ आ पहुँचे वहाँ आकर उन्होंने देखा कि अनेक भिक्षुओं की मृत देह पड़ी है, और अनेक भिक्षु आहत प्राण-रक्षा के लिए इधर-उधर दौड़ रहे हैं।

नाई से जब इस रक्तपात का कारण पूछा गया तो उसने मणिभद्र के घर में आहत भिक्षु के स्वर्णमय हो जाने की बात बतलाते हुए कहा कि वह भी शीघ्र स्वर्णसंचय करना चाहता था। नाई के मुख से यह बात सुनने के बाद राज्य के अधिकारियों ने बुलाया और पूछा कि तुमने किसी भिक्षु की हत्या की है? तब मणिभद्र ने अपने स्वप्न की कहानी आरम्भ से लेकर अन्त तक सुना दी। राज्य के धर्माधिकारियों ने उस नाई को मृत्यु दण्ड की आज्ञा दी और कहा- ऐसे कुपरीक्षितकारी, बिना सोचे काम करने वाले के लिए यही दण्ड उचित था। मनुष्य को उचित है कि वह अच्छी तरह देखे, जाने सुने और उचित परीक्षा किए बिना कोई भी कार्य न करे। अन्यथा उसका वही परिणाम होता है जो इस कहानी के नाई का हुआ और उसके बाद में वैसा ही सन्ताप होता है जैसे नेवले को मारने वाली ब्राह्मणी को ?

मणिभद्र ने पूछा- किस ब्राह्मणी को ?

धर्माधिकारियों ने इसके उत्तर में यह कथा सुनाई

बिना विचारे जो करे

कुत्ते का वैरी कुत्ता : पंचतंत्र || Kutte ka bairi kutta : Panchtantra ||

कुत्ते का वैरी कुत्ता

एको दोषो विदेशस्य स्वजातिद्विरुध्यते

विदेशी का यही दोष है कि यहाँ स्वाजातीय ही विरोध में खड़े हो जाते हैं।

कुत्ते का वैरी कुत्ता : पंचतंत्र || Kutte ka bairi kutta : Panchtantra ||

एक गाँव में चित्रांग नाम का कुत्ता रहता है। वहाँ दुर्भिक्षपड़ गया। अन्न के अभाव में कई कुत्तों का वंशनाश हो गया। चित्राँग ने भी दुर्भिक्ष से बचने के लिए दूसरे गाँव की राह ली। वहाँ पहुँचकर उसने एक घर में चोरी से जाकर भरपेट खाना खा लिया। जिसके घर खाना खाया था, उसने तो कुछ नहीं कहा लेकिन घर से बाहर निकला तो आस-पास के सब कुत्तों ने उसे घेर लिया। भयंकर लड़ाई हुई। चित्राँग के शरीर पर कई घाव लग गए चित्राँग ने सोचा, इससे तो अपना गाँव ही अच्छा है, जहाँ केवल दुर्भिक्ष है, जान के दुश्मन कुत्ते तो नहीं हैं।

यह सोचकर वह वापस आ गया। अपने गाँव आने पर उससे सद कुत्ते ने पूछा-चित्रांग दूसरे गाँव की बात सुना, वह गाँव कैसा है? वहाँ के लोग कैसे हैं? वहाँ खाने-पीने की चीजें कैसी हैं?

चित्राँग ने उत्तर दिया- मित्रों, उस गाँव से खाने-पीने की चीजें तो बहुत अच्छी हैं, और गृह-पलियाँ भी नरम स्वभाव की हैं; किन्तु दूसरे गाँव में एक ही दोष है, अपनी जाति के कुत्ते बड़े खूँखार हैं।

बन्दर का उपदेश सुनकर मगरमच्छ ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपने घर पर स्वामित्व जमाने वाले मगरमच्छ से युद्ध करेगा। अन्त में वह हुआ। युद्ध में मगरमच्छ ने उसे मार दिया और देर तक सुखपूर्वक उस घर में रहता रहा।

॥ चतुर्थ तन्त्र समाप्त ॥

पंचम तंत्र 

अपरिक्षित्कारकम् 

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राजनीतिज्ञ गीदड़: पंचतंत्र || Rajnitigy Gidar : Panchtantra ||

राजनीतिज्ञ गीदड़

उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् । 
नीचमल्पप्रदानेन समशक्तिं पराक्रमैः ॥

उत्कृष्ट शत्रु को विनय से, बहादुर को भेद से, नीच को दान द्वारा और समशक्ति को पराक्रम से वश में लाना चाहिए।

राजनीतिज्ञ गीदड़: पंचतंत्र || Rajnitigy Gidar : Panchtantra ||

एक जंगल में महाचतुरक नाम का गीदड़ रहता था। उसकी दृष्टि में एक दिन अपनी मौत मरा हुआ हाथी पड़ गया। गीदड़ ने उसकी खाल में दाँत गड़ाने की बहुत कोशिश की, लेकिन कहीं से भी उसकी खाल उधेड़ने में उसे सफलता नहीं मिली। उसी समय वहाँ एक शेर आया। शेर को आता देखकर वह साष्टांग प्रणाम करने के बाद हाथ जोड़कर बोला- स्वामी! मैं आपका दास हूँ। आपके लिए ही इस मृत हाथी की रखवाली कर रहा हूँ। आप अब इसका यथेष्ट भोजन कीजिए।

शेर ने कहा- गीदड़ ! मैं किसी और के हाथों मरे जीव का भोजन नहीं करता। भूखे रहकर भी मैं अपने इस धर्म का पालन करता हूँ । अतः तू ही इसका आस्वादन कर मैंने तुझे भेंट में दिया।

शेर के जाने के बाद वहाँ एक बाघ आया। गीदड़ ने सोचा, एक मुसीबत को तो हाथ जोड़कर टाला था, इसे कैसे टालूँ? इसके साथ भेदनीति का ही प्रयोग करना चाहिए। जहाँ साम-दाम की नीति न चले वहाँ भेद-नीति ही काम करती है। भेद-नीति ही ऐसी प्रबल है कि मोतियों को भी माला में बींध देती है। यह सोचकर वह बाघ के सामने ऊँची गर्दन करके गया और बोला : मामा! इस हाथी पर दाँत न गड़ाना। इसे शेर ने मारा है। अभी नदी पर नहाने गया है और मुझे रखवाली के लिए छोड़ गया है। यह भी कह गया है कि यदि कोई बाघ आए तो उसे बता दूँ, जिससे वह सारा जंगल बाघों से खाली कर दे।

गीदड़ की बात सुनकर बाघ ने कहा- मित्र ! मेरी जीवन-रक्षा कर, प्राणों की भिक्षा दे। शेर से मेरे आने की चर्चा न करना-यह कहकर वह बाघ वहाँ से भाग गया।

बाघ के जाने के बाद वहाँ एक चीता आया। गीदड़ ने सोचा, चीते के दाँत तीखे होते हैं, इससे हाथी की खाल उधड़वा लेता हूँ। वह उसके पास जाकर बोला-भगिनीसुत! क्या बात है, बहुत दिनों में दिखाई दिए हो। कुछ भूख से सताए मालूम होते हो। आओ मेरा आतिथ्य स्वीकार करो। यह हाथी शेर ने मारा है। मैं इसका रखवाला हूँ। तब तक शेर आए, इसका माँस खाकर जल्दी से भाग जाओ। उसके आने की खबर दूर से ही दे दूँगा।

गीदड़ थोड़ी दूर पर खड़ा हो गया और चीता हाथी की खाल उधेड़ने लग गया। जैसे ही चीते ने एक-दो जगहों से खाल उधेड़ी, गीदड़ चिल्ला पड़ा-शेर आ रहा है, भाग जा!-चीता यह सुनकर भाग खड़ा हुआ।

उसके जाने के बाद गीदड़ ने उधड़ी हुई जगहों से माँस खाना शुरू कर दिया। लेकिन अभी एक-दो ग्रास ही खाए थे कि एक गीदड़ आ गया। वह उसका समशक्ति ही था, इसलिए उस पर टूट पड़ा और उसे दूर तक भगा आया। इसके बाद बहुत दिनों तक वह उस हाथी का मांस खाता रहा। यह कहानी सुनकर बन्दर ने कहा-तभी तुझे भी कहता हूँ कि स्वजातीय से युद्ध करके अभी निपट ले, नहीं तो उसकी जड़ जग जाएगी। यही नष्ट कर देगा। स्वाजातियों का यही दोष है कि वही विरोध करते हैं, जैसे कुत्ते ने किया था। मगर ने कहा- कैसे?

बन्दर ने तब कुत्ते की कहानी सुनाई :

कुत्ते का वैरी कुत्ता

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घमण्ड का सिर नीचा: पंचतंत्र || Ghamand ka ser Nicha : Panchtantra ||

घमण्ड का सिर नीचा

सतां वचनमादिष्टं मदेन न करोति यः । 
स विनाशमवाप्नोति घष्टोष्ट्र इव सत्वरम्।।

सज्जन की सलाह न माननेवाला और दूसरों से विशेष बनाने का यत्न करनेवाला मारा जाता है।

घमण्ड का सिर नीचा: पंचतंत्र || Ghamand ka ser Nicha : Panchtantra ||

एक गाँव में उज्जवलक नाम का बढ़ई रहता था। वह बहुत गरीब था। गरीबी से तंग आकर वह गाँव छोड़कर दूसरे गाँव के लिए चल पड़ा। रास्ते में घना जंगल पड़ता था। वहाँ उसने देखा कि एक ऊँटनी प्रसवपीड़ा से तड़फड़ा रही थी। ऊँटनी ने जब बच्चा दिया तो वह ऊँट के बच्चे और ऊँटनी को लेकर अपने घर आ गया। वहाँ घर के बाहर ऊँटनी को खूँटी से बाँधकर वह उसके खाने के लिए पत्तों-भरी शाखाएँ काटने वन में गया। ऊँटनी ने हरी-हरी कोमल कोपलें खाईं। बहुत दिन इसी तरह हरे-हरे पत्ते खाकर ऊँटनी स्वस्थ और पुष्ट हो गई। ऊँट का बच्चा भी बढ़कर जवान हो गया। बढ़ई ने उसके गले में एक घण्टा बाँध दिया, जिससे वह कहीं खो न जाए। दूर से ही उसकी आवाज़ सुनकर बढ़ई उसे घर लिवा लाता था। ऊँटनी के दूध से बढ़ई के बाल-बच्चे भी पलते थे। ऊँट भार ढोने के भी काम आने लगा ।

उस ऊँट ऊँटनी से ही उसका व्यापार चलता था। यह देख उसने एक धनिक से कुछ रुपया उधार लिया और गुर्जर देश में जाकर वहाँ से एक और ऊँटनी ले आया। कुछ दिनों में उसके पास अनेक ऊँट-ऊँटनियाँ हो गईं। उनके लिए रखवाला भी रख लिया गया। बढ़ई का व्यापार चमक उठा। घर में दूध की नदियाँ बहने लगीं।

शेष सब तो ठीक था-किन्तु जिस ऊँट के गले में घण्टा बँधा था, वह बहुत गर्वित हो गया था। वह अपने को दूसरों से विशेष समझता था। सब ऊँट वन में पत्ते खाने को जाते तो वह सबको छोड़कर अकेला ही जंगल में घूमा करता था।

किधर है। सबने उसे मना किया, वह गले से घण्टा उतार दे, लेकिन वह उसके घण्टे की आवाज़ से शेर को यह पता लग जाता था कि ऊँट नहीं माना।

एक दिन जब सब ऊट वन में पत्ते खाकर तालाब में पानी पीने के बाद गाँव की ओर वापस आ रहे थे तब वह सबको छोड़कर जंगल की सैर करने अकेला चल दिया। शेर ने भी घण्टे की आवाज़ सुनकर उसका पीछा किया। और जब वह वापस आया तो उस पर झपटकर उसे मार दिया। बन्दर ने कहा-तभी मैंने कहा था कि सज्जनों की बात अनसुनी करके जो अपनी ही करता है, वह विनाश को निमन्त्रण देता है।

मगरमच्छ बोला-तभी तो तुझसे पूछता हूँ । सज्जन है, साधु है, किन्तु सच्चा साधु तो वही है जो अपकार करनेवालों के साथ भी साधुता करे, कृतघ्नों को भी सच्ची राह दिखलाए। उपकारियों के साथ तो सभी साधु होते हैं।

यह सुनकर बन्दर ने कहा—तब मैं तुझे यही उपदेश देता हूँ कि तू जाकर उस मगर से, जिसने तेरे घर पर अनुचित अधिकार कर लिया है, युद्ध कर। नीति कहती है कि शत्रु बली है तो भेद-नीति से, नीच है तो दाम से, और समशक्ति है तो पराक्रम से उस पर विजय पाए ।

मगर ने पूछा- यह कैसे ?

तब बन्दर ने गीदड़, शेर और बाघ की यह कहानी सुनाई :

राजनीतिज्ञ गीदड़

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घर का न घाट का: पंचतंत्र || Ghar ka na Ghat ka : Panchtantra ||

घर का न घाट का

विचित्रचरिताः स्त्रियः

स्त्रियों का चरित्र बड़ा अजीब होता है। स्वजजनों को छोड़कर परकीयों के पास जाने वाली स्त्रियाँ परकीयों से भी ठगी जाती हैं।

घर का न घाट का: पंचतंत्र || Ghar ka na Ghat ka : Panchtantra ||

एक स्थान पर किसान पति-पत्नी रहते थे। किसान वृद्ध था। पत्नी जवान। अवस्था-भेद से पत्नी का चरित्र दूषित हो गया था, उसके चरित्रहीन होने की बात गाँव-भर में फैल गई थी।

एक दिन उसे एकान्त में पाकर एक जवान ठग ने कहा - सुंदरी! मैं विधुर हूँ और तुम्हारे बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा है। चलो, हम यहाँ से दूर भागकर प्रेम से रहें। किसान-पत्नी को यह बात पसन्द आ गयी। वह दूसरे ही दिन घर से सारा धन आभूषण लेकर आ गई और दोनों दक्षिण दिशा की ओर वेग से चल पड़े। अभी दो कोस ही गए थे कि नदी आ गई।

वहाँ दोनों ठहर गए। जवान ठग के मन में पाप था। वह किसान-पत्नी के धन पर हाथ साफ करना चाहता था। उसने नदी को पार करने के लिए यह सुझाव रखा कि पहले वह सम्पूर्ण धन-ज़ेवर की गठरी बाँधकर दूसरे किनारे रख आएगा, फिर आकर सुन्दरी को सहारा देते हुए पार पहुँचा देगा। किसान-पत्नी मूर्ख थी, वह बात मान गई। धन-आभूषणों के साथ वह उसके कीमती कपड़े भी ले गया। किसान पत्नी निपट नग्न रह गई ।

इतने में वहाँ एक गीदड़ी आई। उसके मुख में माँस का टुकड़ा था। वहाँ आकर उसने देखा कि नदी के किनारे एक मछली बैठी है। उसे देखकर वह माँस के टुकड़े को वहीं छोड़ मछली मारने किनारे तक गई। इसी बीच एक गिद्द आकाश से उतरा और झपटकर माँस का टुकड़ा दबोचकर ले गया। उधर मछली भी गीदड़ी को आता देख नदी में कूद पड़ी। गीदड़ी दोनों ओर से खाली हो गई। माँस का टुकड़ा भी गया और मछली भी गई। उसे देख नग्न बैठी किसान-पत्नी ने कहा- गीदड़ी! गिद्द तेरा माँस ले गया और मछली पानी में कूद गई, अब आकाश की ओर क्या देख रही है? गीदड़ी ने भी प्रत्युत्तर देने में शीघ्रता की। वह बोली-तेरा भी तो यही हाल है। न तेरा पति तेरा अपना रहा और नही वह सुन्दर युवक तेरा बना। वह तेरा धन लेकर चला जा रहा है।

मगर यह कहानी सुना ही रहा था कि एक दूसरे मगर ने आकर सूचना दी कि मित्र! तेरे घर पर भी दूसरे मगरमच्छ ने अधिकार कर लिया है। यह सुनकर मगर और भी चिन्तित हो गया। उसके चारों ओर विपत्तियों के बादल उमड़ रहे थे। उन्हें दूर करने का उपाय पूछने के लिए वह बन्दर से बोला- मित्र ! मुझे बता कि साम-दाम-भेद आदि में से किस उपाय से अपने घर पर फिर अधिकार करूँ ।

बन्दर - कृतघ्न! में तुझे कोई उपाय नहीं बताऊँगा। अब मुझे मित्र भी मत कह। तेरा विनाश-काल आ गया है। सज्जनों के वचन पर जो नहीं चलता उसका विनाश अवश्य होता है। जैसे घण्टोष्ट्र का हुआ था। मगर ने पूछा-कैसे? तब बन्दर ने यह कहानी सुनाई-

घमंड का सिर नीचा

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वाचाल गधा: पंचतंत्र || Vachal gadha : Panchtantra ||

वाचाल गधा

मौनं सर्वाऽर्थसाधकम्

वाचालता विनाशक है, मौन में बड़े गुण हैं।

वाचाल गधा: पंचतंत्र || Vachal gadha : Panchtantra ||

एक शहर में शुद्धपट नाम का धोबी रहता था। उसके पास एक गधा भी था। घास न मिलने से वह बहुत दुबला हो गया। धोबी ने तब एक उपाय सोचा। कुछ दिन पहले जंगल में घूमते-घूमते उसे एक मरा हुआ शेर मिला था, उसकी खाल उसके पास थी। उसने सोचा यह खाल गधे को ओढ़ाकर खेत में भेज दूँगा, जिससे खेत के रखवाले इसे शेर समझकर डरेंगे और इसे मारकर भगाने की कोशिश नहीं करेंगे।

धोबी की चाल चल गई। हर रात वह गधे को शेर की खाल पहनाकर खेत में भेज देता था। गधा भी रात भर खाने के बाद घर आ जाता था।

लेकिन एक दिन पोल खुल गई। गधे ने दूसरे गधे की आवाज़ सुनकर खुद भी अरड़ाना शुरू कर दिया। रखवाले शेर की खाल ओढ़े गधे पर टूट पड़े, और उसे इतना मारा कि बेचारा मर ही गया। उसकी वाचालता ने उसकी जान ले ली।

वाचाल गधा: पंचतंत्र || Vachal gadha : Panchtantra ||

बन्दर मगर को यह कहानी कह ही रहा था कि मगर के एक पड़ोसी ने वहाँ आकर मगर को यह खबर दी कि उसकी स्त्री भूखी-प्यासी बैठी उसके आने की राह देखती देखती मर गई। मगरमच्छ यह सुनकर व्याकुल हो गया और बन्दर से बोला- मित्र, क्षमा करना, में तो अब स्त्री वियोग से भी दुखी हूँ। बन्दर ने हँसते हुए कहा-यह तो पहले ही जानता था कि तू स्त्री का दास है अब उसका प्रमाण भी मिल गया। मूर्ख! ऐसी दुष्ट स्त्री की मृत्यु पर तो उत्सव मानना चाहिए, दुःख नहीं। ऐसी स्त्रियाँ पुरुष के लिए विष-समान होती हैं। बाहर से वे जितना अमृत समान मीठी लगती हैं, अन्दर से उतनी ही विष समान कड़वी होती है।

मगर ने कहा- मित्र ! ऐसा ही होगा, किन्तु अब क्या करूँ? मैं तो दोनों ओर से जाता रहा। उधर पत्नी का वियोग हुआ, घर उजड़ गया; इधर तेरे जैसा मित्र छूट गया। यह भी दैव-संयोग की बात है। मेरी अवस्था उस किसान पत्नी की तरह हो गई है। जो पति से भी छूटी और धन से भी वंचित कर दी गई।

बन्दर ने पूछा- वह कैसे? तब मगर ने गीदड़ और किसान पत्नी की यह कथा सुनाई

घर का न घाट का

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स्त्री- भक्त राजा : पंचतंत्र || Stri bhakt raja : Panchtantra ||

स्त्री- भक्त राजा

न किं दद्यान्न किं कुर्यात् स्त्री भिरभ्यर्वितो 

स्त्री की दासता मनुष्य को विचारांथ बना देती है, उसके आग्रह का पालन मत करो। 

शास्त्रों में कहा गया है , औरतों में हठ, अविवेक, छल, मूर्खता, लोभ, मालिन्य और क्रूरता सबसे बड़े दोष होते हैं  अग्नि, जल, महिलाएं, मूर्ख, सांप और शाही परिवार आपके लिए घातक साबित हो सकते हैं इसलिए उनसे हमेशा सतर्क रहना चाहिए। और इस कारण राजा नन्द को भी बहुत शर्मिन्दगी उठानी पड़ी  ।

स्त्री- भक्त राजा : पंचतंत्र || Stri bhakt raja : Panchtantra ||

एक राज्य में अतुलवल पराक्रमी राजा नन्द राज्य करता था। उसकी वीरता चारों दिशाओं में प्रसिद्ध थी। आस-पास के सब राजा उसकी बन्दना करते थे। उसका राज्य समुद्र-तट तक फैला हुआ था। उसका मन्त्री वररुचि भी बड़ा विद्वान् और सब शास्त्रों में पारंगत था। उसकी पत्नी का स्वभाव बड़ा तीखा था। एक दिन वह प्रणय-कलय में ही ऐसी रूठ गई कि अनेक प्रकार से मनाने पर भी न मानी। तब, वररुचि ने उससे पूछा-प्रिये! तेरी प्रसन्नता के लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ। जो तू आदेश करेगी, वही करूँगा। पत्नी ने कहा- अच्छी बात है। मेरा आदेश है कि तू अपना सिर मुण्डाकर मेरे पैरों पर गिरकर मुझे मना, तब मैं मानूँगी। वररुचि ने वैसा ही किया। तब वह प्रसन्न हो गई। 

उसी दिन राजा नन्द की स्त्री भी रूठ गई। नन्द ने भी कहा-प्रिये! तेरी अप्रसन्नता मेरी मृत्यु है। तेरी प्रसन्नता के लिए मैं सब कुछ करने के लिए तैयार हूँ। तू आदेश कर, मैं उसका पालन करूँगा। नन्द-पत्नी बोली- मैं चाहती हूँ कि तेरे मुख में लगाम डालकर तुझपर सवार हो जाऊँ और तू घोड़े की तरह हिनहिनाता हुआ दौड़े। अपनी इस इच्छा के पूरा होने पर ही मैं प्रसन्न होऊँगी। - राजा ने भी उसकी इच्छा पूरी कर दी । दूसरे दिन सुबह राजदरबार में जब वररुचि आया तो राजा ने पूछा- मन्त्री! किस पुण्यकाल में तूने अपना सिर मुंडाया है? 

वररुचि ने उत्तर दिया- राजन्! मैंने उस पुण्यकाल में सिर मुण्डाया है, जिस काल में पुरुष मुख में लगाम लगाकर हिनहिनाते हुए दौड़ते हैं। राजा यह सुनकर बड़ा लज्जित हुआ।

बन्दर ने यह कथा सुनाकर मगर से कहा- महाराज्! तुम भी स्त्री के दास बनकर वररुचि के समान अन्धे बन गए। उसके कहने पर मुझे मारने चले थे, लेकिन वाचाल होने से तुमने अपने मन की बात कह दी। वाचाल होने से सारस मारे जाते हैं। बगुला वाचाल नहीं हैं, मौन रहता है, इसलिए बच जाता है। मौन से सभी काल सिद्ध होते हैं। वाणी का असंयय जीवनमात्र के लिए घातक है। इसी कारण शेर की खाल पहनने के बाद भी गधा अपनी जान बचा सका, मारा गया।

मगर ने पूछा- किस तरह?

बन्दर ने तब वाचाल गधे की यह कहानी सुनाई: 

वाचाल गधा

कहानी में महिलाओं को नीचा नहीं दिखाया गया है, बल्कि उनके अवगुणों के नुकसान को दर्शाया गया है।