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14अप्रैल आर्यभट्ट (Aryabhatta) जयंती

आर्यभट्ट जयंती

आज भारत के महान गणितज्ञ और भारतीय खगोल विज्ञान में पहली खोज करने वाले आर्यभट्ट की जयंती है। आर्यभट्ट ने ही पाई  (π)  और शून्य की खोज की थी और इन्होंने ही विश्व में सबसे पहले यह या था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।

14अप्रैल आर्यभट्ट (Aryabhatta) जयंती

14 अप्रैल को महानतम गणितज्ञ, खगोलविद और ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट जी की जयंती मनाई जाती है। आचार्य आर्यभट्ट प्राचीन समय के महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे। खगोलीय विज्ञान और गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट आज भी वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा हैं। जब यूरोप यह मानता था कि पृथ्वी चपटी है और समुद्र के उस पार कुछ नहीं है, तब आर्यभट ने बता दिया था कि पृथ्वी गोल है और यही नहीं जब लोग मानते थे कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है तब आर्यभट्ट ने बता दिया था कि पृथ्वी एक निश्चित दूरी को बनाए रखते हुए सूर्य का चक्कर काटती है। आचार्य आर्यभट्ट के समकक्ष ज्ञान में कोई टिक नहीं सकता है, जिनके ज्ञान का लोहा समस्त विश्व मानता है। 

बीजगणित जिसको अँग्रेजी में एलजेब्रा बोलते हैं, उसका प्रथम बार उपयोग आचार्य आर्यभट्ट ने ही किया था और अपनी प्रसिद्ध रचना “आर्यभटिया” में आचार्य श्री ने बीजगणित, अंकगणित और त्रिकोणमिति के 33 नियम बताये हैं। उनकी प्रमुख कृतियाँ “आर्यभट्टीय” और “आर्यभट्टिक” हैं। इन कृतियों में ग्रहों की गति और अन्य खगोलशास्त्रीय सिद्धांतों पर विवरण मिलता है। 

14अप्रैल आर्यभट्ट (Aryabhatta) जयंती

पृथ्वी गोल है और अपने धुरी में घूमती है जिसके कारण दिन व रात होता है, ये सिद्धांत आचार्य आर्यभट्ट ने लगभग 1500 वर्ष पहले प्रतिपादित कर दिया था। आचार्य आर्यभट्ट ने ये भी बताया था कि पृथ्वी गोल है औऱ इसकी परिधि 24853 मील है। आचार्य आर्यभट्ट ने ये भी बताया था कि चंद्रमा सूर्य की रोशनी से प्रकाशित होता है। आचार्य आर्यभट्ट ने यह सिद्ध किया था कि 1 वर्ष में 366 नही बल्कि 365.2951 दिन होते हैं।

आर्यभट्ट का जन्म 476 ईस्वी में हुआ था। उनकी जन्मस्थली मगध (आज का बिहार) मानी जाती है। आर्यभट ने आर्यभटीय में उल्लेख करते हुए खुद को कुसुमपुर (आज का पटना) का निवासी बताया है। लेकिन, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनका जन्म लल्लक (आज का गया) में हुआ था। आर्यभट के जन्म के वर्ष का आर्यभटीय में स्पष्ट उल्लेख है, पर उनके जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विवाद है। 

14अप्रैल आर्यभट्ट (Aryabhatta) जयंती

आर्यभट्ट का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा बहुत रोचक और प्रेरणादायक रहा। यह माना जाता है कि उन्होंने अपने पिता, जो एक गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थें, उनसे ही अपनी प्रारंभिक शिक्षा पटना में प्राप्त की थी। आर्यभट्ट ने बाद में तक्षशिला और नालंदा जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया, जहां उन्होंने खगोलशास्त्र, गणित और विज्ञान में विशेष ज्ञान प्राप्त किया। उनकी शिक्षा में गणित और खगोलशास्त्र का विशेष स्थान था, और इन विषयों पर उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा।

पृथ्वी की परिधि और पाई का मान बताने वाले व शून्य के जनक ,महान गणितज्ञ ,खगोलशास्त्री , ज्योतिषाचार्य ,महाविद्वान शिखाधारी आर्यभट्ट जी की जयंती पर उन्हें कोटि कोटि नमन"


रामनवमी 2025 | Ram Navami 2025

रामनवमी

हजारों सूर्य के बराबर प्रकाश से भर चुके कक्ष के अंदर चतुर्भज स्वरूप में समक्ष खड़े जगत पिता के स्वरूप के आगे नतमस्तक कौशल्या को कुछ याद आया, उन्होंने मुस्कुरा कर कहा- मैं माँ हूँ प्रभु! मुझे आपके इस विराट स्वरूप से क्या काम। स्वरूप बदलिए और मेरा पुत्र बनिये। आपकी शक्ति, सामर्थ्य और ज्ञान का लाभ सम्पूर्ण जगत उठाता रहे, मुझे बस आपकी किलकारी देखनी है।

रामनवमी  2025 | Ram Navami 2025

प्रभु मुस्कुराए! माँ ने फिर कहा- जगत कल्याण के हेतु आये नारायण अपना समस्त जीवन संसार को सौंप देंगे, इतना बिन बताए भी समझ रही हूँ। इसमें हमारा हिस्सा तो बस आपका बालपन ही है न, सो हमें हमारा अधिकार दीजिये।

कहते कहते माँ की पलकें झपकीं और जब उठीं तो उन्होंने देखा- सांवले रंग का नन्हा बालक जिसकी आँखों में करुणा का सागर बह रहा है, उनकी गोद में पड़ा बस रोने ही वाला है। उन्होंने सोचा- वह किसी का हिस्सा नहीं मारता! माँ हँस पड़ीं और उसी क्षण बालक रो पड़ा। 

माँ ने मन ही मन कहा, ऐसा क्यों? उत्तर उन्ही के मन में उपजा, "मैं ईश्वर की माँ बनी हूँ सो मेरे हिस्से में हँसी आयी और ईश्वर दुखों के महासागर संसार में उतरा है, सो उसके हिस्से में रुदन आया। " उन्होंने कहा- रो लो पुत्र! पुरूष से पुरुषोत्तम होने की यात्रा में अश्रुओं के असंख्य सागर पड़ते हैं। तुम्हें तो सब लांघने होंगे..."

थोड़ी ही दूर अपने कक्ष में गुरु के चरणों में बैठे महाराज दशरथ ने चौंक कर देखा गुरु की ओर उन्होंने आकाश की ओर हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुए कहा- बधाई हो राजन! राम आ गए। 

महाराज दसरथ गदगद हो गए। पिता होने की अनुभूति कठोर व्यक्ति को भी करुण बना देती है। चक्रवर्ती सम्राट दशरथ बालक से हो गए थे। उसी चंचलता के साथ पूछा- इसका जीवन कैसा रहेगा गुरुदेव? तनिक विचारिये तो, सुखी तो रहेगा न मेरा राम?

इस बालक का भाग्य हम क्या विचारेंगे महाराज, यह स्वयं हमारे सौभाग्य का सूर्य बन कर उदित हुआ है। पर समस्त संसार के सुखों की चिन्ता करने वाला अपने सुख की नहीं सोचता! और ना ही उसे सुख प्राप्त होता है। संसार के हित के लिए अपने सुखों को बार बार त्यागने का अर्थ ही राम होना है। उसकी न सोचिये, आप अपनी सोचिये! आप इस युग के महानायक के पिता बने हैं।

दशरथ का उल्लास बढ़ता जा रहा था। उन्होंने फिर पूछा- यह संसार में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना तो लेगा न गुरुदेव?

रामनवमी  2025 | Ram Navami 2025

इसकी कीर्ति इसके आगे आगे चलेगी राजन! इसकी यात्रा युग-युगांतर की सीमाएं तोड़ देगी। संसार सृष्टि के अंत तक राम से सीखेगा कि जीवन जीते कैसे हैं? जगत को राम का समुद्र सुखा देने वाला क्रोध भी स्मरण रहेगा और अपनों के प्रेम में बहाए गए राम के अश्रु भी। यह संसार को दुर्जनों को दंड देना भी सिखाएगा, और सज्जनों पर दया करना भी।

महाराज दशरथ की आँखे भरी हुई थीं। वे विह्वल होकर दौड़े महारानी कौशल्या के कक्ष की ओर। इधर महर्षि वशिष्ठ ने मन ही मन कहा, "राम के प्रति तुम्हारा मोह बना रहे सम्राट, यही तो तुम्हे अमरता प्रदान करेगा।"


आप सब को श्री रामनवमी की अनन्त शुभकामनाएं। 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 || International Women's Day 2025

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस ( International Women's Day) पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएं......

अपनी माताओं, बहनों और बेटियों का उचित सम्मान कर, अपनी प्राचीन संस्कृति को विश्व में  पुनः गौरवान्वित करें।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 || International Women's Day 2025

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से जुड़ी कुछ खास बातें

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत कब हुई?

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत 1960 में हुई थी जब अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में करीब 15000 महिलाएं सड़कों पर उतरी थी यह महिलाएं काम के घंटों को कम करने बेहतर तनख्वाह और वोटिंग के अधिकार की मांग के लिए प्रदर्शन कर रही थी महिलाओं के इस प्रदर्शन के बाद अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने पहले राष्ट्रीय महिला दिवस को मनाने की घोषणा की थी महिला दिवस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाने का विचार एक महिला क्लारा जेटकिन का था क्लारा जेटकिन ने वर्ष 1910 में विश्व स्तर पर महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव किया था। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को औपचारिक मान्यता वर्ष 1975 में मिली जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे मनाना शुरू किया।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 || International Women's Day 2025

8 मार्च को ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस क्यों मनाते हैं ?

पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को मनाया जाता है। जब अमेरिकी महिला अधिकार कार्यकर्ता क्लारा जेटकिन ने इंटरनेशनल विमेंस डे मनाने का प्रस्ताव रखा था तो उनके जेहन में कोई तारीख कोई 1 तारीख नहीं थी इसे औपचारिक जामा भी वर्ष 1917 में तब पहनाया गया जब रूस में महिलाओं ने ब्रेड एंड पीस की मांग करते हुए 4 दिनों तक हड़ताल की इसके बाद रूस में बनी अस्थाई सरकार ने महिलाओं को वोट करने का अधिकार दिया जब रूस में यह हड़ताल हुई थी तो वहां जूलियन कैलेंडर चलता था जिसके अनुसार उस दिन 23 फरवरी की तारीख थी वही दुनिया के बाकी देशों में प्रचलित ग्रेगोरियन कैलेंडर में वह तारीख 8 मार्च थी इसीलिए तब से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को 8 मार्च को मनाया जाने लगा।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 का थीम

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 का थीम है " सभी महिलाओं और लड़कियों के लिए: अधिकार। समानता। सशक्तिकरण।" इस वर्ष का थीम सभी के लिए समान अधिकार, शक्ति और अवसर तथा एक समावेशी भविष्य के लिए कार्रवाई का आह्वान करता है, जहां कोई भी पीछे न छूटे।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 || International Women's Day 2025

चंद पंक्तियों के साथ एक बार पुनः अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। 

मां है जो,

बेटी है जो,

कभी बहन है ,

तो कभी पत्नी है जो,

जीवन के हर सुख दुःख में शामिल है जो 

शक्ति है जो

प्रेरणा है जो

नमन करो उन समस्त महिलाओं को 

जीवन के हर मोड़ पर सदा साथ देती है जो। 

राष्ट्रीय महिला दिवस | National Women's Day

राष्ट्रीय महिला दिवस

क्या आप जानते हैं 13 फरवरी को कौन सा दिवस मनाया जाता है? राष्ट्रीय महिला दिवस कब मनाया जाता है और क्यों मनाया जाता है? 13 फरवरी को राष्ट्रीय महिला दिवस क्यों मनाया जाता है? 

राष्ट्रीय महिला दिवस | National Women's Day

 प्रतिवर्ष भारत में राष्ट्रीय महिला दिवस 13 फरवरी को मनाया जाता है। यह नाईटिंगेल ऑफ़ इंडिया सरोजनी नायडू की जयंती को मनाने के लिए मनाया जाता है। वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त व्यक्तियों में से एक हैं। उन्होंने भारत में पहली महिला राज्यपाल बनकर इतिहास रचा। यह दिवस महान स्वतंत्रता सेनानी और कवयित्री, जिन्हें "भारतीय कोकिला (Nightingale of India)" के नाम से भी जाना जाता है, सरोजिनी नायडू की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।

सरोजिनी आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। उनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक बंगाली ब्राह्मण और हैदराबाद के निज़ाम कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जबकि उनकी मां एक कवियत्री थी, जो कि बांग्ला भाषा में लिखती थी। उनके भाई वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय एक क्रांतिकारी थे, और दूसरे भाई हरिंद्रनाथ एक कवि, नाटककार और एक अभिनेता थे। उनके परिवार को हैदराबाद में बहुत सम्मान प्राप्त था।
राष्ट्रीय महिला दिवस | National Women's Day
कई लोगों को राष्ट्रीय महिला दिवस को लेकर भ्रम है कि वह 8 मार्च को होता है लेकिन 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस होता है। 

क्यों मनाया जाता है राष्ट्रीय महिला दिवस

राष्ट्रीय महिला दिवस सरोजिनी नायडू को समर्पित है। सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 को हुआ था। वह बचपन से बुद्धिमान थीं। जब सरोजिनी नायडू 12 साल की थीं, तब से उन्हें कविताएं लिखनी शुरू कर दी थी। बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। देश की आजादी और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। आजादी के बाद सरोजिनी नायडू को पहली महिला राज्यपाल बनने का भी मौका मिला। उनके कार्यों और महिलाओं के अधिकारों के लिए उनकी भूमिका को देखते हुए सरोजिनी नायडू के जन्मदिन के मौके पर राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है।
राष्ट्रीय महिला दिवस | National Women's Day

कब से हुई राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत

जब देश को 1947 में आजादी मिली तो उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बनने का गौरव एक महिला को प्राप्त हुआ। वह महिला सरोजिनी नायडू थी। बाद में साल 2014 में सरोजिनी नायडू की जयंती को राष्ट्रीय महिला दिवस के तौर पर मनाने की शुरुआत की गई।

सरोजिनी नायडू || Sarojini Naidu

मकर संक्रांति २०२५ || Makar Sankranti 2025

 मकर संक्रांति (Makar Sankranti)

सर्वप्रथम आप सभी को मकर संक्रांति पर्व की अनेक बधाई।

आज 14 जनवरी को, मकर संक्रांति का पर्व पुरे देश भर में बड़े ही जोश और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है। इस बार तो प्रयागराज में महाकुंभ का भव्य आयोजन पौष पूर्णिमा के साथ शुरू हो गया है। मकर संक्रांति पर महाकुंभ का पहला अमृत स्नान है। 

मकर संक्रांति २०२५ || Makar Sankranti 2025

  हर पतंग जानती है,
अंत में कचरे मे जाना है। 
लेकिन उसके पहले हमें,
आसमान छूकर दिखाना है ।
" बस ज़िंदगी भी यही चाहती है "

मकर सक्रांन्ति पर हार्दिक शुभकामनाएं
✨✨✨✨✨✨✨✨✨
हमारा देश सांस्कृतिक रूप से विश्व के सर्वाधिक सशक्त देशों में से एक है। हमारे देश मे मौसम से जुड़े बहुत त्योहार हैं और इन सभी त्योहारों का अपना एक विशेष महत्त्व है। इन्हें मनाने का तरीका भी अलग -अलग है। नए साल के पहले महीने जनवरी में मकर संक्रांति के महा पर्व की शुरुआत होती है। किसी न किसी रूप में लोग अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार मकर संक्रांति को बहुत हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। वहीं इस खास दिन पर तिल, गुड़ के पकवानों का आनंद लिया जाता है साथ ही आज के दिन स्नान का भी विशेष महत्व होता है। मकर संक्रांति का महापर्व सिर्फ उत्तर भारत में ही नहीं, बल्कि दक्षिण भागों के साथ अलग-अलग राज्यों में अनेक नामों से मनाया जाता है।  क्या आप जानते है कि हम सभी मकर संक्रांति को क्यों मनाते है? अगर नहीं जानते तो इसका कारण समझते हैं।
मकर संक्रांति २०२५ || Makar Sankranti 2025

दरअसल यह खगोल से जुड़ा हुआ है.  मकर संक्रांति के दिन सूर्य धनु राशि से निकल अपने पुत्र शनि की राशि मकर में प्रवेश करते हैं। कहा जाता है कि इस खास दिन पर सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने के लिए खुद उनके घर में प्रवेश करते है। इस दौरान एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति के बीच का समय ही सौर मास है। वैसे तो सूर्य संक्रांति 12 हैं, लेकिन इनमें से चार संक्रांति  बेहद अहम हैं, जिनमें मेष, कर्क, तुला, मकर संक्रांति हैं। यही कारण है कि इस खास दिन को हम सभी मकर संक्रांति के नाम से जानते है और इसे पर्व के रूप में मनाते है । आज मकर संक्रांति के पर्व की तिथि है। 

देश में मकर संक्रांति के पर्व को कई नामों से जाना जाता है। पंजाब और जम्‍मू-कश्‍मीर के लोग में इसे लोहड़ी के नाम से बड़े पैमाने पर मनाते हैं। लोहड़ी का त्‍योहार मकर संक्रांति के एक दिन पहले मनाया जाता है। जब सूरज ढल जाता है तब घरों के बाहर बड़े-बड़े अलाव जलाए जाते हैं और स्‍त्री-पुरुष,घर के बच्चे  सज-धजकर नए-नए कपड़े पहनकर  जलते हुए अलाव के चारों ओर भांगड़ा डांस  करते हैं और अग्नि को मेवा, तिल, गजक, चिवड़ा आदि की आहुति भी देते हैं। सभी एक-दूसरे को लोहड़ी की शुभकामनाएं देते हुए आपस में भेंट बांटते हैं और प्रसाद बाटते  हैं। प्रसाद में तिल, गुड़, मूंगफली, मक्‍का और गजक होती हैं।
मकर संक्रांति २०२५ || Makar Sankranti 2025

मकर संक्रांति को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है. जैसे-  पंजाब में माघी, हिमाचल प्रदेश में माघी साजी, जम्मू में माघी संग्रांद , हरियाणा में सकरत, मध्य भारत में सुकरत, तमिलनाडु में पोंगल, गुजरात के साथ उत्तर प्रदेश में उत्तरायण, ओडिशा में मकर संक्रांति, असम में माघ बिहू, अन्य नामों से संक्रांति को मनाते है। 

वहीं इस खास दिन पर लोग कामना करते हुए  सूर्य को अर्घ्य देते  हैं,भोग लगाते है जिसमे चावल, दाल, गुड़, तिल, रेवड़ी आदि चढ़ाते हैं। इस शुभ  दिन लोग पतंग उड़ाते हैं। दरअसल मकर संक्रांति एक ऐसा दिन है, जब धरती पर एक अच्छे और शुभ दिन की शुरुआत होती है। ऐसा इसलिए कि सूर्य दक्षिण के बजाय अब उत्तर को गमन करने लग जाता है. जब तक सूर्य पूर्व से दक्षिण की ओर गमन करता है तब तक उसकी किरणों का असर खराब माना गया है, लेकिन जब वह पूर्व से उत्तर की ओर गमन करते लगता है तब उसकी किरणें सेहत ,सुख और शांति को बढ़ाती हैं।
मकर संक्रांति २०२५ || Makar Sankranti 2025
आज के दिन तिल, गुड़, मूंगफली, लाई और गजक के साथ ही बिहार में दही चूड़ा और उत्तर प्रदेश में खिचड़ी खाने का प्रचलन है। इस भोजन पीछे भी कई धार्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक कारण हैं। 

मकर संक्रांति पर खिचड़ी क्यों बनाई जाती है?

मकर संक्रांति पर खिचड़ी बनाने की परंपरा कई धार्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक कारणों से जुड़ी हुई है। खिचड़ी को सूर्य और शनि गृह से जुड़ा हुआ माना जाता है। कहते हैं कि इस दिन खिचड़ी खाने से घर में सुख-समृद्धि आती है। खिचड़ी दाल, चावल और सब्जियों से मिलकर बनती है, जो संतुलित और पौष्टिक आहार है। सर्दियों में शरीर को गर्म और ऊर्जा देने वाला भोजन माना जाता है। खिचड़ी के साथ तिल-गुड़ का सेवन किया जाता है, जो पाचन और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। मकर संक्रांति पर खिचड़ी दान करना बहुत शुभ माना जाता है। गंगा स्नान और खिचड़ी दान का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी है।
मकर संक्रांति २०२५ || Makar Sankranti 2025
यह पर्व जनवरी माह की 14 तारीख को मनाया जाता है। चुकी यह त्यौहार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के दिन मनाया जाता है और सूर्य सामान्यता 12, 13, 14 या 15 जनवरी में से किसी एक दिन मकर राशि में प्रवेश करता है, तो कभी-कभी यह त्यौहार 12, 13 या 15 तारीख को भी मनाया जाता है। इस बार भी यह पर्व 14 को अर्थात आज ही मनाया जाएगा।
मकर संक्रांति २०२५ || Makar Sankranti 2025

मकर संक्रांति के शुभ दिन पर यदि पवित्र नदी गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा और कावेर में कोई डुबकी लगता है, तो वह अपने सभी अतीत और वर्तमान पापों को धो देता है और आपको एक स्वस्थ, समृद्ध और खुशहाल  जीवन प्रदान करता है। मकर संक्रांति में गुड़, तेल, कंबल, फल, छाता आदि दान करने से लाभ मिलता है।
एक बार पुनः आप सभी को मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामनायें। 
आप सभी खुश रहें और स्वस्थ रहें।

 Happy Makar Sankranti

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स्वामी विवेकानन्द || Swami Vivekananda

स्वामी विवेकानन्द

जन्म: 12 जनवरी 1863, कलकत्ता
मृत्यु: 4 जुलाई 1902,
 कलकत्ता के पास

स्वामी विवेकानंद जी वेदों – उपनिषदों के महान ज्ञाता और एक प्रखर वक्ता रहे हैं। उनका सनातन धर्म और संस्कृति के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने विश्वभर में वेदांत दर्शन का प्रसार किया और पूरे विश्व को सनातन धर्म और संस्कृति से परिचित कराया। स्वामी विवेकानंद जी ने कर्म योग, राज योग, ज्ञान योग, भक्ति योग जैसे विचारों को हम तक पहुंचाया है। 1985 से उनका जन्मदिन भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
स्वामी विवेकानन्द || Swami Vivekananda

आज स्वामी विवेकानंद जी की जयंती भी है। स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 को कलकत्ता में एक कुलीन कायस्थ परिवार में हुआ था। उनका औपचारिक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था, जो कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। नरेंद्रनाथ की माँ भुवनेश्वरी देवी एक गृहिणी और अत्यंत धार्मिक महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था।

बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के तो थे ही और नटखट भी थे। अपने साथी बच्चों के साथ वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था। धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी इनके प्रश्न इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डित तक को निरुत्तर कर देते थे। 

 नरेंद्र बाल्यावस्था से प्रतिभा के धनी थे ही, उन पर मां सरस्वती की कृपा भी थी। नरेन्द्रनाथ को बचपन में रहस्यमय अनुभव हुए और ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा बढ़ती गई। 16 वर्ष की आयु में 1869 में स्वामी जी ने कलकत्ता विश्व विद्यालय के एंट्रेंस एग्जाम में बैठे और इस एग्जाम में उन्हें सफलता मिली। इसके बाद इसी विश्वविद्यालय ने उन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इस दौरन उनकी भेंट काली भक्त परमहंस महाराज जी से हुई, जो विवेकानंद की आध्यात्मिक यात्रा के शीर्ष पर थे। 

प्रारंभ में नरेन्द्रनाथ, जो ब्रह्म समाज के सदस्य थे और पश्चिमी तर्क और बुद्धिवाद के संपर्क में थे, रामकृष्ण की पवित्र प्रथाओं और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण पर संदेह करते थे। हालांकि, समय के साथ उन्होंने रामकृष्ण जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया और अपने दिन रहस्यवादी रामकृष्ण जी के सान्निध्य में बिताए, दिव्यता के बारे में सीखा और अपना आध्यात्मिक विश्वदृष्टिकोण बनाया। रामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ को अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी चुना और 1886 में अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले उन्होंने नरेन्द्रनाथ और अन्य शिष्यों को भिक्षुत्व की दीक्षा दी।                      

सन 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित धर्म सम्मेलन में स्वामी जी ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। इस सम्मेलन में स्वामी जी के भाषण की पूरी दुनिया में प्रशंसा की गई। इससे भारत देश को एक नई पहचान मिली। . 

1900 में विवेकानंद अपनी दूसरी विदेश यात्रा से भारत लौटे। उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा और दो साल बाद 4 जुलाई 1902 को बेलूर के रामकृष्ण मठ में ध्यानावस्था में महासमाधि धारण कर स्वामी जी पंचतत्व में विलीन हो गए। उनकी मृत्यु के समय उनकी उम्र सिर्फ 39 वर्ष थी, लेकिन उन्होंने अपने कार्यों, दर्शन और शिष्यों के माध्यम से एक स्थायी विरासत छोड़ी । उनकी शिक्षाएं और व्याख्यान आज भी भारत और दुनिया भर में व्यापक रूप से पढ़े और माने जाते हैं। 

विवेकानंद ने अपने जीवनकाल में जो संगठन स्थापित किए थे, उनका समय के साथ विस्तार हुआ है। वास्तव में, रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के अब वैश्विक स्तर पर 200 से अधिक केंद्र हैं और ये भारत के बाहर 20 से अधिक देशों में मौजूद हैं। 1894 और 1900 में विवेकानंद जी ने क्रमशः न्यूयॉर्क शहर और सैन फ्रांसिस्को में दो वेदान्त समाजों की स्थापना की, जो पश्चिम में अपनी तरह के पहले थे।

इस वर्ष (2025) राष्ट्रीय युवा दिवस की थीम (National Youth Day 2025 Theme)

 1984 में आज के दिन को ही "राष्ट्रीय युवा दिवस" के रूप में मनाने की घोषणा सरकार ने की थी। तभी से प्रतिवर्ष एक थीम के साथ 12 जनवरी को "राष्ट्रीय युवा दिवस" मनाया जाता है। इस वर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस का विषय "राष्ट्र निर्माण के लिए युवा सशक्तिकरण" है। इसके साथ ही इस वर्ष इसकी थीम "युवा एक स्थायी भविष्य के लिए: लचीलेपन और जिम्मेदारी के साथ राष्ट्र को आकार देना" (Youth for a Sustainable Future: Shaping the Nation with Resilience and Responsibility) है।

#राष्ट्रीय युवा दिवस, 
#विवेकानंद, 
#शिकागोसम्मेलन

नया वर्ष 2025 | Happy New Year 2025

नया वर्ष ले आया घट आशीष का


Rupa Oos ki ek Boond

आज जनम दिन दो हज़ार पच्चीस का,

नया वर्ष ले आया घट आशीष का |  

लाये वो हमको हम उसको , 

दें उपहार बड़े,

नयी योजनायें लेकर हम 

स्वागत में खड़े,

मिले अवनि को रूप स्वयं अवनीश का

नया वर्ष ले आया घट आशीष का |

सुख समृद्धि वैभव से ,

अपने शहर और गांव सजें ,

प्रगति पथ दिखलाते हमको ,

आगे वाद्य बजे,

दीप जले अब अपने स्वयं मनीष का,

नया वर्ष ले आया घट आशीष का | 

नई- नई पहचान बने और 

हों सब काम नये , 

सभी पुराने कामों के भी ,

हों परिणाम नये, 

गौरव मिले हमें ही ऊँचे शीश का,

नया वर्ष ले आया घट आशीष का |  

नया वर्ष 2025 | Happy New Year 2025

नव वर्ष 2025 का तेजस्वी सूर्य आपके और आपके समस्त परिजनों के लिये अनंत प्रकाश में स्वर्णिम कल्पनाओं की सम्यक् सम्पूर्ति, उत्तम स्वास्थ्य एवं सम्पन्नता लाए, इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ आप सभी को अंग्रेजी नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं 🎉

अलविदा वर्ष 2024 | जिन्दगी का एक ओर वर्ष कम हो चला

जिन्दगी का एक और वर्ष कम हो चला

अलविदा वर्ष 2024

जिन्दगी का एक ओर वर्ष कम हो चला

कुछ पुरानी यादें पीछे छोड़ चला..


कुछ ख्वाईशें दिल में रह जाती हैं

कुछ बिन मांगे मिल जाती हैं ..


कुछ छोड़ कर चले गये..

कुछ नये जुड़ेंगे इस सफर में..


कुछ मुझसे बहुत खफा हैं..

कुछ मुझसे बहुत खुश हैं..


कुछ मुझे मिल के भूल गये

कुछ मुझे आज भी याद करते हैं..


कुछ शायद अनजान हैं

कुछ बहुत परेशान हैं..


कुछ को मेरा इंतजार हैं ..

कुछ का मुझे इंतजार है..

कुछ सही है, कुछ गलत भी है..


कोई गलती हुई है तो माफ कीजिये और

कुछ अच्छा लगे तो याद कीजिये..

अलविदा वर्ष 2024

अलविदा वर्ष 2024

महामना मदन मोहन मालवीय | Pandit Madan Mohan Malaviya | बनारस हिंदू विश्वविद्यालय

महामना मदन मोहन मालवीय

मूल नाम : महामना मदन मोहन मालवीय
उपनाम : 'मकरन्द'
जन्म : 25 दिसम्बर 1861 |प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
निधन : 12 नवंबर 1946 | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

जिनके नाम के आगे महामना लगा हो, ऐसे महान व्यक्तित्व के रूप में विख्यात एक कट्टर राष्ट्रवादी, पत्रकार, शिक्षाविद, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, समाज सुधारक, वकील और प्राचीन भारतीय संस्कृति के विद्वान पंडित मदन मोहन मालवीय जी की आज जयंती है। 

महामना मदन मोहन मालवीय | Pandit Madan Mohan Malaviya

25 दिसंबर 1861 को एक संस्कृत ज्ञाता के घर में महामना मदन मोहन मालवीय जी का जन्म हुआ। उनके पिता संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान थे और श्रीमद् भागवत की कथा सुनाकर आजीविका का निर्वहन करते थे। इनके पूर्वज मध्य प्रदेश के मालवा जिले से थे। इसीलिए इन्हें मालवीय कहा जाता है। इनका विवाह 16 वर्ष की आयु में मिर्जापुर के पंडित नंदलाल की पुत्री कुंदन देवी के साथ हुआ था। 

मदन मोहन मालवीय जी ने 5 वर्ष की उम्र से ही संस्कृत की पढ़ाई शुरू कर दी थी। मालवीय जी संस्कृत भाषा में प्रारंभिक शिक्षा लेकर प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण करके इलाहाबाद के जिला स्कूल में पढ़ाई की। 1879 में म्योर सेंट्रल कॉलेज जिसे आजकल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है, दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की।  मालवीय जी ने कोलकाता विश्वविद्यालय से पढ़ाई की और 1884 में कोलकाता विश्वविद्यालय से बी. ए. की उपाधि प्राप्त की। 

 प्रारंभिक दिनों में मदन मोहन मालवीय जी ने शिक्षक की नौकरी की। उसके बाद वकालत की। तत्पश्चात वह एक न्यूज़पेपर के एडिटर भी रहे। 1915 में उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। वह हिंदू महासभा के संस्थापक रहे। मदन मोहन मालवीय प्राचीन और आधुनिक पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों के संगम का प्रतिनिधित्व किया। सभी सभ्यताओं का सम्मान करते हुए खुद एक सच्चे ऋषि थे और साथ ही आधुनिक विचारों के प्रति भी खुले विचार के थे। स्वतंत्रता संग्राम में इनके उल्लेखनीय योगदान के कारण ये देश के प्रमुख नेताओं में से एक बन गए। उनकी कई महान उपलब्धियों में से एक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय है, जो महामना के जीवन और दृष्टि का जीवंत प्रमाण है। 
महामना मदन मोहन मालवीय | Pandit Madan Mohan Malaviya

महामना मदन मोहन मालवीय जी का जीवन परिचय 

भारतीय ज्ञान-सम्पदा व सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिमूर्ति महामना मदन मोहन मालवीय मध्य भारत के मालवा के निवासी पंडित प्रेमधर के पौत्र तथा पंडित विष्णु प्रसाद के प्रपौत्र थे। पंडित प्रेमधर जी संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान थे। मदन मोहन मालवीय जी के पूर्वजों ने इलाहाबाद में बस जाने सोचा, जबकि उनके परिवार के कुछ सदस्यों ने पड़ोसी शहर मिर्जापुर को अपना निवास स्थान बनाया।

प्रेमधर जी भागवत की कथा को बड़े सरस ढंग से वाचन व प्रवचन करते थे और यही उनकी आजीविका का श्रोत भी था। मदन मोहन जी अपने पिता ब्रजनाथ जी के छः पुत्र-पुत्रियों में सबसे अधिक गुणी, निपुण एवं मेधावी थे। उनका जन्म 25 दिसम्बर 1861 (हिन्दू पंचाङ्ग के अनुसार पौष कृष्ण अष्टमी, बुधवार, सं0 1918 विक्रम) को इलाहबाद के लाल डिग्गी मुहल्ले में हुआ था। उनकी माता श्रीमती मोना देवी, अत्यन्त धर्मनिष्ठ एवं निर्मल ममतामयी देवी थीं। मदन मोहन जी में अनेक चमत्कारी गुण थे, जिनके कारण उन्होंने ऐसे सपने देखे जो भारत-निर्माण के साथ-साथ मानवता के लिए श्रेष्ठ आदर्श सिद्ध हुए। इन गुणों के कारण ही उन्हें महामना के नाम-रूप में जाना-पहचाना जाता है।

महामना मदन मोहन मालवीय जी की शिक्षा:-

महामना जी की प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद के महाजनी पाठशाला में 5 वर्ष की आयु में आरम्भ हुई थी। मदन मोहन मालवीय जी ने अपने व्यवहार व चरित्र में हिन्दू संस्कारों को भली-भांति आत्मसात् किया था। इसी के फलस्वरूप वे जब भी प्रातःकाल पाठशाला जाते थे, तो सबसे पहले हनुमान-मन्दिर में जाकर यह प्रार्थना अवश्य दुहराते थे:

मनोत्रवं मारूत तुल्य वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्
वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं श्री रामदूतं शिरसा नमामि ।

15 वर्ष के किशोरावस्था में ही उन्होंने काव्य रचना आरम्भ कर दी थी, जिसे वे अपने उपनाम मकरन्द से पहचाने जाते रहे। हाई स्कूल की परीक्षा सन् 1864 में उत्तीर्ण कर, म्योर सेण्ट्रल काॅलेज (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) में दाखिल हुए। विद्यालय व कालेज दोनों जगहों पर उन्होंने अनेक सांस्कृतिक व सामाजिक आयोजनों में सहभागिता की। सन् 1880 ई0 में उन्होंने हिन्दू समाज की स्थापना की।
महामना मदन मोहन मालवीय | Pandit Madan Mohan Malaviya

महामना मदन मोहन मालवीय जी के सामाजिक कार्य:-

मदन मोहन मालवीय जी कई संस्थाओं के संस्थापक तथा कई पत्रिकाओं के सम्पादक रहे। सामाजिक आयोजनों में बढ़ चढ़ कर सहभागिता की। इस दौरान इन्होंने हिन्दू आदर्शों, सनातन धर्म तथा संस्कारों के पालन द्वारा राष्ट्र-निर्माण की पहल की थी। इस दिशा में प्रयाग हिन्दू सभा की स्थापना कर समसामयिक समस्याओं के संबंध में विचार व्यक्त करते रहे। 

सन् 1884 में वे हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि सभा के सदस्य बने, सन् 1885 में इण्डियन यूनियन का सम्पादन किया, सन् 1887 में भारत-धर्म महामण्डल की स्थापना कर सनातन धर्म के प्रचार प्रसार का कार्य किया। सन् 1889 में हिन्दुस्तान का सम्पादन किया। सन् 1891 में इण्डियन ओपीनियन का सम्पादन कर उन्होंने पत्रकारिता को नई दिशा दी। इसके साथ ही सन् 1891 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करते हुए अनेक महत्वपूर्ण व विशिष्ट मामलों में अपना लोहा मनवाया था। सन् 1913 में वकालत छोड़ दी और राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया ताकि राष्ट्र को स्वाधीन देख सकें।

विद्यार्थियों के लिए उठाये गए कदम 

विद्यार्थियों के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा शुरू से ही रहा। सन् 1889 में इस जज्बे को अमली जामा पहनाया। विद्यार्थियों के जीवन-शैली को सुधारने की दिशा में उनके रहन-सहन हेतु छात्रावास का निर्माण कराया। सन् 1889 में एक पुस्तकालय भी स्थापित किया। इलाहाबाद में म्युनिस्पैलिटी के सदस्य रहकर सन् 1916 तक सहयोग किया। इसके साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में भी कार्य किया। सन् 1907 में बसन्त पंचमी के शुभ अवसर पर एक साप्ताहिक हिन्दी पत्रिका अभ्युदय नाम से आरम्भ की। साथ ही अंग्रेजी पत्र लीडर के साथ भी जुड़े रहे।

पिता की मृत्यु के बाद पंडित  मदन मोहन मालवीय जी देश-सेवा के कार्य को अधिक महत्व देने लगे। सन् 1919 में कुम्भ-मेले के अवसर पर प्रयाग में प्रयाग सेवा समिति बनाई ताकि तीर्थयात्रियों की देखभाल हो सके। इसके बाद निरन्तर वे स्वार्थरहित कार्यो की ओर अग्रसर हुए। 

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण:-

मदन मोहन मालवीय जी संस्कृत हिंदी और अंग्रेजी तीनों भाषाओं के ज्ञाता थे। विद्यार्थियों के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बे में वो इतने आगे निकल गए कि इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की, जो उस समय पर बेहद चुनौतीपूर्ण निर्णय था। 
महामना मदन मोहन मालवीय | Pandit Madan Mohan Malaviya
मदन मोहन मालवीय जी के व्यक्तित्व पर आयरिश महिला डाॅ. एनीबेसेण्ट का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा, जो हिन्दुस्तान में शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु दृढ़प्रतिज्ञ रहीं। वे वाराणसी नगर के कमच्छा नामक स्थान पर सेण्ट्रल हिन्दू काॅलेज की स्थापना सन् 1889 में कीं, जो बाद में चलकर हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का केन्द्र बना। 

पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने तत्कालीन बनारस के महाराज श्री प्रभुनारायण सिंह की सहायता से सन् 1904 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का मन बनाया। सन् 1905 में बनारस शहर के टाउन हाल मैदान की आमसभा में श्री डी. एन. महाजन की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित कराया। सन् 1911 में डाॅ. एनीबेसेण्ट की सहायता से एक प्रस्तावना को मंजूरी दिलाई, जो 28 नवम्बर 1911 में एक सोसाइटी का स्वरूप लिया। इस सोसायटी का उद्देश्य दि बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की स्थापना करना था। 25 मार्च 1915 में सर हरकोर्ट बटलर ने इम्पिरीयल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में एक बिल लाया, जो 1 अक्टूबर सन् 1915 को ऐक्ट के रूप में मंजूर कर लिया गया।

4 फरवरी, सन् 1916 को दि बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, की नींव डाल दी गई। इस अवसर पर एक भव्य आयोजन हुआ। जिसमें देश व नगर के अधिकाधिक गणमान्य लोग, महाराजगण उपस्थित रहे। 
महामना मदन मोहन मालवीय | Pandit Madan Mohan Malaviya

महामना मदन मोहन मालवीय जी को महामना की उपाधि 

महात्मा गांधी जी ने मदन मोहन मालवीय जी को महामना की उपाधि दी थी। महात्मा गांधी उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे। मदन मोहन मालवीय जी ने ही "सत्यमेव जयते" को लोकप्रिय बनाया, जो बाद में चलकर राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बना और इसे राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे अंकित किया गया। हालांकि इस वाक्य को हजारों साल पहले उपनिषद में लिखा गया था, लेकिन इसे लोकप्रिय मदन मोहन मालवीय जी ने किया। 

सन् 1918 के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने इस वाक्य का प्रयोग किया था। उस वक्त मदन मोहन मालवीय जी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। मदन मोहन मालवीय जी ने कांग्रेस के कई अधिवेशनों की अध्यक्षता की। उन्होंने सन् 1909, 1913, 1919 और 1932 के कांग्रेस अधिवेशनों की अध्यक्षता की। मदन मोहन मालवीय जी ने सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई। इन आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया था। 

भारत की आजादी के लिए मदन मोहन मालवीय जी बहुत आशान्वित रहते थे। एक बार उन्होंने कहा था, "मैं 50 वर्षों से कांग्रेस के साथ हूं, हो सकता है कि मैं ज्यादा दिन तक न जियूं और ये कसक रहे कि भारत अब भी स्वतंत्र नहीं है, लेकिन फिर भी मैं आशा रखूंगा कि मैं स्वतंत्र भारत को देख सकूं।" परन्तु उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी और आजादी मिलने के एक साल पहले ही सन् 1946 में मदन मोहन मालवीय का निधन हो गया और वह देश को स्वतंत्र होते हुए नहीं देख सके थे।

हैदराबाद निजाम की जूती नीलाम की घटना क्या है?

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) निर्माण के दौरान मदन मोहन मालवीय जी का एक किस्सा बड़ा मशहूर है।  बीएचयू निर्माण के लिए मदन मोहन मालवीय जी देशभर से चंदा इकट्ठा करने निकले थे। इसी सिलसिले में मालवीय जी हैदराबाद के निजाम के पास आर्थिक मदद की आस में पहुंचे। मालवीय जी ने निजाम से बनारस में यूनिवर्सिटी बनाने के लिए आर्थिक सहयोग देने को कहा। 

हैदराबाद के निजाम ने आर्थिक मदद देने से साफ मना कर दिया। निजाम ने बदतमीजी करते हुए कहा कि दान में देने के लिए उसके पास सिर्फ जूती है। मालवीय जी वैसे तो बहुत विनम्र थे, लेकिन निजाम की इस बदतमीजी के लिए उन्होंने उसे सबक सिखाई। वो निजाम की जूती ही उठाकर ले गए और बाजार में निजाम की जूती को नीलाम करने में लग गए। जब इस बात की जानकारी हैदाराबाद के निजाम को हुई तो उसे लगा कि उसकी इज्जत नीलाम हो रही है। इसके बाद निजाम ने मालवीय जी को बुलाकर उन्हें भारीभरकम दान देकर विदा किया। 

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए 1 करोड़ से ज्यादा का चंदा इकट्ठा किया

महामना मदन मोहन मालवीय | Pandit Madan Mohan Malaviya
अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान देश में एक स्वदेशी विश्वविद्यालय का निर्माण मदन मोहन मालवीय की बहुत बड़ी चुनौती थी और उपलब्धि भी। मालवीय जी ने विश्वविद्यालय निर्माण में चंदे के लिए पेशावर से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा की थी। उन्होंने 1 करोड़ 64 लाख की रकम जमा कर ली थी। 

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए 1360 एकड़ जमीन दान में मिली 

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय बनाने के लिए मदन मोहन मालवीय जी को 1360 एकड़ जमीन दान में मिली थी। इसमें 11 गांव, 70 हजार पेड़, 100 पक्के कुएं, 20 कच्चे कुएं, 40 पक्के मकान, 860 कच्चे मकान, एक मंदिर और एक धर्मशाला शामिल था। 

बताया जाता है कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पहली कल्पना दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह ने की थी। सन् 1896 में एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिन्दू स्कूल खोला। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का सपना महामना के साथ इन दोनों लोगों का भी था। सन् 1905 में कुंभ मेले के दौरान विश्वविद्यालय का प्रस्ताव लोगों के सामने लाया गया।  उस समय निर्माण के लिए एक करोड़ रुपए जमा करने थे। सन् 1915 में पूरा पैसा जमा कर लिया गया। पांच लाख गायत्री मंत्रों के जाप के साथ भूमि पूजन हुआ। इसके साथ ही यूनिवर्सिटी निर्माण का काम प्रारंभ हुआ। मदन मोहन मालवीय जी का सपना था कि बनारस की तरह शिमला में एक यूनिवर्सिटी खोली जाए, हालांकि उनका ये सपना भी पूरा नहीं हो सका। राष्ट्र के प्रति उनकी सेवा के सम्मान में वर्ष 2014 में भारत सरकार द्वारा उन्हें मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।

मदन मोहन मालवीय जी भारत के पहले और अंतिम व्यक्ति थे, जिन्हें महामना की सम्मानजनक उपाय उपाधि से विभूषित किया गया है।

शिव मंगल सिंह 'सुमन' || Shivmangal Singh 'Suman' | हिन्दी के शीर्ष कवि 'पद्म भूषण' शिवमंगल सिंह 'सुमन' की पुण्यतिथि आज

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

मूल नाम : शिवमंगल सिंह
उपनाम : 'सुमन'
जन्म : 5 अगस्त 1915 | उन्नाव, उत्तर प्रदेश
निधन :27 नवंबर 2002 | उज्जैन, मध्य प्रदेश

आधुनिक हिंदी साहित्य में शिवमंगल सिंह 'सुमन' एक बहुचर्चित नाम है। वे मुख्यतः एक प्रसिद्ध कवि और शिक्षाविद् थे। कवि-लेखक शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के झगरपुर गाँव में हुआ था। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अपना शोध कार्य पूरा किया।

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

 एक कवि-लेखक होने के साथ ही वह ‘विक्रम विश्वविद्यालय’, उज्जैन के कुलपति, ‘उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान’, लखनऊ के उपाध्यक्ष और ‘भारतीय विश्वविद्यालय संघ’, नई दिल्ली के अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएँ दे चुके हैं। देशप्रेम, स्वतंत्रता, अन्याय के प्रति विद्रोह और निराशा के प्रति आक्रामकता उनकी कविताओं के मुख्य विषय रहे हैं। 

भारत सरकार ने शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में अपना विशेष योगदान देने के लिए शिवमंगल सिंह 'सुमन' को पहले वर्ष 1974 में ‘पद्म श्री’ और वर्ष 1999 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया था। इसके साथ ही उन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और ‘भारत भारती पुरस्कार’ से भी पुरस्कृत किया जा चुका है। उनकी कुछ रचनाओं को बीए और एमए के सिलेबस में विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता हैं। उनकी कृतियों पर कई शोधग्रंथ लिखे जा चुके हैं। वहीं, बहुत से शोधार्थियों ने उनके साहित्य पर पीएचडी की डिग्री प्राप्त की हैं। 

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

इसके साथ ही UGC/NET में हिंदी विषय से परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों के लिए भी शिवमंगल सिंह 'सुमन' का जीवन परिचय और उनकी रचनाओं का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है। 

प्रसिद्धनारायण चौबे के अनुसार, ‘‘अदम्य साहस, ओज और तेजस्विता एक ओर, दूसरी ओर प्रेम, करुणा और रागमयता, तीसरी ओर प्रकृति का निर्मल दृश्यावलोकन, चौथी ओर दलित वर्ग की विकृति और व्यंग्यधर्मी स्वर यानी प्रगतिशील लता की प्रवृत्ति-शिवमंगल सिंह ‘सुमन की कविताओं की यही मुख्य विशेषताएँ हैं।’’ उनका प्रधान स्वर मानवतावादी था। शिल्प की दृष्टि से उनकी कविताओं में दुरुहता नहीं है, भाव अत्यंत सरल हैं। राजनीतिक कविताओं में व्यंग्य को लक्षित किया जा सकता है। वह अच्छे वक्ता और कवि-सम्मेलनों के सफल गायक कवि रहे।

उनका पहला कविता-संग्रह ‘हिल्लोल’ 1939 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद ‘जीवन के गान’, ‘युग का मोल’, ‘प्रलय-सृजन’, ‘विश्वास बढ़ता ही गया’, ‘पर आँखें नहीं भरीं’, ‘विंध्य-हिमालय’, ‘मिट्टी की बारात’, ‘वाणी की व्यथा’, ‘कटे अँगूठों की बंदनवारें’ संग्रह आए। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ‘प्रकृति पुरुष कालिदास’ नाटक, ‘महादेवी की काव्य साधना’ और ‘गीति काव्य: उद्यम और विकास’ समीक्षा ग्रंथ भी लिखे हैं। ‘सुमन समग्र’ में उनकी कृतियों को संकलित किया गया है।

उन्हें ‘मिट्टी की बारात’ संग्रह के लिए 1974 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उन्हें 1974 में पद्मश्री और 1999 में पद्मभूषण से नवाज़ा।

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण वह था जब उनकी आँखों पर पट्टी बांधकर उन्हे एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। जब आँख की पट्टी खोली गई तो वह हतप्रभ थे। उनके समक्ष स्वतंत्रता संग्राम के महायोद्धा चंद्रशेखर आज़ाद खड़े थे। आज़ाद ने उनसे प्रश्न किया था, क्या यह रिवाल्वर दिल्ली ले जा सकते हो। सुमन जी ने बेहिचक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आज़ादी के दीवानों के लिए काम करने के आरोप में उनके विरुद्ध वारंट ज़ारी हुआ। सरल स्वभाव के सुमन जी सदैव अपने प्रशंसकों से कहा करते थे, मैं विद्वान नहीं बन पाया। विद्वता की देहरी भर छू पाया हूँ। प्राध्यापक होने के साथ प्रशासनिक कार्यों के दबाव ने मुझे विद्वान बनने से रोक दिया।

प्रमुख कृतियाँ, काव्य संग्रह 

हिल्लोल
जीवन के गान
प्रलय-सृजन
विश्वास बढ़ता ही गया
पर आँखें नहीं भरीं
विंध्य हिमालय
मिट्टी की बारात
वाणी की व्यथा
कटे अगूठों की वंदनवारें
गद्य रचनाएँ
महादेवी की काव्य साधना
गीति काव्य: उद्यम और विकास

नाटक

प्रकृति पुरुष कालिदास     

सम्मान और पुरस्कार

1974 में 'मिट्टी की बारात' के लिए साहित्य अकादमी
1993 में 'मिट्टी की बारात' के लिए 'भारत भारती पुरस्कार' से सम्मानित।
1974 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित।
1999 में पद्म भूषण
1958 में देवा पुरस्कार
1974 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार
1993 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शिखर सम्मान

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Shiv Mangal Singh 'Suman'

Original Name: Shiv Mangal Singh
Nickname: 'Suman'
Born: 5 August 1915 | Unnao, Uttar Pradesh
Died: 27 November 2002 | Ujjain, Madhya Pradesh

Shiv Mangal Singh 'Suman' is a well-known name in modern Hindi literature. He was mainly a famous poet and educationist. Poet-writer Shiv Mangal Singh 'Suman' was born on 5 August 1915 in Jhagarpur village of Unnao district of Uttar Pradesh. He completed his research work from Banaras Hindu University. Apart from being a poet-writer, he has served as the Vice Chancellor of 'Vikram University', Ujjain, Vice President of 'Uttar Pradesh Hindi Institute', Lucknow and President of 'Association of Indian Universities', New Delhi. Patriotism, freedom, rebellion against injustice and aggression against despair have been the main themes of his poems.

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

The Government of India honoured Shivmangal Singh 'Suman' with 'Padma Shri' in 1974 and 'Padma Bhushan' in 1999 for his special contribution in the field of education and literature. Along with this, he has also been awarded with 'Soviet Land Nehru Award', 'Sahitya Akademi Award' and 'Bharat Bharti Award'. Some of his works are taught in various universities in the syllabus of BA and MA. Many research papers have been written on his works. At the same time, many researchers have obtained PhD degree on his literature.

Along with this, it becomes necessary for the students appearing for the UGC/NET examination in Hindi subject to study the biography of Shivmangal Singh 'Suman' and his works.

According to Prasiddhanarayan Choubey, “Indomitable courage, vigour and brilliance on one hand, love, compassion and melody on the other, pure visualization of nature on the third, distortion of the Dalit class on the fourth and satirical voice i.e. the tendency of progressive Lata – these are the main characteristics of Shivmangal Singh Suman’s poems.” His main tone was humanist. From the point of view of craft, there is no complexity in his poems, the feelings are very simple. Satire can be targeted in political poems. He was a good speaker and a successful singer poet in poet-conferences.

His first poetry collection ‘Hillol’ was published in 1939. After that came the collections ‘Jeevan ke Gaan’, ‘Yug ka Mol’, ‘Pralaya-Srujan’, ‘Vishwas Badhta Hi Gaya’, ‘Par Aankhon Nahin Bhari’, ‘Vindhya-Himalaya’, ‘Mitti ki Baraat’, ‘Vaani ki Vyatha’, ‘Kate Angootho ki Bandanwaare’. Apart from this, he has also written the play 'Prakriti Purush Kalidas', 'Mahadevi Ki Kavya Sadhna' and 'Geeti Kavya: Udyam Aur Vikas' review books. His works have been compiled in 'Suman Samagra'.

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

He was awarded the 1974 Sahitya Akademi Award for the collection 'Mitti Ki Baraat'. The Government of India awarded him the Padma Shri in 1974 and the Padma Bhushan in 1999.

The most important moment in Dr. Shivmangal Singh 'Suman's' life was when he was blindfolded and taken to an unknown place. When the blindfold was removed, he was stunned. Freedom fighter Chandrashekhar Azad was standing in front of him. Azad had asked him, can you take this revolver to Delhi. Suman ji accepted the proposal without hesitation. A warrant was issued against him on the charge of working for freedom fighters. Simple-natured Suman ji always used to tell his fans, I could not become a scholar. I could only touch the threshold of scholarship. Being a professor and the pressure of administrative work prevented me from becoming a scholar. Major works, poetry collections.

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

गुरु तेग़ बहादुर (Guru Tegh Bahadur)

गुरु तेगबहादुर जी मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतन्त्रता के लिए अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रान्तिकारी युग पुरुष थे। गुरु तेगबहादुर जी का शीश औरंगजेब ने 24 नवम्बर 1675 को दिल्ली के चाँदनी चौक में फतवा पढ़वाकर जलालदिन जल्लाद के हाथों तलवार से कटवाया था। इसलिए इस दिन को गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है और उनकी शहादत को याद किया जाता है। 

कौन थे गुरु तेगबहादुर? क्यों इतिहास के पन्नो में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा गया इनका नाम?

श्री गुरु तेग बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे। इनका जन्म अमृतसर में 1 अप्रैल 1621 में हुआ था। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धान्त की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है। सारे विश्व मे सिख समुदाय के साथ साथ अन्य धर्मों के लोग भी गुरु तेगबहादुर जी से अत्यधिक प्रभावित हैं।

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

सन 1675 में जब मुग़ल शासक औरंगजेब ने उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को कहा एवं अपने प्रयत्नों से बाध्य करना चाहा, तब श्री गुरु तेगबहादुरजी जी ने कहा था शीश कटा सकता हुँ अपना पर अपने केश (बाल ) नहीं। उनके इस कथन को सुनकर मुगल बादशाह औरंगजेब ने गुस्से में सबके सामने उनका शीश कटवा दिया था। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब एवं गुरुद्वारा रकाव गंज साहिब आज भी उन स्थानों की याद दिला देते हैं, जहाँ गुरु तेगबहादुरजी का शीश काटा गया एवं उनका अंतिम संस्कार किया गया था। गुरु जी का बलिदान हमें बताता है कि उन्होंने अपने धर्म पालन के लिए अपने प्राणों का मोह तक न किया। धर्म के प्रति उनकी आस्था कितनी कियोशक्तिप्रबल थी। 

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

गुरु तेग़ बहादुर जी ने समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए बलिदान दिया था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।

मुगल शासक औरंगजेब की धर्म विरोधी धर्म के प्रति वैचारिक स्वतंत्रता को खत्म करने वाली गतिविधियों इक्षाओ के खिलाफ गुरु तेगबहादुर जी का बलिदान ऐतिहासिक घटना थी। गुरु जी का जीवन सदैव अपने धर्म के नियम सिद्धांत पर अडीग रहते हुए धर्म पालन का अद्भुत प्रमाण देता है।

उन्होंने धर्म के प्रचार प्रसार के लिए कई स्थानों का भ्रमण किया था। इन्ही यात्राओं के बीच 1666 में गुरु साहेब को पटना में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जो आगे चल कर दसवें गुरुगोविंद सिंह हुए।

गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान की गाथा

औरंगजेब के शासन काल में उसके दरबार में एक विद्वान पंडित आकर गीता के श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगजेब को गीता सुनाने के लिए उसने अपने बेटे को भेज दिया, किंतु उसे किन श्लोकों  छोड़ना है ये बताना भूल गया जिनका अर्थ वहां नहीं करना था।

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

दरबार में पहुंचकर पंडित के बेटे ने जाकर औरंगजेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया, जिससे औरंगजेब को यह स्पष्ट हो गया कि हर धर्म अपने आपमें एक महान धर्म है और औरंगजेब खुद के धर्म के अलावा किसी और धर्म की प्रशंसा नहीं सुन सकता था। उसके सलाहकारों ने उसे सलाह दी कि वह सबको इस्लाम धारण करवा दे। औरंगजेब ने सबको इस्लाम धर्म अपनाने का आदेश दिया और कुछ लोगों को यह कार्य सौंप दिया।

उसने सबसे कह दिया कि इस्लाम धर्म कबूल करो या मौत को गले लगाओ। ऐसे में अन्य धर्म के लोगों का जीना मुश्किल हो गया। इस जुल्म के शिकार कश्मीरी पंडित गुरु तेगबहादुर के पास आए और उन्हें बताया कि किस तरह ‍इस्लाम धर्म स्वीकारने के लिए दबाव बनाया जा रहा है और न करने वालों को तरह-तरह की यातनाएं दी जा रही हैं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत को खतरा है। जहां से हम पानी भरते हैं वहां हड्डियां फेंकी जाती है। हमें बुरी तरह मारा जा रहा है। 

जिस समय यह लोग समस्या सुना रहे थे उसी समय गुरु तेगबहादुर के नौ वर्षीय सुपुत्र बाला प्रीतम (गुरु गोविंदसिंह) वहां आए और पिताजी से पूछा- पिताजी यह लोग इतने उदास क्यों हैं? आप इतनी गंभीरता से क्या सोच रहे हैं? गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों की सारी समस्या बताई तो बाला प्रीतम ने कहा- इसका निदान कैसे होगा? गुरु साहिब ने कहा- इसके लिए बलिदान देना होगा। बाला प्रीतम ने कहा कि आपसे महान पुरुष मेरी नजर में कोई नहीं है, भले ही बलिदान देना पड़े पर आप इनके धर्म को बचाइए।

ऐसा कहने पर  प्रीतम को समझाया गया कि अगर आपके पिता जी बलिदान दे देंगे तो आप यतीम हो जाएंगे और आपकी मां विधवा हो जाएगी। बालक ने कहा कि अगर मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों लोग यतीम होने से बच सकते हैं और अकेले मेरी मां के विधवा होने से लाखों मां विधवा होने से बच सकती हैं, तो मुझे यह स्वीकार है। फिर गुरु तेगबहादुर ने उन पंडितों से कहा कि जाकर औरंगजेब से कह ‍दो ‍अगर गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धारण कर लिया तो हम भी कर लेंगे और अगर तुम उनसे इस्लाम धारण नहीं करा पाए तो हम भी इस्लाम धारण नहीं करेंगे और तुम हम पर जबरदस्ती नहीं कर पाओगे। औरंगजेब ने इस बात को स्वीकार कर लिया।

गुरु तेगबहादुर दिल्ली में औरंगजेब के दरबार में स्वयं चलकर गए। वहां औरंगजेब ने उन्हें तरह-तरह के लालच दिए। लेकिन बात नहीं बनी तो उन पर बहुत सारे जुल्म किए। उन्हें कैद कर लिया गया। औरंगजेब की सभा में गुरु तेग बहादुर और उनके शिष्यों को पेश किया गया और उनके ही सामने उनके शिष्यों के सिर कलम कर दिये गए, लेकिन उनकी आंखों में डर का नामो निशान तक नहीं था। वहीं उनके भाई मति दास के शरीर के दो टुकड़े कर डाले। भाई दयाल सिंह और तीसरे भाई सति दास को भी दर्दनाक अंत दिया गया, फिर भी गुरु तेग़ बहादुर को उनके इरादों से डिगा न सके।

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

गुरु तेगबहादुर जी ने औरंगजेब से कहा कि अगर तुम जबरदस्ती करके लोगों को इस्लाम धारण करने के लिए मजबूर कर रहे हो, तो तुम खुद भी सच्चे मुसलमान नहीं हो, क्योंकि तुम्हारा धर्म भी यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म किया जाए। औरंगजेब को यह सुनकर बहुत गुस्सा आया और उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु साहिब के शीश को काटने का हुक्म दे दिया।

गुरु तेगबहादुर जी अपने धर्म पालन के लिए सदैव सबकी जेहन में जिंदा हैं और रहेंगे। गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी शहादत से पहले ही 8 जुलाई, 1675 को गुरु गोविंद सिंह को सिखों का 10वां गुरु घोषित कर दिया था। 

कार्तिक पूर्णिमा || Kartik Purnima 2024 || देव दीपावली || गुरु पर्व

 कार्तिक पूर्णिमा (Kartik Purnima)

हिंदू धर्म में पूर्णिमा का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। हिंदू धर्म में हर साल 12 पूर्णिमा होती हैं, जो हर महीनें आती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है, तब इनकी संख्या बढ़कर 13 हो जाती है। कार्तिक महीने में आने वाली पूर्णिमा को कार्तिक पूर्णिमा, त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान की पूर्णिमा भी कहते हैं। इस दिन "देव दिवाली" मनाई जाती है। इस दिन को "गुरु पर्व" भी कहा जाता है। इस वर्ष १५ नवंबर आज के दिन "देव दिवाली" का पर्व मनाया जा रहा है। 

कार्तिक पूर्णिमा || Kartik Purnima 2024 || देव दीपावली || गुरु पर्व

कार्तिक पूर्णिमा के दिन क्यों मनाई जाती है देव दीपावली?

दीपावली के ठीक 15 दिन बाद और कार्तिक पूर्णिमा के दिन "देव दीपावली" का पर्व मनाया जाता है। देव दिवाली के दिन काशी और गंगा घाटों पर विशेष उत्सवों के आयोजन किए जाते हैं और गंगा किनारे खूब दीप प्रज्जवलित किए जाते हैं। देव दिवाली मनाने को लेकर ऐसी मान्यता है कि इस दिन देवी-देवता भी स्वर्गलोक से धरती पर आते हैं और दिवाली का पर्व मनाते हैं। 

कार्तिक पूर्णिमा || Kartik Purnima 2024 || देव दीपावली || गुरु पर्व

पौराणिक कथा के अनुसार, त्रिपुरासुर नाम के एक राक्षस ने अपने आतंक से धरतीलोक पर मानवों और स्वर्गलोक में सभी देवताओं को त्रस्त कर दिया था। सभी देवतागण त्रिपुरासुर से परेशान हो गए थे। सभी ने भगवान शिव से त्रिपुरासुर का अंत करने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही त्रिपुरासुर राक्षस का वध किया था। त्रिपुरासुर के अंत के बाद उसके आंतक से मुक्ति मिलने पर सभी देवतागण प्रसन्न हुए और उन्होंने स्वर्ग में दीप जलाएं। इस घटना के बाद से ही कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन को "देव दीपावली" कहा जाने लगा। 

इसके साथ ही इस दिन को त्रिपुरासुर नामक असुर का अंत होने के कारण इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा भी कहते हैं। इसी के बाद से भगवान शिव को त्रिपुरारी के रूप में पूजा जाने लगा था।

कार्तिक पूर्णिमा के दिन क्यों मनाया जाता है गुरु पर्व?

कार्तिक पूर्णिमा || Kartik Purnima 2024 || देव दीपावली || गुरु पर्व

कार्तिक पूर्णिमा को सिख सम्प्रदाय में प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। सिख धर्म को मानने वाले कार्तिक पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं, क्योंकि इस दिन उनके संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। 

इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि कार्तिक पूर्णिमा को बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी प्रकट हुई थीं और कार्तिक पूर्णिमा को ही देवी तुलसी ने पृथ्वी पर जन्म लिया था। 

सभी पाठकों को कार्तिक पूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा और देव दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाइयाँ !!

अक्षय नवमी (Akshay Navami) / आंवला नवमी (Amla Navami) 2024

अक्षय नवमी (आंवला नवमी)

अक्षय नवमी का त्यौहार कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अर्थात दीपावली के 8 दिन बाद मनाई जाती है। इस बार अक्षय नवमी आज 10.11.2024 है। इस दिन आंवला के पेड़ की पूजा की जाती है, अतः इसे आंवला नवमी भी कहते हैं।

अक्षय नवमी (Akshay Navami) / आंवला नवमी (Amla Navami) 2024

अक्षय नवमी पर लोग स्नान, दान, पूजा, पाठ करते हैं। अक्षय नवमी के दिन आंवला के पेड़ की पूजा के साथ भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस दिन आंवला के पेड़ के नीचे भोजन बनाकर भगवान विष्णु को उसका भोग लगाकर स्वयं भी यह भोजन प्रसाद के रूप में ग्रहण करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।          

आंवला को अमरता का फल माना जाता है। कहा जाता है कि जो इंसान अक्षय नवमी के दिन आंवले के पेड़ के नीचे बैठ कर भोजन करता है, उसे अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

अक्षय नवमी (Akshay Navami) / आंवला नवमी (Amla Navami) 2024

कैसे शुरू हुआ यह पर्व 

आंवला नवमी पर आंवले के वृक्ष की पूजा और इसके वृक्ष के नीचे भोजन करने की प्रथा की शुरुआत करने वाली माता लक्ष्मी मानी जाती हैं। प्रचलित कथा के अनुसार एक बार माता लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करने आईं। रास्ते में भगवान विष्णु और शिव की पूजा एक साथ करने की उनकी इच्छा हुई। लक्ष्मी मां ने विचार किया कि एक साथ विष्णु और शिव की पूजा कैसे हो सकती है। तभी उन्हें ख्याल आया कि तुलसी और बेल के गुण एक साथ आंवले में पाया जाता है। तुलसी भगवान विष्णु को प्रिय है और बेल शिव को। आंवले के वृक्ष को विष्णु और शिव का प्रतीक चिह्न मानकर मां लक्ष्मी ने आंवले के वृक्ष की पूजा की। पूजा से प्रसन्न होकर विष्णु और शिव प्रकट हुए। लक्ष्मी माता ने आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन बनाकर विष्णु और भगवान शिव को भोजन कराया। इसके बाद स्वयं ने भोजन किया। जिस दिन यह घटना हुई उस दिन कार्तिक शुक्ल नवमी थी तभी से यह परम्परा चली आ रही है।

ब्लॉग के सभी पाठकों को आंवला नवमी की हार्दिक शुभकामनायें। 
श्री हरि की कृपा सभी पर बनी रहे, सभी निरोगी और स्वस्थ रहें। 

छठ पूजा २०२४ || Chhath Puja 2024

छठ पूजा

छठ पूजा में सूर्यदेव और छठी मैया की पूजा होती है। यह पर्व चार दिनों तक चलता है जिसका आरंभ चतुर्थी तिथि से हो जाता है और समापन सप्तमी तिथि पर होता है। छठ पर्व पर व्रती कमर तक जल में प्रवेश कर सूर्यदेव को अर्घ्य देते है। 

छठ पूजा २०२४  || Chhath Puja 2024

छठ महापर्व षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला बेहद कठिन पर्व है। यह पर्व नियम संयम और तपस्या का पर्व है जो चार दिनों तक चलता है, लेकिन इसकी तैयारी हफ्ते पहले से ही शुरू हो जाती है। छठ पर्व मूल रूप से बिहार और पूर्वांचल से शुरू हुआ माना जाता है। लेकिन अब यह भारत के अलग अलग राज्यों में और विदेशों में भी मनाया जाने लगा है और बिहार और पूर्वांचलवासी ही नहीं अन्य क्षेत्रों में रहने वाले लोग भी अब छठ पर्व के प्रति आस्थावान होकर छठ व्रत करने लगे हैं।

छठ पूजा २०२४  || Chhath Puja 2024

छठ पूजा को सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है, क्योंकि इस दौरान व्रत के साथ ही कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है। यह व्रत परिवार की सुख-समृद्धि, संतान की दीर्घायु और रोगमुक्त जीवन के लिए किया जाता है। इस त्योहार के दौरान सूर्य की आराधना से हमें ऊर्जा और शक्ति मिलती है, जो जीवन में सकारात्मकता का संचार करती है।

छठ पूजा के दौरान प्रसाद के रूप में ठेकुआ, मालपुआ, चावल के लड्डू, फलों और नारियल का प्रयोग किया जाता है। फल के साथ आँवला, सिंघाड़ा, कच्ची हल्दी, कच्ची अदरख, सुथनी गागल, सीता फल (शरीफा), गन्ना ये सभी सामग्री सूर्य देवता को अर्पित की जाती हैं।

छठ पूजा २०२४  || Chhath Puja 2024

छठ पर्व मुख्य रूप से षष्ठी तिथि को किया जाता है। लेकिन इसका आरंभ नहाय खाय से हो जाता है यानी छठ पर्व शुरुआत में पहले दिन व्रती नदियों में स्नान करके भात, कद्दू की सब्जी और सरसों का साग एक समय खाती है। दूसरे दिन खरना किया जाता है जिसमें शाम के समय व्रती गुड़ की खीर बनाकर छठ मैय्या को भोग लगाती हैं और पूरा परिवार इस प्रसाद को खाता है। तीसरे दिन छठ का पर्व मनाया जाता है जिसमें अस्त होते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और चौथे दिन सप्तमी तिथि को उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर छठ पर्व को समापन किया जाता है।

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Chhath Puja

In Chhath Puja, Sun God and Chhathi Maiya are worshipped. This festival lasts for four days, which starts on Chaturthi Tithi and ends on Saptami Tithi. On Chhath festival, the devotees enter waist-deep water and offer water to Sun God.

छठ पूजा २०२४  || Chhath Puja 2024

Chhath Mahaparva is a very difficult festival celebrated on Shashthi Tithi. This festival is a festival of discipline, restraint and penance which lasts for four days, but its preparation starts a week in advance. Chhath festival is originally believed to have started from Bihar and Purvanchal. But now it is being celebrated in different states of India and abroad as well and not only the people of Bihar and Purvanchal but people living in other areas have also started observing Chhath fast, believing in Chhath festival.

Chhath Puja is considered to be one of the most difficult fasts, because during this time, strict rules have to be followed along with fasting. This fast is observed for the happiness and prosperity of the family, longevity of children and disease-free life. During this festival, we get energy and power by worshipping the Sun, which spreads positivity in life.

Thekua, Malpua, rice laddus, fruits and coconut are used as Prasad during Chhath Puja. Along with fruits, Amla, Singhara, raw turmeric, raw ginger, Suthani Gagal, Sita fruit (custard apple), sugarcane, all these materials are offered to the Sun God.

छठ पूजा २०२४  || Chhath Puja 2024

Chhath festival is mainly celebrated on Shashthi Tithi. But it starts with Nahai Khay i.e. Chhath festival starts with the first day of the festival, the fasting person takes a bath in the river and eats rice, pumpkin vegetable and mustard greens once. On the second day, Kharna is done in which in the evening the fasting person makes jaggery kheer and offers it to Chhath Maiya and the whole family eats this Prasad. Chhath festival is celebrated on the third day in which Arghya is offered to the setting Sun and on the fourth day, on Saptami Tithi, Chhath festival is concluded by offering Arghya to the rising Sun.

गोवर्धन पूजा - 2024 || Gowardhan Puja - 2024

 गोवर्धन पूजा (Gowardhan Puja)

गोवर्धन पूजा को अन्नकूट पूजा भी कहा जाता है। सामान्यतया यह पर्व दीपावली के दूसरे दिन मनाया जाता है। इस बार गोवर्धन पूजा दीपावली के अगले दिन ना मनाकर उदया तिथि के अनुसार 2 नवंबर 2024 दिन शनिवार को मनाया जा रहा है। 

गोवर्धन पूजा - 2024 || Gowardhan Puja - 2024

इस दिन गोवर्धन पर्वत, श्री कृष्ण और गाय की पूजा की जाती है। इसी दिन अन्नकूट का पर्व भी मनाया जाता है। गोवर्धन पूजा का हिन्दू धर्म में बेहद ही खास महत्व है। यह हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार हैजिसे लोग असीम श्रद्धा और विश्वास के भाव से मनाते हैं। इस दिन पूरे विधि-विधान से लोग गोवर्धन पूजा करते हैं। इस त्योहार को दिवाली के बाद कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा पर मनाते हैं। उत्तर प्रदेश में इस पर्व को बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है।. मान्यता है कि श्री कृष्ण भगवान ने देवराज इंद्र के अंहकार का नाश करने के लिए गोकुल निवासियों को गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के लिए प्रेरित किया था। मुख्य रूप से सुबह के समय ही गोवर्धन पूजा की जाती है। इस दिन गोबर से गोवर्धन पर्वत की रचना की जाती है। उसे पुष्प आदि से सजाते हैं। सुबह समय न मिल पाए तो लोग शाम में भी यह पूजा कर सकते हैं। यह पूजा भगवान श्री कृष्ण और प्रकृति को समर्पित है।.

गोवर्धन पूजा वाले दिन

गोवर्धन पूजा - 2024 || Gowardhan Puja - 2024

गोवर्धन पूजा वाले दिन गोबर से घर के आंगन में गोवर्धन बनाकर उसे फूलों से सजाया जाता है। वहां दीप, जल, नैवेद्य, धूप, अगरबत्ती, फल, फूल आदि अर्पित किया जाता है। गोवर्धन जी की आकृति गोबर से एक लेटे हुए पुरुष के रूप में बनाई जाती है तथा बीच में दीपक रखा जाता है.।पूजा के दौरान इसी दीपक में बताशे, दही, दूध, गंगाजल, शहद आदि डाला जाता है.।प्रसाद के तौर पर इन्हीं चीजों को सभी में बांट दिया जाता है। पूजा संपन्न होने के बाद लोग गोवर्धन जी की सात बार परिक्रमा करते हैं।. परिक्रमा करते समय लोटे से पानी भी गिराया जाता है और जौ बोया जाता है.। मान्यता है कि जो भी गोवर्धन पूजा पूरे श्रद्धा भाव से करता है, उसके घर में सुख-संपदा, धन, संतान की प्राप्ति होती है।

गोवर्धन पूजा - 2024 || Gowardhan Puja - 2024