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शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

शांति स्तूप

बिहार के नालंदा जिले के राजगीर में वैसे तो कई पर्यटक और तीर्थ स्थल है, जिसकी चर्चा मैंने पिछले ब्लॉग में की है। इस क्रम को आज और आगे बढ़ाते हैं और चलते हैं "विश्व शांति स्तूप" जो राजगीर का प्रमुख आकर्षण है। बौद्ध धर्म मानने वालों के लिए यह बेहद खास है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान बुद्ध खुद भी यहां तीन बार आए थे।

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

यह स्तूप 400 मीटर ऊंची रत्नागिरी पहाड़ी पर स्थित है। जैसा कि नाम है शांति स्तूप, वैसे ही यहाँ बेहद सुकून और शांति है। मौसम भी खुशनुमा है। संगमरमर के पत्थरों से बने इस विश्व शांति स्तूप में भगवान बुद्ध की चार स्वर्ण प्रतिमाएं हैं। ये चार स्वर्ण प्रतिमाएं जीवन के चार चरणों जन्म, ज्ञान, उपदेश और मृत्यु को दर्शाती हैं।

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

यह स्तूप संगमरमर के पत्थरों से निर्मित है और स्तूप के चार कोनों में बुद्ध की चार आकर्षक मूर्तियाँ है जो इस स्तूप को और भी मनमोहक बनाती हैं। विश्व शांति स्तूप के चारों तरफ बने प्रदक्षिणा पथ से राजगीर का सुंदर नजारा देखने को मिलता है। चारों ओर बिखरी हरियाली और प्राकृतिक सुंदरता हमलोगों को यहां कुछ और देर तक रुकने के लिए कह रही है।

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

इस पहाड़ी की चोटी तक पहुँचने के लिए "रोपवे" से होकर आना पड़ता है जो इस सफर को और भी रोमांचक बनाता है। इस स्थान की नैसर्गिक और प्राकृतिक सुंदरता इस जगह को बेहद खूबसूरत बनाती है। वैसे यहाँ ट्रैकिंग करके भी पहुँच सकते हैं, पर हमने रोपवे ही चुना। 

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

जैसा कि हमने यहाँ आने के पहले सुना था कि इस डेढ़ किलोमीटर लंबे रोपवे में एक के पीछे एक करके कई कुर्सी लगी हैं और कुर्सी पर सिर्फ एक ही व्यक्ति बैठ सकता है, जो खुली हुई रहती है और पहाड़ी पर गुजरने के दौरान डर भी पैदा करती है। लोग इसका आनंद भी लेते हैं, पर यहाँ पहुँचने के बाद पता लगा कि कुर्सी वाली रोपवे के पैरेलल ही केबिन रोपवे चल रही है और हमलोग केबिन रोपवे से ही ऊपर गए। हम रोपवे से ऊपर जाते हुए यहां की प्राकृतिक सुंदरता को करीब से निहार सकते हैं।

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

यहां गर्मी काफी पड़ती है इसलिए गर्मी में यहां आने से बचना चाहिए। यहां आने का सबसे अच्छा समय फरवरी से मार्च और सितंबर से नवंबर के बीच का है। हम यहाँ मार्च के दूसरे हफ्ते में थे (पोस्ट थोड़ी देर से डल रही), इस समय पर मौसम खुशनुमा था, न गर्मी थी न सर्दी। 

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

विश्व शांति स्तूप को जापान के प्रमुख बौद्ध समूह से जुड़े भिक्षु निशिदात्सु फूजी गुरुजी ने बनवाया था। इसका शिलान्यास राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 1965 में किया था और इसका उद्घाटन राष्ट्रपति वीवी गिरि ने साल 1969 में किया। इस जगह के पास ही में भगवान बु्द्ध का प्रिय स्थल गृद्धकूट है। यहां आने वाले पर्यटक गृद्धकूट भी जरूर जाते हैं। भगवान बुद्ध ने यहां काफी समय बिताया था।

राजगीर की तरह ही वैशाली, पटना, गया, सारनाथ, दिल्ली और नेपाल के लुंबिनी में भी इसी तरह का स्तूप बना हुआ है। 

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

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Shanti Stupa

There are many tourist and pilgrimage places in Rajgir of Nalanda district of Bihar, which I have discussed in the previous blog. Today let us take this sequence further and visit "Vishwa Shanti Stupa" which is the main attraction of Rajgir. This is very special for those who believe in Buddhism. It is said that Lord Buddha himself came here three times.

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

This stupa is situated on the 400 meter high Ratnagiri hill. As the name suggests, Shanti Stupa, there is immense peace and tranquility here. The weather is also pleasant. This Vishwa Shanti Stupa made of marble stones has four golden statues of Lord Buddha. These four golden statues represent the four stages of life: birth, knowledge, teachings and death.

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

This stupa is made of marble stones and there are four attractive statues of Buddha in the four corners of the stupa which makes this stupa even more attractive. A beautiful view of Rajgir can be seen from the circumambulation path built around Vishwa Shanti Stupa. The greenery and natural beauty scattered all around is asking us to stay here for some more time.

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

To reach the top of this hill one has to come through "ropeway" which makes this journey even more exciting. The scenic and natural beauty of this place makes this place very beautiful. Although one can reach here by trekking also, we chose ropeway only.

As we had heard before coming here that in this one and a half kilometer long ropeway, there are many chairs installed one after the other and only one person can sit on the chair, which remains open and also creates fear while passing over the hill. Does it. People also enjoy it, but after reaching here we found out that the cabin ropeway is running parallel to the chair ropeway and we went up through the cabin ropeway only. We can admire the natural beauty of this place closely by going up the ropeway.

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

It is very hot here, hence one should avoid coming here in summer. The best time to visit here is between February to March and September to November. We were here in the second week of March (post being delayed for a while), the weather at this time was pleasant, neither hot nor cold.

Vishwa Shanti Stupa was built by Nishidatsu Fuji Guruji, a monk associated with Japan's leading Buddhist group. Its foundation stone was laid by President Dr. Sarvepalli Radhakrishnan in 1965 and it was inaugurated by President VV Giri in the year 1969. Near this place is Gridhkoot, the favorite place of Lord Buddha. Tourists coming here also definitely visit Gridhakoot. Lord Buddha spent a lot of time here.

शांति स्तूप, बिहार, राजगीर || Shanti stupa, Bihar, Rajgir

Like Rajgir, similar stupas are built in Vaishali, Patna, Gaya, Sarnath, Delhi and Lumbini of Nepal.

ख्वाहिश नहीं, मुझे मशहूर होने की..

 ख्वाहिश नहीं, मुझे मशहूर होने की..

मुंशी प्रेमचंद जी की एक "सुंदर कविता", जिसके एक-एक शब्द को, बार-बार "पढ़ने" को "मन करता" है-
ख्वाहिश नहीं, मुझे  मशहूर होने की..
“उम्र जाया कर दी लोगों ने औरों के वजूद में नुक्स निकालते निकालते.. 
इतना ही खुद को तराशा होता तो फ़रिश्ते बन जाते..❣️"

ख्वाहिश नहीं, मुझे
मशहूर होने की,"
आप मुझे "पहचानते" हो,
बस इतना ही "काफी" है।
अच्छे ने अच्छा और
बुरे ने बुरा "जाना" मुझे,
जिसकी जितनी "जरूरत" थी
उसने उतना ही "पहचाना "मुझे!
जिन्दगी का "फलसफा" भी
कितना अजीब है,
"शामें "कटती नहीं और
"साल" गुजरते चले जा रहे हैं!
एक अजीब सी
'दौड़' है ये जिन्दगी,
"जीत" जाओ तो कई
अपने "पीछे छूट" जाते हैं और
हार जाओ तो,
अपने ही "पीछे छोड़ "जाते हैं!
बैठ जाता हूँ
मिट्टी पे अक्सर,
मुझे अपनी
"औकात" अच्छी लगती है।
मैंने समंदर से
"सीखा "है जीने का तरीका,
चुपचाप से "बहना "और
अपनी "मौज" में रहना।
ऐसा नहीं कि मुझमें
कोई "ऐब "नहीं है,
पर सच कहता हूँ
मुझमें कोई "फरेब" नहीं है।
जल जाते हैं मेरे "अंदाज" से,
मेरे "दुश्मन",
एक मुद्दत से मैंने
न तो "मोहब्बत बदली" 
और न ही "दोस्त बदले "हैं।
एक "घड़ी" खरीदकर,
हाथ में क्या बाँध ली,
"वक्त" पीछे ही
पड़ गया मेरे!
सोचा था घर बनाकर
बैठूँगा "सुकून" से,
पर घर की जरूरतों ने
"मुसाफिर" बना डाला मुझे!
"सुकून" की बात मत कर-
बचपन वाला, "इतवार" अब नहीं आता!
जीवन की "भागदौड़" में
क्यूँ वक्त के साथ, "रंगत "खो जाती है ?
हँसती-खेलती जिन्दगी भी
आम हो जाती है!
एक सबेरा था
जब "हँसकर "उठते थे हम,
और आज कई बार, बिना मुस्कुराए
ही "शाम" हो जाती है!
कितने "दूर" निकल गए
रिश्तों को निभाते-निभाते,
खुद को "खो" दिया हमने
अपनों को "पाते-पाते"
लोग कहते हैं
हम "मुस्कुराते "बहुत हैं,
और हम थक गए,
"दर्द छुपाते-छुपाते"!
खुश हूँ और सबको
"खुश "रखता हूँ,
"लापरवाह" हूँ ख़ुद के लिए
मगर सबकी "परवाह" करता हूँ।
मालूम है
कोई मोल नहीं है "मेरा" फिर भी
कुछ "अनमोल" लोगों से

"रिश्ते" रखता हूँ।

Good Morning

"यूँ जमीन पर बैठकर क्यूँ आसमान देखता है,
पँखों को खोल जमाना सिर्फ उड़ान देखता है..❣️"

दिल के बेहद करीब

दिल के बेहद करीब

Rupa Oos ki ek Boond
"अगर मेरे सपने तुम्हारी आंखों में उग आएं
तो उन्हें पानी डालते रहना
एक ना एक दिन वो खिलेंगे
जिन्हें हमने साथ बोया है..❣️"

दिल के बेहद करीब,

या फिर यूं कहो 

के दिल में रहने वाला..

एक वक्त के बाद,

वक्त के बदलते ही,,

अजनबी हो जाता है!

और लोग कहते हैं..

किसी भी जख्म के लिए,

वक्त सबसे बड़ा मरहम होता है!

पर उन जख्मों का क्या?

जो नासूर बन के,

दिल में उतर जाती,

और वक्त वक्त पर यादें

उन जख्मों को कुरेद जातीं!

श्री वल्लभाचार्य जयंती 2024 || Vallabhacharya Jayanti 2024

श्री वल्लभाचार्य जयंती

बैसाख माह में कृष्ण पक्ष की ग्यारहवीं तिथि जिस दिन वरूथिनी एकादशी होती है, उसी दिन श्री वल्लभाचार्य जयंती मनाई जाती है। श्रीकृष्ण के परम भक्तों में वल्लाभाचार्य जी का भी विशेष स्थान है। इस बार वल्लभाचार्य जयंती 4 मई 2024 को है। ये उनका 545वां जन्म दिवस है। 

श्री वल्लभाचार्य जयंती 2024 || Vallabhacharya Jayanti 2024

श्री वल्लभाचार्य हिंद के प्रसिद्ध विद्वान थे। श्री वल्लभाचार्य रुद्र सम्प्रदाय के लोकप्रिय आचार्य थे, जो चार पारंपरिक वैष्णव सम्प्रदायों में से एक है और यह विष्णुस्वामी से संबंधित है। वल्लभाचार्य जी को पुष्टि परंपरा का संस्थापक माना जाता है। वल्लभाचार्य को भक्ति आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है।   

श्री वल्लभाचार्य जयंती 2024 || Vallabhacharya Jayanti 2024 

पुष्य संप्रदाय की स्थापना

श्री वल्लभाचार्य ने पुष्य संप्रदाय की स्थापना की थी। श्री वल्लभाचार्य एक भारतीय दार्शनिक थे, जिन्होंने भारत के ब्रज क्षेत्र में वैष्णववाद के कृष्ण-केंद्रित पुष्टि संप्रदाय और शुद्ध अद्वैत दर्शन की स्थापना की। आज की दुनिया में, भगवान श्री कृष्ण के कई भक्तों का मानना है कि श्री वल्लभाचार्य ने गोवर्धन पर्वत पर प्रभु के दर्शन किए थे। इसलिए उपासक वल्लभाचार्य जयंती को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। कहा जाता है अग्नि देवता का पुर्नजन्म वल्लभाचार्य जी का है । श्री वल्लभ आचार्य के जन्मदिन पर मुख्य रूप से श्रीकृष्ण की पूजा -आराधना की जाती है। 

जीवन परिचय 

श्री वल्लभ का जन्म 1479 ई. में वाराणसी में रहने वाले एक साधारण तेलुगु परिवार में हुआ था। उनकी मां ने छत्तीसगढ़ के चंपारण में जन्म दिया था और उस वक़्त हिंदू-मुस्लिम संघर्ष चरम पर था। जब उनके माता-पिता मुस्लिम आक्रमण के भय से दक्षिण भारत जा रहे थे, तब रास्ते में छत्तीसगढ़ के रायपुर नगर के पास चंपारण में 1478 में वल्लभाचार्य का जन्म हुआ। बाद में काशी में ही उनकी शिक्षा हुई। बालपन से ही वल्लभाचार्य जी ने वेदों और उपनिषदों का ज्ञान हासिल कर लिया था और काशी में ही उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया। 52 वर्ष की आयु में उन्होंने सन 1530 में काशी में हनुमान घाट पर गंगा में प्रविष्ट होकर जल समाधि ले ली। 

श्री वल्लभाचार्य जयंती 2024 || Vallabhacharya Jayanti 2024

 वल्लभाचार्य जी का श्रीनाथ जी से नाता

पौराणिक कथा के अनुसार जब वल्लभाचार्य उत्तर-पश्चिम भारत की ओर बढ़ रहे थे, तो उन्होंने गोवर्धन पर्वत के पास एक असामान्य घटना देखी। उन्होंने देखा कि एक गाय रोजाना पहाड़ पर एक विशेष स्थान पर दूध दे रही थी। एक दिन वल्लभाचार्य ने उस जगह को खोदने का विचार किया। जब वहां खुदाई की गई तो उन्हें श्रीकृष्ण की एक मूर्ति मिली। ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने यहां श्रीनाथ जी के रूप में वल्लभाचार्य जी को दर्शन दिए। उनके समर्पण के लिए उन्हें गले लगाया। उस दिन से पुष्टि संप्रदाय के लोग भगवान कृष्ण की 'बाल' या युवा छवि की पूजा करते हैं। 

सूरदास जी के लिए कृष्ण समान थे उनके गुरु

ऐसा माना जाता है कि वल्लभाचार्य के 84 शिष्य थे, जिसमें प्रमुख हैं - सूरदास, कृष्णदास, कुंभंडास और परमानंद दास। वल्लभाचार्य जी कृष्ण भक्त सूरदास जी के गुरु माने गए हैं। सूरदास जी ने एक बार कहा था कि श्रीकृष्ण और वल्लभाचार्य जी में उन्हें कोई अंतर नजर नहीं आता, "मेरे लिए दोनों एक समान हैं, मैं जब श्रीकृष्ण पर लिखता हूँ तो वल्लभाचार्य जी की छवि मेरे मन में खुद ब खुद आ जाती है।"

श्री वल्लभाचार्य जयंती 2024 || Vallabhacharya Jayanti 2024

श्री वल्लभाचार्य की पृथ्वी परिक्रमा

श्रीकृष्ण के भक्त वल्लभाचार्य तीन भारतीय तीर्थों पर नंगे पैर चले। उन्होंने एक सादे सफेद धोती और एक उपरत्न, एक सफेद अंगवस्त्र का कपड़ा पहना था। उन्होंने प्राचीन ग्रंथों के अर्थ बताते हुए 84 स्थानों पर भागवत प्रवचन दिए। वर्तमान में, इन 84 स्थानों को चौरासी बैठक के रूप में जाना जाता है, जो तीर्थ स्थल हैं। बाद में उन्होंने लगभग चार महीने व्रज में बिताए और 52 वर्ष की आयु में सन 1530 में काशी में हनुमान घाट पर गंगा में प्रविष्ट होकर जल समाधि ले ली। 

राजस्थान का राज्य पशु "ऊंट /चिंकारा" || State Animal of Rajasthan "Camel / Chinkara"

राजस्थान का राज्य पशु "ऊंट /चिंकारा"

स्थानीय नाम: ऊंट /चिंकारा
वैज्ञानिक नाम: गज़ेला बेंनेटी                                          

राजस्थान में दो जानवर ऊंट और चिंकारा को राज्य पशु का दर्जा प्राप्त है।
राजस्थान का राज्य पशु "ऊंट /चिंकारा" || State Animal of Rajasthan "Camel / Chinkara"
राजस्थान का राज्य पशु चिंकारा है। साधारणतया एक राज्य का एक ही राजकीय पशु होता है, परंतु ऊंटों की गिरती संख्या से राज्य सरकार चिंतित थी और इसी कारण ऊंट को भी राज्य पशु घोषित करने की कार्यवाही शुरू की कई थी। वर्ष 2007 की गणना में प्रदेश में 4.22 लाख ऊंट थे, जिनकी संख्या वर्ष 2014 में 2 लाख से कम हो गयी थी। इसी वजह से जुलाई 2014 में ऊंट को राजस्थान का राज्य पशु घोषित करने का निर्णय लिया गया और जुलाई में राज्य सरकार ने बीकानेर में आयोजित कैबिनेट बैठक में इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी थी। 19 सितंबर 2014 को अधिसूचना जारी होने के बाद से यह आधिकारिक तौर पर राजस्थान का राज्य पशु है। ऊँट शुष्क अफ्रीका और एशिया के मूल निवासी विशाल खुर वाले जानवरों में से एक है। वे बिना पानी पिए लंबे समय तक रहने की अपनी क्षमता के लिए जाने जाते हैं। ऊँट को "रेगिस्तान का जहाज" भी कहा जाता है। ऊँट का वैज्ञानिक नाम Camelus है। 
राजस्थान का राज्य पशु "ऊंट /चिंकारा" || State Animal of Rajasthan "Camel / Chinkara"

चिंकारा दक्षिणी एशिया में पाया जाने वाला एक प्रकार का चिकारा है। उनका ग्रीष्मकालीन कोट चिकने, चमकदार फर के साथ लाल-बफ़ रंग का होता है, और सर्दियों में, उनका कोट हल्का हो जाता है और लगभग सफेद हो जाता है। उनका लाल रंग उन्हें घास के मैदान में शिकारियों से छिपने में मदद करता है। आंख के कोने से लेकर नाक तक, उनके चेहरे के किनारों पर सफेद धारियों से घिरी काली धारियां होती हैं।

यह प्रजाति हिरन से काफी मिलती है, इसलिये इसे छोटा हिरन भी कहा जाता है। वर्ष 1981 में चिंकारा को राजस्थान का राज्य पशु घोषित किया गया था। चिंकारा का वैज्ञानिक नाम Gazella Bennetti है। यह काफी शर्मीला जीव माना जाता है।

राजस्थान का राज्य पशु "ऊंट /चिंकारा" || State Animal of Rajasthan "Camel / Chinkara"

राज्य पशु होने के तहत राजस्थान में चिंकारा का शिकार करना अवैध है। इसके लिये राजस्थान सरकार के द्वारा कडे कानून बनाये गये हैं। इसके साथ ही राज्य के नाहरगढ वन्यजीव अभ्यारण्य को चिंकारा के लिये संरक्षित अभ्यारण्य की सूची में रखा गया है।

ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत सभी चिंकारा का घर हैं। मैदान और पहाड़ियाँ, रेगिस्तान, सूखी झाड़ियाँ और हल्के जंगल वे स्थान हैं जहाँ वे रहते हैं। भारत में, वे 80 से अधिक संरक्षित क्षेत्रों में पाए जा सकते हैं।

English Translate

State Animal of Rajasthan

"Camel/Chinkara"

Local name: Camel/Chinkara
Scientific name: Gazella bennetti

In Rajasthan, two animals camel and chinkara have the status of state animals.

The state animal of Rajasthan is Chinkara. Generally, a state has only one state animal, but the state government was worried about the falling number of camels and hence the process was started to declare the camel as the state animal. In the census of 2007, there were 4.22 lakh camels in the state, whose number had reduced to less than 2 lakh in the year 2014. For this reason, in July 2014, it was decided to declare camel as the state animal of Rajasthan and in July, the state government approved this proposal in the cabinet meeting held in Bikaner. It is officially the state animal of Rajasthan since the notification was issued on 19 September 2014. The camel is one of the large hoofed animals native to arid Africa and Asia. They are known for their ability to go for long periods without drinking water. Camel is also called the "ship of the desert". The scientific name of camel is Camelus.

राजस्थान का राज्य पशु "ऊंट /चिंकारा" || State Animal of Rajasthan "Camel / Chinkara"

Chinkara is a type of gazelle found in southern Asia. Their summer coat is reddish-buff in color with smooth, shiny fur, and in winter, their coat becomes lighter and becomes almost white. Their red color helps them hide from predators in the grasslands. They have black stripes bordered by white stripes on the sides of their faces, from the corner of the eye to the nose.

This species is very similar to deer, hence it is also called small deer. Chinkara was declared the state animal of Rajasthan in the year 1981. The scientific name of Chinkara is Gazella Bennetti. It is considered a very shy creature.

Hunting chinkara is illegal in Rajasthan as it is the state animal. For this, strict laws have been made by the Rajasthan government. Along with this, Nahargarh Wildlife Sanctuary of the state has been kept in the list of protected sanctuaries for Chinkara.

Iran, Afghanistan, Pakistan and India are all home to the chinkara. Plains and hills, deserts, dry scrub and light forests are the places where they live. In India, they can be found in more than 80 protected areas.

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 .. बड़े भाई साहब ..

मानसरोवर-1.. बड़े भाई साहब

 बड़े भाई साहब - मुंशी प्रेमचंद | Bade Bhai Sahab - Munshi Premchand

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मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन केवल तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था जब मैने शुरू किया था; लेकिन तालीम जैसे महत्व के मामले में वह जल्दबाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भावना की बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने!

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 .. बड़े भाई साहब ..

मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल की थी, वह चौदह साल ‍के थे। उन्हें मेरी तंबीह और निगरानी का पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को कानून समझूँ।

वह स्वभाव से बड़े अघ्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षर में नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैने यह इबारत देखी- स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक- इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्टा की‍ कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ; लेकिन असफल रहा और उनसे पूछने का साहस न हुआ। वह नवीं जमात में थे, मैं पाँचवी में। उनकी रचनाओं को समझना मेरे लिए छोटा मुँह बड़ी बात थी।

मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका पाते ही होस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियाँ उछालता, कभी कागज की तितलियाँ उड़ाता, और कहीं कोई साथी ‍मिल गया तो पूछना ही क्या कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं, कभी फाटक पर सवार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं। लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता- 'कहाँ थे?' हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुँह से यह बात क्यों न निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि स्नेह और रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें।

'इस तरह अंग्रेजी पढ़ोगे, तो जिंदगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ़ न आयेगा। अंग्रेजी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले, नहीं, ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेजी कि विद्वान हो जाते। यहाँ रात-दिन आँखें फोड़नी पड़ती है और खून जलाना पड़ता है, तब कहीं यह विधा आती है। और आती क्या है, हाँ, कहने को आ जाती है। बड़े-बड़े विद्वान भी शुद्ध अंग्रेजी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। और मैं कहता हूँ, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूँ, तुम अपनी आँखों देखते हो, अगर नहीं देखते, जो यह तुम्हारी आँखों का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है। इतने मेले-तमाशे होते है, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज ही क्रिकेट और हाकी मैच होते हैं। मैं पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहता हूँ, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता हूँ फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कुद में वक्त, गँवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो-ही-तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हें इस तरह उम्र गँवानी है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रूपये क्यों बरबाद करते हो?'

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 .. बड़े भाई साहब ..

मैं यह लताड़ सुनकर आँसू बहाने लगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे? भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति-बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मत छूट जाती। इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने कि शक्ति मैं अपने में न पाता था और उस निराशा में जरा देर के लिए मैं सोचने लगता- क्यों न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमें हाथ डालकर क्यों अपनी जिंदगी खराब करूँ। मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था; लेकिन उतनी मेहनत ! मुझे तो चक्कर आ जाता था। लेकिन घंटे-दो घंटे बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढ़ूँगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शा बनाये, बिना कोई स्कीम तैयार किये काम कैसे शुरू करूँ? टाइम-टेबिल में, खेल-कूद की मद बिलकुल उड़ जाती। प्रात:काल उठना, छ: बजे मुँह-हाथ धो, नाश्ता कर पढ़ने बैठ जाना। छ: से आठ तक अंग्रेजी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, ‍फिर भोजन और स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घंटा आराम, चार से पाँच तक भूगोल, पाँच से छ: तक ग्रामर, आघा घंटा होस्टल के सामने टहलना, साढ़े छ: से सात तक अंग्रेजी कम्पोजीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिंदी, दस से ग्यारह तक विविध विषय, फिर विश्राम।

मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हल्के-हल्के झोंके, फुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वह दाँव-घात, बालीबाल की वह तेजी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जानलेवा टाइम- टेबिल, वह आँखफोड़ पुस्तकें किसी की याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मैं उनके साये से भागता, उनकी आँखों से दूर रहने कि चेष्टा करता। कमरे मे इस तरह दबे पाँव आता कि उन्हें खबर न हो। उनकी नजर मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर एक नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच में भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुडकियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता।

2

सालाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फेल हो गये, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और उनके बीच केवल दो साल का अंतर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आड़े हाथों लूँ- आपकी वह घोर तपस्या कहाँ गयी? मुझे देखिए, मजे से खेलता भी रहा और दरजे में अव्वल भी हूँ। लेकिन वह इतने दु:खी और उदास थे कि मुझे उनसे दिली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही लज्जास्पद जान पड़ा। हाँ, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्मसम्मान भी बढ़ा। भाई साहब का वह रोब मुझ पर न रहा। आजादी से खेल-कूद में शरीक होने लगा। दिल मजबूत था। अगर उन्होंने फिर मेरी फजीहत की, तो साफ कह दूँगा- आपने अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेलते-कूदते दरजे में अव्वल आ गया। जबान से यह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे रंग-ढंग से साफ जाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक अब मुझ पर नहीं है। भाई साहब ने इसे भाँप लिया- उनकी सहज बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्ली-डंडे की भेंट करके ठीक भोजन के समय लौटा, तो भाई साइब ने मानो तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े- देखता हूँ, इस साल पास हो गये और दरजे में अव्वल आ गये, तो तुम्हें दिमाग हो गया है; मगर भाईजान, घमंड तो बड़े-बड़े का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती, है, इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। उसके चरित्र से तुमने कौन-सा उपदेश लिया? या यों ही पढ़ गये? महज इम्त‍हान पास कर लेना कोई चीज नहीं, असल चीज है बुद्धि का विकास। जो कुछ पढ़ो, उसका अभिप्राय समझो। रावण भूमंडल का स्वामी था। ऐसे राजाओं को चक्रवर्ती कहते हैं। आजकल अंग्रेजों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा हुआ है, पर इन्हे चक्रवर्ती नहीं कह सकते। संसार में अनेकों राष्ट़्र अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार नहीं करते। बिल्कुल स्वाधीन हैं। रावण चक्रवर्ती राजा था। संसार के सभी महीप उसे कर देते थे। बड़े-बड़े देवता उसकी गुलामी करते थे। आग और पानी के देवता भी उसके दास थे; मगर उसका अंत क्या हुआ? घमंड ने उसका नाम-निशान तक मिटा दिया, कोई उसे एक चिल्लू पानी देनेवाला भी न बचा। आदमी जो कुकर्म चाहे करे; पर अभिमान न करे, इतराये नहीं। अभिमान किया और दीन-दुनिया से गया।

शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा। उसे यह अभिमान हुआ था कि ईश्वर का उससे बढ़कर सच्चा, भक्त कोई है ही नहीं। अंत में यह हुआ कि स्वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया। शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार किया था। भीख माँग-माँगकर मर गया। तुमने तो अभी केवल एक दरजा पास किया है और अभी से तुम्हारा सिर फिर‍ गया, तब तो तुम आगे बढ़ चुके। यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए, अंधे के हाथ बटेर लग गयी। मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं। कभी-कभी गुल्ली-डंडे में भी अंधा-चोट निशाना पड़ जाता है। उससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता। सफल खिलाड़ी वह है, जिसका कोई निशान खाली न जाय। मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दाँतो पसीना आ जायगा। जब अलजबरा और जामेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेगा! बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी ही गुजरे है। कौन-सा कांड किस हेनरी के समय हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवाँ लिखा और सब नंबर गायब! सफाचट। सिफर भी न मिलेगा, सिफर भी! हो किस ख्याल में! दरजनो तो जेम्स हुए हैं, दरजनो विलियम, कोड़ियों चार्ल्स! दिमाग चक्कर खाने लगता है। आँधी रोग हो जाता है। इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे। एक ही नाम के पीछे दोयम, सोयम, चहारुम, पंजुम लगाते चले गये। मुछसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता। और जामेट्री तो बस खुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नंबर कट गये। कोई इन निर्दयी मुमतहिनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या फर्क है और व्यर्थ की बात के लिए क्यों छात्रों का खून करते हो। दाल-भात-रोटी खायी या भात-दाल-रोटी खायी, इसमें क्या रखा है; मगर इन परीक्षको को क्या परवाह! वह तो वही देखते हैं, जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि लड़के अक्षर-अक्षर रट डालें। और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है और आखिर इन बे-सिर-पैर की बातों के पढ़ने से क्या फायदा?

इस रेखा पर वह लंब गिरा दो, तो आधार लंब से दुगुना होगा। पूछिए, इससे प्रयोजन? दुगुना नहीं, चौगुना हो जाय, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद करनी पड़ेगी। कह दिया- 'समय की पाबंदी' पर एक निबंध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। अब आप कापी सामने खोले, कलम हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए। कौन नहीं जानता कि समय की पाबंदी बहुत अच्छी बात है। इससे आदमी के जीवन में संयम आ जाता है, दूसरों का उस पर स्नेह होने लगता है और उसके कारोबार में उन्नति होती है; लेकिन इस जरा-सी बात पर चार पन्ने कैसे लिखें? जो बात एक वाक्य में कही जा सके, उसे चार पन्ने में लिखने की जरूरत? मैं तो इसे हिमाकत समझता हूँ। यह तो समय की किफायत नहीं, बल्कि उसका दुरूपयोग है कि व्यर्थ में किसी बात को ठूँस दिया। हम चाहते हैं, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले। मगर नहीं, आपको चार पन्ने रंगने पड़ेंगे, चाहे जैसे लिखिए। और पन्ने, भी पूरे फुलस्केप आकार के। यह छात्रों पर अत्याचार नहीं तो और क्या है? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, संक्षेप में लिखो। समय की पाबंदी पर संक्षेप में एक निबंध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। ठीक! संक्षेप में चार पन्ने हुए, नहीं शायद सौ-दो सौ पन्ने लिखवाते। तेज भी दौड़िये और धीरे-धीरे भी। है उल्टी बात या नहीं? बालक भी इतनी-सी बात समझ सकता है, लेकिन इन अध्यापकों को इतनी तमीज भी नहीं। उस पर दावा है कि हम अध्यापक है। मेरे दरजे में आओगे लाला, तो ये सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस दरजे में अव्वल आ गये हो, तो जमीन पर पाँव नहीं रखते। इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूँ, संसार का मुझे तुमसे ज्यादा अनुभव है। जो कुछ कहता हूँ, उसे ‍ गिरह बाँधिए नहीं पछताइयेगा।

स्कूल का समय निकट था, नहीं ईश्वर जाने, यह उपदेश-माला कब समाप्त होती। भोजन आज मुझे निःस्वाद-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्कार हो रहा है, तो फेल हो जाने पर तो शायद प्राण ही ले लिए जायँ। भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खींचा था; उसने मुझे भयभीत कर दिया। कैसे स्कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्जुब है; लेकिन इतने तिरस्कार पर भी पुस्तकों में मेरी अरुचि ज्यों -की-त्यों बनी रही। खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी था, मगर बहुत कम। बस, इतना कि रोज का टास्क पूरा हो जाय और दरजे में जलील न होना पड़े। अपने ऊपर जो विश्वास पैदा हुआ था, वह फिर लुप्त‍ हो गया और ‍‍फिर चोरों का-सा जीवन कटने लगा।

3

फिर सालाना इम्तहान हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं ‍‍‍‍‍‍फि‍र पास हुआ और भाई साहब फिर ‍फेल हो गये। मैंने बहुत मेहनत न की पर न जाने कैसे दरजे में अव्वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गये थे; दस बजे रात तक इधर, चार बजे भोर से उभर, छ: से साढ़े नौ तक स्कूल जाने के पहले। मुद्रा कांतिहीन हो गयी थी, मगर बेचारे फेल हो गये। मुझे उन पर दया आती थी। नतीजा सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास होने वाली खुशी आधी हो गयी। मैं भी फेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दु:ख न होता, लेकिन विधि की बात कौन टाले।

मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अंतर और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई कि कहीं भाई साहब एक साल और फेल हो जायँ, तो मैं उनके बराबर हो जाऊँ, ‍फिर वह किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेंगे, लेकिन मैंने इस कमीने विचार को दिल‍ से बलपूर्वक निकाल डाला। आखिर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डाँटते हैं। मुझे उस वक्त अप्रिय लगता है अवश्य, मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर हो कि मैं दनादन पास होता जाता हूँ और इतने अच्छे नंबरों से।

अब भाई साहब बहुत कुछ नर्म पड़ गये थे। कई बार मुझे डाँटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धीरज से काम लिया। शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डाँटने का अधिकार उन्हें नहीं रहा; या रहा तो बहुत कम। मेरी स्वच्छंदता भी बढ़ी। मैं उनकि सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं तो पास ही हो जाऊँगा, पढ़ूँ या न पढ़ूँ मेरी तकदीर बलवान है, इसलिए भाई साहब के डर से जो थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बंद हुआ। मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाजी की ही भेंट होता था, फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था, और उनकी नजर बचाकर कनकौए उड़ाता था। माँझा देना, कन्ने बाँधना, पतंग टूर्नामेंट की तैयारियाँ आदि समस्याथएँ अब गुप्तौ रूप से हल की जाती थीं। भाई साहब को यह संदेह न करने देना चाहता था कि उनका सम्मान और लिहाज मेरी नजरो से कम हो गया है।

एक दिन संध्या समय होस्टल से दूर मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। आँखें आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला जा रहा था, मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक्त मन से नये संस्कार ग्रहण करने जा रही हो। बालकों की एक पूरी सेना लग गयी; और झाड़दार बाँस लिये उनका स्वा‍गत करने को दौड़ी आ रही थी। किसी को अपने आगे-पीछे की खबर न थी। सभी मानो उस पतंग के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहाँ सब कुछ समतल है, न मोटरकारें हैं, न ट्राम, न गाडियाँ।

सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड़ हो गयी, जो शायद बाजार से लौट रहे थे। उन्होौने वहीं मेरा हाथ पकड़ लिया और उग्र भाव से बोले- इन बाजारी लौंडो के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हेंन शर्म नहीं आती? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गये हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याल करना चाहिए। एक जमाना था कि कि लोग आठवाँ दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने ही मिडलचियों को जानता हूँ, जो आज अव्वाल दरजे के डिप्टी मजिस्ट्रेट या सुपरिटेंडेंट है। कितने ही आठवीं जमात वाले हमारे लीडर और समाचार-पत्रों के संपादक है। बड़े-बड़े विद्वान उनकी मातहती में काम करते है और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाजारी लौंडों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो। मुझे तुम्हारी इस कमअकली पर दु:ख होता है। तुम जहीन हो, इसमें शक नहीं; लेकिन वह जेहन किस काम का, जो हमारे आत्मलगौरव की हत्या कर डाले? तुम अपने दिन में समझते होंगे, मैं भाई साहब से महज एक दर्जा नीचे हूँ और अब उन्हें मुझको कुछ कहने का हक नहीं है; लेकिन यह तुम्हारी गलती है। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और चाहे आज तुम मेरी ही जमात में आ जाओ- और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्संदेह अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद तुम मुझसे आगे निकल जाओ- लेकिन मुझमें और तुममें जो पाँच साल का अंतर है, उसे तुम क्यान, खुदा भी नहीं मिटा सकता। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और हमेशा रहूँगा। मुझे दुनिया का और जिंदगी का जो तजरबा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे तुम एम. ए., डी. फिल. और डी. लिट्‍. ही क्यों न हो जाओ। समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती है। हमारी अम्माँ ने कोई दरजा पास नहीं किया, और दादा भी शायद पाँचवी-छठी जमाअत के आगे नहीं गये, लेकिन हम दोनों चाहे सारी दुनिया की विद्या पढ़ ले, अम्माँ और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा। केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मभदाता है, बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का हमसे ज्यादा तजरबा है और रहेगा। अमेरिका में किस तरह कि राज्य -व्यिवस्थां है और आठवें हेनरी ने कितने विवाह किये और आकाश में कितने नक्षत्र है, यह बाते चाहे उन्हें न मालूम हो, लेकिन हजारों ऐसी बातें हैं, जिनका ज्ञान उन्हें हमसे और तुमसे ज्यादा है।

दैव न करे, आज मैं बीमार हो जाऊँ, तो तुम्हारे हाथ-पाँव फूल जायँगे। दादा को तार देने के सिवा तुम्हें और कुछ न सूझेगा; लेकिन तुम्हारी जगह पर दादा हों, तो किसी को तार न दें, न घबरायें, न बदहवास हों। पहले खुद मरज पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डाक्टर को बुलायेंगे। बीमारी तो खैर बड़ी चीज है। हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने भर का खर्च महीने भर कैसे चले। जो कुछ दादा भेजते हैं, उसे हम बीस-बाईस तक खर्च कर डालते हैं और पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते हैं। नाश्ता बंद हो जाता है, धोबी और नाई से मुँह चुराने लगते हैं; लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर रहे हैं, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज्जत और नेकनामी के साथ निभाया है और एक कुटुंब का पालन किया है, जिसमें सब मिलाकर नौ आदमी थे। अपने हेडमास्ट र साहब ही को देखो। एम.ए. हैं कि नहीं; और यहाँ के एम.ए. नहीं, ऑक्सफोर्ड के। एक हजार रूपये पाते हैं, लेकिन उनके घर इंतजाम कौन करता है? उनकी बूढी माँ। हेडमास्टर साहब की डिग्री यहाँ आकर बेकार हो गयी। पहले खुद घर का इंतजाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। करजदार रहते थे। जब से उनकी माताजी ने प्रबंध अपने हाथ में ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गयी हैं। तो भाईजान, यह गरूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गये हो और अब स्वतंत्र हो। मेरे देखते तुम बेराह नहीं चल पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे, तो मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूँ। मैं जानता हूँ, तुम्हें मेरी बातें जहर लग रही हैं...

मैं उनकी इस नयी युक्ति से नत-मस्तक हो गया। मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। मैंने सजल आँखों से कहा- हरगिज नहीं। आप जो कुछ फरमा रहे हैं, वह बिलकुल सच है और आपको कहने का अधिकार है।

भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले- मैं कनकौए उड़ाने को मना नहीं करता। मेरा जी भी ललचाता है, लेकिन क्या करूँ, खुद बेराह चलूँ तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ? यह कर्तव्य भी तो मेरे सिर पर है!

संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुजरा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाई साहब लंबे हैं ही, उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होस्टल की तरफ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था।

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस (International Majdoor diwas || International Labour Day)

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस

प्रतिवर्ष 1 मई को मजदूरों और श्रमिकों को सम्मान देने के उद्देश्य से दुनियाभर में मजदूर दिवस मनाया जाता है।  इसे कामगार दिवस, लेबर डे, मई दिवस, श्रमिक दिवस आदि नामों से भी जाना जाता है। किसी भी देश के विकास में वहां के मजदूर का बहुत बड़ा योगदान होता है, ऐसे में यह दिवस उनके हक की लड़ाई उनके प्रति सम्मान भाव और उनके अधिकारों के आवाज को बुलंद करने का प्रतीक है। 

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस (International Majdoor diwas || International Labour Day)

इस दिवस की शुरुआत अमेरिका में 135 साल पहले हुई थी। 1886 से पहले अमेरिका में आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इस आंदोलन में अमेरिका के मजदूर सड़कों पर आ गए। अपने हक के लिए मजदूर हड़ताल पर बैठ गए। इस आंदोलन का कारण मजदूरों की कार्य अवधि थी। उस दौरान मजदूर एक दिन में 15-15 घंटे काम करते थे। आंदोलन के दौरान मजदूरों पर पुलिस ने गोली चला दी। इस दौरान कई मजदूरों की जान चली गई। सैकड़ों श्रमिक घायल हो गए। तब अमेरिका के हजारों मजदूरों ने अपने काम की स्थितियां बेहतर करने के लिए हड़ताल शुरू की थी। वे चाहते थे कि उनके काम करने का समय एक दिन में 15 घंटे से घटाकर 8 घंटे किया जाए। इसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। अंततः उन्हें सफलता मिली और तब से 1 मई का दिन मजूदर क्रांति (Labour revolution) की सफलता का ही नहीं रहा, अपितु दुनिया भर में मजदूरों के हितों और उनके सम्मान के लिए  मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। 

अमेरिका में मजदूर दिवस मनाने का प्रस्ताव 1 मई 1889 को लागू हुआ लेकिन भारत में इस दिन को मनाने की शुरुआत लगभग 34 साल बाद हुई। भारत में भी मजदूर अत्याचार और शोषण के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। मजदूरों का नेतृत्व वामपंथी कर रहे थे। उनके आंदोलन को देखते हुए 1 मई 1923 में पहली बार चेन्नई में मजदूर दिवस मनाया गया। लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान की अध्यक्षता में मजदूर दिवस मनाने की घोषणा की गई। कई संगठन और सोशल पार्टी ने इस फैसले का समर्थन किया।

हर बार मजदूर दिवस की एक थीम होती है, जिसके आधार पर इन दिन को मनाया जाता है। इस बार 2024 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) द्वारा अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस 2024 की आधिकारिक थीम की घोषणा नहीं की गई है। विषय चाहे जो भी हो, अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस श्रमिकों के योगदान को पहचानने, उनके अधिकारों की वकालत करने और सभी के लिए काम के एक निष्पक्ष और अधिक टिकाऊ भविष्य को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच बना हुआ है।

English Translate

International Labor Day

Every year on May 1, Labor Day is celebrated all over the world to honor laborers and workers. It is also known by the names Kamgar Diwas, Labor Day, May Day, Labor Day etc. Workers have a huge contribution in the development of any country, hence this day is a symbol of fighting for their rights, showing respect for them and raising the voice of their rights.

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस (International Majdoor diwas || International Labour Day)

This day started in America 135 years ago. The movement started in America before 1886. In this movement, American workers came to the streets. The workers went on strike for their rights. The reason for this movement was the working hours of the workers. During that time, workers used to work 15-15 hours a day. During the agitation the police opened fire on the workers. During this period many workers lost their lives. Hundreds of workers were injured. Then thousands of American workers started a strike to improve their working conditions. They wanted their working time to be reduced from 15 hours to 8 hours a day. For this he had to struggle a lot. Ultimately he got success and since then May 1st was not only the day of success of Labor Revolution, but also started being celebrated as Labor Day all over the world for the interests and respect of the workers.

In America, the proposal to celebrate Labor Day came into effect on May 1, 1889, but in India, celebrating this day started after about 34 years. In India too, workers were raising their voice against atrocities and exploitation. The workers were being led by the leftists. In view of his movement, Labor Day was celebrated for the first time in Chennai on 1 May 1923. It was announced to celebrate Labor Day under the chairmanship of Labor Kisan Party of Hindustan. Many organizations and social parties supported this decision.

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस (International Majdoor diwas || International Labour Day)

Every time Labor Day has a theme, based on which this day is celebrated. This time in 2024, the official theme of International Labor Day 2024 has not been announced by the International Labor Organization (ILO). Whatever the theme, International Labor Day remains an important platform to recognize the contributions of workers, advocate for their rights and promote a fairer and more sustainable future of work for all.