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बैलेरिना ऑर्चिड (Ballerina Orchid)

 बैलेरिना ऑर्चिड (Ballerina Orchid)

कैलाडेनिया मेलेनेमा, जिसे आम तौर पर बैलेरीना ऑर्किड के नाम से जाना जाता है। ये छोटे पौधे हैं जिन्हें टेरेस्ट्रियल स्पाइडर ऑर्चिड भी कहते हैं। ये अकेले या फिर समूह में उगते हैं। ये आमतौर पर ऑस्ट्रेलिया के द्वीपों पर देखने को मिलते हैं। इसे सामने से देखने पर लगता है कि कोई बैलेरिना डांसर नाच रही हैं। इसमें तीन तरह के रंग देखने को मिलते हैं। साथ ही मरून रंग की मार्किंग होती हैं। पत्तियों पर भी तीन रंगों का मिश्रण होता है, लेकिन ये जिस इलाके में पैदा होती हैं, वहां पर खरगोश और कंगारू इन फूलों के लिए खतरनाक है। वो इसे खा जाते हैं। इसलिए ये बैलेरिना ऑर्चिड अक्सर देखने को नहीं मिलता है। 

बैलेरिना ऑर्चिड (Ballerina Orchid)

यह एक दुर्लभ ऑर्किड है, जिसमें एक सीधा, रोएँदार पत्ता और एक या दो क्रीम रंग के या हल्के पीले रंग के फूल होते हैं, जिनके बाह्यदल और पंखुड़ियों पर लाल निशान और काले सिरे होते हैं।इसमें फूलों के पौधों का एक विविध और व्यापक समूह होते हैं, जिसके फूल अक्सर रंगीन और सुगंधित होते हैं। ऑर्किडविश्वव्यापी पौधे हैं जो ग्लेशियरों को छोड़कर पृथ्वी पर लगभग हर आवास में पाए जाते हैं। ऑर्किड जेनेरा और प्रजातियों की दुनिया की सबसे समृद्ध विविधता उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाई जाती है।

बैलेरिना ऑर्चिड (Ballerina Orchid)

कैलेडेनिया मेलेनेमा एक स्थलीय, बारहमासी , पर्णपाती , जड़ी बूटी है, जिसमें एक भूमिगत कंद और एक सीधा, रोएँदार पत्ता होता है, जो 40-120 मिमी लंबा और 2-7 मिमी चौड़ा होता है। लाल निशानों वाले एक या दो क्रीम रंग के फूल, 40-60 मिमी लंबे और 40-50 मिमी चौड़े होते हैं, जो 80-150 मिमी ऊँचे डंठल पर लगते हैं। बाह्यदल और पंखुड़ियाँ गहरे, लाल-भूरे से काले, धागे जैसे सिरों से ढकी होती हैं। पृष्ठीय बाह्यदल सीधा, 20-45 मिमी लंबा, लगभग 2 मिमी चौड़ा होता है। पंखुड़ियाँ 20-30 मिमी लंबी और 1.5-3 मिमी चौड़ी होती हैं और पार्श्व बाह्यदलों की तरह व्यवस्थित होती हैं। लेबेलम के किनारों पर छोटे, सफ़ेद नोक वाले दाँत होते हैं और बीच में कैली की दो पंक्तियाँ होती हैं। इसमें अगस्त से मध्य सितंबर तक फूल खिलते हैं।

कैलाडेनिया मेलेनेमा का वर्णन पहली बार 2001 में स्टीफन हॉपर और एंड्रयू फिलिप ब्राउन द्वारा लेक ग्रेस के पास एकत्र किए गए नमूने से किया गया था और विवरण नुयत्सिया में प्रकाशित हुआ था। 

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Ballerina Orchid

Caladenia melanema, commonly known as ballerina orchid. These are small plants which are also called terrestrial spider orchids. They grow alone or in groups. They are usually seen on the islands of Australia. When seen from the front, it seems as if a ballerina dancer is dancing. Three types of colors are seen in it. Also there are maroon markings. There is a mixture of three colors on the leaves too, but in the area where it grows, rabbits and kangaroos are dangerous for these flowers. They eat it. Therefore, this ballerina orchid is not often seen.

बैलेरिना ऑर्चिड (Ballerina Orchid)

This is a rare orchid, which has a straight, hairy leaf and one or two cream-colored or light yellow flowers, whose sepals and petals have red markings and black tips. It has a diverse and wide group of flowering plants, whose flowers are often colorful and fragrant. Orchids are cosmopolitan plants found in almost every habitat on Earth except glaciers. The world's richest diversity of orchid genera and species is found in the tropics.

बैलेरिना ऑर्चिड (Ballerina Orchid)

Caladenia melanema is a terrestrial, perennial, deciduous, herb, with an underground tuber and a single erect, hairy leaf, 40–120 mm long and 2–7 mm broad. One or two cream-coloured flowers with red markings, 40–60 mm long and 40–50 mm broad, are borne on a stalk 80–150 mm high. The sepals and petals are covered with dark, reddish-brown to black, thread-like tips. The dorsal sepal is erect, 20–45 mm long, about 2 mm broad. The petals are 20–30 mm long and 1.5–3 mm broad and are arranged like the lateral sepals. The labellum has small, white-tipped teeth on the edges and two rows of calli in the centre. It flowers from August to mid-September.

बैलेरिना ऑर्चिड (Ballerina Orchid)

Caladenia melanema was first described in 2001 by Stephen Hopper and Andrew Phillip Brown from a specimen collected near Lake Grace and the description was published in Nuytsia.

हम्पी रथ मंदिर, कर्नाटक - पत्थर का रथ – Hampi Rath Temple, karnataka

हम्पी रथ मंदिर

यह भारत में पत्थर से निर्मित तीन प्रसिद्ध रथों में से एक है, अन्य दो रथ  कोणार्क (ओडिशा) और महाबलीपुरम (तमिलनाडु) में हैं। इसका निर्माण 16वीं शताब्दी में विजयनगर शासक, राजा कृष्णदेवराय के आदेश पर हुआ था।विजयनगर शासकों ने 14वीं से 17वीं शताब्दी तक शासन किया। यह भगवान विष्णु के आधिकारिक वाहन गरुड़ को समर्पित एक मंदिर है।

हम्पी रथ मंदिर, कर्नाटक - पत्थर का रथ – Hampi Rath Temple, karnataka

यह रथ वास्तव में विट्ठल मंदिर परिसर के अंदर बना भगवान गरुड़ को समर्पित एक मंदिर है। भगवान विष्णु के अनुरक्षक गरुड़ की विशाल मूर्ति कभी रथ के ऊपर विराजमान थी, लेकिन वर्तमान समय में यह खाली है। 

इस रथ का निर्माण विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेवराय ने 16 वीं शताब्दी में किया था, जो ओडिशा में युद्ध लड़ते समय कोणार्क सूर्य मंदिर के रथ से मोहित हो गए थे। यह रथ साम्राज्य की सुंदरता और कलात्मक पूर्णता का प्रतिनिधित्व करता है। हम्पी रथ से एक दिलचस्प लोककथा निकलती है क्योंकि ग्रामीणों का मानना ​​है कि जब रथ अपनी जगह से हटता है तो दुनिया रुक जाती है। यह एक पवित्र उपस्थिति बन गया है और यूनेस्को द्वारा भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है।

द्रविड़ वास्तुकला शैली से प्रेरित यह रथ एक विशाल संरचना है जो पहले के शिल्पकारों और वास्तुकारों के कौशल को दर्शाता है। रथ की खूबसूरती इस तथ्य में निहित है कि यह एक ठोस संरचना की तरह दिखता है लेकिन वास्तव में इसे ग्रेनाइट के स्लैब से बनाया गया है जिनके लिंकेज को कलात्मक डिजाइनों के साथ चतुराई से छिपाया गया है।

हम्पी रथ मंदिर, कर्नाटक - पत्थर का रथ – Hampi Rath Temple, karnataka

जिस आधार पर रथ टिका हुआ है, उस पर जटिल विवरणों के साथ सुंदर पौराणिक युद्ध के दृश्य दर्शाए गए हैं। जहां वर्तमान में हाथी बैठे हुए थे, वहां घोड़ों की मूर्तियां थीं। आगंतुक वास्तव में हाथियों के पीछे घोड़ों के पिछले पैर और पूंछ देख सकते हैं। दो हाथियों के बीच सीढ़ी के अवशेष भी हैं, जिनका उपयोग करके पुजारी गरुड़ की मूर्ति को श्रद्धांजलि देने के लिए आंतरिक गर्भगृह तक चढ़ते थे।

हम्पी:

चौदहवीं शताब्‍दी के दौरान मध्‍यकालीन भारत के महानतम साम्राज्‍यों में से एक विजयनगर साम्राज्‍य की राजधानी हम्‍पी कर्नाटक राज्‍य में स्थित है। इसकी स्थापना हरिहर और बुक्का ने वर्ष 1336 में की थी। यूनेस्को (वर्ष 1986) द्वारा विश्व विरासत स्थल के रूप में वर्गीकृत, यह "विश्व का सबसे बड़ा ओपन-एयर संग्रहालय" भी है।

हम्पी, उत्तर में तुंगभद्रा नदी और अन्‍य तीन ओर से पथरीले ग्रेनाइट के पहाड़ों से घिरा हुआ है। हम्पी के चौंदहवीं शताब्‍दी के भग्‍नावशेष यहाँ लगभग 26 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले हुए हैं।

हम्पी रथ मंदिर, कर्नाटक - पत्थर का रथ – Hampi Rath Temple, karnataka

विजयनगर शहर के स्मारक जिन्हें विद्या नारायण संत के सम्‍मान में विद्या सागर के नाम से भी जाना जाता है, को वर्ष 1336-1570 ईस्वी के बीच हरिहर-I से लेकर सदाशिव राय आदि राजाओं ने बनवाया था। यहाँ पर सबसे अधिक इमारतें तुलुव वंश के महान शासक कृष्णदेव राय (1509 -30 ईस्वी) ने बनवाई थीं।

हम्‍पी के मंदिरों को उनकी बड़ी विमाओं, पुष्प अलंकरण, स्‍पष्‍ट नक्काशी, विशाल खम्‍भों, भव्‍य मंडपों एवं मूर्ति कला तथा पारंपरिक चित्र निरुपण के लिये जाना जाता है, जिसमें रामायण और महाभारत के विषय शामिल किये गए हैं। हम्‍पी में मौजूद विठ्ठल मंदिर विजय नगर साम्राज्य की कलात्मक शैली का एक उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है। एक पत्‍थर से निर्मित देवी लक्ष्‍मी, नरसिंह तथा गणेश की मूर्तियाँ अपनी विशालता एवं भव्‍यता के लिये उल्‍लेखनीय हैं। यहाँ स्थित जैन मंदिरों में कृष्‍ण मंदिर, पट्टाभिराम मंदिर, हजारा राम चंद्र और चंद्र शेखर मंदिर प्रमुख हैं।

शाम के समय विट्ठल कॉम्प्लेक्स में लगी फ्लड लाइट्स से रथ की खूबसूरत रोशनी होती है। कॉम्प्लेक्स से आने वाली लाइट्स की रोशनी में रथ और उसके विस्तृत डिजाइन का शानदार नजारा देखना एक मंत्रमुग्ध कर देने वाला अनुभव होता है।

आरबीआई ने 50 रुपये का जो नया नोट जारी किया है, उसपर इसी हंपी रथ मंदिर की तस्वीर छपी है। 

हम्पी रथ मंदिर, कर्नाटक - पत्थर का रथ – Hampi Rath Temple, karnataka

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Hampi Rath Temple

It is one of the three famous chariots made of stone in India, the other two being at Konark (Odisha) and Mahabalipuram (Tamil Nadu). It was constructed in the 16th century on the orders of the Vijayanagara ruler, King Krishnadevaraya. The Vijayanagara rulers ruled from the 14th to the 17th centuries. It is a temple dedicated to Garuda, the official vehicle of Lord Vishnu.

This chariot is actually a temple dedicated to Lord Garuda built inside the Vitthala temple complex. The huge statue of Garuda, Lord Vishnu's escort, was once seated atop the chariot, but it is empty at the present time.

This chariot was built in the 16th century by King Krishnadevaraya of the Vijayanagara Empire, who was fascinated by the chariot of the Konark Sun Temple while fighting a war in Odisha. This chariot represents the beauty and artistic perfection of the empire. An interesting folklore emerges from the Hampi Rath as the villagers believe that the world stops when the chariot moves from its place. It has become a sacred presence and is internationally recognized as a World Heritage Site by UNESCO as well.

हम्पी रथ मंदिर, कर्नाटक - पत्थर का रथ – Hampi Rath Temple, karnataka

Inspired by the Dravidian architectural style, this chariot is a massive structure that reflects the skill of the craftsmen and architects of the past. The beauty of the chariot lies in the fact that it looks like a solid structure but is actually made of granite slabs whose linkages are cleverly hidden with artistic designs.

The base on which the chariot rests depicts beautiful mythological battle scenes with intricate details. Where the elephants were sitting at present, there were sculptures of horses. Visitors can actually see the hind legs and tails of the horses behind the elephants. There are also remains of a staircase between the two elephants, which the priests used to climb up to the inner sanctum to pay homage to the statue of Garuda.

Hampi:

Hampi, the capital of the Vijayanagara Empire, one of the greatest empires of medieval India during the fourteenth century, is located in the state of Karnataka. It was founded by Harihara and Bukka in 1336. Classified as a World Heritage Site by UNESCO (1986), it is also the "world's largest open-air museum".

Hampi is surrounded by the Tungabhadra River on the north and rocky granite mountains on the other three sides. Hampi's fourteenth century ruins are spread over an area of ​​about 26 square kilometers.

The monuments of the Vijayanagara city, also known as Vidya Sagar in honor of Vidya Narayan Saint, were built between 1336-1570 AD by kings from Harihara-I to Sadasiva Raya. Most of the buildings here were built by the great ruler of the Tuluva dynasty, Krishnadeva Raya (1509 -30 AD).

The temples of Hampi are known for their large dimensions, floral ornamentation, elaborate carvings, huge pillars, magnificent mandapas and sculptures and traditional paintings depicting themes from the Ramayana and the Mahabharata. The Vitthala Temple in Hampi is an excellent example of the artistic style of the Vijayanagara Empire. The idols of Goddess Lakshmi, Narasimha and Ganesha carved from a single stone are notable for their hugeness and grandeur. The prominent Jain temples here include the Krishna Temple, Pattabhirama Temple, Hazara Rama Chandra and Chandra Shekhar Temple.

हम्पी रथ मंदिर, कर्नाटक - पत्थर का रथ – Hampi Rath Temple, karnataka

In the evening, the chariot is beautifully illuminated by flood lights installed in the Vitthala complex. It is a mesmerizing experience to see the chariot and its elaborate design in the light of the lights coming from the complex.

The new Rs 50 note issued by RBI has the picture of this Hampi Rath Temple printed on it.

बेशरम/बेहया/थेथर || Behaya Besharam Thethar

बेशरम/बेहया/थेथर

आज जिस पौधे की बात करने जा रहे हैं वो बड़े काम की चीज हुआ करता था, लेकिन आजकल विलुप्त होने की कगार पर है, जिसका नाम "बेहया" है। इसे अलग-अलग जगह पर अलग-अलग नाम से जाना जाता है। इसका नाम तो बेहया है पर काम अमृत जैसा है।

बेशरम/बेहया/थेथर || Behaya Besharam Thethar

पोस्ट डालते वक्त बचपन की एक बात याद आ रही है कि प्रतिवर्ष छठ घाट में घाट की सफाई करते हुए लोग इस पौधे को कोसते हुए बोला करते थे कि "अरे एके केतनो साफ कर, ई बेहया ह फिर से जाम जाई।" उस वक्त पर इसके गुनों की बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी। आज इसके गुना की चर्चा कर रही हूं।

बेशरम/बेहया/थेथर एक किस्म का पौधा है। बेहया को स्थानीय भाषा में बेशर्म के नाम से भी जाना जाता है। बेहया भारत में बड़ी ही आसानी से हर जगह देखा जा सकता है। इस पौधे में बहुत सुंदर गुलाबी रंग के फूल खिलते हैं। यह पौधा अक्सर सड़कों के किनारे, खाली जगह पर, नदी, तालाब, नहर आदि के किनारे अपने आप ही उग जाते हैं। इनकी खासियत होती है कि यह कठिन से कठिन परिस्थिति में भी जिंदा रहते हैं। यह पौधा कभी सूखता या मरता नहीं है। इसलिए इसे बेशर्म कहा जाता है। 

बेशरम/बेहया/थेथर || Behaya Besharam Thethar

कम पानी या कम धूप में भी यह मुरझाते नहींहैं। अगर बेहया पौधे की टहनियों को तोड़कर कहीं भी फेंक दिया जाए तो ये वहीं खुद ही उगने लगता है। ये कही भी किसी भी हाल में उग जाता है। इसे पानी में भी उगाया जा सकता है। यह पौधा पानी में सड़ता नहीं है। जंगली जानवर भी इस पौधे को नहीं खाते क्योंकि यह एक ज़हरीला पौधा होता है। बेहया के ज़हर के कारण इंसान भी इसे खा नहीं सकता। इसका उपयोग केवल बाहरी रूप से किया जाता है, अंदरूनी रूप से नहीं। 

चलिए जानते हैं इसके गुणों के बारे में

बेहया की पत्तियां, टहनियां और दूध को प्राचीन समय से ही लोग कई स्वास्थ्य समस्याएं ठीक करने में इस्तेमाल करते चले आ रहे हैं। बेहया से कीटनाशक भी बनाया जाता है, जिसके छिड़काव से फसलों पर लगने वाले कीटो का नाश होता है। बेहया का इस्तेमाल कम लोग ही करते हैं। गांव में तो आज भी लोग इस पौधे का प्रयोग कर पुराने घाव भरते हैं, लेकिन शहरों में इसके बारे में बहुत कम लोग जानते है। 

घाव ठीक करने में मददगार

बेहया में एंटीबैक्टीरियल एंटीमाइक्रोबियल और एंटीऑक्सिडेंट्स गुण पाए जाते हैं। इसलिए बेहया पौधे का इस्तेमाल घाव भरने में अधिक किया जाता है। इसकी पत्तियों पर तेल लगाकर हल्का गर्म कर चोट या घाव पर लगाने से घाव जल्दी भर जाते हैं। माना जाता है कि पुराने घाव भरने में भी बेहया काफी कारगर होता है। 

बेशरम/बेहया/थेथर || Behaya Besharam Thethar

दर्द से दिलाए राहत

यह दर्द भी कम करता है। ऐसा माना जाता है कि इसकी पत्तियां पट्टी के रूप में लगाने से सारा दर्द खींच लेती हैं और दर्द से राहत दिलाती हैं। इसमें दर्द को कम करने वाले गुण मौजूद होते हैं। इस पौधे का इस्तेमाल पुरानी चोट से हो रहे दर्द को भी कम करने की क्षमता रखता है। इसलिए चोट लगने पर चिकित्सक के पास नहीं जाना चाहते तो यह पौधा आपकी मदद कर सकता है। 

सूजन

बेशर्म पौधे में सूजन रोधी गुण यानि एंटी इंफ्लामेटरी गुण पाए जाते हैं। इसकी पत्तियों को गर्म करके सूजी हुई त्वचा पर लगाने से सूजन ठीक हो जाती है। बेहया की पत्तियों से बने लेप को सूजी त्वचा पर लगाने से भी सूजन काम होती है। यह सूजन को 3 से 4 घंटे में ही ठीक करने लगता है। इस तरीके से पुरानी से पुरानी सूजन भी ठीक की जा सकती है। सूजन को कम करने के लिए प्राचीन समय से इस पौधे को काफी लाभकारी माना जाता है। 

जहर को कम करता है

बेशर्म की टहनियों और पत्तों को तोड़ने पर एक प्रकार का दूध निकलता है। बिच्छू के डंक मारने पर यदि यह दूध लगाया जाए तो इससे धीरे-धीरे ज़हर का असर कम होने लगता है। यही नहीं बेहया के पत्तो का लेप भी बिच्छू के डंक पर लगाकर ज़हर के असर को रोका जा सकता है। वो कहते हैं न जहर ही जहर को काटता है। 

चर्म रोग के लिए फायदेमंद

बेशर्म को चर्म रोग ठीक करने में भी प्रयोग किया जाता है। इसके एंटीफंगल गुण चर्म रोग को ठीक करने में सक्षम होते हैं। इसके लिए इस पौधे की जड़ को उखाड़कर और सुखाकर पीस लें और उसमें कपूर का तेल मिलाकर प्रभावित त्वचा पर लगाएं। इससे विटिलिगो जैसे चर्म रोग भी ठीक हो सकते है और तो और बेहया दाद को भी ठीक करने में बहुत लाभदायक माना जाता है। इसके पत्ते त्वचा संबंधी अन्य कई विकारों में भी काम आते हैं।

बेशरम/बेहया/थेथर || Behaya Besharam Thethar

 नोट - बेहया का पौधा बहुत लाभदायक है, पर जहरीला है। इसलिए ध्यान रहे इसे खाना नहीं है। केवल उपरी तौर पर ही इसका प्रयोग लाभ देता है। 

English Translate

Besharam/Behaya/Thethar

The plant we are going to talk about today used to be very useful, but nowadays it is on the verge of extinction, whose name is "Behaya". It is known by different names at different places. Its name is Behaya but its use is like Amrit.

While posting this, I am remembering a childhood incident that every year while cleaning the Chhath Ghat, people used to curse this plant and say, "Oh, how much do you clean it, this Behaya will get jammed again." At that time, there was no information about its qualities. Today I am discussing its qualities.

Besharam/Behaya/Thethar is a type of plant. Behaya is also known as Besharam in the local language. Behaya can be seen very easily everywhere in India. Very beautiful pink flowers bloom in this plant. This plant often grows on its own on the roadside, in empty places, on the banks of rivers, ponds, canals etc. Its specialty is that it survives even in the most difficult conditions. This plant never dries or dies. That is why it is called shameless.

It does not wilt even in less water or less sunlight. If the branches of the Behaiya plant are broken and thrown anywhere, it starts growing there itself. It grows anywhere in any condition. It can also be grown in water. This plant does not rot in water. Wild animals also do not eat this plant because it is a poisonous plant. Due to the poison of Behaiya, even humans cannot eat it. It is used only externally, not internally.

बेशरम/बेहया/थेथर || Behaya Besharam Thethar

Let's know about its properties

Behaiya leaves, branches and milk have been used by people since ancient times to cure many health problems. Insecticide is also made from Behaya, the spraying of which kills the pests on the crops. Very few people use Behaya. Even today, people in villages heal old wounds using this plant, but very few people know about it in cities.

Helpful in healing wounds

Antibacterial, antimicrobial and antioxidant properties are found in Behaya. Therefore, Behaya plant is used more in healing wounds. By applying oil on its leaves, heating it slightly and applying it on the injury or wound, the wound heals quickly. It is believed that Behaya is also very effective in healing old wounds.

Provides relief from pain

It also reduces pain. It is believed that applying its leaves as a bandage draws out all the pain and provides relief from pain. It contains pain-reducing properties. The use of this plant has the ability to reduce the pain caused by old injuries. Therefore, if you do not want to go to the doctor in case of injury, then this plant can help you.

Inflammation

Anti-inflammatory properties are found in Besharam plant. By heating its leaves and applying them on the swollen skin, the swelling is cured. Applying a paste made from Besharam leaves on the swollen skin also reduces swelling. It starts curing the swelling within 3 to 4 hours. In this way, even the most chronic swelling can be cured. This plant is considered very beneficial since ancient times for reducing swelling.

Reduces poison

When the branches and leaves of Besharam are broken, a type of milk comes out. If this milk is applied on a scorpion sting, then the effect of the poison gradually starts reducing. Not only this, the effect of poison can also be stopped by applying a paste of Besharam leaves on the scorpion sting. It is said that only poison bites poison.

बेशरम/बेहया/थेथर || Behaya Besharam Thethar

Beneficial for skin diseases

Besharam is also used to cure skin diseases. Its antifungal properties are capable of curing skin diseases. For this, uproot the root of this plant, dry it and grind it, add camphor oil to it and apply it on the affected skin. This can also cure skin diseases like vitiligo and is also considered very beneficial in curing behaya ringworm. Its leaves are also useful in many other skin related disorders.

Note - Behaya plant is very beneficial, but it is poisonous. So be careful not to eat it. Its use only externally gives benefits.

इस विशद विश्व-प्रहार में - शिव मंगल सिंह 'सुमन'

इस विशद विश्व-प्रहार में 

Rupa Oos ki ek Boond
"ये बेफिक्र सी सुबह,
और गुनगुनाहट शामों की..

ज़िन्दगी खूबसूरत है अगर 
आदत हो मुस्कुराने की..❣️❣️"

इस विशद विश्व-प्रहार में 

किसको नहीं बहना पड़ा 

सुख-दुख हमारी ही तरह, 

किसको नहीं सहना पड़ा 

फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, 

मुझ पर विधाता वाम है, 

चलना हमारा काम है। 


मैं पूर्णता की खोज में 

दर-दर भटकता ही रहा 

प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ 

रोड़ा अटकता ही रहा 

निराशा क्यों मुझे? 

जीवन इसी का नाम है, 

चलना हमारा काम है। 


साथ में चलते रहे 

कुछ बीच ही से फिर गए 

गति न जीवन की रुकी 

जो गिर गए सो गिर गए 

रहे हर दम, 

उसी की सफलता अभिराम है, 

चलना हमारा काम है। 


"शिव मंगल सिंह 'सुमन'"

Rupa Oos ki ek Boond

"भरोसा न करना सुनी सुनाई बातों पर
उसूल जैसे भी हों बदल जाते हैं हालातों पर.
.❣️❣️"

कन्नप्पा नयनार

कन्नप्पा नयनार


कन्नप्पा तमिल लोककथाओं में एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं, जिन्हें हिंदू भगवान शिव के प्रति उनकी अटूट भक्ति के लिए जाना जाता है। उनकी कहानी भारत के आंध्र प्रदेश के श्रीकालहस्तीश्वर मंदिर से निकटता से जुड़ी हुई है। किंवदंती के अनुसार, कन्नप्पा नामक एक शिकारी ने अपनी भक्ति के प्रतीक के रूप में शिव लिंगम को अपनी आँख अर्पित की थी। इससे पहले कि वह अपनी दूसरी आँख का बलिदान कर पाता, शिव उसके सामने प्रकट हुए, उसकी गहरी आस्था और समर्पण से प्रभावित हुए।

कन्नप्पा नयनार

एक मशहूर धनुर्धर थिम्मन एक दिन शिकार के लिए गए। जंगल में उन्हें एक मंदिर मिला, जिसमें एक शिवलिंग था। थिम्मन के मन में शिव के लिए एक गहरा प्रेम भर गया और उन्होंने वहां कुछ अर्पण करना चाहा, लेकिन उन्हें समझ नहीं आया कि कैसे और किस विधि ये काम करें। उन्होंने भोलेपन में अपने पास मौजूद मांस लिंग पर अर्पित कर दिया और खुश होकर चले गए कि शिव ने उनका चढ़ावा स्वीकार कर लिया।

उस मंदिर की देखभाल एक ब्राह्मण करता था जो उस मंदिर से कहीं दूर रहता था। हालांकि वह शिव का भक्‍त था लेकिन वह रोजाना इतनी दूर मंदिर तक नहीं आ सकता था इसलिए वह सिर्फ पंद्रह दिनों में एक बार आता था। अगले दिन जब ब्राह्मण वहां पहुंचा, तो लिंग के बगल में मांस पड़ा देखकर वह भौंचक्‍का रह गया। यह सोचते हुए कि यह किसी जानवर का काम होगा,उसने मंदिर की सफाई कर दी,अपनी पूजा की और चला गया।

अगले दिन,थिम्मन और मांस अर्पण करने के लिए लाए। उन्हें किसी पूजा पाठ की जानकारी नहीं थी,इसलिए वह बैठकर शिव से अपने दिल की बात करने लगे। वह मांस चढ़ाने के लिए रोज आने लगे। एक दिन उन्हें लगा कि लिंग की सफाई जरूरी है लेकिन उनके पास पानी लाने के लिए कोई बरतन नहीं था। इसलिए वह झरने तक गए और अपने मुंह में पानी भर कर लाए और वही पानी लिंग पर डाल दिया।

जब ब्राह्मण वापस मंदिर आया तो मंदिर में मांस और लिंग पर थूक देखकर घृणा से भर गया। वह जानता था कि ऐसा कोई जानवर नहीं कर सकता। यह कोई इंसान ही कर सकता था। उसने मंदिर साफ किया, लिंग को शुद्ध करने के लिए मंत्र पढ़े। फिर पूजा पाठ करके चला गया। लेकिन हर बार आने पर उसे लिंग उसी अशुद्ध अवस्था में मिलता।

एक दिन उसने आंसुओं से भरकर शिव से पूछा,“हे देवों के देव,आप अपना इतना अपमान कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं।” शिव ने जवाब दिया,“जिसे तुम अपमान मानते हो, वह एक दूसरे भक्त का अर्पण है। मैं उसकी भक्ति से बंधा हुआ हूं और वह जो भी अर्पित करता है, उसे स्वीकार करता हूं।

अगर तुम उसकी भक्ति की गहराई देखना चाहते हो,तो पास में कहीं जा कर छिप जाओ और देखो वह आने ही वाला है।” ब्राह्मण एक झाड़ी के पीछे छिप गया। थिम्मन मांस और पानी के साथ आया। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि शिव हमेशा की तरह उसका चढ़ावा स्वीकार नहीं कर रहे। वह सोचने लगा कि उसने कौन सा पाप कर दिया है। उसने लिंग को करीब से देखा तो पाया कि लिंग की दाहिनी आंख से कुछ रिस रहा है।

उसने उस आंख में जड़ी-बूटी लगाई ताकि वह ठीक हो सके लेकिन उससे और रक्‍त आने लगा। आखिरकार,उसने अपनी आंख देने का फैसला किया। उसने अपना एक चाकू निकाला, अपनी दाहिनी आंख निकाली और उसे लिंग पर रख दिया। रक्‍त टपकना बंद हो गया और थिम्मन ने राहत की सांस ली। लेकिन तभी उसका ध्यान गया कि लिंग की बाईं आंख से भी रक्‍त निकल रहा है।

उसने तत्काल अपनी दूसरी आंख निकालने के लिए चाकू निकाल लिया,लेकिन फिर उसे लगा कि वह देख नहीं पाएगा कि उस आंख को कहां रखना है। तो उसने लिंग पर अपना पैर रखा और अपनी आंख निकाल ली। उसकी अपार भक्ति को देखते हुए, शिव ने थिम्मन को दर्शन दिए। उसकी आंखों की रोशनी वापस आ गई और वह शिव के आगे दंडवत हो गया। उसे कन्नप्पा नयनार के नाम से जाना गया। कन्ना यानी आंखें अर्पित करने वाला नयनार यानी शिव भक्त।

रतन टाटा जी को श्रद्धांजलि स्वरूप एक कविता

रतन टाटा जी को श्रद्धांजलि

रतन टाटा जी को श्रद्धांजलि स्वरूप एक कविता

महानता के प्रतीक रतन थे, 

हर दिल में वे अजर-अमर थे। 

देश का गौरव, 

जन जन के साथी, 

निष्ठा, सेवा, थे उनके पथप्रदीप।


व्यापार में किया जो भी कमाल, 

वहां भी था दिल में भारत का ख्याल। 

हर संघर्ष से लड़ते, 

मुस्काते, कभी न पीछे हटे, 

हर कदम बढ़ाते।


गरीबों का मसीहा, सच्चे हितैषी, 

हर दिल को जीते, हर पीड़ा नाशी। 

विरासत उनकी जो छोड़ गए हैं, 

उनसे हम सबको जीवन सीख मिले हैं।


रतन तुम्हारे जाने का दुख है गहरा, 

लेकिन आदर्शों का दिया जलाए रहेगा सवेरा। 

तुम सदियों तक रहोगे हमारे साथ,

कर्मों से सजी होगी हर बात।


श्रद्धांजलि अर्पित हम करते हैं,

तुम्हारी स्मृतियों में हम सब जीते हैं।

रतन टाटा जी का योगदान अमिट है, उनकी विरासत सदैव हमारे बीच जीवित रहेगी 🙏

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..गिला

मानसरोवर-1 ..गिला

गिला - मुंशी प्रेमचंद | Gila by Munshi Premchand

जीवन का बड़ा भाग इसी घर में गुजर गया, पर कभी आराम न नसीब हुआ। मेरे पति संसार की दृष्टि में बड़े सज्जन, बड़े शिष्ट, बड़े उदार, बड़े सौम्य होंगे, लेकिन जिस पर गुजरती हैं, वही जानता हैं। संसार को तो उन लोगों की प्रशंसा करने में आनन्द आता हैं, जो अपने घर को भाड़ में झोंक रहे हों गैरों के पीछे अपना सर्वनाश किये डालते हों। जो प्राणी घरवालों के लिए मरता हैं, उसकी प्रशंसा संसारवाले नहीं करते। वह तो उनकी दृष्टि में स्वार्थी हैं, कृपण हैं, संकीर्ण हृदय हैं, आचार-भ्रष्ट हैं। इसी तरह जो लोग बाहरवालों के लिए मरते हैं, उनकी प्रशंसा घरवाले क्यों करने लगे! अब इन्हीं को देखो, सारे दिन मुझे जलाया करते हैं। मैं परदा नहीं करती, लेकिन सौदे-सुलफ के लिए बाजार जाना बुरा मालूम होता है और इनका यह हाल हैं कि चीज मँगवाओ, तो ऐसी दूकान से लायेंगे, जहाँ कोई ग्राहक भूलकर भी न जाता हो। ऐसी दूकानों पर न तो चीज अच्छी मिलती हैं, न तौल ठीक होती हैं, न दाम ही उचित होते हैं। 

गिला - मुंशी प्रेमचंद | Gila by Munshi Premchand

यह दोष न होते, तो दूकान बदनाम ही क्यों होती, पर इन्हें ऐसी ही गयी-बीती दूकानों से चीजें लाने का मरज़ हैं। बार-बार कह दिया, साहब किसी चलती हुई दूकान से सौदे लाया करो। वहाँ माल अधिक खपता हैं, इसलिए ताजा माल आता हैं, पर इनकी तो टुटपूँजियों से बनती हैं, और वे इन्हें उलटे छूरे से मुँडते हैं। गेहूँ लायेंगे, तो सारे बाजार से खराब, घुना हुआ, चावल ऐसा मोटा कि बैल भी न पूछे, दाल में कराई और कंकड़ भरे हुए मनों लकड़ी जला डालो, क्या मजाल कि गले। घी लायेंगे, तो आधों-आध तेल या सोलहों आने कोकोजेम और दरअसल घी भी एक छटाँक कम! तेल लायेंगे तो मिलावट, बालों में डालो तो चिपट जायें, पर दाम दे आयेंगे शुद्ध आँवले के तेल का! किसी चलती हुई नामी दूकान पर जाते इन्हें जैसे डर लगता हैं। शायद ऊँची दूकान और फीका पकवान के कायल हैं। मेरा अनुमान तो यह हैं कि नीची पर ही सड़े पकवान मिलते हैं।

एक दिन की बात हो, तो बर्दाश्त कर ली जाय, रोज-रोज का टंटा नहीं सहा जाता। मैं पूछती हूँ, आखिर आप टुटपूँजियों की दूकान पर जाते क्यों हो? क्या उनके पालन-पोषण का ठेका तुम्हीं ने लिया हैं? आप फरमाते हैं देखकर सब-के-सब बुलाने लगते हैं! वाह, मुझे क्या कहना हैं! कितनी दूर की बात हैं? जरा इन्हें बुला लिया और खुशामद के दो-चार शब्द सुना दिये, थोड़ी स्तुति कर दी, बस, आपका मिजाज आसमान पर जा पहुँचा। फिर इन्हें सुधि नही रहती कि यह कुड़ा-करकट बाँध रहा हैं कि क्या। पूछती हूँ, तुम उस रास्ते से जाते ही क्यों हो? क्यों किसी दूसरे रास्ते से नहीं जाते? ऐसे उठाईगीरों को मुँह ही क्यों लगाते हो? इसका जवाब नही। एक चुप सौ बाधाओं को हराती हैं।

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्र

एक बार एक गहना बनवाने को दिया। मैं तो महाशय को जानती थी। इनसे पूछना व्यर्थ समझा। अपने पहचान के एक सुनार को बुला रही थी। संयोग से आप भी विराजमान थे। बोले- यह सम्प्रदाय विश्वास के योग्य नहीं, धोखा खाओगी। मैं एक सुनार को जानता हूँ, मेरे साथ का पढ़ा हैं। बरसों साथ-साथ खेले थे। वह मेरे साथ चालबाजी नही कर सकता। मैं भी समझी, जब इनका मित्र हैं और वह भी बचपन का, तो कहाँ तक दोस्ती का हक न निभायेगा? सोने का एक आभूषण और सौ रुपये इनके हवाले किये। इन भले मानस ने वह आभूषण और सौ रुपये न जाने किस बेईमान को दे दिये कि बरसों के झंझट के बाद जब चीज बनकर आयी, तो आठ आने ताँबा और इतनी भद्दी कि देखकर घिन लगती थी। बरसों की अभिलाषा धूल में मिल गयी। रो-पीटकर बैठ रहीं। ऐसे-ऐसे वफादार तो इनके मित्र हैं, जिन्हें मित्र ही गर्दन पर छूरी फेरने में भी संकोच नहीं। इनकी दोस्ती भी उन्हीं लोगों से हैं, जो जमाने भर के जट्टू, गिरहकट, लँगोटी में फाग खेलनेवाले, फाकेमस्त हैं, जिनका उद्दम ही इन जैसे आँख के अंधों से दोस्ती गाँठना हैं। नित्य ही एक-न-एक महाशय उधार माँगने के लिए सिर पर सवार रहते हैं और बिना लिये गला नहीं छोड़ते। मगर ऐसा कभी न हुआ कि किसी ने रुपये चुकाये हों। आदमी एक बार खोकर सीखता हैं, दो बार खोकर सीखता हैं, किन्तु यह भलेमानस हजार बार खोकर भी नहीं सीखते! जब कहती हूँ, रुपये तो दे आये, अब माँग क्यों नहीं लाते! क्या मर गये तुम्हारे वह दोस्त? आप तो बस, बगलें झाँककर रह जाते हैं। आप से मित्रों को सूखा जवाब नहीं दिया जाता। खैरस सूखा जवाब न दो। मैं भी नही कहती कि दोस्तों से बुमुरौवती करो, मगर चिकनी- चुपड़ी बातें तो बना सकते हो, बहाने तो कर सकते हों। किसी मित्र ने रुपये माँगे और आपके सिर पर बोझ पड़ा। बेचारे कैसे इन्कार करें? आखिर लोग जान जायेंगे कि नहीं, कि यह महाशय भी खुक्कल ही हैं। इनकी हविस यह हैं कि दुनिया इन्हें सम्पन्न समझती रहें, चाहे मेरे गहने ही क्यों न गिरवी रखने पड़े। सच कहती हूँ, कभी-कभी तो एक-एक पैसे की तंगी हो जाती हैं और इन भले आदमी को रुपये जैसे घर में काटते हैं। जब तक रुपये के वारे-न्यारे न कर लें, इन्हें चैन नहीं। इनकी करतूत कहाँ तक गाऊँ। मेरी तो नाक में दम आ गया। एक-न-एक मेहमान रोज यमराज की भाँति सिर पर सवार रहते हैं। न जाने कहाँ के बेफिक्रे इनके मित्र हैं। कोई कहीं से आ मरता हैं, कोई कहीं से। घर क्या हैं, अपाहिजों का अड्डा हैं। जरा-सा तो घर, मुश्किलसे दो पलंग, ओढ़ना-बिछौना भी फालतू नहीं, मगर आप है कि मित्रों को निमंत्रण देने को तैयार ! आप तो अतिथि के साथ लेटेंगे, इसलिए चारपाई भी चाहिए, ओढ़ना-बिछौना भी चाहिए, नहीं तो घर का परदा खुल जाय। जाता हैं मेरे और बच्चों के सिर। गरमियों में तो खैर कोई मुजायका नहीं, लेकिन जाड़ो में तो ईश्वर ही याद आते हैं। गरमियों में भी खुली छत पर तो मेहमानों का अधिकार हो जाता हैं, अब बच्चों को लिए पिंज़डे में पड़ी फड़फड़ाया करूँ। इन्हें इतनी भी समझ नहीं कि जब घर की यह दशा हैं, तो क्यों ऐसे मेहमान बनाएँ, जिनके पास कपड़े-लत्ते तक नहीं हैं। ईश्वर की दया से इनके सभी मित्र इसी श्रेणी के हैं। एक भी ऐसा माई का लाल नहीं, जो समय पड़ने पर धेले से भी इनकी मदद कर सके। दो बार महाशय को इनका कटु अनुभव – अत्यंत कटु अनुभव हो चुका हैं, मगर जड़ भरत ने जैसे आँखें न खोलने की कसम खा ली हैं। ऐसे ही दरिद्र भट्टाचार्यों से इनकी पटती हैं। शहर में इतने लक्ष्मी के पुत्र हैं, पर आपका किसी से परिचय नहीं। उनके पास जाते इनकी आत्मा दुखती हैं। दोस्ती गाठेंगे ऐसों से, जिनके घर में खाने का ठिकाना नहीं।

एक बार हमारा कहार छोड़कर चला गया और कई दिन कोई दूसरा कहार न मिला। किसी चतुर और कुशल कहार की तलाश में थी, किन्तु आपको जल्द-से- जल्द कोई आदमी रख लेने की धुन सवार हो गयी। घर के सारे काम पूर्ववत् चल रहे थे, पर आपको मालूम हो रहा था कि गाड़ी रुकी हैं। मेरा जूठे बरतन माँजना और अपना साग-भाजी के लिए बाजार जाना इनके लिए असह्य हो उठा। एक दिन जाने कहाँ से एक बागडू को पकड़ लाये। उसकी सूरत कहे देती थी कोई जाँगलू हैं! मगर आपने उसका ऐसा बखान किया कि क्या कहूँ ! बड़ा होशियार हैं, बड़ी आज्ञाकारी, परले-सिरे का मेहनती, गजब की सलीकेदार और बहुत ही ईमानदार। खैर मैने रख लिया। मैं बार-बार क्यों इनकी बातों में आ जाती हूँ, इसका मुझे स्वयं आश्चर्य हैं। यह आदमी केवल रूप से आदमी था। आदमियत के और कोई लक्षण उसने न थे। किसी काम की तमीज नही। बेईमान न था, पर गधा था अव्वल दरजे का। बेईमान होता, तो कम-से-कम तस्कीन तो होती कि खुद खा जाता हैं। अभागा दुकानदारों के हाथों लुट जाता था। दस तक की गिनती उसे न आती थी। एक रुपया देकर बाजार भेजूँ, तो संध्या तक हिसाब न समझा सके। क्रोंध पी-पीकर रह जाती थी। रक्त खौलने लगता था कि दुष्ट के कान उखाड़ लूँ, मगर इन महाशय को उसे कभी कुछ कहते नहीं देखा, डाँटना तो दूर की बात हैं। मैं तो बच्चों का खून पी जाती, लेकिन इन्हें जरा भी गम नहीं। जब मेरे डाँटने पर धोती छाँटने जाता भी, तो आप उसे समीप न आने देते। बस, उनके दोषों को गुण बनाकर दिखाया करते थे। मूर्ख को झाडू लगाने के तमीज न थी। मरदाना कमरा ही तो सारे घर में ढंग का कमरा है। उसमें झाडू लगाता, तो इधर की चीज उधर, ऊपर चीज नीचे, मानो कमरे में भूकम्प आ गया हो! और गर्द का यह हाल कि साँस लेना कठिन, पर आप शान्तिपूर्वक कमरे में बैठे हैं, जैसे कोई बात ही नहीं। एक दिन मैने उसे खूब डाँटा- कल से ठीक-ठीक झाडू न लगाया, तो कान पकड़कर निकाल दूँगी। सबेरे सोकर उठी तो देखती हूँ, कमरे में झाडू लगी हुई हैं और हरके चीज करीने से रखी हुई हैं। गर्द-गुबार का नाम नहीं। मै चकित होकर देखने लगी। आप हँसकर बोले- देखती क्या हो! आज घूरे ने बड़े सबेरे उठकर झाडू लगायी हैं। मैने समझा दिया। तुम ढंग से बताती नहीं, उलटे डाँटने लगती हो।

मैंने समझा, खैर, दुष्ट ने कम-से-कम एक काम तो सलीके से कियाष अब रोज कमरा साफ- सुथरा मिलता। घूरे मेरी दृष्टि में विश्वासी बनने लगा। संयोग की बात! एक दिन जरा मामूल से उठ बैठी और कमरे में आयी, तो क्या देखती हूँ कि घूरे द्वार पर खड़ा हैं और आप तन-मन से कमरे में झाडू लगा रहे हैं। मेरी आँखों में खून उतर आया। उनके हाथ से झाडू छिनकर घूरे के सिर पर जमा दी। हरामखोर को उसी दम निकाल बाहर किया। आप फरमाने लगे- उसका महीना तो चुका दो! वाह री समझ! एक तो काम न करे, उस पर आँखे दिखाये। उस पर पूरी मजूरी भी चुका दूँ। मैने एक कौड़ी भी न दी। एक कुरता दिया था, वह भी छीन लिया। इस पर जड़ भरत महोदय मुझसे कई दिन रूठे रहे। घर छोड़कर भागे जाते थे। बड़ी मुश्किलों से रुके। ऐसे-ऐसे भोंदू भी संसार में पड़े हुए हैं। मैं न होती, तो शायद अब तक इन्हें किसी न बाजार में बेच लिया होता।

एक दिन मेहतर ने उतारे कपड़ों का सवाल किया। इस बेकारी के जमाने में फालतू कपड़े तो शायद पुलिसवालों या रईसों के घर में हो, मेरे घर में तो जरूरी कपड़े भी काफी नहीं। आपका वस्त्रालय एक बकची में आ जाएगा, जो डाक पारसल से कहीं भेजा जा सकता हैं। फिर इस साल जाड़ों के कपड़े बनवाने की नौबत न आयी। पैसे नजर नही आते, कपड़े कहाँ से बनें? मैने मेहतर को साफ जवाब दे दिया। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था, इसका अनुभव मुझे कम न था। गरीबों पर क्या बीत रही हैं? इसका मुझे ज्ञान था लेकिन मेरे या आपके पास खेद के सिवा इसका और क्या इलाज हैं? जब तक समाज का यह संगठन रहेगा, ऐसी शिकायतें पैदा होती रहेगी। जब एक-एक अमीर और रईस के पास एक-एक मालगाड़ी कपड़ों से भरी हुई हैं, तब फिर निर्धनों को क्यों न नग्नता का कष्ट उठाना पड़े? खैर, मैने तो मेहतर को जवाब दे दिया, आपने क्या किया कि अपना कोट उठाकर उसकी भेंट कर दिया। मेरी देह में आग लग गयी। मैं इतनी दानशीन नहीं हूँ कि दूसरों को खिलाकर आप सो रहूँ। देवता के पास यहीं एक कोट था। आपको इसकी जरा भी चिन्ता न हुई कि पहनेंगे क्या? यश के लोभ ने जैसे बुद्धि ही हर ली। मेहतर ने सलाम किया, दुआयें दी और अपनी राह ली। आप कई दिन सर्दी से ठिठुरते रहे। प्रातःकाल घूमने जाया करते थे, वह बन्द हो गया। ईश्वर ने उन्हें हृदय भी एक विचित्र प्रकार का दिया हैं। फटे- पुराने कपड़े पहनते आपको जरा भी संकोच नहीं होता। मैं तो मारे लाज के गड़ जाती हूँ , पर आपको जरा भी फिक्र नहीं। कोई हँसता हैं, तो हँसे, आपकी बला से। अन्त में जब मुझ से देखा न गया, तो एक कोट बनवा दिया। जी तो जलता था कि खूब सर्दी खाने दूँ, पर डरी कि कहीं बीमार पड़ जायँ, तो और बुरा हो। आखिर काम तो इन्हीं को करना हैं।

महाशय दिल में समझते होंगे, मैं कितना विनीत, कितना परोपकारी हूँ । शायद इन्हें इन बातों का गर्व हो। मैं इन्हें परोपकारी नही समझती, न विनीत ही समझती हूँ । यह जड़ता हैं, सीधी-सादी निरीहता। जिस मेहतर को आपने अपना कोट दिया, उसे मैने कई बार रात को शराब के नशे में मस्त झूमते देखा हैं और आपको दिखा भी दिया हैं। तो फिर दूसरों की विवेकहीनता की पुरौती हम क्यों करें? अगर आप विनीत और परोपकारी होते, तो घरवालों के प्रति भी तो आपके मन में कुछ उदारता होती, या सारी उदारता बाहरवालों क लिए सुरक्षित हैं? घरवालों को उसका अल्पांश भी न मिलना चाहिए? मेरी इतनी अवस्था बीत गयी, पर इस भले आदमी ने कभी अपने हाथ से मुझे एक उपहार भी न दिया। बेशक मैं जो चीज बाजार से मंगवाऊँ, उसे लाने में इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं, बिल्कुल उज्र नही, मगर रुपये मैं दे दूँ , यह शर्त हैं। इन्हें खुद कभी यह उमंग नही होती। यह मैं मानती हूँ कि बेचारे अपने लिए भी कुछ नहीं लाते। मै जो कुछ मँगवा दूँ, उसी पर सन्तुष्ट हो जाते हैं, मगर आखिर आदमी कभी-कभी शौक की चीजें चाहता ही हैं। अन्य पुरुषों को देखती हूँ, स्त्री के लिए तरह के गहने, भाँति- भाँति के कपड़े, शौंक-सिंगार की वस्तुएँ लाते रहते हैं। यहाँ व्यवहार का निषेध हैं। बच्चों के लिए भी मिठाइयाँ, खिलौने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये हो। शपथ-सी खा ली हैं। इसलिए मैं इन्हें कृपण कहूँगी, अरसिक कहूँगी, हृदय- शून्य कहूँगी, उदार नही कह सकती। दूसरों के साथ इनका जो सेवा-भाव हैं, उसका कारण हैं, इनका यश-लोभ और व्यावहारिक अज्ञानता। आपके विनय का यह हाल हैं, कि जिस दफ्तर में आप नौकर हैं, उसके किसी अधिकारी से आपका मेल-जोल नहीं। अफसरो को सलाम करना तो आपकी नीति के विरूद्ध हैं, नजर या डाली तो दूर की बात हैं। और-तो-और, कभी किसी अफसर के घर नहीं जाते। इसका खामियाजा आप न उठायें, तो कौन उठाये? औरों को रिआयती छुट्टियाँ मिलती हैं, आपको कोई पूछता भी नहीं, हाजिरी में पाँच मिनट की देर हो जाय, तो जवाब पूछा जाता हैं। बेचारे जी तोड़कर काम करते हैं, कोई बड़ा कठिन काम आ जाता हैं, तो इन्हीं के सिर मढ़ा जाता हैं, इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं। दफ्तर में इन्हें ‘घिस्सू, पिस्सू’ आदि उपाधियाँ मिली हैं, मगर पड़ाव कितना ही बड़ा मारे, इनके भाग्य में वही सूखी घास लिखी हैं। यह विनय नहीं हैं! स्वाधीन मनोव भी नहीं हैं, मैं तो इसे समय-चातुरी का अभाव कहती हूँ, व्यावहारिक ज्ञान की क्षति कहती हूँ । आखिर कोई अफसर आपसे प्रसन्न क्यो हो? इसलिए कि आप बड़े मेहनती हैं? दुनिया का काम मुरौवत और रवादारी से चलता हैं। अगर हम किसी से खिंचे रहें, तो कोई कारण नहीं कि वह हमसे खिंचा रहे। कफर, जब मन में क्षोभ होता हैं, तो वह दफ्तरी व्यवहारों में भी प्रकट हो गी जाता हैं। जो मातहत अफसर को प्रसन्न रखने की चेष्टा करता हैं, जिसकी जात से अफसर को कोई क्यक्तिगत उपकार होता हैं, जिस पर वह विश्वास कर सकता हैं, उसका लिहाज वह स्वभावतः करता हैं। ऐसे सिरागियों से क्यों किसी को सहानुभूति होने लगी? अफसर भी तो मनुष्य हैं। उनके हृदय में जो सम्मान और विशिष्टता की कामना हैं, वह कहाँ से पूरी हो? जब अधीनस्थ कर्मचारी ही उससे फिरंट रहें, तो क्या उसके अफसर उसे सलाम करने आयेंगे? आपने जहाँ नौकरी की, वहाँ से निकाले गये या कार्याधिक्य के कारण छोड़ बैठे।

आपको कुटुम्ब-सेवा का दावा हैं। आपके कई भाई-भतीजे होते हैं, वह कभी इनकी बात भी नहीं पूछते, आप बराबर उनका मुँह ताकते रहते हैं।

इनके एक भाई साहब आजकल तहसीलदार हैं। घर की मिल्कियत उन्हीं की निगरानी में हैं। वह ठाठ से रहते हैं। मोटर रख ली है, कई नौकर-चाकर हैं, मगर यहाँ भूल से भी पत्र नहीं लिखते। एक बार हमें रुपये की बड़ी तंगी हुई। मैने कहा, अपने भ्राताजी से क्यों नहीं माँग लेते? कहने लगे, उन्हें क्यों चिन्ता में डालूँ । उनका भी तो अपना खर्च हैं। कौन सी बचत हो जाती होगी। जब बहुत मजबूर किया, तो आपने पत्र लिखा। मालूम नहीं, पत्र में क्या लिखा, पत्र लिखा या मुझे चकमा दे दिया, पर रुपये न आने थे, न आये। कई दिनों के बाद मैने पूछा- कुछ जवाब आया श्रीमान के भाई साहब के दरबार से? आपने रुष्ट होकर कहा- अभी केवल एक सप्ताह तो खत पहुँचे हुए, क्या जवाब आ सकता हैं? एक सप्ताह और गुजरा, मगर जवाब नदारद। अब आपका यह हाल हैं कि मुझे कुछ बातचीत करने का अवसर ही नही देते। इतने प्रसन्न-चित्त नजर आते हैं कि क्या कहूँ । बाहर से आते है तो खुश -खुश। कोई-न-कोई शिगूफा लिये। मेरी खुशामद भी खूब हो रही हैं, मेरे मैकेवालों की प्रशंसा भी हो रही हैं, मेरे गृह -प्रबन्ध का बखान भी असाधारण रीति से किया जा रहा हैं। मैं इन महाशय की चाल समझ रही थी। यह सारी दिलजोई केवल इसलिए थी कि श्रीमान् के भाई साहब के विषय में कुछ पूछ न बैठूँ। सारे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक आचारिक प्रश्नों की मुझसे व्याख्या की जाती थी, इतने विस्तार और गवेष्णा के साथ कि विशेषज्ञ भी लोहा मान जायँ। केवल इसलिए कि मुझे प्रसंग उठाने का अवसर न मिले। लेकिन मैं भला कब चुकनेवाली थी? जब पूरे दो सप्ताह गुजर गये और बीमे के रुपये भेजने की मिती मौत की तरह सिर पर सवार हो गयी, तो मैने पूछा- क्या हुआ? तुम्हारे भाई साहब ने श्रीमुख से कुछ फरमाया चा अभी तक पत्र नहीं पहुँचा? आखिर घर की जायदाद में हमारा भी कुछ हिस्सा हैं या नही? या हम किसी लौड़ी-दासी की सन्तान हैं? पाँच सौ रुपये साल का नफा तो दस साल पहले था। अब तो एक हजार से कम न होगा, पर हमें कभी एक कानी कौड़ी न मिली। मोटे हिसाब से हमें दो हजार मिलना चाहिए। दो हजार न हो, एक हजार हो, पाँच सौ हो, ढाई सौ हो, कुछ न हो तो बीमा के प्रीमियम भर को तो हो। तहसीलदार साहब का आमदनी हमारी आमदनी से चौगुनी हैं, रिश्वतें भी लेते हैं, तो फिर हमारे रुपये क्यों नहीं देते? आप हें-हें, हाँ-हाँ करने लगे। वह बेचारे घर की मरम्मत करवाते हैं। बंध -बांधवो का स्वागत-सत्कार करते हैं, नातेदारियों में भेट-भाँट भेजते हैं। और कहाँ से लावें, जो हमारे पास भेजे? वाह री बुद्धि! मानो जायदाद इसीलिए होती हैं कि उसकी कमाई उसी में खर्च हो जाय। इस भले आदमी को बहाने गढने भी नहीं आते। मुझसे पूछते, मैं एक नही हजार बता देती, एक-से-एक बढ़कर- कह देते, घर में आग लग गयी, सब कुछ स्वाहा हो गया, या चोरी हो गयी, तिनका तक नहीं बचा, या दस हजार का अनाज भरा था, उसनें घाटा रहा, या किसी से फौजदारी हो गयी, उसमें दिवाला पिट गया। आपको सूझी भी लचर-सी बात। तकदीर ठोककर बैठ रहीं। फिर भी आप भाई-भतीजों की तारीफों के पुल बाँधते हैं, तो मेरे शरीर में आग लग जाती हैं। ऐसे कौरवों से ईश्वर बचाये।

ईश्वर की दया से आपके दो बच्चे हैं, दो बच्चियाँ भी हैं। ईश्वर की दया कह या कोप कहूँ ? सब-के -सब इतने ऊधमी हो गये हैं कि खुदा की पनाह, मगर क्या मजाल हैं कि भोंदू किसी को कड़ी आँख से भी देखे! रात के आठ बज गये हैं, युवराज अभी घूमकर नहीं आये। मैं घबरा रही हूँ, आप निश्चिंत बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। झल्लाई हुई जाती हूँ और अखबार छीनकर कहती हूँ, जाकर देखते क्यों नहीं, लौंड़ा कहाँ रह गया? न जाने तुम्हारा तुम्हारा हृदय कितना कठोर हैं! ईश्वर ने तुम्हें सन्तान ही न जाने क्यों दे दी? पिता का पुत्र के साथ कुछ तो धर्म हैं! तब आप भी गर्म हो जाते हैं, अभी तक नही आया? बड़ा शैतान हैं। आज बच्चा आता हैं, तो कान उखाड़ लेता हूँ। मारे हंटरों के खाल उधेड़कर रख दूँगा। यों बिगड़कर तैश के साथ आप उसे खोजने निकलते हैं। संयोग की बात! आप उधर जाते हैं, इधर लड़का आ जाता हैं। मैं पूछती हूँ- तू किधर से आ गया? तुझे ढूँढने गये हुए हैं। देखना, आज कैसी मरम्मत होती हैं। यह आदत छूट जायेगी। दाँत पीस रहे थे। आते ही होंगे। छड़ी भी उनके हाथ में हैं। तुम इतने अपने मन के हो गये हो कि बात नहीं सुनते। आज आटे-दाल का भाव मालूम होगा। लड़का सहम जाता हैं और लैम्प जलाकर पढ़ने बैठ जाता हैं। महाशयजी दो-ढाई घंटे के बाद लौटते हैं, हैरान, परेशान और बदहवास होगा। घर में पाँव रखते ही पूछते हैं- आया कि नहीं?

मैं उनका क्रोध उत्तेजित करने के विचार से कहती हूँ- आकर बैठा तो हैं, जाकर पूछते क्यों नहीं? पूछकर हार गयी, कहाँ गया था, कुछ बोलता ही नहीं।

आप गरजकर कहते हैं- मन्नू, यहाँ आओ।

लड़का थर-थर काँपता हुआ आकर आँगन में खड़ो हो जाता हैं। दोनों बच्चियाँ घर में छिप जाती हैं कि कोई बड़ा भयंकर कांड होने वाला हैं। छोटा बच्चा खिड़की से चूहे हे की तरह झाँक रहा हैं। आप क्रोध से बौखलाए हुए हैं! हाथ में छड़ी हैं ही, मैं भी यह क्रोधोन्मत्त आकृति देखकर पछताने लगती हूँ कि कहाँ से शिकायत की। आप लड़के के पास जाते है, मगर छड़ी जमाने के बदले आहिस्ते से उसे कंधे पर हाथ रखकर बनावटी क्रोध से कहते हैं – तुम कहाँ गये थे जी? मना किया जाता हैं, मानते नहीं हो। खबरदार, जो अब कभी इतनी देर होगी? आदमी शाम को अपने घर चला आता हैं या मटरगश्ती करता हैं?

मैं समझ रही हूँ कि यह भूमिका हैं। विषय अब आयेगा। भूमिका तो बुरी नहीं, लेकिन यहाँ तो मिका पर इति हो जाती हैं। बस आपका क्रोध शांत हुआ। बिल्कुल जैसं क्वार का घटा- घेर-घार हुआ, काले बादल आये, गड़गड़ाहट हुई और गिरी क्या, चार बूँदें। लड़का अपने कमरे में चला जाता हैं और शायद खुशी से नाचने लगता हैं।

मैं पराभूत हो जाती हूँ- तुम तो जैसे डर गये। भला, दो-चार तमाचे तो लगाये होते! इसी तरह लड़के शेर हो जाते हैं।

आप फरमाते हैं- तुमने सुना नहीं, मैने कितने जोर से डाँटा! बच्चू की जान ही निकल गयी होगी। देख लेना, जो फिर कभी देर से आये।

‘तुमने डाँटा तो नहीं, हाँ आँसू पोंछ दिये।’

‘तुमने मेरी डाँट सुनी नहीं?’

‘क्या कहना हैं, आपकी डाँट का! लोगों के कान बहरे हो गये। लाओ, तुम्हारा गला सहला दूँ।’

आपने एक नया सिद्धान्त निकाला हैं कि दंड देने से लड़के खराब हो जाते हैं। आपके विचार से लड़को का आजाद रहना चाहिए उन पर किसी तरह का बन्धन, शासन या दवाब न होना चाहिए। आपके मत से शासन बालकों के मानसिक विकास में बाधक होता हैं। इसी का यह फल हैं कि लड़के बिना नकेल के ऊँट बने हुए हैं। कोई एक मिनट भी किताब खोलकर नही बैठता। कभी गुल्ली- डंडा हैं, कभी गोलियाँ, कभी कनकौवे। श्रीमान् भी लड़को के साथ खेलते हैं। चालीस की उम्र और लड़कपन इतना। मेरे पिताजी के सामने मजाल थी कि कोई लड़का कनकौआ उड़ा ले या गुल्ली-डंडा खेल सके। खून ही पी जाते। प्रातःकाल से लड़कों को लेकर बैठ जाते थे। स्कूल से ज्यों ही लड़के आते, फिर से ले बैठते थे। बस, संध्या समय आध घंटे की छुट्टी देते थे। रात को फिर जोत देते। यह नहीं कि आप तो अखबार पढ़ा करे और लड़के गली-गली भटकते फिरें। कभी-कभी आप सींग काटकर बछड़े बन जाते हैं। लड़कों के साख ताश खेलने बैठा करते हैं। ऐसे बाप का भला, लड़को पर क्या रौब हो सकता हैं? पिताजी के सामने मेरे भाई सीधे ताक नहीं सकते थे। उनकी आवाज सुनते ही तहलका मच जाता था। उन्होंने घर में कदम रखा और शांति का साम्राज्य हुआ। उनके सम्मुख जाते लड़कों के प्राण सूखते थे। उसी शासन की यह बरकत हैं कि सभी लड़के अच्छे-अच्छे पदों पर पहुँच गये। हाँ, स्वास्थ्य किसी का अच्छा नहीं हैं। तो पिताजी ही का स्वास्थ्य कौन बड़ा अच्छा था! बेचारे हमेशा किसी न किसी औषधि का सेवन करते रहते थे। और क्या कहूँ, एक दिन तो हद ही हो गयी। श्रीमानजी लड़कों को कनकौआ उड़ाने की शिक्षा दे रहे थे – यों घुमाओ, यों गोता दो, यों खींचो, यों ढील दो। ऐसा तन-मन से सिखा रहे थे, मानो गुरु -मंत्र दे रहे हो। उस दिन मैने इनकी ऐसी खबर ली कि याद करते होंगे- तुम कौन होते हो, मेरे बच्चों को बिगाड़नेवाले! तुम्हें घर से कोई मतलब नहीं हैं, न हो, लेकिन मेंर बच्चों को खराब न कीजिए। बुरी-बुरी आदतें न सिखाइए। आप उन्हें सुधार नहीं सकते, तो कम-से-कम बिगाड़िए मत। लगे बगलें झाँकने। मैं चाहती हूँ, एक बार भी गरज पड़े तो चंडी रूप दिखाऊँ, पर यह इतना जल्द दब जाते हैं कि मैं हार जाती हूँ । पिताजी किसी लड़के को मेले-तमाशे न ले जाते थे। लड़का सिर पीटकर मर जाय, मगर जरा भी न पसीजते थे। और इन महात्माजी का यह हाल हैं कि एक-एक से पूछकर मेले ले जाते हैं- चलो, चलो, वहाँ बड़ी बहार हैं, खूब आतिशबाजियाँ छूटेंगी, गुब्बारे उड़ेंगे, विलायती चर्खियाँ भी हैं। उन पर मजे से बैठना। और-तो-और, आप लड़कों को हाकी खेलने से भी नहीं रोकते। यह अंग्रेजी खेल भी कितने जानलेवा हैं- क्रिकेट, फुटबाल, हाकी – एक-से-एक घातक। गेंद लग जाय तो जान लेकर ही छोड़े, पर आपको इन सभी खेलों से प्रेम हैं। कोई लड़का मैच जीतकर आ जाता हैं, तो फूल उठते हैं, मानो किला फतह कर आया हो। आपको इसकी जरा भी परवाह नहीं कि चोट-चपेट आ गयी तो क्या होगा! हाथ-पाँव टूट गये तो बेचारो की जिन्दगी कैसे पार लगेगी!

पिछले साल कन्या का विवाह था। आपकी जिद थी कि दहेज के नाम कानी कौड़ी भी न देंगे, चाहे कन्या आजीवन क्वाँरी रहे। यहाँ भी आपका आदर्शवाद आ कूदा। समाज के नेताओं का छल-प्रपंच आये दिन देखते रहते हैं, फिर भी आपकी आँखे नहीं खुलती। जब तक समाज की यह व्यवस्था कायम हैं औऱ युवती कन्या का अविवाहित रहना निन्दास्पद हैं, तब तक यह प्रथा मिटने की नही। दो-चार ऐसे व्यक्ति भले ही निकल आवे, जो दहेज के लिए हाथ न फैलावें, लेकिन इनका परिस्थिति पर कोई असर नहीं पड़ता और कुप्रथा ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं। पैसों की कमी नहीं, दहेज की बुराइयों पर लेक्चर दे सकते हैं, लेकिन मिलते हुए दहेज को छोड़ देनेवाला मैने आज तक न देखा। जब लड़को की तरह लड़कियों को शिक्षा और जीविका को सुविधाएँ निकल आयेंगी, तो यह प्रथा भी विदा हो जायेगी, उसके पहले सम्भव नहीं। मैने जहाँ-जहाँ संदेश भेजा, दहेज का प्रश्न खड़ा हुआ और आपने प्रत्येक अवसर पर टाँग अड़ायी। जब इस तरह पूरा साल गुजर गया और कन्या का सत्रहवाँ लग गया, तो मैने एक जगह बात पक्की कर ली। आपने भी स्वीकार कर लिया, क्योंकि वर-पक्ष ने लेन-देन का प्रश्न उठाया ही नहीं, हालाँकि अन्त:करण में उन लोगों को विश्वास था कि अच्छी रकम मिलेगी औऱ मैने भी तय कर लिया था कि यथाशक्ति कोई बात उठा न रक्खूँगी। विवाह के सकुशल होने में कोई सन्देह न था, लेकिन इन महाशय के आगे मेरी एक न चली- यह प्रथा निंद्य हैं, यह रस्म निरर्थक हैं, यहाँ रुपये की क्या जरूरत? यहाँ गीतो का क्या काम? नाक में दम था। यह क्यों, वह क्यों, यह तो साफ दहेज हैं, तुमने मुँह में कालिख लगा दी। मेरी आबरू मिटा दी। जरा सोचिए, इस परिस्थिति को कि बारात द्वार पर पड़ी हुई हैं और यहाँ बात-बात पर शास्त्रार्थ हो रहा हैं। विवाह का मुहूर्त आधी रात के बाद था। प्रथानुसार मैने व्रत रखा, किन्तु आपकी टेक थी कि व्रत की कोई जरूरत नही। जब लड़के के माता-पिता व्रत नहीं रखते, लड़का तक व्रत नहीं रखता, तो कन्या-पक्षवाले ही व्रत क्यों रखें! मैं और सारा खानदान मना करता रहा; लेकिन आपने नाश्ता किया। खैर! कन्यादान का मुहर्त आया। आप सदैव से इस प्रथा के विरोधी हैं। आज इसे निषिद्ध समझते हैं। कन्या क्या दान की वस्तु हैं? दान रुपये-पैसे, जगह-जमीन का होता हैं। पशु- -दान भी होता हैं, लेकिन लड़की का दान! एक लचर-सी बात हैं। कितना समझती हूँ, पुरानी प्रथा हैं, वेद-काल से होती चली आयी हैं, शास्त्रों में इसकी व्यवस्था हैं। सम्बन्धी समझा रहे हैं, पंडित समझा रहे हैं, पर आप हैं कि कान पर जूँ नही रेंगती। हाथ जोड़ती पैर पड़ती हूँ, गिड़गिड़ाती हूँ, लेकिन आप मंडल के नीचे न गये। और मजा यह हैं कि आपने ही तो यह अनर्थ किया और आप ही मुझसे रूठ गये। विवाह के पश्चात महीनों बोलचाल न रही। झख मार कर मुझी को मनाना पड़ा।

किन्तु सबसे बड़ी विडम्बना यह हैं कि इन सारे दुर्गुणों के होते हुए भी मैं इनसे एक दिन भी थक नहीं रह सकती- एक क्षण का वियोग नहीं रह सकती। इन सारे दोषों पर भी झे इनसे प्रगाढ़ प्रेम है। इनमें यह कौन सा गुण हैं, जिन पर मैं मुग्ध हूँ, मैं खुद नहीं जानती पर इनमें कोई बात ऐसी हैं, जो मुझे इनकी चेली बनाये हुए हैं। यह जरा मामूली सी देर से घर आते हैं, तो प्राण नहों में समा जाते हैं। आज यदि विधाता इनके बदले मुझे कोई विद्या और बुद्धि का पुतला-रूप और धन का देवता भी दे, तो मैं उसकी ओर आँख उठाकर न देखूँ। यह धर्म की बेड़ी हैं, कदापि नहीं। प्रथागत पतिव्रत भी नहीं, बल्कि हम दोनों की प्रकृति में कुछ ऐसी क्षमताएँ, कुछ ऐसी व्यवस्थाएँ उत्पन्न हो गयी हैं मानो किसी मशीन के कल- पुरजे घिस-घिसकर फिट हो गये हों, और एक पुरजे की जगह दूसरा पुरजा काम न दे सके, चाहे वह पहले से कितना ही सुडौल, नया और सुदृढ़ हो। जाने हुए रास्ते से हम निःशंक आँखे बन्द किये चले जाते हैं, उसके ऊँचे -नीचे मोड़ और घुमाव, सब हमारी आँखों मे समाये हैं। अनजान रास्ते पर चलना कितना कष्टप्रद होगा। शायद आज मैं इनके दोषों को गुणों से बदलने पर भी तैयार न हूँगी।