श्रीमद्भगवद्गीता ||अध्याय सात - ज्ञानविज्ञान योग ||
अथ सप्तमोऽध्यायः- ज्ञानविज्ञानयोग
अध्याय सात के अनुच्छेद 08 - 19
अध्याय सात के अनुच्छेद 08-12 में संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का वर्णन किया गया है।
श्रीभगवानुवाच
भावार्थ :
हे अर्जुन! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ॥8॥
भावार्थ :
मैं पृथ्वी में पवित्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध से इस प्रसंग में इनके कारण रूप तन्मात्राओं का ग्रहण है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए उनके साथ पवित्र शब्द जोड़ा गया है।) गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ॥9॥
भावार्थ :
हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ॥10॥
भावार्थ :
हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूँ॥11॥
भावार्थ :
और भी जो सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजो गुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू 'मुझसे ही होने वाले हैं' ऐसा जान, परन्तु वास्तव में (गीता अ. 9 श्लोक 4-5 में देखना चाहिए) उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं॥12॥
अध्याय सात के अनुच्छेद 13-19 में आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा का वर्णन किया गया है।
भावार्थ :
गुणों के कार्य रूप सात्त्विक, राजस और तामस- इन तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसीलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता॥13॥
भावार्थ :
क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं॥14॥
भावार्थ :
माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते॥15॥
भावार्थ :
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला), आर्त (संकटनिवारण के लिए भजने वाला) जिज्ञासु (मेरे को यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजने वाला) और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं॥16॥
भावार्थ :
उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है॥17॥
भावार्थ :
ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है॥18॥
भावार्थ :
बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्व ज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही हैं- इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है॥19॥
जय श्री कृष्ण
ReplyDelete🌹🙏हे गोविंद🙏🌹
ReplyDeleteजल में रस , चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश ,सम्पूर्ण वेदों में ओंकार , आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व, कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम भी तो गोविंद हीं हैं।
यह अलौकिक अद्भुत त्रिगुणमयी गोविंद की माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो केवल गोविंद को ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं ।
फिर भी हमलोग 🌹🙏गोविंद🙏🌹 को नही भजते है और सांसारिक माया में उलझे हुए हैं।
जय श्रीमन् नारायण 🙏🙏
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा
ReplyDeleteShree Krishna Govind hare Murari Hey nath Narayan Vasudev...
ReplyDeleteश्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा 🙏🏻🙏🏻
ReplyDelete👌👌🙏🙏💐💐जय श्री कृष्णा 🚩🚩
ReplyDeleteश्रीमन नारायण नारायण नारायण राम🙏🏻
ReplyDeleteॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
ReplyDeleteJai shree krishna
ReplyDeleteJai shree Govind
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