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जेठ की तपती दोपहर में

जेठ की तपती दोपहर में

Rupa Oos ki ek Boond
हर रोज गिरकर भी मुकम्मल खड़े हैं ,
ऐ जिंदगी देख मेरे हौसले तुझ से भी बड़े है....❣️❣️

जेठ की तपती दोपहर में

बादलों का आना ही

राहत और सुकून देता है

और उनका बरस जाना 

ज्यों तन-मन को भिगोता देता है

तुम आना तो वैसे ही आना

रूह में बस जाने को आना

इम्तिहान लेने को ही सही

तुम आना, न जाने को आना

मेरी जिंदगी के साजों को

अपने मीठे संगीत से सजाना

तुम आना, चांद की तरह आना

भले रहो दूर मुझसे

अपनी चांदनी में समेट लेना

मैं सब्र करूँगी चांदनी संग जी लूंगी..

मगर तुम आना ..

Rupa Oos ki ek Boond

आती नहीं हैं आहटें अब उस पार से

 फिर भी हम हैं कि सरगोशियां करते जाते हैं..❣️

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

मन के जीते जीत

एक देश की सेना का सेनापति युद्ध में शत्रु से हार कर घर आ गया। वह बहुत उदास था, उसकी पत्नी ने उसकी उदासी का कारण पूछा, तब उसने युद्ध हारने की बात बतायी। यह सुनकर उसकी पत्नी क्रोधित होकर बोली - "'मैंने तो एक शूरवीर सेनापति से विवाह किया था, तुम तो भीरु निकले। तुम जीते जी मर गए। तुम मन का युद्ध हार गये।" 

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

यह सुनकर सेनापति को बड़ी चोट पहुंची। उसके आत्मसम्मान को आघात लगा। वह स्वयं को जैसे धिक्कारने लगा और उठकर वापस चला गया। सेना को एकत्रित करके शत्रु से युद्ध किया और जीत गया। यह सारी विजय उसके मन की विजय थी। मनुष्य के शरीर में लगभग सभी अंग स्थल भौतिक रूप में दिखायी देते हैं - जैसे- आंख, नाक, कान, हृदय आदि दृष्टिगत हैं, किंतु मन जो सभी को चलाता है, रोकता है, भटकाता है, पराजय-विजय दिलाता है, प्रेम-घृणा आदि अनेक मनोभावों व कार्यों का कारण बनता है। उसका अपना कोई दृश्य स्थूल अस्तित्व नहीं है। 

वैसे वेदों में अंतः करण को समझना जरूरी है। अंतः का अर्थ है शरीर के अंदर रहनेवाली इंद्रियां, इससे बाहरी वस्तुओं का सीधे ज्ञान नहीं होता, जबकि बाह्य ज्ञानेंद्रियों जैसे आंख, नाक, कान आदि से बाहरी वस्तुओं का ज्ञान होता है. अंतःकरण शरीर के अंदर की इंद्रियों को ग्रहण या अनुभव करता है, जैसे ज्ञान-अज्ञान, इच्छा, सुख-दुख, आशा-निराशा, पर्यटन आदि वृत्तियां। 

अंतःकरण चार हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। यह चारों वृत्तियां हैं। मन संकल्प-विकल्प करता है, बुद्धि निश्चय, सत्य-असत्य, ठीक- गलत बताती है, चिंतनरूपी वृत्ति का नाम चित्त है, जो विचारों, घटनाओं आदि को संभाल कर भी रखता है और स्फुरण या गर्वरूप वृत्ति का नाम है अहंकार। 

मन एक विचारों का, संकल्पों-विकल्पों का प्रवाह है। मन बड़ा चंचल है, बंदर की तरह नाचता रहता है। इसकी गति नकारात्मकता की ओर अधिक होती है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने मन को ईश्वर के चरणों से आबद्ध कर अपना उद्धार स्वयं ही करने की प्रेरणा दी है। 

मन के हारे हार है मन के जीते जीत
छोटे मन से कोई 
बड़ा नहीं होता.. 
टूटे मन से कोई 
खड़ा नहीं होता..

पश्चिम बंगाल का राज्य पशु "फिशिंग कैट/मत्सय बिल्ली" || State Animal of State animal of West Bengal "Fishing Cat"

पश्चिम बंगाल का राज्य पशु

"फिशिंग कैट/मत्सय बिल्ली" 

स्थानीय नाम: फिशिंग कैट/मत्सय बिल्ली
वैज्ञानिक नाम: प्राइनायलुरस विवरिनस

पश्चिम बंगाल के राज्य पशु का नाम फिशिंग कैट है। फिशिंग कैट को दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में मध्यम आकार की जंगली बिल्ली के रूप में जाना जाता है। वे घने वन क्षेत्रों और आर्द्रभूमि क्षेत्रों को पसंद करते हैं। वे झाड़ीदार क्षेत्रों, ईख की क्यारियों, ज्वारीय खाड़ी क्षेत्रों, पानी के पास वनस्पति क्षेत्रों, दलदल, मैंग्रोव, नदियों और झरनों में भी पाए जाते हैं। वे अपना अधिकांश जीवन जल निकायों के पास घने वनस्पतियों के क्षेत्रों में बिताती हैं और उत्कृष्ट तैराक होती हैं। फिशिंग कैट को हिमालय के जंगलों में 1500 मीटर की ऊँचाई पर देखा गया है। 
पश्चिम बंगाल का राज्य पशु "फिशिंग कैट/मत्सय बिल्ली" || State Animal of State animal of West Bengal "Fishing Cat"
फिशिंग कैट लंबे, गठीले होते हैं और इनके शरीर का रंग जैतूनी भूरा होता है, जिस पर शरीर की लंबाई के साथ क्षैतिज धारियों में काले या भूरे रंग के धब्बे होते हैं। चेहरा धब्बेदार होता है, छोटे बाल होते हैं तथा नाक और कान स्पष्ट रूप से चपटे होते हैं। आँखों का रंग पीला-भूरा होता है, जिसमें हरे रंग की पुतली होती है। मछली पकड़ने वाली बिल्ली के दांत छोटे और कम विकसित होते हैं। कान छोटे और गोल होते हैं, जो पीछे की तरफ काली होती है और बीच में प्रमुख सफेद धब्बे होते हैं। कान के नीचे के सफेद या हल्के भूरे रंग के हिस्से में कुछ सफेद या गंदे सफेद बाल होते हैं। नीचे का फर लंबा होता है और अक्सर धब्बों से ढका होता है। गले के चारों ओर गहरे रंग की धारियाँ होती हैं। उनकी पूंछ छोटी होती है (उनके शरीर की लंबाई का लगभग एक तिहाई)। पूंछ पर काले अधूरे छल्ले मौजूद होते हैं। 
पश्चिम बंगाल का राज्य पशु "फिशिंग कैट/मत्सय बिल्ली" || State Animal of State animal of West Bengal "Fishing Cat"
फिशिंग कैट्स रात्रिचर (रात में सक्रिय) होती है और मछली के अलावा मेंढक, क्रस्टेशियंस, साँप, पक्षी तथा बड़े जानवरों के शवों पर उपस्थित अपमार्जकों का भी शिकार करती है। 

यह घरेलू बिल्ली के आकार से दोगुनी है। प्रजनन काल जनवरी से अप्रैल के बीच होता है। यौन परिपक्वता की आयु 9 से 18 महीने के बीच होती है। प्रजनन काल जनवरी से अप्रैल के बीच होता है। वे "चकली" जैसी आवाज़ निकालते हैं। गर्भधारण अवधि 63 से 70 दिनों के बीच होती है। मादा 2 या 3 बिल्ली के बच्चे को जन्म देती है। उनकी आँखें 16 दिनों तक खुल जाती हैं। वे एक महीने की उम्र तक सक्रिय रूप से घूमने-फिरने में सक्षम हो जाते हैं।
पश्चिम बंगाल का राज्य पशु "फिशिंग कैट/मत्सय बिल्ली" || State Animal of State animal of West Bengal "Fishing Cat"
फिशिंग कैट के लिये एक बड़ा खतरा आर्द्रभूमि का विनाश है, जो उनका पसंदीदा आवास है। वेटलैंड विनाश से फिशिंग कैट की आबादी खतरे में है और पिछले एक दशक में इसमें भारी गिरावट आई है। 2016 से, इसे IUCN रेड लिस्ट में लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इस अनोखी बिल्ली को माँस और त्वचा के लिये शिकार से संबंधित खतरों का भी सामना करना पड़ता है। जनजातीय शिकारी वर्ष भर आनुष्ठानिक शिकार प्रथाओं में लिप्त रहते हैं। इसकी त्वचा के लिये कभी-कभी इसका अवैध शिकार भी किया जाता है। इन्हीं सब कारणों से फिशिंग कैट की संख्या में गिरावट आई है। 

समय समय पर फिशिंग कैट के संरक्षण के प्रयास होते रहे हैं। वर्ष 2021 में फिशिंग कैट संरक्षण अलायंस ने आंध्र प्रदेश के पूर्वोत्तर घाटों के असुरक्षित और मानव-प्रधान परिदृश्य में फिशिंग कैट के जैव-भौगोलिक वितरण का एक अध्ययन की शुूरुआत की है। 
वर्ष 2010 में शुरू की गई फिशिंग कैट परियोजना ने पश्चिम बंगाल में फिशिंग कैट के बारे में जागरूकता बढ़ाने का कार्य शुरू किया। 
वर्ष 2012 में पश्चिम बंगाल सरकार ने आधिकारिक तौर पर फिशिंग कैट को राज्य पशु घोषित किया और कलकत्ता चिड़ियाघर में दो बड़े बाड़ों का निर्माण किया गया है। 
ओडिशा में कई गैर-सरकारी संगठन और वन्यजीव संरक्षण समितियाँ  फिशिंग कैट  अनुसंधान एवं संरक्षण कार्य में शामिल हैं।  

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State animal of West Bengal "Fishing Cat"

Local name: Fishing Cat
Scientific name: Prinailurus viverrinus

The state animal of West Bengal is fishing cat. Fishing cats are known as medium-sized wild cats in South and South-East Asia. They prefer dense forest areas and wetland areas. They are also found in scrubby areas, reed beds, tidal creek areas, vegetated areas near water, swamps, mangroves, rivers and streams. They spend most of their life in dense vegetation areas near water bodies and are excellent swimmers. Fishing cats have been seen in Himalayan forests at an altitude of 1500 m.
पश्चिम बंगाल का राज्य पशु "फिशिंग कैट/मत्सय बिल्ली" || State Animal of State animal of West Bengal "Fishing Cat"
Fishing cats are tall, well-built and have an olive brown body colour with black or brown spots in horizontal stripes along the length of the body. The face is spotted, short-haired and the nose and ears are distinctly flattened. The eyes are yellowish-brown in colour with a green pupil. The teeth of the fishing cat are small and poorly developed. The ears are small and round, black at the back with a prominent white spot in the centre. The white or light brown portion below the ear has a few white or dirty white hairs. The fur underneath is long and often covered with spots. There are dark stripes around the throat. Their tail is short (about one-third of their body length). Black incomplete rings are present on the tail.

Fishing cats are nocturnal (active at night) and hunt fish as well as frogs, crustaceans, snakes, birds and scavengers present on the carcasses of large animals.

It is twice the size of a domestic cat. The breeding season is between January and April. The age of sexual maturity is between 9 and 18 months. The breeding season is between January and April. They make a sound like "chuckling". The gestation period ranges between 63 and 70 days. The female gives birth to 2 or 3 kittens. Their eyes open by 16 days. They are able to move around actively by one month of age.

A major threat to the fishing cat is the destruction of wetlands, which are their preferred habitat. Wetland destruction threatens the fishing cat population and has declined drastically over the past decade. Since 2016, it has been listed as endangered on the IUCN Red List. This unique cat also faces threats related to hunting for meat and skin. Tribal hunters engage in ritual hunting practices throughout the year. It is also sometimes poached for its skin. Due to all these reasons, the number of fishing cats has declined.
पश्चिम बंगाल का राज्य पशु "फिशिंग कैट/मत्सय बिल्ली" || State Animal of State animal of West Bengal "Fishing Cat"
Efforts have been made from time to time to conserve the fishing cat. In 2021, the Fishing Cat Conservation Alliance initiated a study of the biogeographical distribution of the fishing cat in the vulnerable and human-dominated landscape of the Northeast Ghats of Andhra Pradesh.
The Fishing Cat Project, launched in 2010, began to raise awareness about the fishing cat in West Bengal.
In 2012, the West Bengal government officially declared the fishing cat as the state animal and two large enclosures have been constructed in the Calcutta Zoo.
In Odisha, several NGOs and wildlife conservation societies are involved in fishing cat research and conservation work.                                                                                                                                                                              

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..पूस की रात

 मानसरोवर-1 ..पूस की रात

पूस की रात - मुंशी प्रेमचंद | Poos Ki Raat by Munshi Premchand

1

हल्कू ने आकर स्त्री से कहा- सहना आया है, लाओ, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे ।

मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली- तीन ही तो रुपये हैं, दे दोगे तो कम्मल कहाँ से आवेगा ? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी ? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे। अभी नहीं ।

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..पूस की रात

हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा । पूस सिर पर आ गया, कम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी । यह सोचता हुआ वह अपना भारी- भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था ) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला- ला दे दे, गला तो छूटे। कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा।

मुन्नी उसके पास से दूर हट गयी और आँखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय ! जरा सुनूँ तो कौन-सा उपाय करोगे ? कोई खैरात दे देगा कम्मल ? न जाने कितनी बाकी है, जों किसी तरह चुकने ही नहीं आती । मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते ? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई । बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है । पेट के लिए मजूरी करो । ऐसी खेती से बाज आये । मैं रुपये न दूँगी, न दूँगी ।

हल्कू उदास होकर बोला- तो क्या गाली खाऊँ ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा- गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है ?

मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गयीं । हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था ।

उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिये। फिर बोली- तुम छोड़ दो अबकी से खेती । मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी । किसी की धौंस तो न रहेगी । अच्छी खेती है ! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस ।

हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो । उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपये कम्मल के लिए जमा किये थे । वह आज निकले जा रहे थे । एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था ।

2

पूस की अंधेरी रात ! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा काँप रहा था । खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट मे मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था । दो में से एक को भी नींद न आती थी ।

हल्कू ने घुटनियों कों गरदन में चिपकाते हुए कहा- क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहाँ क्या लेने आये थे ? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूँ ? जानते थे, मै यहाँ हलुवा-पूरी खाने आ रहा हूँ, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये । अब रोओ नानी के नाम को ।

जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलायी और अपनी कूँ-कूँ को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया। उसकी श्वान-बुध्दि ने शायद ताड़ लिया, स्वामी को मेरी कूँ-कूँ से नींद नहीं आ रही है।

हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा- कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे । यह राँड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है । उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ । किसी तरह रात तो कटे ! आठ चिलम तो पी चुका । यह खेती का मजा है ! और एक-एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाय तो गरमी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ- कम्मल । मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाय । तकदीर की खूबी ! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें !

हल्कू उठा, गड्ढ़े में से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी । जबरा भी उठ बैठा ।

हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा- पियेगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, जरा मन बदल जाता है।

जबरा ने उसके मुँह की ओर प्रेम से छलकती हुई आँखों से देखा ।

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्र

हल्कू- आज और जाड़ा खा ले । कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा । उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा ।

जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिये और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया । हल्कू को उसकी गर्म साँस लगी ।

चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊँगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा । कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भाँति उसकी छाती को दबाये हुए था ।

जब किसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसक सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया । कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद मे चिपटाये हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था । जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी । अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता । वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुँचा दिया । नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वा र खोल दिये थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था ।

सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पायी । इस विशेष आत्मीयता ने उसमे एक नयी स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडें झोकों को तुच्छ समझती थी । वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूँकने लगा । हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया । हार में चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूँकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता । कर्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति ही उछल रहा था ।

3

एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई | ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों मे रक्त की जगह हिम बह रहा है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है ! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े । ऊपर आ जायँगे तब कहीं सबेरा होगा । अभी पहर से ऊपर रात है ।

हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था । पतझड़ शुरु हो गयी थी । बाग में पत्तियों को ढेर लगा हुआ था । हल्कू ने सोचा, चलकर पत्तियाँ बटोरूँ और उन्हें जलाकर खूब तापूँ । रात को कोई मुझे पत्तियाँ बटोरते देख तो समझे कोई भूत है । कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता ।

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिये बगीचे की तरफ चला । जबरा ने उसे आते देखा तो पास आया और दुम हिलाने लगा ।

हल्कू ने कहा- अब तो नहीं रहा जाता जबरू । चलो बगीचे में पत्तियाँ बटोरकर तापें । टाँठे हो जायेंगे, तो फिर आकर सोयेंगें । अभी तो बहुत रात है।

जबरा ने कूँ-कूँ करके सहमति प्रकट की और आगे-आगे बगीचे की ओर चला।

बगीचे में खूब अँधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था । वृक्षों से ओस की बूँदे टप-टप नीचे टपक रही थीं ।

एकाएक एक झोंका मेहँदी के फूलों की खूशबू लिए हुए आया ।

हल्कू ने कहा- कैसी अच्छी महक आई जबरू ! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही है ?

जबरा को कहीं जमीन पर एक हडडी पड़ी मिल गयी थी । उसे चिंचोड़ रहा था ।

हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा । जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया। हाथ ठिठुरे जाते थे । नंगे पाँव गले जाते थे । और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था । इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा ।

थोड़ी देर में अलाव जल उठा । उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी । उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों अंधकार के उस अनंत सागर मे यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था ।

हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था । एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पाँव फैला दिए, मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आये सो कर । ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था ।

उसने जबरा से कहा- क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है ?

जब्बर ने कूँ-कूँ करके मानो कहा- अब क्या ठंड लगती ही रहेगी ?

'पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते ।'

जब्बर ने पूँछ हिलायी ।

'अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें । देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बच्चा,

तो मैं दवा न करूँगा ।'

जब्बर ने उस अग्निराशि की ओर कातर नेत्रों से देखा !

मुन्नी से कल न कह देना, नहीं तो लड़ाई करेगी ।

यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया । पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी । जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ ।

हल्कू ने कहा- चलो-चलो इसकी सही नहीं ! ऊपर से कूदकर आओ । वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया।

4

पत्तियाँ जल चुकी थीं । बगीचे में फिर अंधेरा छा गया था । राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आँखें बंद कर लेती थी !

हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा । उसके बदन में गर्मी आ गयी थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाये लेता था।

जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा । हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुंड था । उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थी । फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रहीं हैं। उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी।

उसने दिल में कहा- नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहाँ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ।

उसने जोर से आवाज लगायी- जबरा, जबरा।

जबरा भूँकता रहा। उसके पास न आया।

फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दंदाया हुआ था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला।

उसने जोर से आवाज लगायी- लिहो-लिहो !लिहो! !

जबरा फिर भूँक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार है। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किये डालते हैं।

हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा ।

जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था । अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था।

उसी राख के पास गर्म जमीन पर वह चादर ओढ़ कर सो गया।

सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैल गयी थी और मुन्नी कह रही थी- क्या आज सोते ही रहोगे ? तुम यहाँ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया ।

हल्कू ने उठकर कहा- क्या तू खेत से होकर आ रही है?

मुन्नी बोली- हाँ, सारे खेत का सत्यानाश हो गया । भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मड़ैया डालने से क्या हुआ ?

हल्कू ने बहाना किया- मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है। पेट में ऐसा दरद हुआ कि मै ही जानता हूँ !

दोनों फिर खेत के डाँड़ पर आये । देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों ।

दोनों खेत की दशा देख रहे थे । मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था।

मुन्नी ने चिंतित होकर कहा- अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।

हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा- रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।

विशालकाय समुद्री बिच्छू, 25 करोड़ साल पहले धरती पर था इसका राज

विशालकाय समुद्री बिच्छू

कभी आपने विशालकाय समुद्री बिच्छू के बारे में पढ़ा है? दुनिया एक से एक रहस्यमयी चीजों से भरी पड़ी है। इसी रहस्यमयी दुनिया का एक जीव है - समुद्री बिच्छू। फरवरी 2022 में एक बहुत बड़े और प्राचीन समुद्री बिच्छू की प्रजाति का पता चला था। ऑस्ट्रेलिया में इस बिच्छू का जीवाश्म मिला, जो करीब 25.20 करोड़ साल पहले समुद्र में राज करता था। इतना ही नहीं, यह ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड में मौजूद नदियों और झीलों में भी पाया जाता था। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह एक विशालकाय शैतान था। 

विशालकाय समुद्री बिच्छू, 25 करोड़ साल पहले धरती पर था इसका राज

27 मिलियन वर्षों के दौरान विशाल समुद्री बिच्छू जीवित रहे, उन्होंने खाद्य श्रृंखला में अपना स्थान बनाया, बिना किसी प्राकृतिक शिकारी के पनपते रहे। विशाल समुद्री बिच्छू पृथ्वी पर सबसे क्रूर जीवों में से एक थे, जो बड़ी मछलियों को खाते थे - साथ ही एक दूसरे को भी। युरिप्टेरिड्स नरभक्षी थे, जो संसाधनों, शिकार और साथी के लिए प्रतिस्पर्धा में एक दूसरे से लड़ते और खाते थे। वे विशाल आकार में विकसित हुए। 

1990 में मिला था पहला जीवाश्म.. 

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार ये एक मीटर लंबा बिच्छू ताजा पानी में रहना पसंद करता था। इस विशालकाय बिच्छू का जीवाश्म पहली बार 1990 के दौरान सेंट्रल क्वींसडलैंड के ग्रामीण इलाके में मिला था। इसके बाद इस पर शोध किए जाने लगे। लंबे समय से शोध के लिए रखे गए इस बिच्छू का जीवाश्म अब क्वींसलैंड के म्यूजियम में रखा गया है। 

दुनिया में मौजूद अन्य बिच्छुओं की प्रजातियों से इस जीवाश्म की तुलना करते हुए इस पर गहन अध्ययन किया जा रहा है। इस रिसर्च में इस जीवाश्म और अन्य बिच्छुओं की प्रजातियों से इस जीवाश्म की तुलना करते हुए इस पर गहन अध्ययन किया जा रहा है। इस रिसर्च में इस जीवाश्म और अन्य बिच्छुओं की प्रजाति के बीच की समानताओं पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इस जीवाश्म पर हो रहे रिसर्च में कोरोना काल में तेजी आई थी क्योंकि इस दौरान लॉकडाउन लगा था और म्यूजियम आम लोगों के लिए बंद था। यह जीवाश्म किसी अन्य प्रजाति से करीब एक करोड़ साल नया बताया जा रहा है। 

क्वींसलैंड म्यूजियम के अधिकारी एंड्रयू रोजेफेल्डस के अनुसार कोयले के बीच प्रिजर्व इस समुद्री बिच्छू का जीवाश्म करीब 25.2 करोड़ साल पुराना है। उन्होंने कहा कि जीवाश्म पर गहन शोध की गई जिसे वैज्ञानिक भाषा में यूरिप्टेरिडा कहा जाता है। रोजेफेल्डस के मुताबिक यह पूरी दुनिया में अपनी तरह का आखिरी यूरिप्टेरिडा था।  

वैज्ञानिकों की मानें तो इसके बाद अनोखे जीव की प्रजाति की दुनिया से खत्म हो गई थी। अब इस जीवाश्म पर हो रहे रिसर्च से पता लगाया जाएगा कि बिच्छू की इस प्रजाति की यात्रा कितनी लंबी रही है। इसके साथ ही यह जानकारी भी जुटाई जाएगी कि क्या इस तरह के बिच्छू ऑस्ट्रेलिया में ही मौजूद थे या फिर दुनिया के अन्य देशों में भी फैले हुए थे। 

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मिला 25 करोड़ साल पुराने विशालकाय समुद्री बिच्छू का जीवाश्म, इस 'समुद्री शैतान' का था धरती पर राज

जल मंदिर, पावापुरी भगवान महावीर का निर्वाण स्थल

जल मंदिर, पावापुरी

पावापुरी भारत के बिहार प्रान्त के नालंदा जिले मे स्थित एक शहर है। यह जैन धर्म के मतावलंबियो के लिये एक अत्यंत पवित्र शहर है, क्यूंकि माना जाता है कि भगवान महावीर को यहीं मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। यहाँ के जलमंदिर की शोभा देखते ही बनती है। पावापुरी का जल मंदिर जैन धर्म के अनुयायियों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। भगवान महावीर को इसी स्थल पर मोक्ष यानी निर्वाण की प्राप्ति हुई थी। 

जल मंदिर, पावापुरी भगवान महावीर का निर्वाण स्थल

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व बिहार में वैशाली के कुण्डलपुर में हुआ था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राजकाज त्याग संन्यास धारण कर लिया था। 72 वर्ष की आयु में दीपावली के दिन पावापुरी में उनका महापरिनिर्वाण हुआ। इसलिए जैन धर्म के अनुयायी भी दिवाली काफी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाते हैं। 

जल मंदिर, पावापुरी भगवान महावीर का निर्वाण स्थल

यह वही जगह है जहां भगवान महावीर ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना पहला और आखिरी उपदेश दिया था। भगवान महावीर ने इसी जगह से विश्व को अहिंसा के साथ जिओ और जीने दो का संदेश दिया था। आज जहां जल मंदिर है, वहां भगवान महावीर का अंतिम संस्कार किया गया था। बताया जाता है कि भगवान महावीर के अंतिम संस्कार में लाखों लोग शामिल हुए थे। अंतिस संस्कार के बाद लोग वहां से उनके शरीर का पवित्र भस्म उठाकर अपने साथ ले जाने लगे। लेकिन लोगों का संख्या इतनी ज्यादा थी कि वे राख खत्म होने पर अपने साथ ले जाने के लिए वहां से मिट्ठी उठाने लगे। 

इस दौरान इतनी मात्रा में मिट्टी उठ गई कि वहां से जल निकल आया और एक सरोवर बन गया। देखते-देखते यह स्थल 84 बीघे के सरोवर में बदल गया। जैन धर्म के अनुयायियों का मानना है कि पावापुरी में आने मात्र से लोगों के सारे पाप मिट जाते हैं। हालांकि आज यहां जैन धर्म के मानने वाले नहीं के बराबर लोग हैं, लेकिन भगवान महावीर के प्रति श्रद्धा में कोई कमी नहीं है। दुनिया भर से पर्यटक और श्रद्धालु यहां आस्था के साथ शीश झुकाने आते हैं। 

जल मंदिर, पावापुरी भगवान महावीर का निर्वाण स्थल

यहां हृदय से की गई मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। यहां हर साल लाखों पर्यटक आते हैं। यह जल मन्दिर काफी प्रसिद्ध और दर्शनीय है। इस शानदार और खूबसूरत मंदिर के पूजा स्थल में भगवान महावीर की एक प्राचीन चरण पादुका है। इस मंदिर का निर्माण भगवान महावीर के बड़े भाई राजा नंदीवर्धन ने करवाया था। संगमरमर से बने इस दिव्य मंदिर का बीच-बीच में जीर्णोद्धार होता रहा है।

यहाँ के स्थानीय लोगों का कहना है कि एक समय में यह सरोवर लाल कमल के फूलों से भरा रहता था और लाल कमल के फूलों के बीच अनगिनत बत्तख हुआ करते थे। लोग यहाँ आकर ही असीम शांति का अनुभव करते थे। वैसे अभी तो यहाँ लाल कमल के फूल नहीं खिले हुए हैं और बत्तख़ों की संख्या बहुत कम है, जो आप वीडियो में देख सकते हैं। हाँ पर यहाँ आकर असीम शांति का अनुभव अवश्य हुआ।  

जल मंदिर, पावापुरी भगवान महावीर का निर्वाण स्थल

किनारे से सरोवर के मध्य बने जलमंदिर तक जाने के लिए करीब 180 मीटर का एक पुल बना हुआ है। उत्तर दिशा की ओर पुल के शुरू में बने लाल बलुआ पत्थर से बने भव्य मेहराबी प्रवेश द्वार को पार कर यहाँ पहुंचना होता है। इस जलमंदिर की वास्तुकला, कलाकृति अतुलनीय है। इसकी शोभा देखते ही बनती है। धर्म में आस्था नहीं रखने वाले लोग भी इस मंदिर का आकर्षण और दिव्यता को देखने के लिए यहां आते हैं।

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Jal Mandir, Pawapuri

Pawapuri is a city located in Nalanda district of Bihar state of India. It is a very holy city for the followers of Jainism, because it is believed that Lord Mahavira attained salvation here. The beauty of the Jal Mandir here is worth seeing. The Jal Mandir of Pawapuri is a major pilgrimage site for the followers of Jainism. Lord Mahavira attained salvation i.e. Nirvana at this place.

Lord Mahavira, the 24th Tirthankara of Jainism, was born in Kundalpur, Vaishali in Bihar, 599 years before Christ. At the age of thirty, Mahavira became disillusioned with the world and renounced the kingdom and took up sanyaas. At the age of 72, he attained Mahaparinirvana in Pawapuri on the day of Diwali. Therefore, the followers of Jainism also celebrate Diwali with great devotion and enthusiasm.
जल मंदिर, पावापुरी भगवान महावीर का निर्वाण स्थल
This is the same place where Lord Mahavira gave his first and last sermon after attaining enlightenment. From this place, Lord Mahavira gave the message of live and let live with non-violence to the world. Today, where Jal Mandir is located, the last rites of Lord Mahavir were performed. It is said that lakhs of people attended the last rites of Lord Mahavir. After the last rites, people started taking the holy ashes of his body with them. But the number of people was so high that when the ashes were over, they started taking soil from there to take with them.

During this time, so much soil was raised that water came out from there and a lake was formed. Within no time, this place turned into a lake of 84 bighas. The followers of Jainism believe that all the sins of people are erased by just coming to Pavapuri. Although today there are almost no people who believe in Jainism here, but there is no lack of devotion towards Lord Mahavir. Tourists and devotees from all over the world come here to bow their heads with faith.

The wishes made from the heart are fulfilled here. Lakhs of tourists come here every year. This Jal Mandir is very famous and worth seeing. In the place of worship of this magnificent and beautiful temple, there is an ancient Charan Paduka of Lord Mahavir. This temple was built by Lord Mahavir's elder brother Raja Nandivardhan. This divine temple made of marble has been renovated from time to time.
जल मंदिर, पावापुरी भगवान महावीर का निर्वाण स्थल
The local people here say that at one time this lake was full of red lotus flowers and there used to be countless ducks among the red lotus flowers. People used to experience immense peace by coming here. By the way, right now the red lotus flowers are not blooming here and the number of ducks is very less, which you can see in the video. Yes, but coming here definitely gave an experience of immense peace.

There is a bridge of about 180 meters to go from the shore to the Jal Mandir built in the middle of the lake. One has to reach here by crossing the grand arched entrance made of red sandstone built at the beginning of the bridge towards the north. The architecture and artwork of this Jal Mandir is incomparable. Its beauty is worth seeing. People who do not believe in religion also come here to see the attraction and divinity of this temple.

लीची/ Lichi/ Litchi

 लीची/ Lichi/ Litchi

आ गया ना मुंह में पानी। लीची का मौसम चल रहा है। फल मंडी में आजकल फलों की बहार है। तरबूज, खरबूज, बेल और अन्य फलों के साथ लीची भी मिल रही है। कुछ दिनों से आम भी दिख रहे हैं, पर अभी कार्बाइड से पकाये गए आम मिल रहे हैं। कल इतवार के दिन कुछ ज्यादा ही हर तरफ लाल लाल लीची ही लीची दिख रही थी। तो चलिए आज लीची की ही चर्चा कर लेते हैं। लीची (Litchee) बहुत ही मीठा और स्वादिष्ट फल है। बच्चे हो या वयस्क सभी लोगों को लीची (Lychee) खाना बेहद पसंद होता है। लीची (Litchi) ही एक ऐसा फल है, जिसको पेड़ पर उगने वाला रसगुल्ला कहा जाता है। गर्मी के दिनों में लीची (Litchi) की मिठास और रसीलेपन से लोगों को गर्मी से निजात मिलती है।

लीची/ Lichi/ Litchi

लीची क्या है?

लीची का पेड़ मध्यम आकार का होता है। इसके फल गोल और कच्ची अवस्था में हरे रंग के होते हैं तथा पकने पर मखमली लाल रंग के हो जाते हैं। फल के अंदर का गूदा सफेद रंग का मांसल और मीठा होता है। प्रत्येक फल के अंदर भूरे रंग का एक बीज होता है।

आयुर्वेद में लीची ना सिर्फ मधुर स्वाद के लिए जानी जाती है, बल्कि अनेक औषधीय गुणों से भी परिपूर्ण है। लीची की प्रकृति गर्म होती है, जो गठिया के दर्द, वात तथा पित्त के दोषों को कम करती है।

लीची/ Lichi/ Litchi

जानते हैं लीची के फायदे, नुकसान, उपयोग और औषधीय गुणों के बारे में 

लीची के पेड़ की छाल, बीज, पत्तों से लेकर फल तक के कई फायदे हैं। लीची के बीज में विषनाशक और दर्द निवारक गुण होते हैं। यहां तक कि इसके पत्तों में भी कीट दंशनाशक गुण होते हैं।

आंतों के रोग में

आंतों के अस्वस्थ होने पर पेट में दर्द, एसिडिटी जैसे लक्षण दिखने लगते हैं। इसके साथ ही बदहजमी, दस्त, उल्टी आदि परेशानियां होने लगती हैं। ऐसी स्थिति में लीची को कांजी में पीस लें। इसके सेवन से पेट संबंधी समस्याओं में आराम मिलता है।

मधुमेह में

आजकल की अव्यवस्थित जीवन शैली, तनाव, नींद में कमी, जंक फूड का इस्तेमाल, ज्यादा मीठा खाना आदि कारणों से डायबिटीज होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। लीची के नियमित सेवन से मधुमेह के नियंत्रण में मदद मिलती है।

लीची/ Lichi/ Litchi

रोग प्रतिरोधकता बढ़ाने में

लीची में बीटा कैरोटीन, नियासीन, राइबोफ्लेविन और फोलेट भरपूर मात्रा में पाया जाता है, जो हमारे शरीर की इम्युनिटी को बढ़ाता है।

पाचन क्रिया में

लीची के सेवन से पाचन तंत्र भी दुरुस्त होता है, क्योंकि इसमें फाइबर होता है। दस्त, उल्टी, पेट की खराबी, पेट के अल्सर और आंतरिक सूजन जैसी समस्याओं में लीची काफी फायदेमंद होता है।

त्वचा के लिए फायदेमंद

त्वचा को सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों से जो नुकसान पहुंचता है, उससे बचने में पका हुआ लीची फायदेमंद होता है। क्योंकि उसमें शीत और रोपण का गुण पाया जाता है, जो कि त्वचा से अल्ट्रावायलेट किरणों के प्रभाव को कम कर देता है।

वजन कम करने में

लीची में ऑलिगनॉल तत्व, फाइबर एवं जल तत्व होने के कारण यह शरीर से टॉक्सिन को बाहर निकालने में सहायक है, जिससे वजन नियंत्रित होता है। साथ ही इसमें रेचन यानी लैक्सटिव गुण पाया जाता है, जो वजन को कम करने में सहायक होता है।

बालों के लिए

लीची में त्वचा की नमी बनाए रखने का गुण होता है, जिससे सिर की रूक्षता को कम करने में मदद मिलती है। साथ ही यह बालों का रूखापन कम करके उनको बेजान और झड़ने से रोकती है।

आंखों के लिए

आंखों में होने वाली अधिकतर समस्याएं पितृदोष के वजह से होती हैं। जैसे आंखों में जलन, खुजली आदि लीची में पित्त शामक गुण होने के कारण यह आंखों की समस्या में लाभ पहुंचाती है।

वायरल बीमारियों में 

पाचन शक्ति कमजोर होने के कारण रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है और वायरल बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। लीची में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का गुण होता है साथ ही यह पाचन को सुधारते हुए शरीर को बीमारियों से लड़ने योग्य बनाता है।

हृदय को स्वस्थ रखने के लिए

लीची में विटामिन सी होने के कारण रक्तवाहिनीयों को संकुचित होने से रोकती है, जिसके कारण रक्त का संचार सामान्य बना रहता है। 

तंत्रिका तंत्र विकार

लीची के बीजों का प्रयोग तंत्रिका तंत्र के विकारों के इलाज में किया जाता है।

चेचक रोग में 

चेचक होने पर शरीर पर मसूर दाल के जैसे दाने निकल आते हैं। यह दाने फुंसियों का रूप ले लेते हैं। इन फुंसियों में दर्द भी होता है और इनके कारण बुखार भी आ जाता है। लीची के कच्चे फल का प्रयोग बच्चों के चेचक रोग की चिकित्सा में किया जाता है।

कीड़ों के काटने पर 

लीची कीड़ों के काटने के इलाज में भी सहायक है। कई बार छोटे-छोटे कीड़ों के काटने पर दर्द जलन और सूजन हो जाती है। इस दर्द से राहत के लिए लीची बहुत काम आती है। लीची के पत्तों को पीसकर इसे कीड़े के काटने वाले स्थान पर लगाने से दर्द जलन तथा सूजन और अन्य विषाक्त प्रभावों से छुटकारा मिलता है।

लीची में पाए जाने वाले पोषक तत्व (Nutritional Value of Litchi)

लीची/ Lichi/ Litchi

लीची के नुकसान 

*  डायबिटीज के रोगियों को लीची का सेवन थोड़ी मात्रा में करना चाहिए। लीची का ज्यादा सेवन शुगर लेवल को बढ़ा सकता है।

*  ज्यादा लीची खाने से गले में खराश हो सकती है तथा बुखार भी आ सकता है।

*  लीची के अधिक सेवन से नाक से खून भी बहाना शुरू हो सकता है।


English Translate

Litchi 

Litchee is a very sweet and delicious fruit. Everyone, whether children or adults, likes to eat lychee. Litchi is a fruit called rasgulla that grows on trees. During summer, people get relief from heat due to the sweetness and juicyness of Litchi.

लीची/ Lichi/ Litchi

What is litchi?

The lychee tree is medium sized. Its fruits are round and raw in green color and become velvety red on ripening. The pulp inside the fruit is white colored fleshy and sweet. There is a brown seed inside each fruit.

In Ayurveda, litchi is not only known for its sweet taste, but is also full of many medicinal properties. The nature of litchi is warm, which reduces the pain of arthritis, vata and bile defects.

Know the advantages, disadvantages, uses and medicinal properties of lychee

Litchi tree has many benefits ranging from bark, seeds, leaves to fruits. Lychee seeds have antimicrobial and pain relieving properties. Even its leaves have insect repellent properties.

In Intestinal Disease

When the intestines are unhealthy, symptoms like abdominal pain, acidity begin to appear. Along with this, problems like indigestion, diarrhea, vomiting etc. begin. In such a situation grind the litchi in kanji. Its use provides relief in stomach problems.

In Diabetes

Due to today's disorganized lifestyle, stress, sleep deprivation, use of junk food, eating more sweet food, the chances of getting diabetes are greatly increased. Regular intake of litchi helps in the control of diabetes.

Increasing Immunity 

Lychee is rich in beta carotene, niacin, riboflavin and folate, which increases our body immunity.

In Digestion

The use of litchi also improves the digestive system, as it contains fiber. Lychee is very beneficial in problems like diarrhea, vomiting, upset stomach, stomach ulcers and internal bloating.

Beneficial for the Skin

Ripe litchi is beneficial in protecting the skin from damage caused by the sun's ultraviolet rays. Because it has the properties of cold and planting, which reduces the effect of ultraviolet rays from the skin.

In Weight Loss

Due to the elements of oligonol, fiber and water in litchi, it is helpful in taking out toxins from the body, which controls weight. Also, it has laxative properties, which helps in reducing weight.

For Hair

Lychee has the ability to retain skin moisture, which helps in reducing head acidity. In addition, it reduces the dryness of the hair and prevents them from becoming lifeless and falling out.

For eyes

Most of the problems occurring in the eyes are due to Pitrodh. Such as burning sensation in the eyes, itching etc. It provides benefits in the problem of eyes due to the bile sedative properties of litchi.

In Viral Diseases

Weak digestion power reduces the ability to fight against diseases and increases the risk of viral diseases. Litchi has the property of enhancing the immunity and at the same time it improves the digestion and makes the body fight against diseases.

To keep the Heart healthy

Due to vitamin C in litchi, it prevents the blood vessels from contracting, due to which the circulation of blood remains normal.

Nervous System Disorders

Lychee seeds are used in the treatment of nervous system disorders.

In Chickenpox

Due to smallpox, lentils like lentils appear on the body. These rash take the form of pimples. There is also pain in these pimples and fever comes due to them. The raw fruit of litchi is used in the treatment of chicken pox.

On Insect Bites

Lychee is also helpful in treating insect bites. Sometimes, small insect bites cause pain, burning sensation and swelling. Lychee is very useful for relieving this pain. Grind lychee leaves and apply it on the insect bites to relieve pain, burning sensation and swelling and other toxic effects.

लीची/ Lichi/ Litchi

Side Effects of Litchi

* Diabetes patients should consume small amounts of litchi. Excessive consumption of litchi can increase the sugar level.

* Eating too much litchi can cause sore throat and fever.

Excessive intake of litchi may also cause bleeding from the nose.


"अधूरा सा किस्सा "

 "अधूरा सा किस्सा "

Rupa Oos ki ek Boond
"काँटों से घिरा रहता है,
फिर भी गुलाब खिला रहता है...🌹"

सच कहूं तो 

तुम मेरी पहुंच से बहुत दूर हो 

मैं एक आम सा‌ किरदार हूं 

तुम ख़ास सी शख्सियत हो

मैं गली के अगले मोड़ पर 

खत्म होती कहानी हूं

तुम दुसरी दुनिया के तिलिस्म हो

जिसका हल मुश्किल था 

तब भी और आज भी 

तुम आकाश का चमकता सितारा हो

मैं जमीन पर बिखरीं हुई कहानी 

तुम महफ़िल में उजाला हो 

मैं अन्धेरों में गुम हुई ,बीती रात हूं

जानती हूं अधूरा सा है ये किस्सा

ये कविता ये अफसाना

बस इतना ही लिख सके 

कमबख्त ये आंखे कभी

साथ नहीं देती हैं मेरा 

जब देखो 

भीग कर रास्ता रोक लेती हैं...

फिर कभी सही..  

इस अधूरे किस्से को पूरा करेंगे...

फिर कभी इत्मिनान से ढालेंगे तुम्हें कविता में..

Rupa Oos ki ek Boond

"कितने शौख से छोड़ दिया तुमने बात करना,
जैसे सदियों से तेरे ऊपर कोई बोझ थे हम.."

वाणी का तप

वाणी का तप

कृष्ण भगवान ने गीता में वाणी का तप बताया है। उनके अनुसार हमेशा मीठा बोलना, हितकारी बोलना और स्वाद वाली चीजों से जीभ को बचाकर रखना वाणी का तप है। एक चीनी संत लाओत्से ने इसे दूसरे रूप में कहा है। बहुत बूढ़े हो गए थे वे। देखा कि अंतिम समय निकट आ गया है। तो अपने सभी भक्तों और शिष्यों को अपने पास बुलाया। उनको कहा, तनिक मेरे मुंह के अंदर तो देखो भाई ! कितने दांत शेष हैं। प्रत्येक शिष्य ने मुंह के अंदर देखा और कहा-

वाणी का तप

दांत तो कई वर्ष से समाप्त हो चुके हैं महाराज। एक भी दांत नहीं है। संत ने कहा-जिव्हा तो विद्यमान है? सबने कहा जी हां। संत बोले ये बात कैसे हुई? जिव्हा तो जन्म समय भी विद्यमान थी, दांत उससे पीछे आए। पीछे आने वाले को पीछे जाना चाहिए था। ये दांत पहले कैसे चले गए? शिष्यों ने कहा - हम तो इसका कारण समझ नहीं पाते। तब संत ने धीमी आवाज में कहा - यही बतलाने के लिए मैंने तुम्हें बुलाया है।

देखों ये वाणी अब तक विद्यमान है तो इसलिए कि इसमें कठोरता नहीं और ये दांत पीछे आकर पहले समाप्त हो गए तो इसलिए कि ये बहुत कठोर हैं। इन्हें अपनी कठोरता पे अभिमान था। यह कठोरता ही इनकी समाप्ति का कारण बनी। इसलिए यदि देर तक जीना चाहते हो तो नर्म बनो, कठोर नहीं। संस्कृत के नीतिकारों ने तो कहा है कि ये हमारी जीभ रूपी गाय हमेशा ही दूसरे के मान की हरी भरी खेती करने को सदा लालायित रहती है, अतः इसे खूंटे से बांध कर रखो। 

वाणी का तप

तो मधुर मीठा हितकर बोलिये... प्रसन्न रहिये, खुश रहिये और खुशियाँ बांटिए। 



उत्तरप्रदेश का राज्य पशु "दलदली हिरण/बारह सिंगा" || State Animal of Uttar Pradesh "Swamp Deer/ Barasingha"

उत्तरप्रदेश का राज्य पशु "दलदली हिरण/बारह सिंगा

स्थानीय नाम: " दलदली हिरण/बारह सिंगा"
वैज्ञानिक नाम: 
रुसेर्वस डुवौसीली

भारत के राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ साथ भारत के सभी राज्यों के
अपने राजकीय प्रतीक और चिन्ह हैं। पिछले अंकों में
जिसकी चर्चा की गयी है। इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं और आज
जानते हैं, उत्तर प्रदेश के राजकीय पशु के बारे में।
भारत का सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश का गठन
1950 को हुआ था। उत्तर प्रदेश का राजकीय पशु
बारासिंघा है और यह हिरण की एक प्रजाति है। यह भारत में एक
महत्वपूर्ण प्रजाति है, जो भारतीय उपमहाद्वीप
का मूल निवासी है।
उत्तरप्रदेश का राज्य पशु "दलदली हिरण/बारह सिंगा" || State Animal of Uttar Pradesh

बाराहसिंघा के सींगों से कई शाखायें निकली होती हैं। सींगों की
संख्या अधिक होने के कारण इसका नाम बारहसिंगा
रखा गया है। भारत में यह प्रजाति मुख्यत उत्तर प्रदेश के तराई
क्षेत्र, असम और मध्य प्रदेश के वनों में पायी जाती
है।
बारासिंघा एक शाकाहारी जानवर है जो घास, पत्ते और फल खाता
है। यह एक बड़ी हिरण की प्रजाति है, जिसके
नर कंधे पर 1.5 मीटर तक लंबे और 180 किलोग्राम तक वजन
वाले होते हैं, जबकि मादा थोड़ी छोटी होती है और
इसका वजन लगभग 120 किलोग्राम होता है। बारासिंघा का एक
विशिष्ट रूप होता है, जिसमें हल्के भूरे रंग का
कोट, उनके शरीर पर सफेद धब्बे और 10 से 14 बिंदुओं वाले
सींगों का एक अनूठा समूह होता है।
उत्तरप्रदेश का राज्य पशु "दलदली हिरण/बारह सिंगा" || State Animal of Uttar Pradesh
बारहसिंगा का सबसे विलक्षण अंग है उसके सींग। वयस्क नर में
इसकी सींग की 10-14 शाखाएँ होती हैं, हालांकि
कुछ की तो 20 तक की शाखाएँ पायी गई हैं। इसका नाम इन्हीं
शाखाओं की वजह से पड़ा है, जिसका अर्थ होता है
बारह सींग वाला। मध्य भारत में इसे गोइंजक (नर) या गाओनी
(मादा) कहते हैं।
उत्तरप्रदेश का राज्य पशु "दलदली हिरण/बारह सिंगा" || State Animal of Uttar Pradesh

यह मूल रूप से जंगलों में रहने वाली प्रजाति है। किन्तु अत्यधिक
शिकार होने और कम होते जंगलों के कारण यह
प्रजाति भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के संकटग्रस्त वन्यजीवों
की सूची में शामिल है। उत्तर प्रदेश सरकार के
द्वारा बारहसिंगा के संरक्षण के प्रयास भी किये जा रहे हैं। इनके
लिये अभयारण्यों को आरक्षित किया गया है।
इनमें दुधवा राष्ट्रीय उद्यान और किशनपुर वन्य जीव विहार प्रमुख है।
यहां इनकी अच्छी आबादी है। दुधवा
राष्ट्रीय उद्यान में 1,500 से अधिक दलदली हिरण/बारह सिंगा पाए
जाते हैं, जो इसे दुनिया में इस प्रजाति
की सबसे बड़ी आबादी में से एक बनाता है।
उत्तरप्रदेश का राज्य पशु "दलदली हिरण/बारह सिंगा" || State Animal of Uttar Pradesh

English translate

State animal of Uttar

Pradesh "Swamp Deer/

Barasingha"

Local name: "Swamp Deer/Barasingha" Scientific name: Rucervus duvauceli

Along with the national symbols of India, all
the states of India have their own state symbols
and emblems. Which has been discussed in the
previous issues. Let us continue this sequence
and todayknow about the state animal of Uttar Pradesh.
उत्तरप्रदेश का राज्य पशु "दलदली हिरण/बारह सिंगा" || State Animal of Uttar Pradesh
India's most populous state Uttar Pradesh was
formed in 1950. The state animal of Uttar Pradesh
is
Barasingha and it is a species of deer. It is an
important species in India, which is native to the
Indian
subcontinent. Many branches emerge from the horns of
Barasingha. Due to the large number of horns,
it has been
named Barasingha. In India, this species is
mainly found in the Terai region of Uttar
Pradesh, forests of
Assam and Madhya Pradesh. Barasingha is a vegetarian animal that eats
grass, leaves and fruits. It is a large deer species,
with males
standing up to 1.5 meters tall at the shoulder and
weighing up to 180 kg, while females are slightly
smaller and weigh around 120 kg. Barasingha
havea distinctive appearance, with a light brown coat,
white spots on their bodies and a unique set of
horns with 10 to 14 points.
उत्तरप्रदेश का राज्य पशु "दलदली हिरण/बारह सिंगा" || State Animal of Uttar Pradesh
The most distinctive feature of the Barasingha
is its horns. Adult males have 10-14 branches
of horns,
although some have been found to have up to
20 branches. It is named due to these branches,
which
means twelve horned. In central India it is
called Goinjak (male) or Gaoni (female). It is originally a forest-dwelling species. But
due to excessive hunting and depleting forests,
this species
is included in the list of endangered wildlife not
only in India but the whole world. Efforts are
also being
made by the Uttar Pradesh government to
conserve the Barasingha. Sanctuaries have
been reserved for
them. Dudhwa National Park and Kishanpur
Wildlife Sanctuary are prominent among them.
There is a
good population of them here. More than 1,500
swamp deer/Barasingha are found in Dudhwa
National
Park, which makes it one of the largest populations
of this species in the world.
उत्तरप्रदेश का राज्य पशु "दलदली हिरण/बारह सिंगा" || State Animal of Uttar Pradesh

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..घर जमाई

मानसरोवर-1 ..घर जमाई

घर जमाई - मुंशी प्रेमचंद | Ghar Jamai by Munshi Premchand

1

हरिधन जेठ की दुपहरी में ऊख में पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा। घर में से धुआँ उठता नजर आता था। छन-छन की आवाज भी आ रही थी। उसके दोनों साले उसके बाद आये और घर में चले गए। दोनों सालों के लड़के भी आये और उसी तरह अंदर दाखिल हो गये; पर हरिधन अंदर न जा सका। इधर एक महीने से उसके साथ यहाँ जो बर्ताव हो रहा था और विशेषकर कल उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी, वह उसके पाँव में बेड़ियाँ-सी डाले हुए था। कल उसकी सास ही ने तो कहा था, मेरा जी तुमसे भर गया, मैं तुम्हारी जिंदगी-भर का ठीका लिये बैठी हूँ क्या ? और सबसे बढ़कर अपनी स्त्री की निष्ठुरता ने उसके हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। 

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..घर जमाई

वह बैठी यह फटकार सुनती रही; पर एक बार तो उसके मुँह से न निकला, अम्माँ, तुम क्यों इनका अपमान कर रही हो? बैठी गट-गट सुनती रही। शायद मेरी दुर्गति पर खुश हो रही थी। इस घर में वह कैसे जाय? क्या फिर वही गालियाँ खाने, वही फटकार सुनने के लिए? और आज इस घर में जीवन के दस साल गुजर जाने पर यह हाल हो रहा है। मैं किसी से कम काम करता हूँ? दोनों साले मीठी नींद सो रहते हैं और मैं बैलों को सानी-पानी देता हूँ; छाँटी काटता हूँ। वहाँ सब लोग पल-पल पर चिलम पीते हैं, मैं आँखें बन्द किये अपने काम में लगा रहता हूँ। संध्या समय घरवाले गाने-बजाने चले जाते हैं, मैं घड़ी रात तक गाय-भैंसे दुहता रहता हूँ। उसका यह पुरस्कार मिल रहा है कि कोई खाने को भी नहीं पूछता। उल्टे गालियाँ मिलती हैं।

उसकी स्त्री घर में से डोल लेकर निकली और बोली- जरा इसे कुएँ से खींच लो। एक बूँद पानी नहीं है।

हरिधन ने डोल लिया और कुएँ से पानी भर लाया। उसे जोर की भूख लगी हुई थी, समझा अब खाने को बुलाने आवेगी; मगर स्त्री डोल लेकर अंदर गयी तो वहीं की हो रही। हरिधन थका-माँदा क्षुधा से व्याकुल पड़ा-पड़ा सो गया।

सहसा उसकी स्त्री गुमानी ने आकर उसे जगाया।

हरिधन ने पड़े-पड़े कहा- क्या है? क्या पड़ा भी न रहने देगी या और पानी चाहिए।

गुमानी कटु स्वर में बोली- गुर्राते क्या हो, खाने को तो बुलाने आयी हूँ।

हरिधन ने देखा, उसके दोनों साले और बड़े साले के दोनों लड़के भोजन किये चले आ रहे थे। उसकी देह में आग लग गयी। मेरी अब यह नौबत पहुँच गयी कि इन लोगों के साथ बैठकर खा भी नहीं सकता। ये लोग मालिक हैं। मैं इनकी जूठी थाली चाटने वाला हूँ। मैं इनका कुत्ता हूँ, जिसे खाने के बाद एक टुकड़ा रोटी डाल दी जाती है। यही घर है, जहाँ आज से दस साल पहले उसका कितना आदर-सत्कार होता था। साले गुलाम बने रहते थे। सास मुँह जोहती रहती थी। स्त्री पूजा करती थी। तब उसके पास रुपये थे, जायदाद थी। अब वह दरिद्र है, उसकी सारी जायदाद को इन्हीं लोगों ने कूड़ा कर दिया। अब उसे रोटियों के भी लाले हैं। उसके जी में एक ज्वाला-सी उठी कि इसी वक्त अंदर जाकर सास को और सालों को भिगो- भिगोकर लगाये; पर जब्त करके रह गया। पड़े-पड़े बोला- मुझे भूख नहीं है। आज न खाऊँगा।

गुमानी ने कहा- न खाओगे मेरी बला से, हाँ नहीं तो! खाओगे, तुम्हारे ही पेट में जायगा, कुछ मेरे पेट में थोड़े ही चला जायगा।

हरिधन का क्रोध आँसू बन गया। यह मेरी स्त्री है, जिसके लिए मैंने अपना सर्वस्व मिट्टी में मिला दिया। मुझे उल्लू बनाकर यह सब अब निकाल देना चाहते हैं। वह अब कहाँ जाय? क्या करे?

उसकी सास आकर बोली- चलकर खा क्यों नहीं लेते जी, रूठते किस पर हो? यहाँ तुम्हारे नखरे सहने का किसी में बूता नहीं है। जो देते हो वह मत देना और क्या करोगे। तुमसे बेटी ब्याही है, कुछ तुम्हारी जिंदगी का ठीका नहीं लिखा है।

हरिधन ने मर्माहत होकर कहा- हाँ अम्माँ, मेरी भूल थी कि मैं यही समझ रहा था। अब मेरे पास क्या है कि तुम मेरी जिंदगी का ठीका लोगी? जब मेरे पास भी धन था तब सब कुछ आता था। अब दरिद्र हूँ, तुम क्यों बात पूछोगी।

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्र

बूढ़ी सास भी मुँह फुलाकर भीतर चली गयी।

2

बच्चों के लिए बाप एक फालतू-सी चीज - एक विलास की वस्तु है, जैसे घोड़े के लिए चने या बाबुओं के लिए मोहनभोग। माँ रोटी-दाल है। मोहनभोग उम्र-भर न मिले तो किसका नुकसान है; मगर एक दिन रोटी-दाल के दर्शन न हों, तो फिर देखिए, क्या हाल होता है? पिता के दर्शन कभी-कभी शाम-सबेरे हो जाते हैं, वह बच्चे को उछालता है, दुलारता है, कभी गोद में लेकर या उँगली पकड़कर सैर कराने ले जाता है और बस, यही उसके कर्तव्य की इति है। वह परदेस चला जाय, बच्चे को परवाह नहीं होती; लेकिन माँ तो बच्चे का सर्वस्व है। बालक एक मिनिट के लिए भी उसका वियोग नहीं सह सकता। पिता कोई हो, उसे परवाह नहीं, केवल एक उछलने-कूदनेवाला आदमी होना चाहिए; लेकिन माता तो अपनी ही होनी चाहिए, सोलहों आने अपनी; वही रूप, वही रंग, वही प्यार, वही सब कुछ। वह अगर नहीं है तो बालक के जीवन का स्रोत मानो सूख जाता है, फिर वह शिव का नन्दी है, जिस पर फूल या जल चढ़ाना लाजिमी नहीं, अख्तियारी है। हरिधन की माता का आज दस साल हुए देहांत हो गया था; उस वक्त उसका विवाह हो चुका था। वह सोलह साल का कुमार था। पर माँ के मरते ही उसे मालूम हुआ, मैं कितना निस्सहाय हूँ। जैसे उस पर उसका कोई अधिकार ही न रहा हो। बहनों के विवाह हो चुके थे। भाई कोई दूसरा न था। बेचारा अकेले घर में जाते भी डरता था। माँ के लिए रोता था; पर माँ की परछाईं से डरता था। जिस कोठरी में उसने देह-त्याग किया था, उधर वह आँखें तक न उठाता। घर में एक बुआ थी, वह हरिधन का बहुत दुलार करती। हरिधन को अब दूध ज्यादा मिलता, काम भी कम करना पड़ता। बुआ बार-बार पूछती- बेटा ! कुछ खाओगे ? बाप भी अब उसे ज्यादा प्यार करता, उसके लिए अलग एक गाय मँगवा दी, कभी-कभी उसे कुछ पैसे दे देता कि जैसे चाहे खर्च करे। पर इन मरहमों से वह घाव न पूरा होता था; जिसने उसकी आत्मा को आहत कर दिया था। यह दुलार और प्यार उसे बार-बार माँ की याद दिलाता। माँ की घुड़कियों में जो मजा था; वह क्या इस दुलार में था? माँ से माँगकर, लड़कर, ठुनककर, रूठकर लेने में जो आनन्द था, वह क्या इस भिक्षादान में था ? पहले वह स्वस्थ था, माँगकर खाता, लड़-लड़कर खाता, अब वह बीमार था, अच्छे-से-अच्छे पदार्थ उसे दिये जाते थे; पर भूख न थी।

साल-भर तक वह इस दशा में रहा। फिर दुनिया बदल गयी। एक नयी स्त्री जिसे लोग उसकी माता कहते थे, उसके घर में आयी और देखते-देखते एक काली घटा की तरह उसके संकुचित भूमंडल पर छा गयी- सारी हरियाली, सारे प्रकाश पर अंधकार का परदा पड़ गया। हरिधन ने इस नकली माँ से बात तक न की, कभी उसके पास गया तक नहीं। एक दिन घर से निकला और ससुराल चला आया।

बाप ने बार-बार बुलाया; पर उनके जीते-जी वह फिर उस घर में न गया। जिस दिन उसके पिता के देहांत की सूचना मिली, उसे एक प्रकार का ईर्ष्यामय हर्ष हुआ। उसकी आँखों से आँसू की एक बूँद भी न आयी।

इस नये संसार में आकर हरिधन को एक बार फिर मातृ-स्नेह का आनन्द मिला। उसकी सास ने ऋषि-वरदान की भाँति उसके शून्य जीवन को विभूतियों से परिपूर्ण कर दिया। मरुभूमि में हरियाली उत्पन्न हो गयी। सालियों की चुहल में, सास के स्नेह में, सालों के वाक्-विलास में और स्त्री के प्रेम में उसके जीवन की सारी आकांक्षाएँ पूरी हो गयीं। सास कहती- बेटा, तुम इस घर को अपना ही समझो, तुम्हीं मेरी आँखों के तारे हो। वह उससे अपने लड़कों की, बहुओं की शिकायत करती। वह दिल में समझता था, सासजी मुझे अपने बेटों से भी ज्यादा चाहती हैं। बाप के मरते ही वह घर गया और अपने हिस्से की जायदाद को कूड़ा करके, रुपयों की थैली लिए हुए आ गया। अब उसका दूना आदर-सत्कार होने लगा। उसने अपनी सारी संपत्ति सास के चरणों पर अर्पण करके अपने जीवन को सार्थक कर दिया। अब तक उसे कभी-कभी घर की याद आ जाती थी। अब भूलकर भी उसकी याद न आती, मानो वह उसके जीवन का कोई भीषण कांड था, जिसे भूल जाना ही उसके लिए अच्छा था। वह सबसे पहले उठता, सबसे ज्यादा काम करता, उसका मनोयोग, उसका परिश्रम देखकर गाँव के लोग दाँतों तले उँगली दबाते थे। उसके ससुर का भाग बखानते, जिसे ऐसा दामाद मिल गया; लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गये, उसका मान-सम्मान घटता गया। पहले देवता, फिर घर का आदमी, अंत में घर का दास हो गया। रोटियों में भी बाधा पड़ गयी। अपमान होने लगा। अगर घर के लोग भूखों मरते और साथ ही उसे भी मरना पड़ता, तो उसे जरा भी शिकायत न होती। लेकिन जब देखता और लोग मूँछों पर ताव दे रहे हैं, केवल मैं ही दूध की मक्खी बना दिया गया हूँ, तो उसके अंत:स्तल से एक लम्बी, ठंडी आह निकल आती। अभी उसकी उम्र पच्चीस ही साल की तो थी। इतनी उम्र इस घर में कैसे गुजरेगी ? और तो और, उसकी स्त्री ने भी आँखें फेर लीं। यह उस विपत्ति का सबसे क्रूर दृश्य था।

3

हरिधन तो उधर भूखा -प्यासा,चिंता-दाह में जल रहा था, इधर घर में सास जी और दोनों सालों में बातें हो रही थीं। गुमानी भी हाँ-में-हाँ मिलाती जाती थी।

बड़े साले ने कहा- हम लोगों की बराबरी करते हैं। यह नहीं समझते कि किसी ने उनकी जिंदगी भर का बीड़ा थोड़े ही लिया है। दस साल हो गये। इतने दिनों में क्या दो-तीन हजार न हड़प गये होंगे ?

छोटे साले बोले- मजूर हो तो आदमी घुड़के भी, डाँटे भी, अब इनसे कोई क्या कहे। न जाने इनसे कभी पिंड छूटेगा भी या नहीं। अपने दिल में समझते होंगे, मैंने दो हजार रुपये नहीं दिये हैं ? यह नहीं समझते कि उनके दो हजार कब के उड़ चुके। सवा सेर तो एक जून को चाहिए।

सास ने गंभीर भाव से कहा- बड़ी भारी खोराक है !

गुमानी माता के सिर से जूँ निकाल रही थी। सुलगते हुए हृदय से बोली- निकम्मे आदमी को खाने के सिवा और काम ही क्या रहता है ?

बड़े- खाने की कोई बात नहीं है। जिसकी जितनी भूख हो उतना खाय, लेकिन कुछ पैदा भी तो करना चाहिए। यह नहीं समझते कि पहुनई में किसी के दिन कटे हैं !

छोटे- मैं तो एक दिन कह दूँगा, अब अपनी राह लीजिए, आपका करजा नहीं खाया है।

गुमानी घरवालों की ऐसी-ऐसी बातें सुनकर अपने पति से द्वेष करने लगी थी। अगर वह बाहर से चार पैसे लाता, तो इस घर में उसका कितना मान-सम्मान होता, वह भी रानी बनकर रहती। न जाने क्यों, कहीं बाहर जाकर कमाते उसकी नानी मरती है। गुमानी की मनोवृत्तियाँ अभी तक बिलकुल बालपन की-सी थीं। उसका अपना कोई घर न था। उसी घर का हित-अहित उसके लिए भी प्रधान था। वह भी उन्हीं शब्दों में विचार करती, इस समस्या को उन्हीं आँखों से देखती जैसे उसके घरवाले देखते थे। सच तो, दो हजार रुपये में क्या किसी को मोल ले लेंगे ? दस साल में दो हजार होते ही क्या हैं। दो सौ ही तो साल भर के हुए। क्या दो आदमी साल भर में दो सौ भी न खायेंगे। फिर कपड़े-लत्ते, दूध-घी, सभी कुछ तो है। दस साल हो गये, एक पीतल का छल्ला नहीं बना। घर से निकलते तो जैसे इनके प्रान निकलते हैं। जानते हैं जैसे पहले पूजा होती थी वैसे ही जनम-भर होती रहेगी। यह नहीं सोचते कि पहले और बात थी, अब और बात है। बहू तो पहले ससुराल जाती है तो उसका कितना महातम होता है। उसके डोली से उतरते ही बाजे बजते हैं, गाँव-मुहल्ले की औरतें उसका मुँह देखने आती हैं और रुपये देती हैं। महीनों उसे घर भर से अच्छा खाने को मिलता है, अच्छा पहनने को, कोई काम नहीं लिया जाता; लेकिन छ: महीनों के बाद कोई उसकी बात भी नहीं पूछता, वह घर-भर की लौंडी हो जाती है। उनके घर में मेरी भी तो वही गति होती। फिर काहे का रोना। जो यह कहो कि मैं तो काम करता हूँ, तो तुम्हारी भूल है, मजूर की और बात है। उसे आदमी डाँटता भी है, मारता भी है, जब चाहता है, रखता है, जब चाहता है, निकाल देता है। कसकर काम लेता है। यह नहीं कि जब जी में आया, कुछ काम किया, जब जी में आया, पड़कर सो रहे।

4

हरिधन अभी पड़ा अंदर-ही-अंदर सुलग रहा था, कि दोनों साले बाहर आये और बड़े साहब बोले- भैया, उठो तीसरा पहर ढल गया, कब तक सोते रहोगे ? सारा खेत पड़ा हुआ है।

हरिधन चट उठ बैठा और तीव्र स्वर में बोला- क्या तुम लोगों ने मुझे उल्लू समझ लिया है।

दोनों साले हक्का-बक्का हो गये। जिस आदमी ने कभी जबान नहीं खोली, हमेशा गुलामों की तरह हाथ बाँध हाजिर रहा, वह आज एकाएक इतना आत्माभिमानी हो जाय, यह उनको चौंका देने के लिए काफी था। कुछ जवाब न सूझा।

हरिधन ने देखा, इन दोनों के कदम उखड़ गये हैं, तो एक धक्का और देने की प्रबल इच्छा को न रोक सका। उसी ढंग से बोला- मेरी भी आँखें हैं। अंधा नहीं हूँ, न बहरा ही हूँ। छाती फाड़कर काम करूँ और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊँ; ऐसे गधे और कहीं होंगे !

अब बड़े साले भी गर्म पड़े- तुम्हें किसी ने यहाँ बाधँ तो नहीं रक्खा है।

अबकी हरिधन लाजवाब हुआ। कोई बात न सूझी।

बड़े ने फिर उसी ढंग से कहा- अगर तुम यह चाहो कि जन्म-भर पाहुने बने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर-सत्कार होता रहे, तो यह हमारे वश की बात नहीं है।

हरिधन ने आँखें निकालकर कहा- क्या मैं तुम लोगों से कम काम करता हूँ ?

बड़े - यह कौन कहता है ?

हरिधन- तो तुम्हारे घर की नीति है कि जो सबसे ज्यादा काम करे वही भूखों मारा जाय ?

बड़े- तुम खुद खाने नहीं गये। क्या कोई तुम्हारे मुँह में कौर डाल देता ?

हरिधन ने ओठ चबाकर कहा- मैं खुद खाने नहीं गया कहते तुम्हें लाज नहीं आती ?

'नहीं आयी थी बहन तुम्हें बुलाने ?'

छोटे साले ने कहा- अम्माँ भी तो आयी थीं। तुमने कह दिया, मुझे भूख नहीं है, तो क्या करतीं।

सास भीतर से लपकी चली आ रही थी। यह बात सुनकर बोली- कितना कहकर हार गयी, कोई उठे न तो मैं क्या करूँ ?

हरिधन ने विष, खून और आग से भरे हुए स्वर में कहा- मैं तुम्हारे लड़कों का झूठा खाने के लिए हूँ ? मैं कुत्ता हूँ कि तुम लोग खाकर मेरे सामने रूखी रोटी का टुकड़ा फेंक दो ?

बुढ़िया ने ऐंठकर कहा- तो क्या तुम लड़कों की बराबरी करोगे ?

हरिधन परास्त हो गया। बुढ़िया ने एक ही वाक्-प्रहार में उसका काम तमाम कर दिया। उसकी तनी हुई भवें ढीली पड़ गयीं, आँखों की आग बुझ गयी, फड़कते हुए नथुने शांत हो गये। किसी आहत मनुष्य की भाँति वह जमीन पर गिर पड़ा। 'क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे ?' यह वाक्य एक लंबे भाले की तरह उसके हृदय में चुभता चला जाता था, न हृदय का अंत था, न उस भाले का !

5

सारे घर ने खाया; पर हरिधन न उठा। सास ने मनाया, सालियों ने मनाया, ससुर ने मनाया, दोनों साले मनाकर थक गये। हरिधन न उठा; वहीं द्वार पर एक टाट पर पड़ा था। उसे उठाकर सबसे अलग कुएँ पर ले गया और जगत पर बिछाकर पड़ा रहा।

रात भीग चुकी थी। अनंत प्रकाश में उज्ज्वल तारे बालकों की भाँति क्रीड़ा कर रहे थे। कोई नाचता था, कोई उछलता था, कोई हँसता था, कोई आँखे भींचकर फिर खोल देता, कोई साहसी बालक सपाट भरकर एक पल में उस विस्तृत क्षेत्र को पार कर लेता था और न जाने कहाँ छिप जाता था। हरिधन को अपना बचपन याद आया, जब वह भी इसी तरह क्रीड़ा करता था। उसकी बाल-स्मृतियाँ उन्हीं चमकीले तारों की भाँति प्रज्वलित हो गयी। वह अपना छोटा - सा घर, वह आम के बाग, जहाँ वह केरियाँ चुना करता था, वह मैदान जहाँ वह कबड्डी खेला करता था, सब उसे याद आने लगे। फिर अपनी स्नेहमयी माता की सदय मूर्ति उसके सामने खड़ी हो गयी। उन आँखों में कितनी करुणा थी, कितनी दया थी। उसे ऐसा जान पड़ा मानो माता आँखों में आँसू भरे, उसे छाती से लगा लेने के लिए हाथ फैलाये उसकी ओर चली आ रही है। वह उस मधुर भावना में अपने को भूल गया। ऐसा जान पड़ा मानो माता ने उसे छाती से लगा लिया है और उसके सिर पर हाथ फेर रही है। वह रोने लगा, फूट-फूटकर रोने लगा। उसी आत्म-सम्मोहित दशा में उसके मुँह से यह शब्द निकला, अम्मा, तुमने मुझे इतना भुला दिया। देखो, तुम्हारे प्यारे लाल की क्या दशा हो रही है ? कोई उसे पानी को भी नहीं पूछता। क्या जहाँ तुम हो, वहाँ मेरे लिए जगह नहीं है ?

सहसा गुमानी ने आकर पुकारा- क्या सो गये तुम, नौज किसी को ऐसी राक्षसी नींद आये। चलकर खा क्यों नहीं लेते ? कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे ?

हरिधन उस कल्पना-जगत् से क्रूर प्रत्यक्ष में आ गया। वही कुएँ की जगत थी, वही फटा हुआ टाट और गुमानी सामने खड़ी कह रही थी, कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे !

हरिधन उठ बैठा और मानो तलवार म्यान से निकालकर बोला- भला तुम्हें मेरी सुध तो आयी। मैंने तो कह दिया था, मुझे भूख नहीं है।

गुमानी- तो कै दिन न खाओगे ?

'अब इस घर का पानी भी न पीऊँगा, तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं ?'

दृढ़ संकल्प से भरे हुए इन शब्दों को सुनकर गुमानी सहम उठी। बोली- कहाँ जा रहे हो।

हरिधन ने मानो नशे में कहा- तुझे इससे क्या मतलब ? मेरे साथ चलेगी या नहीं ? फिर पीछे से न कहना, मुझसे कहा नहीं।

गुमानी आपत्ति के भाव से बोली- तुम बताते क्यों नहीं, कहाँ जा रहे हो ?

'तू मेरे साथ चलेगी या नहीं ?'

'जब तक तुम बता न दोगे, मैं नहीं जाऊँगी।'

'तो मालूम हो गया, तू नहीं जाना चाहती। मुझे इतना ही पूछना था, नहीं अब तक मैं आधी दूर निकल गया होता।'

यह कहकर वह उठा और अपने घर की ओर चला। गुमानी पुकारती रही, 'सुन लो', 'सुन लो'; पर उसने पीछे फिर कर भी न देखा।

6

तीस मील की मंजिल हरिधन ने पाँच घंटों में तय की। जब वह अपने गाँव की अमराइयों के सामने पहुँचा, तो उसकी मातृ-भावना उषा की सुनहरी गोद में खेल रही थी। उन वृक्षों को देखकर उसका विह्वल हृदय नाचने लगा। मंदिर का वह सुनहरा कलश देखकर वह इस तरह दौड़ा मानो एक छलाँग में उसके ऊपर जा पहुँचेगा। वह वेग में दौड़ा जा रहा था मानो उसकी माता गोद फैलाये उसे बुला रही हो। जब वह आमों के बाग में पहुँचा, जहाँ डालियों पर बैठकर वह हाथी की सवारी का आनन्द पाता था, जहाँ की कच्ची बेरों और लिसोड़ों में एक स्वर्गीय स्वाद था, तो वह बैठ गया और भूमि पर सिर झुका कर रोने लगा, मानो अपनी माता को अपनी विपत्ति-कथा सुना रहा हो। वहाँ की वायु में, वहाँ के प्रकाश में, मानो उसकी विराट रूपिणी माता व्याप्त हो रही थी, वहाँ की अंगुल-अंगुल भूमि माता के पद-चिन्हों से पवित्र थी, माता के स्नेह में डूबे हुए शब्द अभी तक मानो आकाश में गूँज रहे थे। इस वायु और इस आकाश में न जाने कौन-सी संजीवनी थी जिसने उसके शोर्कात्त हृदय को बालोत्साह से भर दिया। वह एक पेड़ पर चढ़ गया और अधर से आम तोड़-तोड़कर खाने लगा। सास के वह कठोर शब्द, स्त्री का वह निष्ठुर आघात, वह सारा अपमान वह भूल गया। उसके पाँव फूल गये थे, तलवों में जलन हो रही थी; पर इस आनन्द में उसे किसी बात का ध्यान न था।

सहसा रखवाले ने पुकारा- वह कौन ऊपर चढ़ा हुआ है रे ? उतर अभी नहीं तो ऐसा पत्थर खींचकर मारूँगा कि वहीं ठंडे हो जाओगे।

उसने कई गालियाँ भी दीं। इस फटकार और इन गालियों में इस समय हरिधन को अलौकिक आनंद मिल रहा था। वह डालियों में छिप गया, कई आम काट-काटकर नीचे गिराये, और जोर से ठट्ठा मारकर हँसा। ऐसी उल्लास से भरी हुई हँसी उसने बहुत दिन से न हँसी थी।

रखवाले को वह हँसी परिचित-सी मालूम हुई। मगर हरिधन यहाँ कहाँ ? वह तो ससुराल की रोटियाँ तोड़ रहा है। कैसा हँसोड़ा था, कितना चिबिल्ला ! न जाने बेचारे का क्या हाल हुआ ? पेड़ की डाल से तालाब में कूद पड़ता था। अब गाँव में ऐसा कौन है ?

डाँटकर बोला- वहाँ बैठे-बैठे हँसोगे, तो आकर सारी हँसी निकाल दूँगा, नहीं सीधे से उतर आओ।

वह गालियाँ देने जा रहा था कि एक गुठली आकर उसके सिर पर लगी। सिर सहलाता हुआ बोला- यह कौन सैतान है ? नहीं मानता, ठहर तो, मैं आकर तेरी खबर लेता हूँ।

उसने अपनी लकड़ी नीचे रख दी और बंदरों की तरह चटपट ऊपर चढ़ गया। देखा तो हरिधन बैठा मुसकिरा रहा है। चकित होकर बोला- अरे हरिधन ! तुम यहाँ कब आये ? इस पेड़ पर कब से बैठे हो ?

दोनों बचपन सखा वहीं गले मिले।

'यहाँ कब आये ? चलो, घर चलो भले आदमी, क्या वहाँ आम भी मयस्सर न होते थे ?'

हरिधन ने मुस्किराकर कहा- मँगरू, इन आमों में जो स्वाद है, वह और कहीं के आमों में नहीं है। गाँव का क्या रंग-ढंग है ?

मँगरू- सब चैनचान है भैया ! तुमने तो जैसे नाता ही तोड़ लिया। इस तरह कोई अपना गाँव-घर छोड़ देता है ? जब से तुम्हारे दादा मरे सारी गिरस्ती चौपट हो गयी। दो छोटे-छोटे लड़के हैं, उनके किये क्या होता है ?

हरिधन- मुझे अब उस गिरस्ती से क्या वास्ता है भाई ? मैं तो अपना ले-दे चुका। मजूरी तो मिलेगी न ? तुम्हारी गैया मैं ही चरा दिया करूँगा; मुझे खाने को दे देना।

मँगरू ने अविश्वास के भाव से कहा- अरे भैया कैसी बात करते हो, तुम्हारे लिए जान तक हाजिर है। क्या ससुराल में अब न रहोगे ? कोई चिंता नहीं। पहले तो तुम्हारा घर ही है। उसे सँभालो। छोटे-छोटे बच्चे हैं, उनको पालो। तुम नयी अम्माँ से नाहक डरते थे। बड़ी सीधी है बेचारी। बस, अपनी माँ ही समझो, तुम्हें पाकर तो निहाल हो जायगी। अच्छा, घरवाली को भी तो लाओगे ?

हरिधन- उसका अब मुँह न देखूँगा। मेरे लिए वह मर गयी।

मँगरू- तो दूसरी सगाई हो जायगी। अबकी ऐसी मेहरिया ला दूँगा कि उसके पैर धो-धोकर पिओगे; लेकिन कहीं पहली भी आ गयी तो ?

हरिधन- वह न आयेगी।

7

हरिधन अपने घर पहुँचा तो दोनों भाई, 'भैया आये ! भैया आये !' कहकर भीतर दौड़े और माँ को खबर दी।

उस घर में कदम रखते ही हरिधन को ऐसी शांत महिमा का अनुभव हुआ मानो वह अपनी माँ की गोद में बैठा हुआ है। इतने दिनों ठोकरें खाने से उसका हृदय कोमल हो गया था। जहाँ पहले अभिमान था, आग्रह था, हेकड़ी थी, वहाँ अब निराशा थी, पराजय थी और याचना थी। बीमारी का जोर कम हो चला था; अब उस पर मामूली दवा भी असर कर सकती थी, किले की दीवारें छिद चुकी थीं, अब उसमें घुस जाना असह्य न था। वही घर जिससे वह एक दिन विरक्त हो गया था, अब गोद फैलाये उसे आश्रय देने को तैयार था। हरिधन का निरवलंबन मन यह आश्रय पाकर मानो तृप्त हो गया।

शाम को विमाता ने कहा- बेटा, तुम घर आ गये, हमारे धनभाग। अब इन बच्चों को पालो; माँ का नाता न सही, बाप का नाता तो है ही। मुझे एक रोटी दे देना, खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी। तुम्हारी अम्माँ से मेरा बहन का नाता है। उस नाते से भी तो तुम मेरे लड़के होते हो ?

हरिधन की मातृ-विह्वल आँखों को विमाता के रूप में अपनी माता के दर्शन हुए। घर के एक-एक कोने में मातृ-स्मृतियों की छटा चाँदनी की भाँति छिटकी हुई थी, विमाता का प्रौढ़ मुखमण्डल भी उसी छटा से रंजित था।

दूसरे दिन हरिधन फिर कंधे पर हल रखकर खेत को चला। उसके मुख पर उल्लास था और आँखों में गर्व। वह अब किसी का आश्रित नहीं; आश्रयदाता था; किसी के द्वार का भिक्षुक नहीं, घर का रक्षक था।

एक दिन उसने सुना, गुमानी ने दूसरा घर कर लिया। माँ से बोला- तुमने सुना काकी ! गुमानी ने घर कर लिया।

काकी ने कहा- घर क्या कर लेगी, ठट्ठा है ? बिरादरी में ऐसा अंधेर ? पंचायत नहीं, अदालत तो है ?

हरिधन ने कहा- नहीं काकी, बहुत अच्छा हुआ। ला, महाबीरजी को लडडू चढ़ा आऊँ। मैं तो डर रहा था, कहीं मेरे गले न आ पड़े। भगवान ने मेरी सुन ली। मैं वहाँ से यही ठानकर चला था, अब उसका मुँह न देखूँगा।