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मुझे चाय पसंद है

मुझे चाय पसंद है

मुझे चाय पसंद है

कॉफ़ी में भरपूर नफ़ासत है,

चाय थोड़ी ‘अल्हड़’ है 

महँगा सा कोई कप बॉयफ्रेंड है इसका,

चाय का प्रेमी कुल्हड़ है 

महँगे cafeteria में 

किसी मशीन में बनती हुई ख़ुशबू बिखेरती ये मोहतरमा..

वहीं एक पुराने स्टोव पर,

एक हत्थेदार बर्तन में,

अदरक की महक फैलाती चाय 


कॉफ़ी के साथी कुकीज़ हैं जो सभ्यता से, 

एक bite एक sip की rhythm में चलती है …

पर चाय तो. 

Parle-G के बिस्कुट को ही अपने प्रेम में पूरा डुबा देती है 


सौंदर्य कॉफ़ी का मानो किसी विदेशी दुल्हन को मेहँदी लगी हो,

और चाय !! बिना मेकअप के सांवली सलोनी सी लड़की हो..


मुझे ये खौलता अध्याय पसंद है,

मुझे हर मर्ज़ का ये उपाय पसंद है, 

मुझे चाय पसंद है..

मुझे चाय पसंद है

चाय प्रेमियों को समर्पित 
(काग़ज़ की केतली से साभार )

इक ताइर का दिल रखने की कोशिश की

कोशिश की


Rupa Oos ki ek Boond

फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की, 

इक ताइर का दिल रखने की कोशिश की..


कल फिर चाँद का खंजर घोंप के सीने में,

रात ने मेरी जाँ लेने की कोशिश की..


कितनी लम्बी ख़ामोशी से गुज़री हूँ, 

उन से कितना कुछ कहने की कोशिश की..


एक ही ख़्वाब ने सारी रात जगाया है,

मैंने हर करवट सोने की कोशिश की..

राजा का उत्तराधिकारी: ईमानदारी का फल

राजा का उत्तराधिकारी

एक बार की बात है। नयासर राज्य में नंदाराम नाम का एक राजा हुआ करता था। वह बहुत ईमानदार और साहसी था। उसे अपनी प्रजा से बहुत प्यार था। उसके राज्य में सभी लोग खुशी से एक साथ रहते थे। राजा को एक बात हमेशा परेशान किया करती थी कि उसके जाने के बाद उसके राज्य को कौन संभालेगा? क्योंकि उसकी कोई औलाद नहीं थी। एक दिन राजा ने अपने राज्य से ही किसी युवक को अपना उत्तराधिकारी चुनने का फैसला किया। वह अपनी ही तरह किसी ईमानदार लड़के को सत्ता सौंपना चाहता था, जो प्रजा का ख्याल रखे।

उपदेशात्मक कहानियां

राजा ने काफी सोच विचार करके राज्य के सभी होनहार बच्चों को दरबार में बुलाया और घोषणा करते हुए कहा - मैं आप सब में से किसी एक को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता हूं। इसके लिए आप सबको एक परीक्षा दी जाएगी, जो इसमें पास होगा वही मेरा उत्तराधिकारी बनेगा। इसके बाद राजा ने वहां मौजूद सभी बच्चों को एक-एक बीज दिया और बोला - कि घर जाकर इस बीज को गमले में लगाना है। 4 महीने बाद सभी अपने पौधे के साथ यहां पर फिर से एकत्रित होंगे। उस समय मैं आप में से किसी एक को अपना उत्तराधिकारी बनाऊंगा।

सभी बच्चे सोच रहे थे कि राजा अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए कोई कठिन परीक्षा लेने वाले हैं, लेकिन गमले में बीज बोने की बात सुनकर सभी इस परीक्षा को आसान समझकर खुशी-खुशी घर लौट गए। वक्त बीतने लगा, सभी बच्चों के गमले से बीज की उपज दिखने लगी थी, लेकिन तन्विक नाम का एक बच्चा था, जिसके गमले में पौधे का नामोंनिशान नहीं था।

तन्विक के साथ के दूसरे बच्चों के पौधे बड़े होने लगे थे, यह देखकर वह बहुत परेशान रहने लगा। वह मन ही मन यह सोचता रहता था कि सब के गमले में पौधे आ गए, लेकिन उसके गमले से पौधा क्यों नहीं आ रहा है। उसने सोचा कि हो सोकता है उसका पौधा उगने में अधिक समय ले, इसलिए उसने हार नहीं मानी और वह पूरी मेहनत और लगन के साथ गमले की और ज्यादा देखभाल करता।

धीरे-धीरे 4 महीने बीत गए, लेकिन तन्विक के गमले से कोई पौधा नहीं आया। वहीं, ज्यादातर सभी बच्चों के गमले में पौधे निकल आए। कुछ बच्चों के पौधों में तो फूल और फल भी दिखने लगे। राजा के पास जाने का समय आ गया। तन्विक ने सोचा कि वह राजा के पास जाएगा, तो उसका गमला देखकर सब उसका मजाक बनाएंगे। कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करेंगे कि वह हर दिन गमले में पानी देता था व उसकी देखभाल करता था।

तन्विक की मां ने उसे समझाया और कहा - कि नतीजा कुछ भी आया हो, लेकिन तुम्हें राजमहल उनका बीज लौटाने जाना चाहिए, जो होगा देखा जाएगा। मां के समझाने पर तन्विक मान गया और खाली गमला लेकर राजमहल पहुंचा। वहां उसने देखा कि सभी के गमले में सुंदर-सुंदर पौधे दिखाई दे रहे थे और सभी बहुत खुश थे। उसका गमला देखकर सभी हंसने लगे और अपनी मेहनत का बखान करने लगे। वह चुपचाप आंखें नीचे किए शर्म से बैठ गया।

इतने में राजा आए और सभी के गमलों को ध्यान से देखने लगे। जब वह तन्विक के गमले के पास पहुंचे तो उन्होंने पूछा - यह किसका गमला है? तन्विक - जी मेरा…राजा - तुम्हारा गमला खाली क्यों है?

तन्विक - मैं रोजाना इसको पानी देता था। मैंने इसकी बहुत देखभाल की, लेकिन इसमें से पौधा नहीं निकला।

राजा - आओ मेरे साथ। तन्विक राजा द्वारा बुलाने पर डर गया, लेकिन उसे राजा की आज्ञा माननी ही थी। वह धीरे-धीरे राजा की तरफ आगे बढ़ा। राजा उसे सिंहासन के पास ले गए और बोले - तुम ही इस राज्य के असली उत्तराधिकारी हो। राजा के इस फैसले से वहां मौजूद हर कोई हैरान रह गया।

राजा ने कहा - मैंने जो बीज दिया था वह नकली था। उससे पौधा आ ही नहीं सकता था। आप सब ने बीज बदल दिया, लेकिन तन्विक ने ईमानदारी के साथ 4 महीने मेहनत की और अपनी असफला स्वीकार करते हुए मेरे सामने खाली गमला लाने का साहस दिखाया। तन्विक में वह सारे गुण हैं, जो एक राजा में होने चाहिए। इसलिए इस राज्य का अगला उत्तराधिकारी मैं तन्विक को बनाता हूं।

सभी युवकों का सिर शर्म से झुक गया। वह चुपचाप दरबार से बाहर निकल गये। इस तरह तन्विक ने ईमानदारी की बदौलत राज्य का सिंहासन पा लिया।

शिक्षा: हमें किसी भी परिस्थिति में ईमानदारी नहीं छोड़नी चाहिए। इंसान को उसकी सच्चाई और ईमानदारी का फल जरूर मिलता है।


मेघालय का राज्य पशु "चितकबरा तेंदुआ" || State Animal of Meghalaya "Clouded leopard"

मेघालय का राज्य पशु "चितकबरा तेंदुआ

सामान्य नाम:  धूमिल तेंदुआ (Clouded leopard)
स्थानीय नाम: केरलाल (मिज़ो)
वैज्ञानिक नाम: नियोफ़ेलिस नेबुलोसा 

मेघालय पूर्वोत्तर भारत के "सात बहन" राज्यों में से एक है । "मेघालय" नाम का शाब्दिक अर्थ है "बादलों का निवास"। मेघालय को शुरुआत में 2 अप्रैल, 1970 को असम राज्य के भीतर एक स्वायत्त राज्य के रूप में बनाया गया था। स्वायत्त राज्य को 21 जनवरी, 1972 को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया था। सभी राज्यों की तरह मेघालय राज्य के भी अपने राष्ट्रीय प्रतीक हैं। मेघालय का राजकीय पशु धूमिल/ चितकबरा तेंदुआ (Clouded leopard) है। इसे यह नाम इसके शरीर पर बड़े बादल जैसे धब्बों से मिला है। 

मेघालय का राज्य पशु "चितकबरा तेंदुआ" || State Animal of Medhalaya "Clouded leopard"

चितकबरा तेंदुआ एक मध्यम आकार की बिल्ली है, जिसकी लंबाई 60 से 110 सेमी (2 फीट से 3 फीट 6 इंच) और वजन 11 से 20 किलोग्राम (25 से 44 पाउंड) के बीच होता है। इसका नाम इसके कोट पर विशिष्ट काले बादल जैसे निशानों के कारण रखा गया है। फर का आधार रंग हल्के पीले से गहरे भूरे रंग का होता है, जो गहरे बादल जैसे निशानों को और भी विशिष्ट बनाता है। चितकबरे तेंदुए के पास किसी भी जीवित बिल्ली के समान सबसे लंबे कैनाइन दांत होते हैं। इसके अपेक्षाकृत छोटे पैर और चौड़े पंजे होते हैं, जो इसे पेड़ों पर चढ़ने और घने जंगलों में रेंगने में मदद करते हैं। चितकबरे तेंदुए के पास संतुलन बनाए रखने के लिए एक असाधारण लंबी पूंछ भी होती है।

इसके प्रमुख शिकार जानवर पेड़ों में रहते हैं, चितकबरा तेंदुआ एक उत्कृष्ट पर्वतारोही है। छोटे, लचीले पैर, बड़े पंजे और पैने पंजे मिलकर इसे बहुत ही मजबूत बनाते हैं। चितकबरे तेंदुए की पूंछ उसके शरीर जितनी लंबी हो सकती है, जिससे संतुलन में मदद मिलती है। आश्चर्य की बात है कि, चितकबरा तेंदुआ शाखाओं के नीचे उल्टा लटकते हुए चढ़ सकता है और सबसे पहले पेड़ के तने से नीचे उतर सकता है।

मेघालय का राज्य पशु "चितकबरा तेंदुआ" || State Animal of Medhalaya "Clouded leopard"

चितकबरे तेंदुए घने सदाबहार और पर्णपाती जंगलों के साथ-साथ घास के मैदानों और झाड़ियों वाले आवासों में रहते हैं। वे मुख्य रूप से वृक्षवासी हैं और रात के दौरान शिकार करते हैं। भारत में, चितकबरा तेंदुआ पूर्वोत्तर भारत, सिक्किम और पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में पाया जाता है। मेघालय में, बादल वाले तेंदुए को बालपक्रम-बाघमारा परिदृश्य और नोंगखिलेम राष्ट्रीय उद्यान में दर्ज किया गया है।

निवास स्थान का नुकसान और विखंडन, शिकार प्रजातियों में गिरावट, अवैध शिकार और अवैध वन्यजीव व्यापार, मानव-तेंदुआ संघर्ष कुछ प्रमुख खतरे हैं, जिनका सामना धूमिल तेंदुओं को करना पड़ता है।

धूमिल तेंदुए को IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में "कमजोर" के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। यह भारतीय वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची I और CITES के परिशिष्ट I में भी सूचीबद्ध है। अंतर्राष्ट्रीय धूमिल तेंदुआ दिवस हर साल 4 अगस्त को मनाया जाता है।

English Translate

State Animal of Meghalaya "Clouded Leopard"

Common name: Clouded leopard
Local name: Kerala (Mizo)
Scientific name: Neofelis nebulosa

मेघालय का राज्य पशु "चितकबरा तेंदुआ" || State Animal of Medhalaya "Clouded leopard"

Meghalaya is one of the "seven sister" states of northeastern India. The name "Meghalaya" literally means "abode of clouds". Meghalaya was initially created as an autonomous state within the state of Assam on April 2, 1970. The autonomous state was granted full statehood on January 21, 1972. Like all states, the state of Meghalaya also has its own national symbols. The state animal of Meghalaya is the clouded leopard. It got its name from the large cloud-like spots on its body.

The spotted leopard is a medium-sized cat, measuring between 60 to 110 cm (2 ft to 3 ft 6 in) tall and weighing between 11 to 20 kg (25 to 44 lb). It is so named because of the distinctive dark cloud-like markings on its coat. The base color of the fur ranges from light yellow to dark brown, which makes the dark cloud-like markings even more distinctive. The spotted leopard has the longest canine teeth of any living cat. It has relatively short legs and wide claws, which help it climb trees and crawl through dense forests. The spotted leopard also has an exceptionally long tail to maintain balance.

Its principal prey animals live in trees, the spotted leopard is an excellent climber. Short, flexible legs, large claws and sharp claws together make it very strong. The spotted leopard's tail can be as long as its body, which helps with balance. Surprisingly, the spotted leopard can climb down the branches, hanging upside down, and descends tree trunk first.

Spotted leopards live in dense evergreen and deciduous forests as well as grasslands and shrubland habitats. They are primarily arboreal and hunt during the night. In India, the spotted leopard is found in northeastern India, Sikkim and the northern part of West Bengal. In Meghalaya, the clouded leopard has been recorded in the Balpakram-Baghmara landscape and Nongkhilem National Park.

मेघालय का राज्य पशु "चितकबरा तेंदुआ" || State Animal of Medhalaya "Clouded leopard"

Habitat loss and fragmentation, decline in prey species, poaching and illegal wildlife trade, human-leopard conflict are some of the major threats that clouded leopards face.

The clouded leopard is listed as "Vulnerable" on the IUCN Red List of Threatened Species. It is also listed in Schedule I of the Indian Wildlife (Protection) Act, 1972 and Appendix I of CITES. International Clouded Leopard Day is observed every year on 4 August.

भारतीय राज्य के राजकीय पशुओं की सूची || List of State Animals of India ||

भारतीय राज्य के राजकीय पक्षियों की सूची |(List of State Birds of India)


मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 .. ईदगाह ..

मानसरोवर-1 .. ईदगाह .. 

ईदगाह - मुंशी प्रेमचंद | Idgah by Munshi Premchand

रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जायगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है।

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 .. ईदगाह ..

लड़के सबसे ज़्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज़ है। रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गयी। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयाँ खायेंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाय। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना ख़ज़ाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीज़ें लायेंगें— खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। और सबसे ज़्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गयी। किसी को पता नहीं क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गयी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आयेंगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीज़ें लाने गयी हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज़ है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आयेंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 .. ईदगाह ..

हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है— 'तुम डरना नहीं अम्माँ, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।'

अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ में बच्चा कहीं खो जाय तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकायेगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीज़ें जमा करते लगेंगे। माँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गयी तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पाँच अमीना के बटुवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्लाह ही बेड़ा पार लगावे। धोबन, नाइन, मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आयेंगी। सभी को सेवैयाँ चाहिए और थोड़ा किसी को आँखों नहीं लगता। किस-किस से मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराये? साल भर का त्यौहार है। ज़िंदगी ख़ैरियत से रहे, उनकी तक़दीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जायँगे।

गाँव से मेला चला और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशाना लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।

बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कॉलेज है, यह क्लब-घर है। इतने बड़े कॉलेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे और क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुर्दों की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछों दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्माँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सकें। घुमाते ही लुढ़क जायँ।

महमूद ने कहा— 'हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।'

मोहसिन बोला— 'चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ काँपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज़ निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तले अँधेरा आ जाय।'

महमूद— 'लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।'

मोहसिन— 'हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गयी थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्माँ इतना तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच।'

आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न, एक-एक दुकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर ख़रीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रुपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रुपये।

हामिद को यकीन न आया— 'ऐसे रुपये जिन्नात को कहाँ से मिल जायेंगे?'

मोहसिन ने कहा— 'जिन्नात को रुपये की क्या कमी? जिस ख़ज़ाने में चाहैं चले जायँ। लोहे के दरवाज़े तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गये, उसे टोकरों जवाहरात दे दिये। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जायँ।'

हामिद ने फिर पूछा— 'जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?'

मोहसिन— 'एक-एक का सिर आसमान के बराबर होता है जी! ज़मीन पर खड़ा हो जाय तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाय।'

हामिद— 'लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।' 

मोहसिन— 'अब यह तो मै नहीं जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज़ चोरी जाय, चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे और चोर का नाम बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गये। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।'

अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।

आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कॉन्स्टेबल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जायँ। 

मोहसिन ने प्रतिवाद किया— यह कॉन्स्टेबल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं। रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं, चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर 'जागते रहो! जागते रहो!' पुकारते हैं। तभी इन लोगों के पास इतने रुपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कॉन्स्टेबल हैं। बीस रुपया महीना पाते हैं, लेकिन पचास रुपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रुपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे— 'बेटा, अल्लाह देता है।' फिर आप ही बोले— 'हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लायें। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाय।'

हामिद ने पूछा— 'यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?'

मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- 'अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गयी। सारी लेई-पूँजी जल गयी। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज़ लाये तो बरतन-भांडे आये।'

हामिद— 'एक सौ तो पचास से ज़्यादा होते हैं?'

'कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?'

अब बस्ती घनी होने लगी। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नज़र आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीज़ें अनोखी थीं। जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज़ होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।

सहसा ईदगाह नज़र आयी। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है। और रोज़ेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गयी हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नये आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गये। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जायँ, और यही क्रम चलता रहा। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोये हुए है।

2

नमाज़ खत्म हो गयी है। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी ज़मीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ों में लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई ज़रा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।

सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दुकानों की कतार लगी हुई हैं। तरह-तरह के खिलौने हैं— सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किये चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए है। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वत्ता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में क़ानून का पोथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किये चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाय। ज़रा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाय। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा; किस काम के!

मोहसिन कहता है— 'मेरा भिश्ती रोज पानी दे जायगा साँझ-सबेरे।'

महमूद— 'और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आयेगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।'

नूरे— 'और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।'

सम्मी- 'और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोयेगी।'

हामिद खिलौनों की निंदा करता है— 'मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जायँ।' लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक़ है। हामिद ललचाता रह जाता है।

खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचायी आँखों से सबकी ओर देखता है।

मोहसिन कहता है— 'हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!'

हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।

मोहसिन— 'अच्छा, अबकी ज़रूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जाओ।'

हामिद— 'रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?'

सम्मी— 'तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?'

महमूद— 'हमसे गुलाबजामुन ले जाव हामिद। मोहमिन बदमाश है।'

हामिद— 'मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।'

मोहसिन— 'लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?'

महमूद— 'हम समझते हैं, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जायेंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खायगा।'

मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रूक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख़्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उंगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज़ हो जायगी। खिलौने से क्या फ़ायदा? व्यर्थ में पैसे ख़राब होते हैं। ज़रा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जायेंगे या छोटे बच्चे जो मेले में नहीं आये हैं ज़िद कर के ले लेंगे और तोड़ डालेंगे। चिमटा कितने काम की चीज़ है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हे में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्माँ बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाज़ार आयें और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।

हामिद के साथी आगे बढ़ गये हैं। सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खायें मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जायगी। तब घर से पैसे चुरायेंगे और मार खायेंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों ख़राब होगी? अम्माँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी— मेरा बच्चा अम्माँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआयें देगा? बड़ों की दुआयें सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। मेरे पास पैसे नहीं है तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिज़ाज दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिज़ाज दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खायें मिठाइयाँ। मै नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिज़ाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आयेंगे। अम्मा भी आयेंगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब खूब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसें! मेरी बला से। उसने दुकानदार से पूछा— यह चिमटा कितने का है?

दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा— 'तुम्हारे काम का नहीं है जी!'

‘बिकाऊ है कि नहीं?’

‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाये हैं?’

तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’

‘छ: पैसे लगेंगे।‘

हामिद का दिल बैठ गया।

‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘

हामिद ने कलेजा मज़बूत करके कहा- 'तीन पैसे लोगे?'

यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं!

मोहसिन ने हँसकर कहा— 'यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?'

हामिद ने चिमटे को ज़मीन पर पटककर कहा— 'जरा अपना भिश्ती ज़मीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जायँ बच्चू की।'

महमूद बोला— 'तो यह चिमटा कोई खिलौना है?'

हामिद— 'खिलौना क्यों नहीं है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गयी। हाथ में ले लिया, फ़कीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाय। तुम्हारे खिलौने कितना ही ज़ोर लगायें, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नहीं कर सकते। मेरा बहादुर शेर है चिमटा।'

सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला— 'मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।'

हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा- 'मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खँजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाय तो खत्म हो जाय। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफ़ान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।'

चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आये हैं, नौ कब के बज गये, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से ज़िद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।

अब बालकों के दो दल हो गये हैं। मोहसिन, महमूद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ[14] हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फ़ौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाय तो मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जायँ, मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागें, वकील साहब की नानी मर जाय, चोगे में मुँह छिपाकर ज़मीन पर लेट जायँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जायगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।

मोहसिन ने एड़ी—चोटी का ज़ोर लगाकर कहा— 'अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?'

हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा— 'भिश्ती को एक डाँट बतायेगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।'

मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई— 'अगर बच्चा पकड़ जायँ तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेंगे।'

हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा— 'हमें पकड़ने कौन आयेगा?'

नूरे ने अकड़कर कहा— 'यह सिपाही बंदूकवाला।'

हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा— 'यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाय। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे!' 

मोहसिन को एक नयी चोट सूझ गयी— 'तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।'

उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जायगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया— 'आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जायेंगे। आग में कूदना वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।'

महमूद ने एक ज़ोर लगाया— 'वकील साहब कुरसी-मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावर्चीख़ाना[16] में ज़मीन पर पड़ा रहेगा।'

इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावर्चीख़ाना में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?

हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शुरू की— मेरा चिमटा बावर्चीख़ाने में नहीं रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें ज़मीन पर पटक देगा और उनका क़ानून उनके पेट में डाल देगा।

बात कुछ बनी नहीं। ख़ासी गाली-गलौज थी; लेकिन क़ानून को पेट में डालने वाली बात छा गयी। ऐसी छा गयी कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गये मानो कोई धेलचा कनकौआ[17]किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। क़ानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज़ है। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।

विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज़ न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जायँगे। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?

संधि की शर्तें तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा— 'जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।'

महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किये।

हामिद को इन शर्तों को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आये। कितने ख़ूबसूरत खिलौने हैं।

हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे— 'मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।'

लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।

मोहसिन— 'लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?'

महमूद— 'दुआ को लिये फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्माँ ज़रूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?'

हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होंगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें-हिन्द है ओर सभी खिलौनों का बादशाह।

रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिये। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गये। यह उस चिमटे का प्रसाद था।

3

ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गयी। मेलेवाले आ गये। मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोये। उनकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाये।

मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज़्यादा गौरवमय हुआ। वकील ज़मीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गयी। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर काग़ज़ का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! क़ानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जायगी कि नहीं? बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गयी।

अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें। वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आयी, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाये गये, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठायी और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हैं। मगर रात तो अँधेरी ही होनी चाहिये। महमूद को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये ज़मीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है।

महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डॉक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जवाब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही सन्न्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफ़ा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।

अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज़ सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।

‘यह चिमटा कहाँ था?’

‘मैंने मोल लिया है।

‘कै पैसे में?’

‘तीन पैसे दिये।‘

अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया।

हामिद ने अपराधी भाव से कहा— 'तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।'

बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना ‍सद्‌भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्‌गद्‌ हो गया।

और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गयी। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता।

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्र || Complete Mansarovar Stories Munshi Premchand

आज रात भी तेरे खयालों से

आज रात भी तेरे खयालों से

Rupa Oos ki ek Boond

आज रात भी तेरे खयालों से,

निजात हम नहीं पाएंगे...


आज रात भी तुझे ढूंढने,

ख्वाबों में... हम फिर सो जाएंगे...


ले आएंगे तुमको करीब फिर खयाल से,

ख्वाब खो ना जाये, फिर से नींद टूटने के सितम से..


फिर सारी रात तकिये को भिगो देंगे,

तुझे खो देने के मातम से हम बचते बचते आज फिर रो देंगे...

सालासर बालाजी मंदिर, राजस्‍थान || Salasar Balaji Temple, Rajasthan

सालासर बालाजी मंदिर, राजस्‍थान

भारत में यह एकमात्र बालाजी का मंदिर है, जिसमें बालाजी के दाढ़ी और मूँछ है। राजस्‍थान के चुरू ज‌िले में हनुमान जी का एक प्रस‌िद्ध मंद‌िर है, जो सालासर बालाजी (Salasar Balaji) के नाम से प्रसिद्ध है। बाला जी के प्रकट होने की कथा ज‌ितनी ही चमत्कारी है, उतने ही बाला जी भी चमत्कारी और भक्तों की मनोकामना पूरी करने वाले हैं। 

सालासर बालाजी मंदिर, राजस्‍थान || Salasar Balaji Temple, Rajasthan

बालाजी की प्रतिमा शालिग्राम पत्थर की है जिसे सिंदूरी रंग और सोने से सजाया गया है। दिन में कई बार इनकी पोशाक बदलकर इनका भव्य श्रृंगार किया जाता है,कभी गुलाब तो कभी मोगरा के फूलों से इनकी झांकी सजाई जाती है।

सालासर धाम की स्थापना करीब 268 साल पहले हुई थी। संत मोहन दासजी महाराज ने बालाजी के चढ़ावे में आए पांच रुपए से मंदिर का निर्माण करवाया था। मंदिर बनाने के पीछे का मकसद भी श्रद्धा से जुड़ा हुआ है। संवत 1811 श्रावण शुक्ला नवमी शनिवार के दिन बालाजी महाराज की मूर्ति स्थापित हुई थी। इसके बाद में संत मोहन दासजी ने फतेहपुर के नूर मोहम्मद और दाऊ नामक कारीगरों को मंदिर निर्माण के लिए बुलाया। सम्वत् 1815 में निर्माण पूरा हुआ। वर्तमान में मंदिर परिसर लंबे-चौड़े क्षेत्रफल में फैला हुआ है और सभी सुविधाएं भी हैं। देशभर में सालासर धाम अलग पहचान रखता है। कई राज्यों से यहां श्रद्धालु भगवान के दर्शन करने आते हैं।

सालासर बालाजी मंदिर, राजस्‍थान || Salasar Balaji Temple, Rajasthan

यहाँ ​नारियल से पूरी होती है मनौती​ (मन्नत)

सालासर बालाजी धाम में नारियल चढ़ावे में खास तौर से रखा जाता है। माना जाता है कि भगवान नारियल के भेंट स्वीकार कर लोगों की मनोकामना पूरी करते हैं। हर साल करीब 25 लाख नारियल मंदिर में चढ़ाए जाते हैं। खास बात यह भी है कि यहां मनौती के इन नारियलों का दोबारा उपयोग में नहीं लिया जाता है। उन्हें खेत में गड्‌ढा खोदकर दबा दिया जाता हैं।

सालासर बालाजी मंदिर, राजस्‍थान || Salasar Balaji Temple, Rajasthan

यहां करीब करीब 200 सालों से श्रद्धालु मंदिर परिसर में ही लगे खेजड़ी के एक पेड़ पर लाल कपड़े में नारियल बांधकर जाते हैं । इन नारियलों को फेंका नहीं जाता है। ना ही जलाया जाता है और ना ही कोई अन्य उपयोग होता है। इसके पीछे भी एक रोचक कथा है। नारियलों को सालासर बालाजी मंदिर से करीब 11 किलोमीटर दूर मुरड़ाकिया गांव के पास करीब 250 बीघा खेत में गड्ढा करके दबा दिया जाता है। यशोदा नंदन पुजारी ने बताया कि शुरुआती दिनों में इन नारियलों को धूने की ज्योत में डालकर जला दिया जाता था। लेकिन तीसरी पीढ़ी के पुजारी परिवार के मुखिया को एक सपना आया। इस सपने में पुजारी ने देखा कि नारियलों के साथ भक्तों की मनोकामनाएं भी जल रही हैं। पुजारी ने अपने परिवारजनों को इकट्ठा कर यह बात बताई। इसके बाद मन्नतों के इन नारियलों को सुरक्षित रखने का फैसला किया गया।

सालासर बालाजी मंदिर, राजस्‍थान || Salasar Balaji Temple, Rajasthan

बालाजी के एक भक्त थे मोहनदास। इनकी भक्त‌ि से प्रसन्न होकर बालाजी ने इन्हे मूर्त‌ि रूप में प्रकट होने का वचन द‌िया। अपने वचन को पूरा करने के ल‌िए बालाजी नागौर जिले के आसोटा गांव में 1811 में प्रकट हुए। इसकी भी एक रोचक कथा है।

आसोटा में एक जाट खेत जोत रहा था तभी उसके हल की नोक क‌िसी कठोर चीज से टकराई। उसे निकाल कर देखा तो एक पत्थर था। जाट ने अपने अंगोछे से पत्‍थर को पोंछकर साफ किया तो उस पर बालाजी की छवि नजर आने लगी। इतने में जाट की पत्नी खाना लेकर आई। उसने बालाजी के मूर्ति को बाजरे के चूरमे का पहला भोग लगाया। यही कारण है क‌ि बाला जी को चूरमे का भोग लगता है।

सालासर बालाजी मंदिर, राजस्‍थान || Salasar Balaji Temple, Rajasthan

कहते हैं ज‌िस द‌िन यह मूर्त‌ि प्रकट हुई उस रात बालाजी ने सपने में आसोटा के ठाकुर को अपनी मूर्त‌ि सलासर ले जाने के ल‌िए कहा। दूसरी तरफ मोहन राम को सपने में बताया क‌ि ज‌िस बैलगाड़ी से मूर्त‌ि सालासर पहुंचेगी उसे सालासर पहुंचने पर कोई नहीं चलाए। जहां बैलगाड़ी खुद रुक जाए वहीं मेरी मूर्त‌ि स्‍थापि‌त कर देना। सपने में म‌िले न‌िर्देश के अनुसार ही मूर्त‌ि को वर्तमान स्‍थान पर स्‍थाप‌ित क‌िया गया है।

सालासर बालाजी मंदिर, राजस्‍थान || Salasar Balaji Temple, Rajasthan

पूरे भारत में एक मात्र सालासर में दाढ़ी मूछों वाले हनुमान यानी बालाजी स्‍थ‌ित हैं। इसके पीछे मान्यता यह है क‌ि मोहनराम को पहली बार बालाजी ने दाढ़ी मूंछों के साथ दर्शन द‌िए थे। मोहनराम ने इसी रूप में बालाजी को प्रकट होने के ल‌िए कहा था। इसल‌िए हनुमान जी यहां दाढ़ी मूछों में स्‍थ‌ित हैं।

होली (Holi) - 2024

होली (Holi)

आज होली का त्योहार देश भर में धूमधाम से मनाया जा रहा है। लोग एक दूसरे को रंग में सरोबार करके आनंदित हो रहे हैं। आप सभी को रंगोत्सव की हार्दिक बधाई।

होली (Holi) - 2024

होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस वर्ष, होली का महत्वपूर्ण त्योहार आज सोमवार, 25 मार्च, 2024 को मनाया जा रहा है। 

इस वर्ष होली पर चंद्र ग्रहण भी लग रहा है। 100 साल बाद इस वर्ष होली पर चंद्र ग्रहण लग रहा है। हिंदू पंचांग के अनुसार, चंद्र ग्रहण फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि यानी 25 मार्च 2024 को सोमवार को लगेगा। यह चंद्र ग्रहण सुबह 10.23 बजे शुरू होगा और दोपहर 3.02 बजे तक रहेगा। यह चंद्र ग्रहण भारत में दिखाई नहीं देगा। इसलिए इसका सूतक काल भी मान्य नहीं होगा। साथ ही इस चंद्रग्रहण का होली पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। यह चंद्र ग्रहण उत्तर और पूर्व एशिया, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, प्रशांत, अटलांटिक, आर्कटिक और अंटार्कटिका के अधिकांश हिस्सों में दिखाई देगा। यह साल का पहला चंद्र ग्रहण है।
होली (Holi) - 2024

पर्व और त्योहारों में मनुष्य और मनुष्य के बीच, मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया गया है, यहां तक कि उसे पूरे ब्रह्मांड के कल्याण से जोड़ दिया है। इनमें लौकिक कार्यों के साथ ही धार्मिक तत्त्वों का ऐसा समावेश किया गया है, जिससे हमें न केवल अपने जीवन निर्माण में सहायता मिले, बल्कि समाज की भी उन्नति होती रहे ।

पर्व और त्योहार धर्म एवं आध्यात्मिक भावों को उजागर कर लोक के साथ परलोक सुधार की प्रेरणा भी देते हैं। इस प्रकार मनुष्यों की आध्यात्मिक उन्नति में भी ये सहायक होते हैं। इसके अलावा ये घर परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों को समीप लाने, मिल-बैठने, एक-दूसरे के सुख-आनंद में सहभागी बनने को शुभ अवसर प्रदान करते हैं और मानवीय उदारता, समग्रता, प्रेम तथा भाईचारे का संदेश पहुंचाते हैं।

होली (Holi) - 2024

आप सभी को होली की एक बार फिर से रंगभरी बधाई।

आहिस्ता आहिस्ता करके

आहिस्ता आहिस्ता करके

Rupa Oos ki ek Boond

आहिस्ता आहिस्ता करके,

पिघलना पड़ता है,

आसान नहीं मुहब्बत,

बहुत जलना पड़ता है।

बुझती भी नहीं आग दिल की,

जलकर राख भी नहीं होता है।

एक बार हो जाए मुहब्बत तो,

जिंदगी भर गिर गिर कर,

संभलना पड़ता है।

सदियों से रहा है दुश्मन,

जमाना मुहबत का

घर वालों की नजर से भी,

आंसू बनकर निकलना पड़ता है।

खुब सोचना समझना 

किसी का होने से पहले

क्योंकि हो जाए इश्क़ तो,

ताउम्र हाथ मलना पड़ता है।

इतिहास गवाह है मुहब्बत में,

मंजिल नहीं मिलती,

सूरज की तरह रोज,

निकलकर ढलना पड़ता है।

Rupa Oos ki ek Boond

23 मार्च : भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव शहीद दिवस

मार्च : भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव शहीद दिवस


"लिख रहा हूँ मैं अंजाम जिसका कल आगाज़ आयेगा,
मेरे लहू का हर एक कतरा इंकलाब लाएगा,
मैं रहूँ या न रहूँ पर मेरा वादा हैं तुमसे कि,
मेरे बाद वतन पर मरने वालों का सैलाब आएगा"

आज शहीदी दिवस के मौके पर शहीद-ए-आजम भगत सिंह, शहीद सूखदेव और शहीद राजगुरू के बलिदान को कोटिशः नमन 🙏

23 मार्च : भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव शहीद दिवस

आज के दिन अर्थात 23 मार्च को भारत के सपूत शहीद भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु ने हंसते-हंसते फांसी की सजा को गले लगा लिया था। भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेजों ने निर्धारित समय से पूर्व ही 23 मार्च 1931 को फांसी की सजा दे दी थी। भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु ने बहुत ही कम उम्र में ही देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसीलिए 23 मार्च को प्रतिवर्ष भारत मां के वीर सपूतों को श्रद्धांजलि देने के लिए शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

23 मार्च : भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव शहीद दिवस

30 जनवरी और 23 मार्च के शहीद दिवस में अंतर क्या है?

भारत देश में प्रतिवर्ष 7 शहीद दिवस मनाया जाते हैं। शहीदी दिवस शहीदों के सम्मान में मनाया जाता है। यह सात दिन 30 जनवरी, 23 मार्च, 19 मई, 21 अक्टूबर, 17 नवंबर, 19 नवंबर और 24 नवंबर है और इस मौके पर देशवासी शहीद जवानों को नमन करते हैं। 

30 जनवरी के शहीद दिवस का इतिहास

30 जनवरी का शहीद दिवस महात्मा गांधी को समर्पित है। देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 30 जनवरी को पुण्यतिथि मनाई जाती है। इस दिन 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। देश को आजादी दिलाने के लिए सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले गांधी जी के निधन के बाद उनकी पुण्यतिथि को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

23 मार्च : भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव शहीद दिवस

23 मार्च के शहीद दिवस का इतिहास

23 मार्च 1931 को आजादी की लड़ाई में शामिल क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी। अंग्रेजों ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने पर उन्हें फांसी की सजा सुनाई और भारतीयों के आक्रोश के डर के कारण तय तारीख से एक दिन पहले गुपचुप तरीके से तीनों को फांसी पर लटका दिया। अमर शहीदों के बलिदान को याद करते हुए शहीद दिवस मनाते हैं। इस दिन आजादी की लड़ाई में अपनी जान कुर्बान करने वाले अमर शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है।
23 मार्च : भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव शहीद दिवस

30 जनवरी को शहीद दिवस के मौके पर देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और तीनों सेना प्रमुख राजघाट स्थित महात्मा गांधी की समाधि पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। सेना के जवान भी इस मौके पर राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि देते हुए हथियार नीचे झुकाते हैं। वहीं 23 मार्च को शहीद दिवस के अवसर पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान को याद किया जाता है और उन्हें श्रद्धांजली दी जाती है।

मणिपुर का राज्य पशु "संगाई" || State Animal of Manipur "Sangai"

मणिपुर का राज्य पशु "संगाई"

स्थानीय नाम: संगाई (शंघाई), 'डांसिंग डिअर', भौंह-एंटीलर्ड हिरण 
वैज्ञानिक नाम: सेर्वुस एल्डी

"शंघाई हिरण" मणिपुर का राज्य पशु है। इसकी गतिविधियों के कारण इसे 'डांसिंग डिअर' के नाम से भी जाना जाता है। विशेष रूप से यह मणिपुर के "केबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान" में निवास करता है। केबुल लामजाओ विश्व का एकमात्र तैरता हुआ राष्ट्रीय उद्यान है, जो कि मणिपुर में स्थित "लोकटक झील" पर अवस्थित है और इसी भौगोलिक क्षेत्र में "शंघाई हिरन" भी पाया जाता है। लोकटक झील के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित केइबुल लामजाओ उत्तर-पूर्व भारत की सबसे बड़ी प्राकृतिक ताजे पानी की झील है।

मणिपुर का राज्य पशु "संगाई"  || State Animal of Manipur "Sangai"

मणिपुर के नाचने वाले हिरण या भौंह-एंटीलर्ड हिरण के रूप में भी जाना जाता है, संगाई एक अद्वितीय हिरण है। यह जानवर एक मध्यम आकार का हिरण है, जिसके विशिष्ट सींग होते हैं, जिसकी लंबाई 100 -110 सेमी होती है और भौंहें बहुत लंबी होती हैं, जो मुख्य बीम बनाती हैं। उनके पास लाल भूरे से भूरे रंग का कोट, गहरे भूरे रंग की काली नाक, होंठ और मुंह हैं। इन हिरणों के नर की ऊंचाई 115-130 सेमी होती है। जबकि, महिलाओं की ऊंचाई मूल रूप से 90-100 सेमी मापी जाती है। नर का वजन 90-125 किलोग्राम होता है, जबकि मादा का वजन 60-80 किलोग्राम होता है। यह एक मध्यम आकार का हिरण है जिसमें असामान्य सींग (हिरण के सिर पर शाखाओं वाले सींग) और लंबी भौंहें होती हैं, यही कारण है कि इसे भौंह-मृग हिरण के रूप में भी जाना जाता है। मणिपुर में लगभग 200 संगाई हैं।

मणिपुर का राज्य पशु "संगाई"  || State Animal of Manipur "Sangai"

संगाई विभिन्न प्रकार के पानी में रहने वाले पौधों, घासों, जड़ी-बूटियों के पौधों और अंकुरों को खाता है - ज़िज़ानिया लैटिफोलिया, सैकरम मुंजा, एस बेंगालेंसिस, एरियनथस प्रोसेरस, ई रेवर्नने, आदि, जानवर के पसंदीदा भोजन पौधे हैं।

वनस्पतियों का तैरता हुआ बायोमास, जो घास के मैदान (घास के मैदान का एक टुकड़ा) बनाता है, जिसे स्थानीय तौर पर 'फुमदी' कहा जाता है, संगाई के निवास का प्रमुख कारण है। लेकिन, लगातार बाढ़ और मानव निर्मित जलाशय के कारण इन घास के मैदानों का निवास स्थान लगातार ख़राब हो रहा है। प्रदूषण के कारण इन जलाशयों से उपभोग किए जाने वाले पानी की गुणवत्ता धीरे-धीरे कम हो रही है। इसके अलावा, इसके निवास स्थान को प्रभावित करने वाले अन्य खतरे बीमारियों से संबंधित हैं - अवैध शिकार, अंतःप्रजनन अवसाद, अन्य। जंगल में संगाई का अधिकतम जीवनकाल लगभग 10 वर्ष का होता है।

मणिपुर का राज्य पशु "संगाई"  || State Animal of Manipur "Sangai"

विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के अनुसार, संगाई को 1950 तक लगभग विलुप्त माना गया था, 1953 में, राष्ट्रीय उद्यान में छह हिरणों को देखा गया था। तब से, मणिपुर राज्य ने कुछ प्रमुख पहलों के साथ इस प्रजाति की रक्षा की है।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया ने पहले मणिपुर वन विभाग और भारतीय वन्यजीव संस्थान के साथ बैठकें की हैं, और संगाई के संरक्षण परिदृश्य के संबंध में जमीनी अध्ययन के लिए केइबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान में प्रतिनिधिमंडल भेजा है। मूल्यांकन के आधार पर, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया ने सरकार को कुछ सिफारिशें कीं। संगाई के संरक्षण के लिए मणिपुर की ओर से - जिसमें कुछ जानवरों को दूसरे घर में स्थानांतरित करना भी शामिल है।

मणिपुर का राज्य पशु "संगाई"  || State Animal of Manipur "Sangai"

इस बीच, मणिपुर के वन विभाग के अनुसार, इसके आवास की पहली जनगणना 1975 में की गई थी, जिसमें केवल 14 प्रमुखों की गणना की गई थी। दुनिया में लुप्तप्राय हिरण प्रजातियों में से एक, यह अब केवल मणिपुर के केबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान में उपलब्ध है। इसे अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) के वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची -1 में 'लुप्तप्रायप्रजाति के रूप में चिह्नित किया गया है।

वन विभाग ने 1975 में पहल की और 1977 में केइबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान को अधिसूचित किया। विभाग द्वारा गहन इन-सीटू संरक्षण प्रयासों के साथ, संगाई की आबादी काफी हद तक बढ़ गई है। 2016 की जमीनी जनगणना के अनुसार, संगाई की आबादी 260 तक पहुंच गई है।

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State Animal of Manipur "Sangai"

Local name: Sangai (Shanghai), 'dancing deer', brow-antlered deer
Scientific Name: Cervus aldi

मणिपुर का राज्य पशु "संगाई"  || State Animal of Manipur "Sangai"

"Shanghai Deer" is the state animal of Manipur. Due to its activities it is also known as 'dancing deer'. Specifically it resides in "Kebul Lamjao National Park" of Manipur. Kebul Lamjao is the only floating national park in the world, which is situated on the "Loktak Lake" located in Manipur and in the same geographical area the "Shanghai Deer" is also found. Keibul Lamjao, located in the south-eastern part of Loktak Lake, is the largest natural fresh water lake in north-east India.

Also known as the dancing deer of Manipur or the brow-antlered deer, the Sangai is a unique deer. This animal is a medium-sized deer with distinctive antlers, measuring 100 -110 cm in length and very long eyebrows, which form the main beam. They have a reddish brown to brown coat, dark brown to black nose, lips and mouth. The height of the males of these deer is 115-130 cm. Whereas, the height of women is basically measured at 90-100 cm. The weight of the male is 90-125 kg, while that of the female is 60-80 kg. It is a medium-sized deer with unusual antlers (branching antlers on the deer's head) and long eyebrows, which is why it is also known as the brow-antlered deer. There are about 200 Sangais in Manipur.

मणिपुर का राज्य पशु "संगाई"  || State Animal of Manipur "Sangai"

Sangai eats a variety of water-dwelling plants, grasses, herbaceous plants and shoots – Zizania latifolia, Saccharum munja, S. bengalensis, Erianthus procerus, E. revernae, etc., are the favorite food plants of the animal.

The floating biomass of vegetation, which forms a meadow (a patch of grassland), locally called 'phumdi', is the major source of Sangai habitat. But, the habitat of these grasslands is continuously getting degraded due to frequent floods and man-made reservoirs. The quality of water consumed from these reservoirs is gradually decreasing due to pollution. Furthermore, other threats affecting its habitat are related to diseases – poaching, inbreeding depression, among others. The maximum lifespan of a sangai in the wild is about 10 years.

According to the World Wildlife Fund (WWF), the Sangai was considered nearly extinct by 1950. In 1953, six deer were sighted in the national park. Since then, the state of Manipur has protected this species with some major initiatives.

WWF-India has previously held meetings with the Manipur Forest Department and the Wildlife Institute of India, and sent delegations to Keibul Lamjao National Park for on-the-ground studies regarding the conservation scenario of Sangai. Based on the assessment, WWF-India made some recommendations to the government. from Manipur for the conservation of Sangai – which also includes relocating some animals to another home.

Meanwhile, according to the Manipur Forest Department, the first census of its habitat conducted in 1975 counted only 14 heads. One of the endangered deer species in the world, it is now available only in Keibul Lamjao National Park in Manipur. It is marked as an 'endangered' species in Schedule-I of the Wildlife (Protection) Act, 1972 of the International Union for Conservation of Nature (IUCN).

The Forest Department took the initiative in 1975 and notified Keibul Lamjao National Park in 1977. With intensive in-situ conservation efforts by the department, the population of Sangai has increased substantially. As of 2016 land census, the population of Sangai has reached 260.

भारतीय राज्य के राजकीय पशुओं की सूची || List of State Animals of India ||

भारतीय राज्य के राजकीय पक्षियों की सूची |(List of State Birds of India)


मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 .. अलग्योझा ..

मानसरोवर-1 .. अलग्योझा..

अलग्योझा - मुंशी प्रेमचंद | Algyojha by Munshi Premchand

भोला महतो ने पहली स्त्री के मर जाने बाद दूसरी सगाई की तो उसके लड़के रग्घू के लिये बुरे दिन आ गये। रग्घू की उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी। चैन से गाँव में गुल्ली-डंडा खेलता फिरता था। माँ के आते ही चक्की में जुतना पड़ा। पन्ना रुपवती स्त्री थी और रुप और गर्व में चोली-दामन का नाता है। वह अपने हाथों से कोई काम न करती। गोबर रग्घू निकालता, बैलों को सानी रग्घू देता। रग्घू ही जूठे बरतन माँजता। भोला की आँखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे अब रग्घू में सब बुराइयाँ-ही- बुराइयाँ नजर आतीं। पन्ना की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार आँखें बंद करके मान लेता था। रग्घू की शिकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि रग्घू ने शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोये? बाप ही नहीं, सारा गाँव उसका दुश्मन था। बड़ा जिद्दी लड़का है, पन्ना को तो कुछ समझता ही नहीं; बेचारी उसका दुलार करती है, खिलाती-पिलाती है यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो निबाह न होता। वह तो कहो, पन्ना इतनी सीधी-सादी है कि निबाह होता जाता है। सबल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद भी कोई नहीं सुनता! रग्घू का हृदय माँ की ओर से दिन-दिन फटता जाता था। यहाँ तक कि आठ साल गुजर गये और एक दिन भोला के नाम भी मृत्यु का संदेश आ पहुँचा।

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 .. अलग्योझा ..

पन्ना के चार बच्चे थे- तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ा खर्च और कमानेवाला कोई नहीं। रग्घू अब क्यों बात पूछने लगा? यह मानी हुई बात थी। अपनी स्त्री लाएगा और अलग रहेगा। स्त्री आकर और भी आग लगायेगी। पन्ना को चारों ओर अंधेरा- ही- अंधेरा दिखाई देता था। पर कुछ भी हो, वह रग्घू की आसरैत बनकर घर में न रहेगी। जिस घर में उसने राज किया, उसमें अब लौंडी न बनेगी। जिस लौंडे को अपना गुलाम समझा, उसका मुँह न ताकेगी। वह सुन्दर थी, अवस्था अभी कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दूसरा घर नहीं कर सकती? यही न होगा, लोग हँसेंगे। बला से! उसकी बिरादरी में क्या ऐसा होता नहीं? ब्राह्मण, ठाकुर थोड़ी ही थी कि नाक कट जायगी। यह तो उन्ही ऊँची जातों में होता है कि घर में चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा ढका रहे। वह तो संसार को दिखाकर दूसरा घर कर सकती है, फिर वह रग्घू की दबैल बनकर क्यों रहे?

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 .. अलग्योझा ..

भोला को मरे एक महीना गुजर चुका था। संध्या हो गयी थी। पन्ना इसी चिन्ता में पड़ी हुई थी कि सहसा उसे ख्याल आया, लड़के घर में नहीं हैं। यह बैलों के लौटने की बेला है, कहीं कोई लड़का उनके नीचे न आ जाय। अब द्वा र पर कौन है, जो उनकी देखभाल करेगा? रग्घू को मेरे लड़के फूटीआँखों नहीं भाते। कभी हँसकर नहीं बोलता। घर से बाहर निकली, तो देखा, रग्घू सामने झोपड़े में बैठा ऊख की गँडेरिया बना रहा है, लड़के उसे घेरे खड़े हैं और छोटी लड़की उसकी गर्दन में हाथ डाले उसकी पीठ पर सवार होने की चेष्टा कर रही है। पन्ना को अपनी आँखों पर विश्वास न आया। आज तो यह नयी बात है। शायद दुनिया को दिखाता है कि मैं अपने भाइयों को कितना चाहता हूँ और मन में छुरी रखी हुई है। घात मिले तो जान ही ले ले! काला साँप है, काला साँप! कठोर स्वर में बोली-तुम सबके सब वहाँ क्या करते हो? घर में आओ, साँझ की बेला है, गोरु आते होंगे।

रग्घू ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा— मैं तो हूँ ही काकी, डर किस बात का है? बड़ा लड़का केदार बोला- काकी, रग्घू दादा ने हमारे लिए दो गाड़ियाँ बना दी हैं। यह देख, एक पर हम और खुन्नू बैठेंगे, दूसरी पर लछमन और झुनिया। दादा दोनों गाड़ियाँ खींचेंगे।

यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गाड़ियाँ निकाल लाया। चार-चार पहि्ये लगे थे। बैठने के लिए तख्ते और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे।

पन्ना ने आश्चर्य से पूछा- ये गाड़ियाँ किसने बनायी? केदार ने चिढ़कर कहा- रग्घू दादा ने बनायी हैं, और किसने! भगत के घर से बसूला और रुखानी माँग लाए और चटपट बना दी। खूब दौड़ती हैं काकी! बैठ खुन्नू मैं खींचूँ। खुन्नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। चर-चर शोर हुआ मानो गाड़ी भी इस खेल में लड़कों के साथ शरीक है। लछमन ने दूसरी गाड़ी में बैठकर कहा- दादा, खींचो। रग्घू ने झुनिया को भी गाड़ी में बिठा दिया और गाड़ी खींचता हुआ दौड़ा। तीनों लड़के तालियाँ बजाने लगे। पन्ना चकित नेत्रों से यह दृश्य देख रही थी और सोच रही थी कि यह वही रग्घू है या कोई और। थोड़ी देर के बाद दोनों गाड़ियाँ लौटीं; लड़के घर में जाकर इस यानयात्रा के अनुभव बयान करने लगे। कितने खुश थे सब, मानों हवाई जहाज पर बैठ आये हों।

खुन्नू ने कहा- काकी सब पेड़ दौड़ रहे थे। लछमन- और बछिया कैसी भागीं, सबकी सब दौड़ीं! केदार-काकी, रग्घू दादा दोनों गाड़ियाँ एक साथ खींच ले जाते हैं। झुनिया सबसे छोटी थी। उसकी व्यंजना-शक्ति उछल-कूद और नेत्रों तक परिमित थी-तालियाँ बजा-बजाकर नाच रही थी। खुन्नू- अब हमारे घर गाय भी आ जायगी काकी! रग्घू दादा ने गिरधारी से कहा है कि हमें एक गाय ला दो। गिरधारी बोला, कल लाऊँगा। केदार- तीन सेर दूध देती है काकी! खूब दूध पीयेंगे।

इतने में रग्घू भी अंदर आ गया। पन्ना ने अवहेलना की दृष्टि से देखकर पूछा- क्यों रग्घू तुमने गिरधारी से कोई गाय माँगी है? रग्घू ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा- हाँ, माँगी तो है, कल लावेगा। पन्ना- रुपये किसके घर से आयेंगे, यह भी सोचा है? रग्घू- सब सोच लिया है काकी! मेरी यह मुहर नहीं है। इसके पच्चीस रुपये मिल रहे हैं, पाँच रुपये बछिया के मुजरा दे दूँगा! बस, गाय अपनी हो जायगी।

पन्ना सन्नाटे में आ गयी। अब उसका अविश्वासी मन भी रग्घू के प्रेम और सज्जनता को अस्वीकार न कर सका। बोली- मुहर को क्यों बेचे देते हो? गाय की अभी कौन जल्दी है? हाथ में पैसे हो जायँ, तो ले लेना। सूना-सूना गला अच्छा न लगेगा। इतने दिनों गाय नहीं रही, तो क्या लड़के नहीं जिये?

रग्घू दार्शनिक भाव से बोला- बच्चों के खाने-पीने के यही दिन हैं काकी! इस उम्र में न खाया, तो फिर क्या खायेंगे। मुहर पहनना मुझे अच्छा भी नहीं मालूम होता। लोग समझते होंगे कि बाप तो मरगया। इसे मुहर पहनने की सूझी है। भोला महतो गाय की चिंता ही में चल बसे। न रुपये आये और न गाय मिली। मजबूर थे। रग्घू ने यह समस्या कितनी सुगमता से हल कर दी। आज जीवन में पहली बार पन्ना को रग्घू पर विश्वास आया, बोली- जब गहना ही बेचना है, तो अपनी मुहर क्यों बेचोगे? मेरी हँसुली ले लेना। रग्घू- नहीं काकी! वह तुम्हारे गले में बहुत अच्छी लगती है। मर्दो को क्या, मुहर पहनें या न पहनें। पन्ना- चल, मैं बूढ़ी हुई। अब हँसुली पहनकर क्या करना है। तू अभी लड़का है, तेरा गला अच्छा न लगेगा? रग्घू मुस्कराकर बोला— तुम अभी से कैसे बूढ़ी हो गयी? गाँव में है कौन तुम्हारे बराबर? रग्घू की सरल आलोचना ने पन्ना को लज्जित कर दिया। उसके रुखे-मुरझाये मुख पर प्रसन्नता की लाली दौड़ गयी।

2

पाँच साल गुजर गये। रग्घू का-सा मेहनती, ईमानदार, बात का धनी दूसरा किसान गाँव में न था। पन्ना की इच्छा के बिना कोई काम न करता। उसकी उम्र अब 23 साल की हो गयी थी। पन्ना बार-बार कहती, भइया, बहू को बिदा करा लाओ। कब तक नैहर में पड़ी रहेगी? सब लोग मुझी को बदनाम करते हैं कि यही बहू को नहीं आने देती, मगर रग्घू टाल देता था। कहता कि अभी जल्दी क्या है? उसे अपनी स्त्री के रंग-ढंग का कुछ परिचय दूसरों से मिल चुका था। ऐसी औरत को घर में लाकर वह अपनी शांति में बाधा नहीं डालना चाहता था।

आखिर एक दिन पन्ना ने जिद करके कहा -तो तुम न लाओगे?

‘कह दिया कि अभी कोई जल्दी नहीं।’

‘तुम्हारे लिए जल्दी न होगी, मेरे लिए तो जल्दी है। मैं आज आदमी भेजती हूँ।’

‘पछताओगी काकी, उसका मिजाज अच्छा नहीं है।’

‘तुम्हारी बला से। जब मैं उससे बोलूँगी ही नहीं, तो क्या हवा से लड़ेगी? 

रोटियाँ तो बना लेगी। मुझसे भीतर-बाहर का सारा काम नहीं होता, मैं आज बुलाये लेती हूँ।’

‘बुलाना चाहती हो, बुला लो; मगर फिर यह न कहना कि यह मेहरिया को ठीक नहीं करता, उसका गुलाम हो गया।’ ‘न कहूँगी, जाकर दो साड़ियाँ और मिठाई ले आ।’

तीसरे दिन मुलिया मैके से आ गयी। दरवाजे पर नगाड़े बजे, शहनाइयों की मधुर ध्वनि आकाश में गूँजने लगी। मुँह-दिखावे की रस्म अदा हुई। वह इस मरुभूमि में निर्मल जलधारा थी। गेहुँआ रंग था, बड़ी-बड़ी नोकीली पलकें, कपोलों पर हल्की सुर्खी, आँखों में प्रबल आकर्षण। रग्घू उसे देखते ही मंत्र-मुग्ध हो गया।

प्रात:काल पानी का घड़ा लेकर चलती, तब उसका गेहुँआ रंग प्रभात की सुनहरी किरणों से कुंदन हो जाता, मानों उषा अपनी सारी सुगंध, सारा विकास और उन्माद लिये मुस्कराती चली जाती हो।

3

मुलिया मैके से ही जली-भुनी आयी थी। मेरा शौहर छाती फाड़कर काम करे, और पन्ना रानी बनी बैठी रहें, उसके लड़के रईसजादे बने घूमें। मुलिया से यह बरदाश्त न होगा। वह किसी की गुलामी न करेगी। अपने लड़के तो अपने होते ही नहीं, भाई किसके होते हैं? जब तक पर नहीं निकलते हैं, रग्घू को घेरे हुए हैं। ज्यों ही जरा सयाने हुए, पर झाड़कर निकल जायेंगे, बात भी न पूछेंगे।

एक दिन उसने रग्घू से कहा— तुम्हें इस तरह गुलामी करनी हो, तो करो, मुझसे न होगी।

रग्घू— तो फिर क्या करुँ, तू ही बता? लड़के तो अभी घर का काम करने लायक भी नहीं हैं।

मुलिया— लड़के रावत के हैं, कुछ तुम्हारे नहीं हैं। यही पन्ना है, जो तुम्हें दाने-दाने को तरसाती थी। सब सुन चुकी हूँ। मैं लौंडी बनकर न रहूँगी। रुपये-पैसे का मुझे हिसाब नहीं मिलता। न जाने तुम क्या लाते हो और वह क्या करती है। तुम समझते हो, रुपये घर ही में तो हैं: मगर देख लेना, तुम्हें जो एक फूटी कौड़ी भी मिले।

रग्घू— रुपये-पैसे तेरे हाथ में देने लगूँ तो दुनिया क्या कहेगी, यह तो सोच।

मुलिया— दुनिया जो चाहे, कहे। दुनिया के हाथों बिकी नहीं हूँ। देख लेना, भाड़ लीपकर हाथ काला ही रहेगा। फिर तुम अपने भाइयों के लिए मरो, मै क्यों मरुँ?

रग्घू ने कुछ जवाब न दिया। उसे जिस बात का भय था, वह इतनी जल्द सिर आ पड़ी। अब अगर उसने बहुत तत्थो-थंभो किया, तो साल-छ:महीने और काम चलेगा। बस, आगे यह डोंगा चलता नजर नहीं आता। बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी? एक दिन पन्ना ने महुए का सुखावन डाला। बरसात शुरु हो गयी थी। बखार में अनाज गीला हो रहा था। मुलिया से बोली- बहू, जरा देखती रहना, मैं तालाब से नहा आऊँ?

मुलिया ने लापरवाही से कहा-मुझे नींद आ रही है, तुम बैठकर देखो। एक दिन न नहाओगी तो क्या होगा?

पन्ना ने साड़ी उतारकर रख दी, नहाने न गयी। मुलिया का वार खाली गया।

कई दिन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोपकर लौटी, अंधेरा हो गया था। दिन-भर की भूखी थी। आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी, मगर देखा तो यहाँ चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। पन्ना ने आहिस्ते से पूछा- आज अभी चूल्हा नहीं जला? केदार ने कहा— आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी! भाभी ने कुछ बनाया ही नहीं।

पन्ना— तो तुम लोगों ने खाया क्या?

केदार— कुछ नहीं, रात की रोटियाँ थीं, खुन्नू और लछमन ने खायीं। मैंने सत्तू खा लिया।

पन्ना— और बहू?

केदार— वह पड़ी सो रही है, कुछ नहीं खाया।

पन्ना ने उसी वक्त चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गयी। आटा गूँथती थी और रोती थी। क्या नसीब है? दिन-भर खेत में जली, घर आयी तो चूल्हे के सामने जलना पड़ा।

केदार का चौदहवाँ साल था। भाभी के रंग-ढंग देखकर सारी स्थित समझ रहा था। बोला— काकी, भाभी अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती। पन्ना ने चौंककर पूछा— क्या कुछ कहती थी?

केदार— कहती कुछ नहीं थी मगर है उसके मन में यही बात। फिर तुम क्यों नहीं उसे छोड़ देतीं? जैसे चाहे रहे, हमारा भी भगवान है। पन्ना ने दाँतों से जीभ दबाकर कहा— चुप, मेरे सामने ऐसी बात भूलकर भी न कहना। रग्घू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप है। मुलिया से कभी बोलोगे तो समझ लेना, जहर खा लूँगी।

4

दशहरे का त्योहार आया। इस गाँव से कोस-भर एक पुरवे में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हुई; मगर पैसे कहाँ से आयें? कुंजी तो मुलिया के पास थी।

रग्घू ने आकर मुलिया से कहा— लड़के मेले जा रहे हैं, सबों को दो-दो पैसे दे दो।

मुलिया ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा— पैसे घर में नहीं हैं।

रग्घू— अभी तो तेलहन बिका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गये?

मुलिया— हाँ, उठ गये?

रग्घू— कहाँ उठ गये? जरा सुनूँ, आज त्योहार के दिन लड़के मेला देखने न जायेंगे?

मुलिया— अपनी काकी से कहो, पैसे निकालें, गाड़कर क्या करेंगी?

खूँटी पर कुंजी लटक रही थी।रग्घू ने कुंजी उतारी और चाहा कि संदूक खोले कि मुलिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली— कुंजी मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने- पहनने को भी चाहिए, कागज-किताब को भी चाहिए, उस पर मेला देखने को भी चाहिए। हमारी कमाई इसलिए नहीं है कि दूसरे खायें और मूँछों पर ताव दें।

पन्ना ने रग्घू से कहा— भइया, पैसे क्या होंगे! लड़के मेला देखने न जायँगे। रग्घू ने झिड़ककर कहा— मेला देखने क्यों न जायँगे? सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के न जायँगे? यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पैसे निकालकर लड़कों को दे दिये; मगर कुंजी जब मुलिया को देने लगा, तब उसने उसे आँगन में फेंक दिया और मुँह लपेटकर लेट गयी! लड़के मेला देखने न गये। इसके बाद दो दिन गुजर गये। मुलिया ने कुछ नहीं खाया और पन्ना भी भूखी रही। रग्घू कभी इसे मनाता, कभी उसे;पर न यह उठती, न वह। आखिर रग्घू ने हैरान होकर मुलिया से पूछा— कुछ मुँह से तो कह, चाहती क्या है? मुलिया ने धरती को सम्बोधित करके कहा— मैं कुछ नहीं चाहती, मुझे मेरे घर पहुँचा दो। रग्घू— अच्छा उठ, बना-खा। पहुँचा दूँगा।

मुलिया ने रग्घू की ओर आँखें उठायी। रग्घू उसकी सूरत देखकर डर गया। वह माधुर्य, वह मोहकता, वह लावण्य गायब हो गया था। दाँत निकल आये थे, आँखें फट गयी थीं और नथुने फड़क रहे थे। अंगारे की-सी लाल आँखों से देखकर बोली— अच्छा, तो काकी ने यह सलाह दी है, यह मंत्र पढ़ाया है? तो यहाँ ऐसी कच्ची नहीं हूँ। तुम दोनों की छाती पर मूँग दलूँगी। हो किस फेर में? रग्घू— अच्छा, तो मूँग ही दल लेना। कुछ खा-पी लेगी, तभी तो मूँग दल सकेगी। मुलिया— अब तो तभी मुँह में पानी डालूँगी, जब घर अलग हो जायगा। बहुत झेल चुकी, अब नहीं झेला जाता। रग्घू सन्नाटे में आ गया। एक मिनट तक उसके मुँह से आवाज ही न निकली। अलग होने की उसने स्वप्न में भी कल्पना न की थी। उसने गाँव में दो-चार परिवारों को अलग होते देखा था। वह खूब जानता था, रोटी के साथ लोगों के हृदय भी अलग हो जाते हैं। अपने हमेशा के लिए गैर हो जाते हैं। फिर उनमें वही नाता रह जाता है, जो गाँव के और आदमियों में। रग्घू ने मन में ठान लिया था कि इस विपत्ति को घर में न आने दूँगा; मगर होनहार के सामने उसकी एक न चली। आह! मेरे मुँह में कालिख लगेगी, दुनिया यही कहेगी कि बाप के मर जाने पर दस साल भी एक में निबाह न हो सका। फिर किससे अलग हो जाऊँ? जिनको गोद में खिलाया, जिनको बच्चों की तरह पाला, जिनके लिए तरह-तरह के कष्ट झेले, उन्हीं से अलग हो जाऊँ? अपने प्यारों को घर से निकाल बाहर करुँ? उसका गला फँस गया। काँपते हुए स्वर में बोला— तू क्या चाहती है कि मैं अपने भाइयों से अलग हो जाऊँ? भला सोच तो, कहीं मुँह दिखाने लायक रहूँगा?

मुलिया— तो मेरा इन लोगों के साथ निबाह न होगा। रग्घू— तो तू अलग हो जा। मुझे अपने साथ क्यों घसीटती है? मुलिया— तो मुझे क्या तुम्हारे घर में मिठाई मिलती है? मेरे लिए क्या संसार में जगह नहीं है?

रग्घू— तेरी जैसी मर्जी, जहाँ चाहे रह। मैं अपने घर वालों से अलग नहीं हो सकता। जिस दिन इस घर में दो चूल्हे जलेंगे, उस दिन मेरे कलेजे के दो टुकड़े हो जायँगे। मैं यह चोट नहीं सह सकता। तुझे जो तकलीफ हो, वह मैं दूर कर सकता हूँ। माल-असबाब की मालकिन तू है ही, अनाज- पानी तेरे ही हाथ है, अब रह क्या गया है? अगर कुछ काम-धंधा करना नहीं चाहती, मत कर। भगवान ने मुझे समाई दी होती, तो मैं तुझे तिनका तक उठाने न देता। तेरे यह सुकुमार हाथ-पाँव मेहनत-मजदूरी करने के लिए बनाये ही नहीं गये हैं; मगर क्या करुँ अपना कुछ बस ही नहीं है। फिर भी तेरा जी कोई काम करने को न चाहे, मत कर; मगर मुझसे अलग होने को न कह, तेरे पैरों पड़ता हूँ।

मुलिया ने सिर से आँचल खिसकाया और जरा समीप आकर बोली— मैं काम करने से नहीं डरती, न बैठे-बैठे खाना चाहती हूँ; मगर मुझसे किसी की धौंस नहीं सही जाती। तुम्हारी ही काकी घर का काम-काज करती हैं, तो अपने लिए करती हैं, अपने बाल-बच्चों के लिए करती हैं। मुझ पर कुछ एहसान नहीं करतीं, फिर मुझ पर धौंस क्यों जमाती हैं? उन्हें अपने बच्चे प्यारे होंगे, मुझे तो तुम्हारा आसरा है। मैं अपनी आँखों से यह नहीं देख सकती कि सारा घर तो चैन करे, जरा-जरा-से बच्चे तो दूध पीयें, और जिसके बल-बूते पर गृहस्थी बनी हुई है, वह मट्ठे को तरसे। कोई उसका पूछनेवाला न हो। जरा अपना मुँह तो देखो, कैसी सूरत निकल आयी है। औरों के तो चार बरस में अपने पट्ठे तैयार हो जायेंगे। तुम तो दस साल में खाट पर पड़ जाओगे। बैठ जाओ, खड़े क्यों हो? क्या मारकर भागोगे? मैं तुम्हें जबरदस्ती न बाँध लूँगी, या मालकिन का हुक्म नहीं है? सच कहूँ, तुम बड़े कठ-कलेजी हो। मैं जानती, ऐसे निर्मोहिए से पाला पड़ेगा, तो इस घर में भूल से न आती। आती भी तो मन न लगाती, मगर अब तो मन तुमसे लग गया। घर भी जाऊँ, तो मन यहाँ ही रहेगा और तुम जो हो, मेरी बात नहीं पूछते।

मुलिया की ये रसीली बातें रग्घू पर कोई असर न डाल सकीं। वह उसी रुखाई से बोला— मुलिया, मुझसे यह न होगा। अलग होने का ध्यान करते ही मेरा मन न जाने कैसा हो जाता है। यह चोट मुझ से न सही जायगी। मुलिया ने परिहास करके कहा— तो चूड़ियाँ पहनकर अन्दर बैठो न! लाओ मैं मूँछें लगा लूँ। मैं तो समझती थी कि तुममें भी कुछ कस-बल है। अब देखती हूँ, तो निरे मिट्टी के लोंदे हो। पन्ना दालान में खड़ी दोनों की बातचीत सुन रही थी। अब उससे न रहा गया। सामने आकर रग्घू से बोली— जब वह अलग होने पर तुली हुई है, फिर तुम क्यों उसे जबरदस्ती मिलाये रखना चाहते हो? तुम उसे लेकर रहो, हमारे भगवान मालिक हैं।जब महतो मर गये थे,और कहीं पत्ती की भी छाँह न थी, जब उस वक्त भगवान ने निबाह दिया, तो अब क्या डर? अब तो भगवान की दया से तीनों लड़के सयाने हो गये हैं, अब कोई चिन्ता नहीं।

रग्घू ने आँसू-भरी आँखों से पन्ना को देखकर कहा— काकी, तू भी पागल हो गयी है क्या? जानती नहीं, दो रोटियाँ होते ही दो मन हो जाते हैं। पन्ना— जब वह मानती ही नहीं, तब तुम क्या करोगे? भगवान की मरजी होगी, तो कोई क्या करेगा? परालब्ध में जितने दिन एक साथ रहना लिखा था, उतने दिन रहे। अब उसकी यही मरजी है, तो यही सही। तुमने मेरे बाल-बच्चों के लिए जो कुछ किया, वह भूल नहीं सकती। तुमने इनके सिर हाथ न रखा होता, तो आज इनकी न जाने क्या गति होती, न जाने किसके द्वार पर ठोकरें खाते होते, न जाने कहाँ-कहाँ भीख माँगते फिरते। तुम्हारा जस मरते दम तक गाऊँगी। अगर मेरी खाल तुम्हारे जूते बनाने के काम आये, तो खुशी से दे दूँ। चाहे तुमसे अलग हो जाऊँ, पर जिस घड़ी पुकारोगे, कुत्ते की तरह दौड़ी आऊँगी। यह भूलकर भी न सोचना कि तुमसे अलग होकर मैं तुम्हारा बुरा चेतूँगी। जिस दिन तुम्हारा अनभल मेरे मन में आएगा, उसी दिन विष खाकर मर जाऊँगी। भगवान करे, तुम दूधों नहाओं, पूतों फलों! मरते दम तक यही असीस मेरे रोएँ-रोएँ से निकलती रहेगी और अगर लड़के भी अपने बाप के हैं। तो मरते दम तक तुम्हारा पोस मानेंगे। यह कहकर पन्ना रोती हुई वहाँ से चली गयी। रग्घू वहीं मूर्ति की तरह बैठा रहा। आसमान की ओर टकटकी लगी थी और आँखों से आँसू बह रहे थे।

5

पन्ना की बातें सुनकर मुलिया समझ गयी कि अपने पौ बारह हैं। चटपट उठी, घर में झाड़ू लगायी, चूल्हा जलाया और कुएँ से पानी लाने चली। उसकी टेक पूरी हो गयी थी। गाँव में स्त्रियों के दो दल होते हैं —एक बहुओं का, दूसरा सासों का! बहुएँ सलाह और सहानुभूति के लिए अपने दल में जाती हैं, सासें अपने में। दोनों की पंचायतें अलग होती हैं। मुलिया को कुएँ पर दो-तीन बहुएँ मिल गयी। एक से पूछा—आज तो तुम्हारी बुढ़िया बहुत रो-धो रही थी। मुलिया ने विजय के गर्व से कहा— इतने दिनों से घर की मालकिन बनी हुई हैं, राज-पाट छोड़ते किसे अच्छा लगता है? बहन, मैं उनका बुरा नहीं चाहती: लेकिन एक आदमी की कमाई में कहाँ तक बरकत होगी। मेरे भी तो यही खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के दिन हैं। अभी उनके पीछे मरो, फिर बाल-बच्चे हो जायँ, उनके पीछे मरो। सारी जिन्दगी रोते ही कट जाय।

एक बहू- बुढ़िया यही चाहती है कि यह सब जन्म-भर लौंडी बनी रहें। मोटा-झोटा खाएँ और पड़ी रहें। दूसरी बहू— किस भरोसे पर कोई मरे—अपने लड़के तो बात नहीं पूछें पराये लड़कों का क्या भरोसा? कल इनके हाथ-पैर हो जायेंगे, फिर कौन पूछता है! अपनी-अपनी मेहरियों का मुँह देखेंगे। पहले ही से फटकार देना अच्छा है, फिर तो कोई कलंक न होगा। मुलिया पानी लेकर गयी, खाना बनाया और रग्घू से बोली— जाओ, नहा आओ, रोटी तैयार है। रग्घू ने मानों सुना ही नहीं। सिर पर हाथ रखकर द्वार की तरफ ताकता रहा। मुलिया— क्या कहती हूँ, कुछ सुनाई देता है, रोटी तैयार है, जाओ नहा आओ।

रग्घू— सुन तो रहा हूँ, क्या बहरा हूँ? रोटी तैयार है तो जाकर खा ले। मुझे भूख नहीं है। मुलिया ने फिर नहीं कहा। जाकर चूल्हा बुझा दिया, रोटियाँ उठाकर छींके पर रख दीं और मुँह ढाँककर लेट रही। जरा देर में पन्ना आकर बोली— खाना तैयार है, नहा-धोकर खा लो! बहू भी भूखी होगी। रग्घू ने झुँझलाकर कहा— काकी तू घर में रहने देगी कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँ? खाना तो खाना ही है, आज न खाऊँगा, कल खाऊँगा, लेकिन अभी मुझसे न खाया जायगा। केदार क्या अभी मदरसे से नहीं आया? पन्ना— अभी तो नहीं आया, आता ही होगा। पन्ना समझ गयी कि जब तक वह खाना बनाकर लड़कों को न खिलायेगी और खुद न खायेगी रग्घू न खायेगा। इतना ही नहीं, उसे रग्घू से लड़ाई करनी पड़ेगी, उसे जली-कटी सुनानी पड़ेगी। उसे यह दिखाना पड़ेगा कि मैं ही उससे अलग होना चाहती हूँ नहीं तो वह इसी चिन्ता में घुल- घुलकर प्राण दे देगा। यह सोचकर उसने अलग चूल्हा जलाया और खाना बनाने लगी। इतने में केदार और खुन्नू मदरसे से आ गये। पन्ना ने कहा— आओ बेटा, खा लो, रोटी तैयार है।

केदार ने पूछा— भइया को भी बुला लूँ न? पन्ना— तुम आकर खा लो। उसकी रोटी बहू ने अलग बनायी है। खुन्नू— जाकर भइया से पूछ न आऊँ? पन्ना— जब उनका जी चाहेगा, खायेंगे। तू बैठकर खा, तुझे इन बातों से क्या मतलब? जिसका जी चाहेगा खायेगा, जिसका जी न चाहेगा, न खायेगा। जब वह और उसकी बीवी अलग रहने पर तुले हैं, तो कौन मनाये? केदार— तो क्यों अम्माजी, क्या हम अलग घर में रहेंगे? पन्ना— उनका जी चाहे, एक घर में रहें, जी चाहे आँगन में दीवार डाल लें। खुन्नू ने दरवाजे पर आकर झाँका, सामने फूस की झोपड़ी थी, वहीं खाट पर पड़ा रग्घू नारियल पी रहा था। खुन्नू— भइया तो अभी नारियल लिये बैठे हैं। पन्ना— जब जी चाहेगा, खायेंगे।

केदार— भइया ने भाभी को डाँटा नहीं? मुलिया अपनी कोठरी में पड़ी सुन रही थी। बाहर आकर बोली— भइया ने तो नहीं डाँटा अब तुम आकर डाँटों। केदार के चेहरे का रंग उड़ गया। फिर जबान न खोली। तीनों लड़कों ने खाना खाया और बाहर निकले। लू चलने लगी थी। आम के बाग में गाँव के लड़के-लड़कियाँ हवा से गिरे हुए आम चुन रहे थे। केदार ने कहा— आज हम भी आम चुनने चलें, खूब आम गिर रहे हैं। खुन्नू— दादा जो बैठे हैं? लछमन— मैं न जाऊँगा, दादा घुड़केंगे। केदार— वह तो अब अलग हो गये। लक्षमन— तो अब हमको कोई मारेगा, तब भी दादा न बोलेंगे?

केदार— वाह, तब क्यों न बोलेंगे? रग्घू ने तीनों लड़कों को दरवाजे पर खड़े देखा, पर कुछ बोला नहीं। पहले तो वह घर के बाहर निकलते ही उन्हें डाँट बैठता था, पर आज वह मूर्ति के समान निश्चल बैठा रहा। अब लड़कों को कुछ साहस हुआ। कुछ दूर और आगे बढ़े। रग्घू अब भी न बोला, कैसे बोले? वह सोच रहा था, काकी ने लड़कों को खिला-पिला दिया, मुझसे पूछा तक नहीं। क्या उसकी आँखों पर भी परदा पड़ गया है; अगर मैंने लड़कों को पुकारा और वह न आयें तो? मैं उनको मार-पीट तो न सकूँगा। लू में सब मारे-मारे फिरेंगे। कहीं बीमार न पड़ जायँ। उसका दिल मसोसकर रह जाता था, लेकिन मुँह से कुछ कह न सकता था। लड़कों ने देखा कि यह बिलकुल नहीं बोलते, तो निर्भय होकर चल पड़े। सहसा मुलिया ने आकर कहा— अब तो उठोगे कि अब भी नहीं? जिनके नाम पर फाका कर रहे हो, उन्होंने मजे से लड़कों को खिलाया और आप खाया, अब आराम से सो रही हैं। ‘मोर पिया बात न पूछें, मोर सुहागिन नाँव।’ एक बार भी तो मुँह से न फूटा कि चलो भइया, खा लो। रग्घू को इस समय मर्मान्तक पीड़ा हो रही थी। मुलिया के इन कठोर शब्दों ने घाव पर नमक छिड़क दिया। दु:खित नेत्रों से देखकर बोला— तेरी जो मर्जी थी, वही तो हुआ। अब जा, ढोल बजा!

मुलिया— नहीं, तुम्हारे लिए थाली परोसे बैठी हैं। रग्घू— मुझे चिढ़ा मत। तेरे पीछे मैं भी बदनाम हो रहा हूँ। जब तू किसी की होकर नहीं रहना चाहती, तो दूसरे को क्या गरज है, जो तेरी खुशामद करे? जाकर काकी से पूछ, लड़के आम चुनने गये हैं, उन्हें पकड़ लाऊँ? मुलिया अँगूठा दिखाकर बोली— यह जाता है। तुम्हें सौ बार गरज हो, जाकर पूछो। इतने में पन्ना भी भीतर से निकल आयी। रग्घू ने पूछा— लड़के बगीचे में चले गये काकी, लू चल रही है। पन्ना— अब उनका कौन पुछत्तर है? बगीचे में जायँ, पेड़ पर चढ़ें, पानी में डूबें। मैं अकेली क्या- क्या करुँ? रग्घू— जाकर पकड़ लाऊँ? पन्ना— जब तुम्हें अपने मन से नहीं जाना है, तो फिर मैं जाने को क्यों कहूँ? तुम्हें रोकना होता , तो रोक न देते? तुम्हारे सामने ही तो गये होंगे? पन्ना की बात पूरी भी न हुई थी कि रग्घू ने नारियल कोने में रख दिया और बाग की तरफ चला।

6

रग्घू लड़कों को लेकर बाग से लौटा, तो देखा मुलिया अभी तक झोंपड़े में खड़ी है। बोला— तू जाकर खा क्यों नहीं लेती? मुझे तो इस बेला भूख नहीं है। मुलिया ऐंठकर बोली— हाँ, भूख क्यों लगेगी! भाइयों ने खाया, वह तुम्हारे पेट में पहुँच ही गया होगा। रग्घू ने दाँत पीसकर कहा— मुझे जला मत मुलिया, नहीं अच्छा न होगा। खाना कहीं भागा नहीं जाता। एक बेला न खाऊँगा, तो मर न जाउँगा! क्या तू समझती है, घर में आज कोई छोटी बात हो गयी है? तूने घर में चूल्हा नहीं जलाया, मेरे कलेजे में आग लगाई है। मुझे घमंड था कि और चाहे कुछ हो जाय, पर मेरे घर में फूट का रोग न आने पायगा, पर तूने मेरा घमंड चूर कर दिया। परालब्ध की बात है। मुलिया तिनककर बोली— सारा मोह-छोह तुम्हीं को है कि और किसी को है? मैं तो किसी को तुम्हारी तरह बिसूरते नहीं देखती। रग्घू ने ठंडी साँस खींचकर कहा— मुलिया, घाव पर नोन न छिड़क। तेरे ही कारन मेरी पीठ में धूल लग रही है। मुझे इस गृहस्थी का मोह न होगा, तो किसे होगा? मैंने ही तो इसे मर-मर जोड़ा। जिनको गोद में खेलाया, वहीं अब मेरे पट्टीदार होंगे। जिन बच्चों को मैं डाँटता था, उन्हें आज कड़ी आँखों से भी नहीं देख सकता। मैं उनके भले के लिए भी कोई बात करुँ, तो दुनिया यही कहेगी कि यह अपने भाइयों को लूटे लेता है। जा मुझे छोड़ दे, अभी मुझसे कुछ न खाया जायगा।

मुलिया— मैं कसम रखा दूँगी, नहीं चुपके से चले चलो। रग्घू— देख, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। अपना हठ छोड़ दे। मुलिया— हमारा ही लहू पिये, जो खाने न उठे। रग्घू ने कानों पर हाथ रखकर कहा— यह तूने क्या किया मुलिया? मैं तो उठ ही रहा था। चल खा लूँ। नहाने-धोने कौन जाय, लेकिन इतना कहे देता हूँ कि चाहे चार की जगह छ: रोटियाँ खा जाऊँ, चाहे तू मुझे घी के मटके ही में डुबा दे, पर यह दाग मेरे दिल से न मिटेगा। मुलिया— दाग-साग सब मिट जायगा। पहले सबको ऐसा ही लगता है। देखते नहीं हो, उधर कैसी चैन की वंशी बज रही है, वह तो मना ही रही थीं कि किसी तरह यह सब अलग हो जायँ। अब वह पहले की-सी चाँदी तो नहीं है कि जो कुछ घर में आवे, सब गायब! अब क्यों हमारे साथ रहने लगीं?

रग्घू ने आहत स्वर में कहा— इसी बात का तो मुझे गम है। काकी से मुझे ऐसी आशा न थी। रग्घू खाने बैठा, तो कौर विष के घूँट-सा लगता था। जान पड़ता था, रोटियाँ भूसी की हैं। दाल पानी-सी लगती। पानी कंठ के नीचे न उतरता था, दूध की तरफ देखा तक नहीं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे किसी प्रियजन के श्राद्ध का भोजन हो। रात का भोजन भी उसने इसी तरह किया। भोजन क्या किया, कसम पूरी की। रात-भर उसका चित्त उद्‌विग्न रहा। एक अज्ञात शंका उसके मन पर छायी हुई थी, जैसे भोला महतो द्वार पर बैठा रो रहा हो। वह कई बार चौंककर उठा। ऐसा जान पड़ा, भोला उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देख रहा है।

वह दोनों जून भोजन करता था,पर जैसे शत्रु के घर। भोला की शोकमग्न मूर्ति आँखों से न उतरती थी। रात को उसे नींद न आती। वह गाँव में निकलता, तो इस तरह मुँह चुराये, सिर झुकाए मानो गो-हत्या की हो।

7

पाँच साल गुजर गये। रग्घू अब दो लड़कों का बाप था। आँगन में दीवार खिंच गयी थी, खेतों में मेड़ें डाल दी गयी थीं और बैल-बछिए बाँट लिये गये थे। केदार की उम्र अब उन्नीस की हो गयी थी। उसने पढ़ना छोड़ दिया था और खेती का काम करता था। खुन्नू गाय चराता था। केवल लछमन अब तक मदरसे जाता था। पन्ना और मुलिया दोनों एक-दूसरे की सूरत से जलती थीं। मुलिया के दोनों लड़के बहुधा पन्ना ही के पास रहते। वहीं उन्हें उबटन मलती, वही काजल लगाती, वही गोद में लिये फिरती, मगर मुलिया के मुँह से अनुग्रह का एक शब्द भी न निकलता। न पन्ना ही इसकी इच्छुक थी। वह जो कुछ करती निर्व्याज भाव से करती थी। उसके दो-दो लड़के अब कमाऊ हो गये थे। लड़की खाना पका लेती थी। वह खुद ऊपर का काम-काज कर लेती। इसके विरुद्ध रग्घू अपने घर का अकेला था, वह भी दुर्बल, अशक्त और जवानी में बूढ़ा। अभी आयु तीस वर्ष से अधिक न थी, लेकिन बाल खिचड़ी हो गये थे। कमर भी झुक चली थी। खाँसी ने जीर्ण कर रखा था। देखकर दया आती थी। और खेती पसीने की वस्तु है। खेती की जैसी सेवा होनी चाहिए, वह उससे न हो पाती। फिर अच्छी फसल कहाँ से आती? कुछ ऋण भी हो गया था। वह चिंता और भी मारे डालती थी। चाहिए तो यह था कि अब उसे कुछ आराम मिलता। इतने दिनों के निरन्तर परिश्रम के बाद सिर का बोझ कुछ हल्का होता, लेकिन मुलिया की स्वार्थपरता और अदूरदर्शिता ने लहराती हुई खेती उजाड़ दी। अगर सब एक साथ रहते, तो वह अब तक पेन्शन पा जाता, मजे में द्वार पर बैठा हुआ नारियल पीता। भाई काम करते, वह सलाह देता। महतो बना फिरता। कहीं किसी के झगड़े चुकाता, कहीं साधु-संतों की सेवा करता। वह अवसर हाथ से निकल गया। अब तो चिंताभार दिन-दिन बढ़ता जाता था।

आखिर उसे धीमा-धीमा ज्वर रहने लगा। हृदय-शूल, चिंता, कड़ा परिश्रम और अभाव का यही पुरस्कार है। पहले कुछ परवाह न की। समझा आप ही आप अच्छा हो जायगा, मगर कमजोरी बढ़ने लगी, तो दवा की फिक्र हुई। जिसने जो बता दिया, खा लिया, डाक्टरों और वैद्‌यों के पास जाने की सामर्थ्य कहाँ? और सामर्थ्य भी होती, तो रुपये खर्च कर देने के सिवा और नतीजा ही क्या था? जीर्ण ज्वर की औषधि आराम और पुष्टिकारक भोजन है। न वह बसंत-मालती का सेवन कर सकता था और न आराम से बैठकर बलवर्धक भोजन कर सकता था। कमजोरी बढ़ती ही गयी। पन्ना को अवसर मिलता, तो वह आकर उसे तसल्ली देती;लेकिन उसके लड़के अब रग्घू से बात भी न करते थे। दवा-दारु तो क्या करते, उसका और मजाक उड़ाते। भैया समझते थे कि हम लोगों से अलग होकर सोने और ईट रख लेंगे। भाभी भी समझती थीं, सोने से लद जाऊँगी। अब देखें कौन पूछता है? सिसक-सिसककर न मरें तो कह देना। बहुत ‘हाय! हाय!’ भी अच्छी नहीं होती। आदमी उतना काम करे, जितना हो सके। यह नहीं कि रुपये के लिए जान दे दे।

पन्ना कहती— रग्घू बेचारे का कौन दोष है? केदार कहता— चल, मैं खूब समझता हूँ। भैया की जगह मैं होता, तो डंडे से बात करता। मजाक थी कि औरत यों जिद करती। यह सब भैया की चाल थी। सब सधी-बधी बात थी।

आखिर एक दिन रग्घू का टिमटिमाता हुआ जीवन-दीपक बुझ गया। मौत ने सारी चिन्ताओं का अंत कर दिया। अंत समय उसने केदार को बुलाया था, पर केदार को ऊख में पानी देना था। डरा, कहीं दवा के लिए न भेज दें। बहाना बना दिया।

8

मुलिया का जीवन अंधकारमय हो गया। जिस भूमि पर उसने मनसूबों की दीवार खड़ी की थी, वह नीचे से खिसक गयी थी। जिस खूँटें के बल पर वह उछल रही थी, वह उखड़ गया था। गाँववालों ने कहना शुरु किया, ईश्वर ने कैसा तत्काल दंड दिया। बेचारी मारे लाज के अपने दोनों बच्चों को लिये रोया करती। गाँव में किसी को मुँह दिखाने का साहस न होता। प्रत्येक प्राणी उससे यह कहता हुआ मालूम होता था—‘मारे घमण्ड के धरती पर पाँव न रखती थी: आखिर सजा मिल गयी कि नहीं !’ अब इस घर में कैसे निर्वाह होगा? वह किसके सहारे रहेगी? किसके बल पर खेती होगी? बेचारा रग्घू बीमार था। दुर्बल था, पर जब तक जीता रहा, अपना काम करता रहा। मारे कमजोरी के कभी-कभी सिर पकड़कर बैठ जाता और जरा दम लेकर फिर हाथ चलाने लगता था। सारी खेती तहस-नहस हो रही थी, उसे कौन संभालेगा? अनाज की डाँठें खलिहान में पड़ी थीं, ऊख अलग सूख रही थी। वह अकेली क्या-क्या करेगी? फिर सिंचाई अकेले आदमी का तो काम नहीं। तीन-तीन मजदूरों को कहाँ से लाए! गाँव में मजदूर थे ही कितने। आदमियों के लिये खींचा-तानी हो रही थी। क्या करे, क्या न करे।

इस तरह तेरह दिन बीत गये। क्रिया-कर्म से छुट्टी मिली। दूसरे ही दिन सवेरे मुलिया ने दोनों बालकों को गोद में उठाया और अनाज माँड़ने चली। खलिहान में पहुँचकर उसने एक को तो पेड़ के नीचे घास के नर्म बिस्तर पर सुला दिया और दूसरे को वहीं बैठाकर अनाज माँड़ने लगी। बैलों को हाँकती थी और रोती थी। क्या इसीलिए भगवान ने उसको जन्म दिया था? देखते-देखते क्या से क्या हो गया? इन्हीं दिनों पिछले साल भी अनाज माँड़ा गया था। वह रग्घू के लिए लोटे में शरबत और मटर की घुँघनी लेकर आयी थी। आज कोई उसके न आगे है, न पीछे,लेकिन किसी की लौंडी तो नहीं हूँ! उसे अलग होने का अब भी पछतावा न था।

एकाएक छोटे बच्चे का रोना सुनकर उसने उधर ताका, तो बड़ा लड़का उसे चुमकारकर कह रहा था— बैया तुप रहो, तुप रहो। धीरे-धीरे उसके मुँह पर हाथ फेरता था और चुप कराने के लिए विकल था। जब बच्चा किसी तरह न चुप न हुआ तो वह खुद उसके पास लेट गया और उसे छाती से लगाकर प्यार करने लगा; मगर जब यह प्रयत्न भी सफल न हुआ, तो वह रोने लगा। उसी समय पन्ना दौड़ी आयी और छोटे बालक को गोद में उठाकर प्यार करती हुई बोली— लड़कों को मुझे क्यों न दे आयी बहू? हाय! हाय! बेचारा धरती पर पड़ा लोट रहा है। जब मैं मर जाऊँ तो जो चाहे करना, अभी तो जीती हूँ, अलग हो जाने से बच्चे तो नहीं अलग हो गये। मुलिया ने कहा— तुम्हें भी तो छुट्टी नहीं थी अम्माँ, क्या करती?

पन्ना— तो तुझे यहाँ आने की ऐसी क्या जल्दी थी? डाँठ माँड़ न जाती। तीन-तीन लड़के तो हैं, और किस दिन काम आएँगे? केदार तो कल ही माँड़ने को कह रहा था; पर मैंने कहा, पहले ऊख में पानी दे लो, फिर आज माँड़ना, मँड़ाई तो दस दिन बाद भी हो सकती है, ऊख की सिंचाई न हुई तो सूख जायगी। कल से पानी चढ़ा हुआ है, परसों तक खेत पुर जायगा। तब मँड़ाई हो जायगी। तुझे विश्वास न आयगा, जब से भैया मरे हैं, केदार को बड़ी चिंता हो गयी है। दिन में सौ-सौ बार पूछता है, भाभी बहुत रोती तो नहीं हैं? देख, लड़के भूखे तो नहीं हैं। कोई लड़का रोता है, तो दौड़ा आता है, देख अम्माँ, क्या हुआ, बच्चा क्यों रोता है? कल रोकर बोला—अम्माँ, मैं जानता कि भैया इतनी जल्दी चले जायँगे, तो उनकी कुछ सेवा कर लेता। कहाँ जगाये-जगाये उठता था, अब देखती हो, पहर रात से उठकर काम में लग जाता है। खुन्नू कल जरा-सा बोला, पहले हम अपनी ऊख में पानी दे लेंगे, तब भैया की ऊख में देंगे। इस पर केदार ने ऐसा डाँटा कि खुन्नू के मुँह से फिर बात न निकली। बोला, कैसी तुम्हारी और कैसी हमारी ऊख? भैया ने जिला न लिया होता, तो आज या तो मर गये होते या कहीं भीख माँगते होते। आज तुम बड़े ऊखवाले बने हो! यह उन्हीं का पुन- परताप है कि आज भले आदमी बने बैठे हो। परसों रोटी खाने को बुलाने गयी, तो मँड़ैया में बैठा रो रहा था। पूछा, क्यों रोता है? तो बोला, अम्माँ, भैया इसी ‘अलग्योझा के दुख से मर गये, नहीं अभी उनकी उमिर ही क्या थी! यह उस वक्त न सूझा, नहीं उनसे क्यों बिगाड़ करते? यह कहकर पन्ना ने मुलिया की ओर संकेतपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा— तुम्हें वह अलग न रहने देगा बहू, कहता है, भैया हमारे लिए मर गये तो हम भी उनके बाल-बच्चों के लिए मर जायँगे।

मुलिया की आँखों से आँसू जारी थे। पन्ना की बातों में आज सच्ची वेदना, सच्ची सान्त्वना, सच्ची चिन्ता भरी हुई थी। मुलिया का मन कभी उसकी ओर इतना आकर्षित न हुआ था। जिनसे उसे व्यंग्य और प्रतिकार का भय था, वे इतने दयालु, इतने शुभेच्छु हो गये थे। आज पहली बार उसे अपनी स्वार्थपरता पर लज्जा आयी। पहली बार आत्मा ने अलग्योझे पर धिक्कारा।

9

इस घटना को हुए पाँच साल गुजर गये। पन्ना आज बूढ़ी हो गयी है। केदार घर का मालिक है। मुलिया घर की मालकिन है। खुन्नू और लछमन के विवाह हो चुके हैं;मगर केदार अभी तक क्वाँरा है। कहता है— मैं विवाह न करुँगा। कई जगहों से बातचीत हुई, कई सगाइयाँ आयीं: पर उसने हामी न भरी। पन्ना ने कम्पे लगाये, जाल फैलाये, पर वह न फँसा। कहता— औरतों से कौन सुख? मेहरिया घर में आयी और आदमी का मिजाज बदला। फिर जो कुछ है, वह मेहरिया है। माँ-बाप, भाई-बन्धु सब पराये हैं। जब भैया जैसे आदमी का मिजाज बदल गया, तो फिर दूसरों की क्या गिनती? दो लड़के भगवान के दिये हैं और क्या चाहिए। बिना ब्याह किए दो बेटे मिल गये, इससे बढ़कर और क्या होगा? जिसे अपना समझो वह अपना है; जिसे गैर समझो, वह गैर है।

एक दिन पन्ना ने कहा— तेरा वंश कैसे चलेगा? केदार— मेरा वंश तो चल रहा है। दोनों लड़कों को अपना ही समझता हूँ। पन्ना— समझने ही पर है, तो तू मुलिया को भी अपनी मेहरिया समझता होगा? केदार ने झेंपते हुए कहा— तुम तो गाली देती हो अम्माँ! पन्ना— गाली कैसी, तेरी भाभी ही तो है! केदार— मेरे जेसे लट्ठ-गँवार को वह क्यों पूछने लगी! पन्ना— तू करने को कह, तो मैं उससे पूछूँ?

केदार— नहीं मेरी अम्माँ, कहीं रोने-गाने न लगे। पन्ना—तेरा मन हो, तो मैं बातों-बातों में उसके मन की थाह लूँ? केदार— मैं नहीं जानता, जो चाहे कर। पन्ना केदार के मन की बात समझ गयी। लड़के का दिल मुलिया पर आया हुआ है, पर संकोच और भय के मारे कुछ नहीं कहता। उसी दिन उसने मुलिया से कहा— क्या करुँ बहू, मन की लालसा मन में ही रह जाती है। केदार का घर भी बस जाता, तो मैं निश्चिन्त हो जाती। मुलिया— वह तो करने को ही नहीं कहते।

पन्ना— कहता है, ऐसी औरत मिले, जो घर में मेल से रहे, तो कर लूँ। मुलिया— ऐसी औरत कहाँ मिलेगी? कहीं ढूँढ़ो। पन्ना— मैंने तो ढूँढ़ लिया है। मुलिया— सच, किस गाँव की है?

पन्ना- अभी न बताऊँगी, मुदा यह जानती हूँ कि उससे केदार की सगाई हो जाय, तो घर बन जाय और केदार की जिन्दगी भी सुफल हो जाय। न जाने लड़की मानेगी कि नहीं।

मुलिया— मानेगी क्यों नहीं अम्माँ, ऐसा सुन्दर कमाऊ, सुशील वर और कहाँ मिला जाता है? उस जनम का कोई साधु-महात्मा है, नहीं तो लड़ाई-झगड़े के डर से कौन बिन ब्याहा रहता है। कहाँ रहती है, मैं जाकर उसे मना लाऊँगी। पन्ना— तू चाहे, तो उसे मना ले। तेरे ही ऊपर है।

मुलिया— मैं आज ही चली जाऊँगी, अम्मा, उसके पैरों पड़कर मना लाऊँगी। पन्ना— बता दूँ, वह तू ही है!

मुलिया लजाकर बोली— तुम तो अम्माँजी, गाली देती हो। पन्ना— गाली कैसी, देवर ही तो है! मुलिया— मुझ जैसी बुढ़िया को वह क्यों पूछेंगे?

पन्ना— वह तुझी पर दाँत लगाये बैठा है। तेरे सिवा कोई और उसे भाती ही नहीं। डर के मारे कहता नहीं; पर उसके मन की बात मैं जानती हूँ। वैधव्य के शौक से मुरझाया हुआ मुलिया का पीत वदन कमल की भाँति अरुण हो उठा। दस वर्षो में जो कुछ खोया था, वह इसी एक क्षण में मानों ब्याज के साथ मिल गया। वही लावण्य, वही विकास, वही आकर्षण, वही लोच। 

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्र || Complete Mansarovar Stories Munshi Premchand