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हलधर नाग || Haldhar Nag

हलधर नाग

आज एक ऐसे कवि और लेखक की चर्चा करते हैं, जिन्हें 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था - हलधर नाग

हलधर नाग, जिसके नाम के आगे कभी श्री नहीं लगाया गया, 3 जोड़ी कपड़े, एक टूटी रबड़ की चप्पल, एक बिन कमानी का चश्मा और जमा पूंजी 732/- रुपया। 

ये हैं ओड़िशा के हलधर नाग ।

हलधर नाग || Haldhar Nag ||

अब सोचिए कि अगर कोई तीसरी कक्षा के बाद स्कूल छोड़ दे, लेकिन उसकी कविताएँ पाँच विद्वानों के पीएचडी शोध का विषय बन जाएं, बस यही हैं, हलधर नाग, जिन्हें 'लोक कवि रत्न' कहा जाता है। इन्होंने कोसली भाषा में कविताएँ लिखकर साहित्य की दुनिया में इतिहास रच दिया। उनके पास किताबें नहीं, लेकिन उनकी कविताओं में छिपा ज्ञान किसी ग्रंथ से कम नहीं। 

हलधर नाग की पहली कविता 1990 में प्रकाशित हुई, और तब से उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। समाज, प्रकृति, और पौराणिक कथाओं पर लिखने वाले इस अद्भुत कवि ने कोसली भाषा को नई ऊंचाई दी। उनकी कविताएँ न सिर्फ जनता के दिलों को छूती हैं, बल्कि उन्हें साहित्य का एक अनमोल खजाना बना चुकी हैं। उनकी रचनाएँ इतनी प्रभावशाली हैं कि उन्हें 2016 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया। 

उनके शब्दों में, "हर कोई कवि है, पर उसे आकार देना कला है।" यह वाक्य उनकी सरलता और गहराई को बखूबी दर्शाता है। बिना किताबों की मदद के, हलधर नाग ने अपनी कविताओं से समाज को जोड़ने और प्रेरित करने का जो काम किया, वह हर किसी के लिए प्रेरणा है। 

मात्र तीसरी पास, पद्म श्री हलधर नाग की कोसली कविताएँ बनी पीएचडी अनुसंधान का विषय

हलधर का जन्म 1950 में ओडिशा के बरगढ़ में एक गरीब परिवार में हुआ था। जब वे 10 वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्यु के साथ हलधर का संघर्ष शुरू हो गया। तब उन्हें मजबूरी में तीसरी कक्षा के बाद स्कूल छोड़ना पड़ा। घर की अत्यन्त विपन्न स्थिति के कारण मिठाई की दुकान में बर्तन धोने पड़े। दो साल बाद गाँव के सरपंच ने हलधर को पास ही के एक स्कूल में खाना पकाने के लिए नियुक्त कर दिया, जहाँ उन्होंने 16 वर्ष तक काम किया। जब उन्हें लगा कि उनके गाँव में बहुत सारे विद्यालय खुल रहे हैं, तो उन्होंने एक बैंक से सम्पर्क किया और स्कूली बच्चों के लिए स्टेशनरी और खाने-पीने की एक छोटी सी दुकान शुरू करने के लिए 1000 रुपये का ऋण लिया। यह दुकान स्कूल के सामने थी, जहाँ वो छुट्टी के समय बैठते थे। 

कुछ समय पश्चात हलधर नाग ने स्थानीय उड़िया भाषा में ''राम-शबरी'' जैसे कुछ धार्मिक प्रसंगों पर लिखकर लोगों को सुनाना शुरू किया। उन्होंने भावनाओं से ओत प्रोत कवितायें लिखी, शुरुवाती दौर में जिन्हें नाग जबरन लोगों के बीच प्रस्तुत करते थे। धीरे - धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। 

1990 में हलधर ने पहली कविता "धोधो बारगाजी" (अर्थ : 'पुराना बरगद') नाम से लिखी, जिसे एक स्थानीय पत्रिका ने छापा और उसके बाद हलधर की सभी कविताओं को पत्रिका में जगह मिलती रही और वे आस-पास के गाँवों से भी कविता सुनाने के लिए बुलाए जाने लगे। लोगों को हलधर की कविताएँ इतनी पसन्द आईं कि वे उन्हें "लोक कविरत्न" के नाम से बुलाने लगे।

नाग पर PHD कर रहे रिसर्चर्स

अब उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ चुकी थी कि सन 2016 में हलधर नाग को भारत के राष्ट्रपति के द्वारा साहित्य के लिये पद्मश्री प्रदान किया। इतना ही नहीं अब 5 रिसर्चर्स हलधर नाग के साहित्य पर PHd कर रहे हैं, जबकि हलधर खुद केवल तीसरी कक्षा तक ही पढ़े हैं। हलधर नाग को पदम्श्री से सम्मानित करने और उनपर रिसर्चर्स के PHD करने पर कहा गया है कि

 ''आप किताबों में प्रकृति को चुनते है, 
पद्मश्री ने प्रकृति से किताबें चुनी हैं।''
जानिये पद्मश्री कवि हलधर नाग के बारे में

2021 में सोशल मिडिया पर एक पोस्ट वायरल हुई थी "साहिब - दिल्ही आने तक के पैसे नहीं हैं, कृपया पुरुस्कार डाक से भिजवा दो।"

डा. हलधर नाग को लेकर इंटरनेट मीडिया में एक गलत पोस्ट वायरल हुई थी। इस पोस्ट को लेकर नाग ने कड़ी नाराजगी जताते हुए कहा था कि उनके नाम पर किया गया पोस्ट पूरी तरह झूठा और मनगढ़ंत है। ऐसे पोस्ट से वे काफी दुखी और आहत हैं। वायरल पोस्ट में कहा गया है कि पद्मश्री पुरस्कार लेने के लिए हलधर नाग के पास दिल्ली जाने के पैसे नहीं हैं और इस संबंध में सरकार को पत्र लिखकर नाग ने आग्रह किया है कि उनका पुरस्कार डाक से भेज दिया जाय।

नाग ने कहा कि शरारतपूर्ण तरीके से यह झूठी जानकारी वायरल की गई है। सच तो यह है कि उन्हें इस वर्ष नहीं बल्कि 2016 में पद्मश्री का पुरस्कार मिला था। 2016 में भी जब पद्मश्री पुरस्कार लेने के लिए उन्हें दिल्ली बुलाया गया था तब उन्होंने सरकार को अपनी गरीबी का हवाला देते हुए कोई पत्र नहीं लिखा था और न ही पदमश्री पुरस्कार को डाक से भेज देने की बात कही थी। लोककवि डा. हलधर नाग ने कहा कि पद्मश्री पुरस्कार से पहले से ही ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की ओर से उन्हें कलाकार भत्ता दिया जा रहा था। ओडिशा सरकार ने उन्हें रहने के लिए जमीन भी दी है, जिसपर बरगढ़ के एक डाक्टर ने अपने खर्च से मकान भी बनवा दिया है। वर्तमान में उन्हें सरकार की ओर से साढ़े 18 हजार रुपये का मासिक भत्ता भी मिलता है।

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-2 ...वेश्या

मानसरोवर-2 ...वेश्या

वेश्या - मुंशी प्रेमचंद | Vaishya by Munshi Premchand

छः महीने बाद कलकत्ते से घर पर आने पर दयाकृष्ण ने पहला काम जो किया, वह अपने प्रिय मित्र सिंगारसिंह से मातमपुरसी करने जाना था। सिंगार के पिता का आज से तीन महीने हुए देहान्त हो गया था। दयाकृष्ण बहुत व्यस्त रहने के कारण उस समय न आ सका था। मातमपुरसी की रस्म पत्र लिखकर अदा कर दी थी; लेकिन ऐसा एक दिन भी नहीं बींता कि सिंगार की याद उसे न आयी हो। अभी वह दो-चार महीने और कलकत्ते रहना चाहता था; क्योंकि जो कारोबार जारी किया था, उसे संगठित रूप में लाने के लिए उसका वहाँ रहना जरूरी था और उसकी गैरहाजरी से भी हानि की शंका थी। किन्तु जब सिंगार की स्त्री लीला का परवाना आ पहुँचा तो वह अपने को न रोक सका। लीला ने साफ-साफ तो कुछ न लिखा था, केवल उसे तुरन्त बुलाया था; लेकिन दयाकृष्ण को पत्र के शब्दों से कुछ ऐसा अनुमान हुआ कि वहाँ की परिस्थिति चिन्ताजनक हैं और इस अवसर पर उसका पहुँचना जरूरी हैं;
मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-2 ...वेश्या

 सिंगार सम्पन्न बाप का बेटा था, बड़ा ही अल्हड़, बड़ा ही जिद्दी, बड़ी ही आरामपसन्द। ढृढता या लगन उसे छू भी नहीं गयी थी। उसकी माँ उसके बचपन में मर चुकी थी और बाप ने उसके पालने में नियंत्रण की अपेक्षा स्नेह से काम लिया था। और कभी दुनिया की हवा नहीं लगने दी। उद्योग भी कोई वस्तु हैं, यह वह न जानता था। उसके महज इशारे पर हर चीज सामने आ जाती थी। वह जवान बालक था, जिसमें न अपने विचार थे न सिद्धान्त। कोई भी आदमी उसे बड़ी आसानी से अपने कपट-बाणों का निशाना बना सकता था। मुख्तारों और मुनीमों के दाँव-पेंज समझना उसके लिए लोहे के चने चबाना था। उसे किसी ऐसे समझदार और हितैषी मित्र की जरूरत थी, जो स्वार्थियों के हथकड़ों से उसकी रक्षा करता रहे। दयकृष्ण पर इस घर के बड़े-बड़े एहसान थे। उस दोस्ती का हक अदा करने के लिए उसका आना आवश्यक था।

मुँह -हाथ धोकर सिंगारसिंह के घर पर ही भोजन का इरादा करके दयाकृष्ण उससे मिलने चला। नौ बजे गये, हवा और धूप की गर्मी आने लगी थी।

सिंगारसिंह उसकी खबर पाते ही बाहर निकल आया। दयाकृष्ण उसे देखकर चौंक पड़ा। लम्बे-लम्बे केशों की जगह उसके सिर पर घुघराले बाल थे ( वह सिक्ख था), आड़ी माँग निकली हुई। आँखों में आँसु न थे, न शोक का कोई चिह्न, चेहरा कुछ जर्द अवश्य था पर उस पर विलासिता की मुसकराहट थी। वह एक महीन रेशमी कमीज और मखमली जूते पहनें हुए था; मानो किसी महफिल से उठ कर आ रहा हो। संवेदना के शब्द दयाकृष्ण के ओठों पर आकर निराश लौट गये। वहाँ बधाई के शब्द ज्यादा अनुकूल प्रतीत हो रहे थे।

सिंगारसिंह लपककर उसके गले लिपट गया और बोला- तुम खूब आये यार, इधर तुम्हारी बहुत याद आ रही थी; मगर पहले यह बतला दो, वहाँ का कारोबार बन्द करके आये या नहीं? अगर वह झंझट छोड़ आये हो, तो पहले उसे तिलांजलि दे आओ। अब आप यहाँ से जाने न पायेंगे। मैने तो भाई, अपना कैड़ा बदल दिया। बताओ, कब तक तपस्या करता। अब तो आये-दिन जलसे होते हैं। मैने सोचा- यार दुनिया में आये, तो कुछ दिन सैर-सपाटे का आनन्द भी उठा लो। नहीं तो एक दिन यों ही हाथ मलते चले जायँगे। कुछ भी साथ न जायगा।

दयाकृष्ण विस्मय में उसके मुँह की ओर ताकते लगा। यह वहीं सिंगार है या कोई और। बाप के मरते ही इतनी तबदीली।

दोनों मित्र कमरे में गये औऱ सोफे पर बैठे। सरदार साहब के सामने इस कमरे में फर्श और मसनद थी, आलमारी थी। अब दर्जनों गद्देदार सोफे और कुर्सियाँ है, कालीन हैं का फर्श हैं, शामी परदे हैं, बड़े-बड़े आइने हैं। सरदार साहब को संचय की धुन थी, सिंगार को उड़ाने की धुन हैं।

सिंगार ने एक सिगार जलाकर कहा- तेरी बहुत याद आती थी यार, तेरी जान का कसम।

दयाकृष्ण ने शिकवा किया- क्यो झूठ बोलते हो भाई, महीनों गुजर जाते थे, एक खत लिखने की तो आपको फुर्सत न मिलती थी, मेरी याद आती थी।

सिंगार ने अल्हड़ बस, इसी बात पर मेरी सेहत का एक जाम पीयो। अरे यार, इस जिन्दगी में और क्या रखा हैं? हँसी-खेल में जो वक़्त कट जाय, उसे गनीमत समझो। मैंने तो यह तपस्या त्याग दी। अब तो आये दिन जलसे होते हैं, कभी दोस्तों की दावत है, कभी दरिया की सैर, कभी गाना-बजाना, कभी शराब के दौर। मैने कहा- लाओ कुछ दिन वह बहार भी देख लूँ। हसरत क्यों दिल में रह जाय। आदमी संसार में कुछ भोगने के लिए आता हैं, यही जिन्दगी के मजे हैं। जिसने ये मजे नही चक्खे, उसकी जीना वृथा हैं। बस, दोस्तों की मजलिस हो, बगल में माशूक हो और हाथ में प्याला हो, इसके सिवा मुझे और कुछ न चाहिए।

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उसने आलमारी खोलकर एक बोतल निकाली और दो गिलासों में शराब ढालकर बोला- यह मेरी सेहत का जाम हैं। इन्कार न करना। मैं तुम्हारी सेहत का जाम पीता हूँ।

दयाकृष्ण को कभी शराब पीने का अवसर न मिला था। वह इतना धर्मात्मा तो न था कि शराब पीना पाप समझता, हाँ, उसे दुर्व्यसन समझता था। गन्ध ही से उसकी जी मालिश करने लगा। उसे भय हुआ कि वह शराब की घूँट चाहे मुँह में ले ले, उसे कंठ के नीचे नही उतार सकता। उसने प्याले को शिष्टाचार के तौर पर हाथ पर ले लिया, फिर उसे ज्यों-का-त्यों मेंज पर रखकर बोला- तुम जानते हो, मैने कभी नहीं पी। इस समय मुझे क्षमा करो। दस-पाँच दिन में यह फन भी सीख जाऊँगा, मगर यह तो बताओ, अपना कारोबार भी कुछ देखते हो, या इसी में पड़े रहते हो।

सिंगार ने अरुचि से मुँह बनाकर कहा- ओह, क्या जिक्र तुमने छेड़ दिया, यार? कारोबार के पीछे इस छोटी-सी जिन्दगी को तबाह नहीं कर सकता। न कोई साथ लाया हैं, न साथ ले जायगा। पापा ने मर-मरकर धन संचय किया। क्या हाथ लगा? पचास तक पहुँचते-पहुँचते चल बसे। उनकी आत्मा अब भी संसार के सुखों के लिए तरस रही होगी। धन छोड़कर मरने से फाकेमस्त रहना कहीं अच्छा हैं। धन की चिन्ता तो नहीं सताती, पर यह हाय-हाय तो नहीं होती कि मेरे बाद क्या होगा। तुमने गिलास मेज पर रख दिया। जरा पीओ, आँखें खुल जायँगी, दिल हरा हो जायगा। और लोग सोडा और बरफ मिलाते हैं, मैं तो खालिस पीता हूँ। इच्छा हो, तो तुम्हारे लिए बरफ मँगाऊ?

दयाकृष्ण ने फिर क्षमा माँगी; मगर सिंगार गिलास-पर-गिलास पीता गया। उसकी आँखें लाल-लाल निकल आयीं, ऊल-जलूल बकने लगा, खूब डींगे मारी, फिर बेसुरे राग में एक बाजारू गीत गाने लगा। अन्त में उसी कुर्सी पर पड़ा-पड़ा बेसुध हो गया।

सहसा पीछे का परदा हटा और लीला ने उसे इशारे से बुलाया। दयाकृष्ण की धमनियों में शतगुण वेग से रक्त दौड़ने लगा। उसकी संकोचमय, भीरू प्रकृति भीतर से जितनी रूपासक्त थी, बार से उतनी ही विरक्त। सुंदरियों के सम्मुख आकर वह स्वयं अवाक् हो जाता था, उसके कपोलों पर लज्जा की लाली दौड़ जाती थी और आँखें झुक जाती थी, लेकिन मन उनके चरणों पर लोटकर अपने- आपको समर्पित कर देने के लिए विकल हो जाता था। मित्रगण उसे बूढ़ा बाबा कहा करते थे। स्त्रियाँ उसे अरसिक समझकर उससे उदासीन रहती थी। किसी युवती के साथ लंका तक रेल में एकान्त-यात्रा करके भी वह उससे एक शब्द भी बोलने का साहस न करता। हाँ, युवती स्वयं उसे छेडती, तो वह अपने प्राण तक उसकी भेंट कर देता। उसके मन इस संकोचमय, अवरूद्ध जीवन में लीला ही एक युवती थी, जिसने उसके मन को समझा था और उससे सवाक सहृदयता का व्यवहार किया था। तभी से दयाकृष्ण मन से उसका उपासक हो गया था। उसके अनुभवशून्य हृदय में लीला नारी-जाति का सबसे सुन्दर आर्दश थी। उसकी प्यासी आत्मा को शर्बत या लेमनेड की उतनी इच्छा न थी, जिनता ठंडे, मीठे पानी की। लीला में रूप हैं, लावंय हैं, सुकुमारता हैं, इन बातों की ओर उसका ध्यान न था। उससे ज्यादा रूपवती, लावंयमयी और सुकुमार युवतियाँ उसने पार्कों में देखी थी। लीला में सहृदयता हैं, विचार हैं, दया हैं, इन्हीं तत्वों की ओर उसका आकर्षण था। उसकी रसिकता में आत्म-समर्पण के सिवा और कोई भाव न था। लीला के किसी आदेश का पालन करना उसकी सबसे बड़ी कामना थी, उसकी आत्मा की तृप्ति के लिए इतना काफी था। उसने काँपते हाथों से परदा उठाया और अन्दर जाकर खड़ा हो गया और विस्मय भरी आँखों से उसे देखने लगा। उसने लीला को यहाँ न देखा होता, तो पहचान भी न सकता। वह रूप, यौवन और विकास की देवी इस तरह मुरझा गयी थी, जैसे किसी ने उसके प्राणों को चूमकर निकाल लिया हो। करुण-स्वर में बोला- यह तुम्हारा क्या हाल हैं, लीला? बीमार हो क्या? मुझे सूचना तक न दी।

लीला मुसकराकर बोली- तुमसे मतलब? मैं बीमार हूँ या अच्छी हूँ, तुम्हारी बला से! तुम तो अपने सैर-सपाटे करते रहे। छः महीने के बाद जब आपको याद आयी हैं, तो पूछते हो बीमार हो? मैं उस रोग से ग्रस्त हूँ, जो प्राण लेकर ही छोड़ता हैं। तुमने इन महाशय की हालत देखी? उनका यह रंग देखकर मेरे दिल पर क्या गुजरती हैं, यह क्या मैं अपने मुँह से कहूँ तभी समझोगे? मैं अब इस घर में जबरदस्ती पड़ी हूँ और बेहयाई से जीती हूँ । किसी को मेरी चाह या चिन्ता नही हैं। पापा क्या मरे, मेरा सोहाग ही उठ गया। कुछ समझाती हूँ, तो बेवकूफ बनायी जाती हूँ । रात-रात भर न जाने कहाँ गायब रहते हैं। जब देखो, नशे में मस्त, हफ्तों घर में नहीं आते कि दो बातें कर लूँ; अगर इनके यही ढंग रहे, तो साल-दो-साल में रोटियों के मुहताज हो जायेंगे।
सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्र

दया ने पूछा- यह लत इन्हें कैसे पड़ गयी? ये बातें तो इनमें न थी।

लीला ने व्यथित स्वर में कहा- रुपये की बलिहारी है और क्या! इसीलिए तो बूढ़े मर-मरके कमाते हैं और मरने के बाद लड़को के लिए छोड़ जाते हैं। अपने मन में समझते होंगे, हम लड़को के लिए बैठने का ठिकाना किये जाते हैं। मैं कहती हूँ, तुम उनके सर्वनाश का सामान किये जाते हो, उनके लिए जहर बोये जाते हो।

पापा ने लाखों रुपये की सम्पत्ति न छोड़ी होती, तो आज यह महाशय किसी काम मे लगे होते, कुछ तो घर की चिन्ता होती, कुछ जिम्मेदारी होती; नहीं तो बैंक से रुपयें निकाले और उड़ाये । अगर मुझे विश्वास होता कि सम्पत्ति समाप्त करके यह सीधे मार्ग पर आ जायँगे, तो मुझे जरा भी दु:ख न होता; पर मुझे तो यह भय है कि ऐसे लोग फिर किसी काम के नहीं रहते। या तो जेलखाने में मरते हैं या अनाथालय में। आपकी एक वेश्या से आशनाई हैं। माधुरी नाम हैं और वह इन्हें उल्टे छूरे से मूँड़ रही हैं, जैसा उसका धर्म हैं। आपको यह खब्त हो गया कि वह मुझ पर जान देती हैं। उससे विवाह का प्रस्ताव किया जा चुका हैं। मालूम नहीं, उसने क्या जवाब दिया। कई बार जी में आया कि जब किसी से कोई नाता ही नहीं हैं तो अपने घर चली जाऊँ; लेकिन डरती हूँ कि तब तो यह और भी स्वतंत्र हो जायँगे। मुझे किसी पर विश्वास हैं, तो वह तुम हो। इसीलिए तुम्हे बुलाया था कि शायद तुम्हारे समझाने-बुझाने का कुछ असर हो। अगर तुम भी असफल हुए, तो मैं एक क्षण यहाँ न रहूँगी। भोजन तैयार हैं, चलो खा लो।

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दयाकृष्ण ने सिंगारसिंह की ओर संकेत करके कहा- और यह?

‘यह तो अब कहीं दो-तीन बजे चेतेंगे। ’

‘बुरा न मानेंगे। ’

‘मैं अब इन बातों की परवाह नहीं करती। मैंने तो निश्चय कर लिया हैं कि अगर मुझे कभी आँखें दिखायी, तो मैं इन्हें मजा चखा दूँगी। मेरे पिताजी फौज में सूबेदार मेजर हैं। मेरी देह में उनका रक्त हैं।’

लीला की मुद्रा उत्तेजित हो गयी। विद्रोह की वह आग, जो महीनों से पड़ी सुलग रही था, प्रचंड हो उठी।

उसने उसी लहजे में कहा- मेरी इस घर में इतनी साँसत हुई हैं, इतना अपमान हुआ हैं और हो रहा हैं कि मैं उसका किसी तरह भी प्रतिकार करके आत्मग्लानि का अनुभव न करूँगी। मैंने पापा से अपना हाल छिपा रखा हैं। आज लिख दूँ, तो इनकी सारी मशीखत उतर जाय। नारी होने का दंड भोग रही हूँ लेकिन नारी के धैर्य की भी सीमा हैं।

दयाकृष्ण उस सुकुमारी का वह तमतमाया हुआ चेहरा, वे जलती हुई आँखे, वह काँपते हुए होंठ देखकर काँप उठा। उसकी दशा उस आदमी की सी हो गयी जो किसी को दर्द से तड़पते देखकर वैद्य को बुलाने दौड़े। आर्द्र कंठ से बोला- इस समय मुझे क्षमा करो लीला, फिर कभी तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार करूँगा। तुम्हें अपनी ओर से इतना ही विश्वास दिलाता हूँ कि मुझे अपना सेवक समझती रहना। मुझे न मालूम था कि तुम्हें इतना कष्ट हैं, नहीं तो शायद अब तक मैंने कुछ युक्ति सोची होती। मेरा यह शरीर तुम्हारे किसी काम आये; इससे बढ़कर सौभाग्य की बात मेरे लिए और क्या होगी!

दयाकृष्ण यहाँ से चला, तो उसके मन में इतना उल्लास भरा हुआ था, मानो विमान में बैठा हुआ स्वर्ग की ओर जा रहा हैं। आज उसे जीवन में एक ऐसा लक्ष्य मिल गया था, जिसके लिये वह जी भी सकता हैं और मर भी सकता हैं। वह एक महिला का विश्वासपात्र हो गया था। इस रत्न को वह अपने हाथ से कभी न जाने देगा, चाहे उसकी जान ही क्यों न चली जाय।

एक महीना गुजर गया। दयाकृष्ण सिंगारसिंह के घर नहीं आया। न सिंगारसिंह ने उसकी परवाह की। इस एक ही मुलाकात में उसने समझ लिया था कि दया इस नये रंग में आनेवाला आदमी नहीं हैं। ऐसे सात्विक जनों के लिए उसके यहाँ स्थान न था। वहाँ तो रंगीले, रसिया, अध्याय और बिगड़े-दिलों ही की चाह थी। हाँ, लीला को हमेशा उसकी याद आती रहती थी।

मगर दयाकृष्ण के स्वभाव में अब वह संयम नहीं हैं। विलासिता का जादू उस पर भी चलता हुआ मालूम होता हैं। माधुरी के घर उसका आना-जाना शुरू हो गया हैं। वह सिंगारसिंह का मित्र नहीं रहा। प्रतिद्‌वन्द्वी हो गया हैं। दोनों एख ही प्रतिमा के उपासक हैं; मगर उनकी उपासना में अन्तर हैं। सिंगार की दृष्टि मे माधुरी केवल विलास की एक वस्तु हैं, केवल विनोद का एक यन्त्र । दयाकृष्ण विनय मूर्ति हैं जो माधुरी की सेवा में ही प्रसन्न हैं। सिंगार माधुरी के हास- विलास को अपना जर खरीद हक समझता हैं, दयाकृष्ण इसी में सन्तुष्ट हैं कि माधुरी उसकी सेवाओं को स्वीकार करती हैं। माधुरी की ओर से जरा भी अरुचि देखकर वह उसी तरह बिगड़ जायगा जैसे अपनी प्यारी घोड़ी की मुँहजोरी पर। दयाकृष्ण अपने को उसकी कृपा दृष्टि के योग्य ही नही समझता। सिंगार जो कुछ माधुरी को देता हैं, गर्व भरे आत्म-प्रदर्शन के साथ; मानो उस पर कोई अहसान कर रहा हो। दयाकृष्ण के पास देने को हैं ही क्या; पर वह जो कुछ भेंट करता, वह ऐसी श्रद्धा से मानो देवता को फूल चढाता हो। सिंगार का आसक्त मन माधुरी को अपने पिंजरे में बन्द रखना चाहता हैं, जिसमें उस पर किसी की निगाह न पड़े। दयाकृष्ण निर्लिप्त भाव से उसकी स्वच्छंद क्रीड़ा का आनन्द उठाता हैं। माधुरी को अब तक जितने आदमियों से साबिका पड़ा था, वे सब सिंगारसिंह की भाँति कामुकी, ईर्ष्यालु, दम्भी और कोमल भावों से शून्य थे, रूप को भोगने की वस्तु समझने वाले। दयाकृष्ण उन सबों से अलग था – सहृदय, भद्र और सेवाशील, मानो उस पर अपनी आत्मा को समर्पण कर देना चाहता हो। माधुरी को अब अपने जीवन में कोई ऐसा पदार्थ मिल गया हैं, जिसे वह बड़ी एहतियात से सँभालकर रखना चाहती हो। जड़ाऊ गहने अब उसकी आँखों में उतने मूल्यवान नहीं रहें, जितनी यह फकीर की दी हुई तावीज। जड़ाऊ गहने तो हमेशा मिलेंगे, यह तावीज खो गयी, तो फिर शायद ही कभी हाथ आये। जड़ाऊ गहने केवल उसकी विलास की प्रकृति को उत्तेजित करते हैं। पर इस तावीज में कोई दैवी शक्ति हैं, जो न जाने कैसे उसमें सदनुराग और परिष्कार-भावना को जगाती हैं। दयाकृष्ण कभी प्रेम-प्रदर्शन नहीं करता, अपनी विरह-व्यथा के राग नहीं अलापता पर माधुरी को उस पर पूरा विश्वास हैं। सिंगारसिंह के प्रलाप में उसे बनावट और दिखावे का आभास होता हैं। वह चाहती हैं, यह जल्द यहाँ से टले; लेकिन दयाकृष्ण के संयत भाषण से उसे गहराई और गाम्भीर्य और गुरुत्व का आभास होता हैं। औरों की वह प्रेमिका हैं; लेकिन दयाकृष्ण की आशिक, जिसके कदमों की आहट पाकर उसके अन्दर एक तूफान उठने लगता हैं। उसके जीवन में यह नयी अनुभूति हैं। अब तक वह दूसरों के भोग की वस्तु थी, अब कम-से-कम एक प्राणी की दृष्टि में वह आदर और प्रेम की वस्तु हैं।

सिंगारसिंह को जब से दयाकृष्ण के इस प्रेमाभिनय की सूचना मिली हैं, वह उसके खून का प्यासा हो गया। ईर्ष्याग्नि में फुँका जा रहा हैं। उसने दयाकृष्ण के पीछे कई शोहदे लगा रखे हैं कि वे उसे जहाँ पाये, उसका काम तमाम कर दें। वह खुद पिस्तौल लिये उसकी टोह में रहता हैं। दयाकृष्ण इस खतरे को समझता हैं, जानता हैं; अपने नियत समय पर माधुरी के पास बिना नागा आ जाता हैं। मालूम होता हैं, उसे अपनी जान का कुछ भी मोह नहीं हैं। शोहदे उसे देखकर क्यों कतरा जाते हैं, मौका पाकर भी क्यों उसपर वार नहीं करते, इसका रहस्य वह नहीं समझता।

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एक दिन माधुरी ने उससे कहा- कृष्णजी, तुम यहाँ न आया करो। तुम्हें तो पता नहीं हैं, पर यहाँ तुम्हारे बीसों दुश्मन हैं। मैं डरती हूँ कि किसी दिन कोई बात न हो जाय।

शिशिर की तुषार-मंडित सन्ध्या थी। माधुरी एक काशमीरी शाल ओढे अँगीठी के सामने बैठी हुई थी। कमरे में बिजली का रजत प्रकाश फैला हुआ था। दयाकृष्ण ने देखा, माधुरी की आँखे सजल हो गई हैं और वह मुँह फेर कर उन्हें दयाकृष्ण से छिपाने की चेष्टा कर रही हैं। प्रदर्शन और सुखभोग करनेवाली रमणी क्यों इतना संकोच कर रही हैं, यह उसका अनाड़ी मन न समझ सका। हाँ, माधुरी के गोरे, प्रसन्न, संकोच-हीन मुख पर लज्जा-मिश्रित मधुरिमा की ऐसी छटा उसने कभी न देखी थी। आज उसने उस मुख पर कुल-वधु की भीरु आकांक्षा और ढृढ वात्सल्य देखा और उसके अभिनय में सत्य का उदय हो गया।

उसने स्थिर भाव से जवाब दिया- मैं तो किसी की बुराई नहीं कहता, मुझसे किसी को क्यो बैर होने लगा। मैं यहाँ किसी का बाधक नहीं, किसी का विरोधी नहीं। दाता के द्वार पर सभी भिक्षुक जाते हैं। अपना-अपना भाग्य हैं, किसी को एक चुटकी मिलती हैं, किसी को पूरा थाल। कोई क्यो किसी से जले? अगर किसी पर तुम्हारी विशेष कृपा हैं, तो मैं उसे भाग्यशाली समझकर उसका आदर करूँगा। जलूँ क्यों?

माधुरी ने स्नेह-कातर स्वर में कहा- जी नहीं, आप कल से न आया कीजिए।

दयाकृष्ण मुसकराकर बोला- तुम मुझे यहाँ आने से नहीं रोक सकती। भिक्षुक को तुम दुत्कार सकती हो, द्वार पर आने से नहीं रोक सकती।

माधुरी स्नेह की आँखों से उसे देखने लगी, फिर बोली- क्या सभी आदमी तुम्हीं जैसे निष्कपट हैं?

‘तो फिर मैं क्या करूँ? ’

‘यहाँ न आया करो। ’

‘यह मेरे बस की बात नहीं। ’

माधुरी एक क्षण तक विचार करके बोली- एक बात कहूँ, मानोगे? चलो, हम-तुम किसी दूसरे नगर की राह ले।

‘केवल इसीलिए कि कुछ लोग मुझसे खार खाते हैं?

‘खार नहीं खाते, तुम्हारी जान के ग्राहक हैं। ’

दयाकृष्ण उसी अविचलित भाव से बोला- जिस दिन प्रेम का यह पुरस्कार मिलेगा, वह मेरे जीवन का नया दिन होगा, माधुरी! इससे अच्छी मृत्यु और क्या हो सकती हैं? तब मैं तुमसे पृथक न रहकर तुम्हारे मन में, तुम्हारी स्मृति में रहूँगा।

माधुरी ने कोमल हाथ से उसके गाल पर थपकी दी। उसकी आँखें भर आयी थीं। इन शब्दों में प्यार भरा हुआ था, वह जैसे पिचकारी की धार की तरह उसके हृदय में समा गया। ऐसी विकल वेदना! ऐसा नशा! इसे वह क्या कहे?

उसने करूण स्वर में कहा- ऐसी बातें न किया कृष्ण, नहीं तो मैं सच कहती हूँ, एक दिन जहर खाकर तुम्हारे चरणों पर सो जाऊँगी। तुम्हारे इन शब्दों में न जाने क्या जादू था कि मैं जैसे फुँक उठी। अब आप खुदा के लिए यहाँ न आया कीजिए, नहीं तो देख लेना, मैं एक दिन प्राण दे दूँगी। तुम क्या जानो, हत्यारा सिंगार किस बुरी तरह तुम्हारे पीछे पड़ा हैं। मैं उसके शोहदों की खुशामद करते- करते हार गयी। कितना कहती हूँ दयाकृष्ण से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं, उसके सामने तुम्हारी निन्दा करती हूँ, कितना कोसती हूँ, लेकिन उस निर्दयी को मुझ पर विश्वास नहीं आता। तुम्हारे लिए मैने इन गुंड़ो की कितनी मिन्नतें की हैं, उनके हाथ कितना अपमान सहा हैं, वह तुमसे न कहना ही अच्छा हैं। जिनका मुँह देखना भी मैं अपनी शान के खिलाफ समझती हूँ, उनके पैरो पड़ी हूँ; लेकिन ये कुत्ते हड्डियों के टुकड़े पाकर और शेर हो जाते हैं। मैं अब उनसे तंग आ गयी हूँ और तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँ कि यहाँ से किसी ऐसी जगह चले चलो, यहाँ हमें कोई न जानता हो। वहाँ शान्ति के साथ पड़े रहेंगे। मैं तुम्हारे साथ सब कुछ झेलने को तैयार हूँ । आज इसका निश्चय कराये बिना मैं तुम्हें न जाने दूँगी। मैं जानती हूँ, तुम्हें मुझ पर अब भी विश्वास नहीं हैं। तुम्हें सन्देह हैं कि तुम्हारे साथ कपट करूँगी।

5

दयाकृष्ण ने टोंका- नहीं माधुरी, तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो। मेरे मन में कभी ऐसा सन्देह नहीं आया। पहले ही दिन मुझे न जाने क्यों ऐसा प्रतीत हुआ कि तुम अपनी और बहनों से पृथक हो। मैने तुम में वह शील और संकोच देखा, जो मैंने कुलवधुओं में देखा हैं। माधुरी ने उसकी आँखों में आँखे गड़ाकर कहा- तुम झूठ बोलने की कला में इतने निपुण नहीं हो कृष्ण, कि वेश्या को भुलावा दे सको! मैं न शीलवती हूँ, न संकोचवती हूँ और न अपनी दूसरी बहनों से भिन्न हूँ, मैं वेश्या हूँ; उतनी ही कलुषित, उतनी ही विलासांध, उतनी ही मायाविनी, जितनी मेरी दूसरी बहनें; बल्कि उनसे कुछ ज्यादा। न तुम अन्य पुरुषों की तरह मेरे पास विनोद और वासना-तृप्ति के लिए आये थे। नहीं, महीनों आते रहने पर भी तुम यो अलिप्त न रहते। तुमने कभी डींग नही मारी, मुझे धन का प्रलोभन नहीं दिया। मैने भी कभी तुमसे धन की आशा नहीं की। तुमने अपनी वास्तविक स्थिति मुझसे कह दी। फिर भी मैंने तुम्हें एक नहीं, अनेक ऐसे अवसर दिये कि कोई दूसरा आदमी उन्हें न छोड़ता, लेकिन तुम्हें मैं अपने पंजे में न ला सकी। तुम चाहे और जिस इरादे से आये हो, भोग की इच्छा से नही आये। अगर मैं तुम्हें इतना नीच, इतना हृदयहीन, इतना विलासांध समझती, तो इस तरह तुम्हारे नाज न उठाती। फिर मैं भी तुम्हारे साथ मित्र-भाव रखने लगी। समझ लिया, मेरी परीक्षा हो रही हैं। जब तक इस परीक्षा में सफल न हो जाऊँ, तुम्हें नही पा सकती। तुम जितने सज्जन हो, उतने ही कठोर हो।

यह कहते हुए माधुरी ने दयाकृष्ण का हाथ पकड़ लिया और अनुराग समर्पण- भरी चितवनों से उसे देखकर बोली- सच बताओ कृष्ण, तुम मुझमें क्या देखकर आकर्षित हुए थे? देखो, बहानेबाजी न करना। तुम रूप पर मुग्ध होने वाले आदमी नहीं हो, मैं कसम खा सकती हूँ।

दयाकृष्ण ने संकट में पड़ कर कहा- रूप इतनी तुच्छ वस्तु नहीं हैं, माधुरी! वह मन का आइना हैं।

‘यहाँ मुझसे रूपवान स्त्रियों की कमी नहीं हैं। ’

‘यह तो अपनी-अपनी निगाह हैं। मेरे पूर्व संस्कार रहे होंगे। ’

माधुरी ने भँवे सिकोड़कर कहा- तुम फिर झूठ बोल रहे हो, चेहरा कहे देता हैं।

दयाकृष्ण ने परास्त होकर पूछा- पूछ कर क्या करोगी, माधुरी? मैं डरता हूँ; कहीं तुम मुझसे घृणा न करने लगो। सम्भव हैं, तुम मेरा जो रूप देख रही हो, वह मेरा असली रूप न हो?

माधुरी का मुँह लटक गया। विरक्त-सी होकर बोली- इसका खुले शब्दों में यह अर्थ हैं कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं। ठीक हैं, वेश्याओं पर विश्वास करना भी नहीं चाहिए; विद्वानों और महात्माओं का उपदेश कैसे न मानोगे?

नारी-हृदय इस समस्या पर विजय पाने के लिए अपने अस्त्रों के काम लेने लगा।

दयाकृष्ण पहले ही हमले में हिम्मत छोड़ बैठा। बोला- तुम तो नाराज हुई जाती हो, माधुरी! मैने तो केवल इस विचार से कहा था कि तुम मुझे धोखेबाज समझने लगोगी। तुम्हें शायद मालूम नहीं हैं, सिंगारसिंह ने मुझ पर कितने एहसान किये हैं। मै उन्हीं के टुकटों पर पला हूँ। इसमें रत्ती भर भी मुबालगा नहीं हैं। वहाँ जाकर जब मैंने उनके रंग-ढंग देखे और उनकी साध्वी स्त्री लीला को बहुत दुखी पाया, तो सोचते-सोचते मुझे यही उपाय सूझा कि किसी तरह सिंगारसिंह को तुम्हारे पंजे से छुड़ाऊँ। मेरे इस अभिमान यहीं रहस्य हैं, लेकिन उन्हें छुड़ा तो न सका, खुद फँस गया। मेरे इस फरेब की जो सजा चाहो दो, सिर झुकाये हुए हूँ ।

माधुरी का अभिमान टूट गया। जल कर बोली- तो यह कहिये कि आप लीला देवी के आशिक हैं। मुझे पहले मालूम होता, तो तुम्हें इस घर में घुसने न देती। तुम तो छिपे रुस्तम निकले।

वह तोते के पिंजरे के पास जाकर उसे पुचकारने का बहाना करने लगी। मन में जो दाह उठ रही थी, उसे कैसे शान्त करें?

दयाकृष्ण ने तिरस्कार भरे स्वर में कहा- मैं लीला का आशिक नहीं हूँ, माधुरी। उस देवी को कलंकित न करो। मैं आज तुमसे शपथ खाकर कहता हूँ, कि मैंने कभी उसे इस निगाह से नहीं देखा। उसके प्रति मेरा वही भाव था, जो अपने किसी आत्मीय को दु:ख में देखकर हर एक मनुष्य के मन में आता हैं।

‘किसी से प्रेम करना तो पाप नहीं हैं, तुम व्यर्थ में अपनी और लीला की सफाई दे रहे हो। ’

‘मैं नहीं चाहता कि लीला पर किसी तरह को आक्षेप किया जाय। ’

‘अच्छा साहब, लीजिए; लीला का नाम न लूँगी। मैने मान लिया, वह सती हैं, साध्वी हैं और केवल उसकी आज्ञा से… ’

दयाकृष्ण ने बात काटी – उनकी कोई आज्ञा नहीं थीं।

‘ओ हो, तुम तो जबान पकड़ते हो, कृष्ण! क्षमा करो, उनकी आज्ञा से नहीं तुम अपनी इच्छा से आये। अब तो राजी हुए। अब यह बताओ, आगे तुम्हारे क्या इरादे हैं? मैं वचन तो दे दूँगी; मगर अपने संस्कारों को नहीं बदल सकती। मेरा मन दुर्बल हैं। मेरा सतीत्व कब का नष्ट हो चुका हैं। अन्य मूल्यवान पदार्थो की तरह रूप और यौवन की रक्षा भी बलवान हाथों से हो सकती हैं। मैं तुमसे पूछती हूँ, तुम मुझे अपनी शरण में लेने को तैयार हो? तुम्हारा आश्रय पाकर तुम्हारे प्रेम की शक्ति से, मुझे विश्वास हैं, मैं जीवन के सारे प्रलोभनों का सामना कर सकती हूँ। मैं इस सोने के महल को ठुकरा दूँगी; लेकिन बदले मुझे किसी हरे वृक्ष का छाँह तो मिलनी चाहिए। वह छाँह तुम मुझे दोगे? अगर नहीं दे सकते, तो मुझे छोड़ दो। मैं अपने हाल में मगन हूँ । मैं वादा करती हूँ, सिंगारसिंह से मैं कोई सम्बन्ध म रखूँगी। वह मुझे घेरेगा, रोयेगा! सम्भव हैं, गुंडो से मेरा अपमान कराये, आतंक दिखाये। लेकिन मैं सब कुछ झेल लूँगी, तुम्हारी खातिर से… ’

6

आगे और कुछ न कहकर वह तृष्णा-भरी लेकिन उसके साथ ही निरपेक्ष नेत्रों से दयाकृष्ण की ओर देखने लगी, जैसे दुकानदार गाहक को बुलाता तो हैं पर साथ ही यह भी दिखाना चाहता हैं कि उसे उसकी परवाह नहीं हैं। दयाकृष्णा क्या जवाब दें? संघर्षमय संसार में वह अभी केवल एक कदम टिका पाया हैं। इधर वह अंगुल-भर जगह भी उससे छिन गयी हैं। शायद जोर मारकर वह फिर वह स्थान पा जाय; लेकिन वहाँ बैठने की जगह नहीं। और एक दूसरे प्राणी को लेकर तो वह खड़ा भी नहीं रह सकता। अगर मान लिया जाय कि अदम्य-उद्योग से दोनों के लिए स्थान निकाल लेगा, तो आत्म-सम्मान को कहाँ ले जाय ? संसार क्या कहेगा? लीला क्या फिर उसका मुँह देखना चाहेगी? सिंगार से वह फिर आँखें मिला सकेगी? यह भी छोडो। लीला अगर उसे पति समझती हैं, समझे। सिंगार अगर उससे जलता हैं तो जले, उसे इसकी परवाह नहीं। लेकिन अपने मन को क्या करें? विश्वास उसके अन्दर आकर जाल नें फँसे पक्षी की भाँति फड़फड़ा कर निकल भागता हैं। कुलीना अपने साथ विश्वास का वरदान लिये आती हैं। उसके साहचर्य में हमें कभी सन्देह नहीं होता। वहाँ सन्देह के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण चाहिए। कुत्सिता सन्देह का संस्कार लिये आती हैं। वहाँ विश्वास के लिए प्रत्यक्ष- अत्यन्त प्रत्यक्ष- प्रमाण की जरूरत हैं। उसने नम्रता से कहा- तुम जानती हो, मेरी क्या हालत हैं?

‘हाँ खूब जानती हूँ ।’

‘और उस हालत में तुम प्रसन्न रह सकोगी?’

‘तुम ऐसा प्रश्न क्यों करते हो, कृष्ण? मुझे दु:ख होता हैं। तुम्हारे मन में जो सन्देह हैं, वह मैं जानती हूँ, समझती हूँ । मुझे भ्रम हुआ था कि तुमने भी मुझे जान लिया हैं, समझ लिया हैं। अब मालूम हुआ, मैं धोखे मे थी!’

वह उठकर वहाँ से जाने लगी। दयाकृष्ण ने उसका हाथ पकड़ लिया और प्रार्थी- भाव से बोला- तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो, माधुरी! मैं सत्य कहता हूँ, ऐसी बात नहीं हैं…

माधुरी ने खड़े-खड़े विरक्त मन से कहा- तुम झूठ बोल रहे हो, बिल्कुल झूठ। तुम अब भी मन से यह स्वीकार नहीं कर रहे हो कि कोई स्त्री स्वेच्छा से रूप का व्यवसाय नहीं करती। पैसे के लिए अपनी लज्जा को उघाड़ना, तुम्हारी समझ में कुछ ऐसे आनन्द की बात हैं, जिसे वेश्या शौक से करती हैं। तुम वेश्या में स्त्रीत्व का होना सम्भव से बहुत दूर समझते हो। तुम इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते कि वह क्यों अपने प्रेम में स्थिर नही होती। तुम नहीं जानते, कि प्रेम के लिए उसके मन में कितनी व्याकुलता होती और जब वह सौभाग्य से उसे पा जाती हैं, तो किस तरह प्राणों की भाँति उसे संचित रखती हैं। खारे पानी के समुद्र में मीठे पानी का छोटा-सा पात्र कितना प्रिय होता हैं इसे वह क्या जाने, जो मीठे पानी के मटके उँडेलता रहता हो।

दयाकृष्ण कुछ ऐसे असमंजस में पड़ा हुआ था कि उसके मुँह से एक भी शब्द न निकला। उसके मन में शंका चिनगारी की भाँति छिपी हुई हैं, वह बाहर निकल कर कितनी भयंकर ज्वाला उत्पन्न कर देगी। उसने कपट का जो अभिनय किया था प्रेम का जो स्वाँग रचा था, उसकी ग्लानि उसे और भी व्यथित कर रही थी।

सहसा माधुरी ने निष्ठुरता से पूछा- तुम यहाँ क्यों बैठे हो?

दयाकृष्ण ने अपमान को पीकर कहा- मुझे सोचने के लिए कुछ समय दो, माधुरी!

‘क्या सोचने के लिए?’

‘अपना कर्त्तव्य क्या हैं?’

‘मैंने अपना कर्त्तव्य सोचने के लिए तो तुमसे समय नहीं माँगा। तुम अगर मेरे उद्धार की सोच रहे हो, तो उसे दिल से निकाल डालो। मैं भ्रष्टा हूँ और तुम साधुता के पुतले हो – जब तक यह भाव तुम्हारे अन्दर रहेगा, मैं तुमसे उसी तरह व्यवहार करूँगी जैसे औरों के साथ करती हूँ। अगर मैं भ्रष्ट हूँ, तो जो लोग यहाँ अपना मुँह काला करने आते हैं, वे कुछ कम भ्रष्ट नहीं हैं। तुम जो एक मित्र की स्त्री पर दाँत लगाये हुए हो, तुम तो एक सरला अबला के साथ झूठे प्रेम का स्वाँग करते हो, तुम्हारे हाथों अगर मुझे स्वर्ग भी मिलता हो, तो उसे ठुकरा दूँ।’

दयाकृष्ण ने लाल आँखें करके कहा- तुमने फिर वही आक्षेप किया?

माधुरी तिलमिला उठी। उसकी रही-सही मृदुता भी ईर्ष्या के उमड़ते हुए प्रवाह में समा गयी। लीला पर आक्षेप भी असह्य है, इसलिए कि वह कुलवधू हैं। मैं वेश्या हूँ, इसलिए मेरे प्रेम का उपकार भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।

उसने अविचलित भाव से कहा- आक्षेप नहीं कर रहीं हुँ, सच्ची बात कह रही हूँ । तुम्हारे डर से बिल खोदने जा रही हूँ । तुम स्वीकार करो या न करो, तुम लीला पर मरते हो। तुम्हारी लीला तुम्हें मुबारक रहे। मैं अपने सिंगारसिंह ही में प्रसन्न हूँ, उद्धार की लालसा अब नहीं रही। पहले जाकर अपना उद्धार करो। अब से खबरदार कभी भूलकर भी यहाँ न आना, नहीं तो पछताओगे। तुम जैसे रंगे हुए पतितों का उद्धार नहीं करते। उद्धार वही कर सकते हैं, जो उद्धार के अभिमान को हृदय में आने ही नहीं देते। जहाँ प्रेम हैं, वहाँ किसी तरह का भेद नही रह सकता।

यह कहने के साथ ही वह उठकर बराबर वाले दूसरे कमरे में चली गयी और अन्दर से द्‌बार बन्द कर लिया। दयाकृष्ण कुछ देर वहाँ मर्माहत-सा रहा, फिर धीरे-धीरे नीचे उतर गया, मानो देह में प्राण न हो।

7

दो दिन दयाकृष्ण घर से न निकला। माधुरी ने उसके साथ जो व्यवहार किया, उसकी उसे आशा न थी। माधुरी को उससे प्रेम था, इसका उसे विश्वास था, लेकिन जो प्रेम इतना असहिष्णु हो, जो दूसरे के मनोभावों का जरा भी विचार न करे, जो मिथ्या कलंक आरोपण करने से भी संकोच न करे, वह उन्माद हो सकता हैं, प्रेम नहीं। उसने बहुत अच्छा किया कि माधुरी के कपट-जाल में न फँसा, नहीं तो उसकी न जाने क्या दुर्गति होती।

पर दूसरे क्षण उसके भाव बदल जाते और माधुरी के प्रति उसका मन कोमलता से भर जाता। अब वह अपनी अनुदारता पर, अपनी संकीर्णता पर पछताता! उसे माधुरी पर सन्देह करने का कोई कारण न था। ऐसी दशा से ईर्ष्या स्वाभाविक है और वह ईर्ष्या ही क्या, जिसके डंक न हो, विष न हो। माना, समाज उसकी निन्दा करता। यह भी मान लिया कि माधुरी सती भार्या न होती। कम-से-कम सिंगारसिंह तो उसके पंजे से निकल जाता। दयाकृष्ण के सिर से ऋण का भार तो कुछ हल्का हो जाता, लीला का जीवन तो सुखी हो जाता।

सहसा किसी ने द्वार खटखटाया। उसने द्वार खोला, तो सिंगार सामने खड़ा था। बाल बिखरे हुए, कुछ अस्त-व्यस्त।

दयाकृष्ण ने हाथ मिलाते हुए पूछा- क्या पाँव-पाँव ही आ रहे हो, मुझे क्यों न बुला लिया?

सिंगार ने उसे चुभती हूई आँखों से देखकर कहा- मैं तुमसे यह पूछने आया हूँ कि माधुरी कहाँ हैं? अवश्य तुम्हारे घर में होगी।

‘क्यों अपने घर पर होगी, मुझे क्या खबर? मेरे घर क्यो आने लगी? ’

‘इन बहानों से काम न चलेगा, समझ गये? मैं कहता हूँ, मैं तुम्हारे खून पी जाऊँगा वरना ठीक-ठीक बता दो, वह कहाँ गयी? ’

‘मैं बिल्कुल कुछ नहीं जानता, तुम्हे विश्वास दिलाता हूँ। मैं तो दो दिन से घर से निकला ही नहीं। ’

‘रात को मै उसके पास था। सबेरे मुझे उसका यह पत्र मिला। मैं उसी वक़्त दौड़ा हुआ उसके घर गया। वहाँ उसका पता न था। नौकरों से इतना मालूम हुआ, ताँगे पर बैठकर कहीं गयी हैं। कहाँ गयी हैं, यह कोई न बता सका। मुझे शक हुआ, यहाँ आयी होगी। जब तक तुम्हारे घर की तलाशी न ले लूँगा, मुझे चैन न आयेगा। ’

उसने मकान का एक-एक कोना देखा, तख्त के नीचे, अलमारी के पीछे। तब निराश होकर बोला- बड़ी बेवफा और मक्कार औरत हैं। जरा इस खत को पढ़ो।

दोनों फर्श पर बैठ गये। दयाकृष्ण ने पत्र लेकर पढ़ना शुरू किया-

‘सरदार साहब! मैं आज कुछ दिनों के लिए यहाँ से जा रही हूँ, कब लौटूँगी, कुछ नहीं जानती। कहाँ जा रही हूँ, यह भी नहीं जानती। जा इसलिए रही हूँ कि इस बेशर्मी और बेहयाई की जिन्दगी से मुझे घृणा हो रही हैं और घृणा हो रही हैं उन लम्पटों से, जिनके कुत्सित विलास का मै खिलौना थी और जिसमें तुम मुख्य हो। तुम महीनों से मुझ पर सोने और रेशम की वर्षा कर रहे हो; मगर मैं तुमसे पूछती हूँ, उससे लाख गुने सोने और दस गुने रेशम पर भी तुम अपनी बहन या स्त्री को इस रूप के बाजार में बैठने दोगे? कभी नहीं। उन देवियों में कोई ऐसी वस्तु है, जिसे तुम संसार भर की दौलत से भी मूल्यवान समझते हो। लेकिन जब तुम शराब के नशे मे चूर, अपने एक एक अंग में काम का उन्माद भरे आते थे, तो तुम्हें कभी ध्यान आया था कि तुम अपनी अमूल्य वस्तु को किस निर्दयता के साथ पैरो से कुचल रहे हो? कभी ध्यान आता था कि अपनी कुल-देवियों को इस अवस्था में देखकर तुम्हें कितना दु:ख होता? कभी नहीं। यह उन गीदड़ो और गिद्धों की मनोवृत्ति हैं, जो किसी लाश को देखकर चारों ओर से जमा हो जाते हैं, और उसे नोच-नोचकर खाते हैं। यह समझ रक्खो, नारी अपना बस रहते हुए कभी पैसो के लिए अपने को समर्पित नहीं करती। यदि वह ऐसा कर रही हैं, तो समझ लो कि उसके लिए और कोई आश्रय और कोई आधार नहीं हैं और पुरुष इतना निर्लज्ज हैं कि उसकी दुरावस्था से अपनी वासना तृप्त करता हैं और इसके साथ ही इतना निर्दय कि उसके माथे पर पतिता का कलंक लगा कर उसे उसी दुरावस्था में मरते देखना चाहता हैं! क्या वह नारी हैं? क्या नारीतिव के पवित्र मन्दिर में उसका स्थान नहीं हैं। लेकिन तुम उसे उस मन्दिर में घुसने नहीं देते। उसके स्पर्श से मन्दिर की प्रतिमा भ्रष्ट हो जायगी। खैर, पुरुष-समाज जितना अत्याचार चाहे, कर ले। हम असहाय हैं, आत्माभिमान को भूल बैठी हैं लेकिन…

8

सहसा सिंगारसिंह ने उसके हाथ से वह पत्र छिन लिया औऱ जेब में रखता हुआ बोला- क्या गौर से पढ़ रहे हो, कोई नयी बात नहीं। सब कुछ वहीं हैं, जो तुमने सिखाया हैं। यहीं करने तो तुम उसके यहाँ जाते थे। मैं कहता हूँ तुम्हें मुझसे इतनी जलन क्यों हो गयी? मैने तुम्हारे साथ कोई बुराई न की थी। इस साल-भर में मैने माधुरी पर दस हजार से कम न फूँके होगे। घर में जो कुछ मूल्यवान था, वह मैने उसके चरणों पर चढ़ा दिया और आज उसे साहस हो रहा हैं कि वह हमारी कुल -देवियों की बराबरी करे। यह सब तुम्हारा प्रसाद हैं। सत्तर चूहे खा के बिल्ली हज को चली! किनती बेवफा जात हैं। ऐसों को तो गोली मार दे। जिस पर सारा घर लुटा दिया, जिसके पीछे सारे शहर में बदनाम हुआ, यह आज मुझे उपदेश देने चली ! जरूर कोई रहस्य हैं। कोई नया शिकार फँसा होगा; मगर मुझसे भाग कर जायगी कहाँ, ढूढ न निकालूँ तो नाम नहीं। कम्बख्त कैसी प्रेमभरी बाते करती थी कि मुझपर घड़ो नसा चढ़ जाता था। बस कोई नया शिकार फँस गया। यह बात न हो, मूँछ मुड़ा लूँ।

दयाकृष्ण उसके सफाचट चेहरे की ओर देखकर मुसकराया- तुम्हारी मूँछे तो पहले ही मुड़ चुकी हैं।

इस हलके-से विनोद ने जैसे सिंगारसिंह के घाव पर मरहम रख दिया। वह बे-सरो-सामान घर, वह फटा फर्श, वे टूटी-फूटी चीजें देखकर उसे दयाकृष्ण पर दया आ गयी। चोट की तिलमिलाहट में वह जवाब देने के लिए ईट पत्थर ढूँढ़ रहा था; पर अब चोट ठंडी पड़ गयी थी और दर्द घनीभूत हो रहा था। दर्द के साथ- साथ सौहार्द भी जाग रहा था। जब आग ठंडी हो गयी तो धुँआ कहाँ से आता?

उसने पूछा- सच कहना, तुमने भी कभी प्रेम की बाते करती थी?

दयाकृष्ण ने मुसकराते हुए कहा- मुझसे? मैं तो खाली उसकी सूरत देखने जाता था।

‘सूरत देखकर दिल पर काबू तो नहीं रहता। ’

‘यह तो अपनी-अपनी रुचि हैं। ’

‘हैं मोहनी, देखते ही कलेजे पर छुरी चल जाती हैं। ’

‘मेरे कलेजे पर तो कभी छुरी नहीं चली। यही इच्छा होती थी कि इसके पैरों पर गिर पडूँ। ’

‘इसी शायरी ने तो यह अनर्थ किया। तुम-जैसे बुद्धओं को किसी देहातिन से शादी करके रहना चाहिए। चले थे वेश्या से प्रेम करने। ’

एक क्षण के बाद उसने फिर कहा- मगर हैं बेवफा, मक्कार!

‘तुमने उससे वफा की आशा की, मुझे तो यही अफसोस हैं। ’

‘तुमने वह दिल ही नहीं पाया, तुमसे क्या कहूँ । ’

एक मिनट के बाद उसने सहृदय-भाव से कहा- अपने पत्र में उसने बाते तो सच्ची लिखी हैं, चाहे कोई माने या न माने? सौन्दर्य को बाजारू चीज समझना कुछ अच्छी बात तो नहीं हैं।

दयाकृष्ण ने पुचारा दिया- जब स्त्री अपनी रूप बेचती हैं, तो उसके खरीदार भी निकल आते हैं। फिर यहाँ तो कितनी ही जातियाँ हैं, जिनका यही पेशा हैं।

‘यह पेशा चला कैसे? ’

‘स्त्रियों की दुर्बलता से। ’

‘नहीं, मैं समझता हूँ, बिस्मिल्लाह पुरुषों ने की होगी। ’

इसके बाद एकाएक जेब से घड़ी निकालकर देखता हुआ बोला- ओहो! दो बज गये और अभी मैं यहीं बैठा हूँ। आज शाम को मेरे यहाँ खाना खाना। जरा इस विषय पर बातें होंगी। अभी तो उसे ढूँढ निकालना हैं। वह हैं कहीं इसी शहर में। घरवालों से भी कुछ नहीं कहा। बुढ़िया नायका सिर पीट रही था। उस्तादजी अपनी तकदीर को रो रहे थे। न-जाने कहाँ जाकर छिप रही।

उसने उठकर दयाकृष्ण से हाथ मिलाया और चला।

दयाकृष्ण ने पूछा- मेरी तरफ से तो तुम्हारा दिल साफ हो गया?

सिंगारसिंह ने पीछे फिरकर कहा- हुआ भी और नही भी हुआ। और बाहर निकल गया।

सात-आठ दिन तक सिंगारसिंह ने सारा शहर छाना, पुलिस में रिपोर्ट की, समाचार-पत्रों में नोटिस छपायी, अपने आदमी दौड़ाये; लेकिन माधुरी का कुछ भी सुराग न मिला कि फिर महफिल गर्म होती। मित्रवन्द सुबह-शाम हाजिरी देने आते और अपना-सा मुँह लेकर लौट जाते। सिंगार के पास उनके साथ गप-शप करने का समय न था।

गरमी के दिन, सजा हुआ कमरा भट्टी बना हुआ था। खस की टट्टियाँ भी थी, पंखा भी; लेकिन गरमी जैसे किसी के समझाने-बुझाने की परवाह नहीं करना चाहती, अपने दिल का बुखार निकालकर ही रहेगी।

सिंगारसिंह अपने भीतर वाले कमरे में बैठा हुआ पेग-पर-पेग चढ़ा रहा था; पर अन्दर की आग न शान्त होती थी। इस आग ने ऊपर की घास-फूस को जलाकर भस्म कर दिया था और अब अन्तस्तल की जड़ विरक्ति और अचल विचार को द्रवित करके वेग से ऊपर फेंक रही थी। माधुरी की बेवफाई ने उसके आमोदी हृदय को इतना आहत कर दिया था कि अब वह अपना जीवन ही बेकार-सा मालूम होता था। माधुरी उसके जीवन में सबसे सत्य वस्तु थी, सत्य भी और सुन्दर भी। उसके जीवन की सारी रेखाएँ इसी बिन्दु पर आकर जमा हो जाती थी। वह बिन्दु एकाएक पानी के बुलबुले की भाँति मिट गया और अब वे सारी रेखाएँ, वे सारी भावनाएँ, वे सारी मृदु स्मृतियाँ उन झल्लायी हुई मधु -मक्खियों की तरह भनभनाती फिरती थी, जिनका छता जला दिया गया हो। जब माधुरी ने कपट व्यवहार किया तो और किससे कोई आशा की जाय? इस जीवन ही में क्या हैं? आम में रस ही न रहा, तो गुठली किस काम की?

9

लीला कई दिनों से महफिल में सन्नाटा देखकर चकित हो रही थी। उसने कई महीनों से घर के किसी विषय में बोलना छोड़ दिया था। बाहर से जो आदेश मिलता था, उसे बिना कुछ कहे-सुने पूरा करना ही उसके जीवन का क्रम था। वीतराग-सी हो गयी थी। न किसी शौक से वास्ता था, न सिंगार से।

मगर इस कई दिन के सन्नाटे ने उसके उदास मन को चिन्तित कर दिया। चाहती थी कि कुछ पूछे; लेकिन पूछे कैसे? मान तो टूट जाता। मान ही किस बात का? मान तब करे, जब कोई उसकी बात पूछता हो। मान-अपमान से प्रयोजन नहीं। नारी ही क्यों हुई?

उसने धीरे-धीरे कमरे का पर्दा हटाकर अन्दर झाँका। देखा, सिंगारसिंह सोफा पर चुपचाप लेटा हुआ हैं, जैसे कोई पक्षी साँझ के सन्नाटे में परों पर मुँह छिपाये बैठा हो।

समीप आकर बोली- मेरे मुँह पर ताला डाल दिया गया हैं, लेकिन क्या करूँ, बिना बोले रहा नहीं जाता। कई दिन से सरकार की महफिल सें सन्नाटा क्यों हैं? तबीयत तो अच्छी हैं।

सिंगार ने उसकी ओर आँखें उठायी। उनमें व्यथा भरी हुई थी। कहा- तुम अपने मैके क्यों नहीं जाती लीला?

‘आपकी जो आज्ञा; पर यह तो मेरे प्रश्न का उत्तर न था। ’

‘वह कोई बात नही। मैं बिल्कुल अच्छा हूँ। ऐसे बेहयाओं को मौत भी नहीं आती। अब इस जीवन से जी भर गया। कुछ दिनों के लिए बाहर जाना चाहता हूँ । तुम अपने घर चली जाओ, तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँ। ’

‘भला आप को मेरी इतनी चिन्ता तो हैं। ’

‘अपने साथ जो कुछ ले जाना चाहती हो, ले जाओ। ’

‘मैंने इस घर की चीजों को अपना समझना छोड़ दिया हैं।’

‘मैं नाराज होकर नहीं कह रहा हूँ, लीला न-जाने कब लौटूँ, तुम यहाँ अकेले कैसे रहोगी?’

कई महीने के बाद लीला ने पति के आँखों में स्नेह की झलक देखी।

‘मेरा विवाह तो इस घर की सम्पति से नहीं हुआ हैं, तुमसे हुआ हैं। जहाँ तुम रहोगे वहीं मैं भी रहूँगी।’

‘मेरे साथ तो अब तक तुम्हें रोना ही पड़ा।’

लीला ने देखा, सिंगार का आँखों में आँसू का एक बूँद नीले आकाश में चन्द्रमा की तरह गिरने-गिरने का हो रही थी। उसका मन भी पुलकित हो उठा। महीनों की क्षुधाग्नि में जलने के बाद अन्न का एक दाना पाकर वह उसे कैसे ठुकरा दे? पेट नहीं भरेगा, कुछ भी नहीं होगा, लेकिन उस दाने को ठुकराना क्या उसके बस की बात थी?

उसने बिल्कुल पास आकरस अपने अंचल को उसके समीप ले जाकर कहा- मैं तो तुम्हारी हो गया। हँसाओगे, हँसूँगी, रुलाओगे, रोऊँगी, रखोगे तो रहूँगी, निकालोगे तो भी रहूँगी, मेरा घर तुम हो, धर्म तुम हो, अच्छी हूँ तो तुम्हारी हूँ, बुरी हूँ तो तुम्हारी हूँ।

और दूसरे क्षण सिंगार के विशाल सीने पर उसका सिर रखा हुआ था औऱ उसके हाथ थे लीला की कमर में। दोनों के मुख पर हर्ष की लाली थी, आँखों में हर्ष के आँसू और मन में एक ऐसा तूफान, जो उन्हें न जाने कहाँ उड़ा ले जायगा।

एक क्षण के बाद सिंगार ने कहा- तुमने कुछ सुना, माधुरी भाग गयी और पगला दयाकृष्ण उसकी खोज में निकला!

लीला को विश्वास न आया- दयाकृष्ण!

‘हाँ जी, जिस दिन वह भागी हैं, उसके दूसरे ही दिन वह भी चल दिया।’

‘वह तो ऐसा नहीं हैं। और माधुरी क्यों भागी?’

‘दोनों में प्रेम हो गया था। माधुरी उसके साथ रहना चाहती थी। वह राजी न हुआ।’

लीला ने एक लम्बी साँस ली। दयाकृष्ण के वे शब्द याद आये, जो उसने कई महीने पहले कहे थे। दयाकृष्ण की वे याचना-भरी आँखें उसके मन को मसोसने लगीं।

सहसा किसी ने बड़े जोर से द्वार खोला औऱ धड़धड़ाता हुआ भीतर वाले कमरे के द्वार पर आ गया।

सिंगार ने चकित होकर कहा- ‘अरे! तुम्हारी यह क्या हालात है, कृष्णा? किधर से आ रहे हो?’

दयाकृष्ण की आँखे लाल थी, सिर और मुँह पर गर्द जमी हुई, चेहरे पर घबराहट, जैसे कोई दीवाना हो।

उसने चिल्लाकर कहा- तुमने सुना; माधुरी इस संसार में नहीं रहीं।

और दोनों हाथों से सिर पीट-पीटकर रोने लगा, मानो हृदय और प्राणों को आँखों से बहा देगा।

शिव मंगल सिंह 'सुमन' || Shivmangal Singh 'Suman' | हिन्दी के शीर्ष कवि 'पद्म भूषण' शिवमंगल सिंह 'सुमन' की पुण्यतिथि आज

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

मूल नाम : शिवमंगल सिंह
उपनाम : 'सुमन'
जन्म : 5 अगस्त 1915 | उन्नाव, उत्तर प्रदेश
निधन :27 नवंबर 2002 | उज्जैन, मध्य प्रदेश

आधुनिक हिंदी साहित्य में शिवमंगल सिंह 'सुमन' एक बहुचर्चित नाम है। वे मुख्यतः एक प्रसिद्ध कवि और शिक्षाविद् थे। कवि-लेखक शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के झगरपुर गाँव में हुआ था। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अपना शोध कार्य पूरा किया।

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

 एक कवि-लेखक होने के साथ ही वह ‘विक्रम विश्वविद्यालय’, उज्जैन के कुलपति, ‘उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान’, लखनऊ के उपाध्यक्ष और ‘भारतीय विश्वविद्यालय संघ’, नई दिल्ली के अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएँ दे चुके हैं। देशप्रेम, स्वतंत्रता, अन्याय के प्रति विद्रोह और निराशा के प्रति आक्रामकता उनकी कविताओं के मुख्य विषय रहे हैं। 

भारत सरकार ने शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में अपना विशेष योगदान देने के लिए शिवमंगल सिंह 'सुमन' को पहले वर्ष 1974 में ‘पद्म श्री’ और वर्ष 1999 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया था। इसके साथ ही उन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और ‘भारत भारती पुरस्कार’ से भी पुरस्कृत किया जा चुका है। उनकी कुछ रचनाओं को बीए और एमए के सिलेबस में विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता हैं। उनकी कृतियों पर कई शोधग्रंथ लिखे जा चुके हैं। वहीं, बहुत से शोधार्थियों ने उनके साहित्य पर पीएचडी की डिग्री प्राप्त की हैं। 

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

इसके साथ ही UGC/NET में हिंदी विषय से परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों के लिए भी शिवमंगल सिंह 'सुमन' का जीवन परिचय और उनकी रचनाओं का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है। 

प्रसिद्धनारायण चौबे के अनुसार, ‘‘अदम्य साहस, ओज और तेजस्विता एक ओर, दूसरी ओर प्रेम, करुणा और रागमयता, तीसरी ओर प्रकृति का निर्मल दृश्यावलोकन, चौथी ओर दलित वर्ग की विकृति और व्यंग्यधर्मी स्वर यानी प्रगतिशील लता की प्रवृत्ति-शिवमंगल सिंह ‘सुमन की कविताओं की यही मुख्य विशेषताएँ हैं।’’ उनका प्रधान स्वर मानवतावादी था। शिल्प की दृष्टि से उनकी कविताओं में दुरुहता नहीं है, भाव अत्यंत सरल हैं। राजनीतिक कविताओं में व्यंग्य को लक्षित किया जा सकता है। वह अच्छे वक्ता और कवि-सम्मेलनों के सफल गायक कवि रहे।

उनका पहला कविता-संग्रह ‘हिल्लोल’ 1939 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद ‘जीवन के गान’, ‘युग का मोल’, ‘प्रलय-सृजन’, ‘विश्वास बढ़ता ही गया’, ‘पर आँखें नहीं भरीं’, ‘विंध्य-हिमालय’, ‘मिट्टी की बारात’, ‘वाणी की व्यथा’, ‘कटे अँगूठों की बंदनवारें’ संग्रह आए। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ‘प्रकृति पुरुष कालिदास’ नाटक, ‘महादेवी की काव्य साधना’ और ‘गीति काव्य: उद्यम और विकास’ समीक्षा ग्रंथ भी लिखे हैं। ‘सुमन समग्र’ में उनकी कृतियों को संकलित किया गया है।

उन्हें ‘मिट्टी की बारात’ संग्रह के लिए 1974 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उन्हें 1974 में पद्मश्री और 1999 में पद्मभूषण से नवाज़ा।

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण वह था जब उनकी आँखों पर पट्टी बांधकर उन्हे एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। जब आँख की पट्टी खोली गई तो वह हतप्रभ थे। उनके समक्ष स्वतंत्रता संग्राम के महायोद्धा चंद्रशेखर आज़ाद खड़े थे। आज़ाद ने उनसे प्रश्न किया था, क्या यह रिवाल्वर दिल्ली ले जा सकते हो। सुमन जी ने बेहिचक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आज़ादी के दीवानों के लिए काम करने के आरोप में उनके विरुद्ध वारंट ज़ारी हुआ। सरल स्वभाव के सुमन जी सदैव अपने प्रशंसकों से कहा करते थे, मैं विद्वान नहीं बन पाया। विद्वता की देहरी भर छू पाया हूँ। प्राध्यापक होने के साथ प्रशासनिक कार्यों के दबाव ने मुझे विद्वान बनने से रोक दिया।

प्रमुख कृतियाँ, काव्य संग्रह 

हिल्लोल
जीवन के गान
प्रलय-सृजन
विश्वास बढ़ता ही गया
पर आँखें नहीं भरीं
विंध्य हिमालय
मिट्टी की बारात
वाणी की व्यथा
कटे अगूठों की वंदनवारें
गद्य रचनाएँ
महादेवी की काव्य साधना
गीति काव्य: उद्यम और विकास

नाटक

प्रकृति पुरुष कालिदास     

सम्मान और पुरस्कार

1974 में 'मिट्टी की बारात' के लिए साहित्य अकादमी
1993 में 'मिट्टी की बारात' के लिए 'भारत भारती पुरस्कार' से सम्मानित।
1974 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित।
1999 में पद्म भूषण
1958 में देवा पुरस्कार
1974 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार
1993 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शिखर सम्मान

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Shiv Mangal Singh 'Suman'

Original Name: Shiv Mangal Singh
Nickname: 'Suman'
Born: 5 August 1915 | Unnao, Uttar Pradesh
Died: 27 November 2002 | Ujjain, Madhya Pradesh

Shiv Mangal Singh 'Suman' is a well-known name in modern Hindi literature. He was mainly a famous poet and educationist. Poet-writer Shiv Mangal Singh 'Suman' was born on 5 August 1915 in Jhagarpur village of Unnao district of Uttar Pradesh. He completed his research work from Banaras Hindu University. Apart from being a poet-writer, he has served as the Vice Chancellor of 'Vikram University', Ujjain, Vice President of 'Uttar Pradesh Hindi Institute', Lucknow and President of 'Association of Indian Universities', New Delhi. Patriotism, freedom, rebellion against injustice and aggression against despair have been the main themes of his poems.

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

The Government of India honoured Shivmangal Singh 'Suman' with 'Padma Shri' in 1974 and 'Padma Bhushan' in 1999 for his special contribution in the field of education and literature. Along with this, he has also been awarded with 'Soviet Land Nehru Award', 'Sahitya Akademi Award' and 'Bharat Bharti Award'. Some of his works are taught in various universities in the syllabus of BA and MA. Many research papers have been written on his works. At the same time, many researchers have obtained PhD degree on his literature.

Along with this, it becomes necessary for the students appearing for the UGC/NET examination in Hindi subject to study the biography of Shivmangal Singh 'Suman' and his works.

According to Prasiddhanarayan Choubey, “Indomitable courage, vigour and brilliance on one hand, love, compassion and melody on the other, pure visualization of nature on the third, distortion of the Dalit class on the fourth and satirical voice i.e. the tendency of progressive Lata – these are the main characteristics of Shivmangal Singh Suman’s poems.” His main tone was humanist. From the point of view of craft, there is no complexity in his poems, the feelings are very simple. Satire can be targeted in political poems. He was a good speaker and a successful singer poet in poet-conferences.

His first poetry collection ‘Hillol’ was published in 1939. After that came the collections ‘Jeevan ke Gaan’, ‘Yug ka Mol’, ‘Pralaya-Srujan’, ‘Vishwas Badhta Hi Gaya’, ‘Par Aankhon Nahin Bhari’, ‘Vindhya-Himalaya’, ‘Mitti ki Baraat’, ‘Vaani ki Vyatha’, ‘Kate Angootho ki Bandanwaare’. Apart from this, he has also written the play 'Prakriti Purush Kalidas', 'Mahadevi Ki Kavya Sadhna' and 'Geeti Kavya: Udyam Aur Vikas' review books. His works have been compiled in 'Suman Samagra'.

शिव मंगल सिंह 'सुमन'

He was awarded the 1974 Sahitya Akademi Award for the collection 'Mitti Ki Baraat'. The Government of India awarded him the Padma Shri in 1974 and the Padma Bhushan in 1999.

The most important moment in Dr. Shivmangal Singh 'Suman's' life was when he was blindfolded and taken to an unknown place. When the blindfold was removed, he was stunned. Freedom fighter Chandrashekhar Azad was standing in front of him. Azad had asked him, can you take this revolver to Delhi. Suman ji accepted the proposal without hesitation. A warrant was issued against him on the charge of working for freedom fighters. Simple-natured Suman ji always used to tell his fans, I could not become a scholar. I could only touch the threshold of scholarship. Being a professor and the pressure of administrative work prevented me from becoming a scholar. Major works, poetry collections.

यमुनोत्री गंगोत्री, उत्तराखंड || Yamunotri Temple, Uttarakhand

यमुनोत्री मंदिर

उत्तराखंड को देवों की भूमि कहा जाता है। इस पावन स्थल पर कई प्रमुख धार्मिक स्थल हैं। इनमें चार धाम यात्रा विश्व प्रसिद्ध है। ये धाम क्रमशः यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ हैं। चार धाम यात्रा की शुरुआत यमुनोत्री से होती है। समुद्रतल से यमुनोत्री की ऊंचाई 3291 मी है। इस स्थान पर मां यमुना का मंदिर स्थापित है।

यमुनोत्री गंगोत्री, उत्तराखंड || Yamunotri Temple, Uttarakhand

यमुनोत्री मंदिर गढ़वाल हिमालय के पश्चिमी क्षेत्र में, उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी जिले में 3,291 मीटर  (10,804 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदिर देवी यमुना को समर्पित है और इसमें देवी की एक काले संगमरमर की मूर्ति स्थापित है। यमुनोत्री मंदिर उत्तराखंड के मुख्य शहरों - ऋषिकेश, हरिद्वार और देहरादून से पूरे दिन की यात्रा करके पहुंचा जा सकता है। 

यमुनोत्री, यमुना नदी का स्रोत और हिंदू धर्म में देवी यमुना का स्थान है। उत्तराखंड के चार धाम तीर्थ यात्रा में यह चार स्थलों में से एक है। यमुना नदी के स्रोत यमुनोत्री का पवित्र गढ़, गढ़वाल हिमालय में पश्चिमीतम मंदिर है, जो बंदर पुंछ पर्वत की एक झुंड के ऊपर स्थित है। 

यमुनोत्री गंगोत्री, उत्तराखंड || Yamunotri Temple, Uttarakhand

यमुनोत्री मंदिर तक जाने के लिए हनुमान चट्टी शहर से 13 किलोमीटर की ट्रेकिंग करनी पड़ती है। इसके बाद, जानकी चट्टी से 6 किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। इस रास्ते में घोड़े या पालकी भी किराए पर उपलब्ध हैं। हनुमान चट्टी से यमुनोत्री तक की चढ़ाई के दौरान कई झरनें देखे जा सकते हैं। हनुमान चट्टी से यमुनोत्री तक दो ट्रेकिंग मार्ग हैं, एक दाहिने किनारे के साथ मार्कंडेय तीर्थ के माध्यम से आगे बढ़ता है, जहां ऋषि मार्कंडेय ने मार्कंडेय पुराण लिखा था, दूसरा मार्ग जो नदी के बाएं किनारे पर स्थित है, खरसाली से होकर जाता है, जहां से यमुनोत्री पांच या छह घंटे की चढ़ाई की दूरी पर है। 

यह मंदिर अक्षय तृतीया को खुलता है और सर्दियों के लिए यम द्वितीया (दिवाली के बाद दूसरा दिन) को बंद हो जाता है। थोड़ा आगे यमुना नदी का वास्तविक स्रोत है, जो लगभग 4,421 मीटर की ऊंचाई पर है। यमुनोत्री में दो गर्म झरने भी मौजूद हैं, जो 3,292 मीटर की ऊंचाई पर हैं। सूर्य कुंड में गर्म पानी होता है, जबकि गौरी कुंड में स्नान के लिए उपयुक्त गुनगुना पानी होता है। मंदिर के आसपास कुछ छोटे आश्रम और गेस्ट हाउस उपलब्ध हैं। यहां उनियाल परिवार के पुजारियों द्वारा प्रसाद बनाने उसके वितरण करने और अनुष्ठान पूजा जैसे कर्तव्यों का पालन किया जाता है। 

यमुना की मूर्ति में एक काली सफेद में एक महिला दृष्टि है और यमुना बंदर पुंछ रेंज में कालींदी पर्वत से बहती है। यहां फूल, विशेष रूप से जंगली गुलाब, बहुतायत में बढ़ते हैं। यमुनोत्री कुछ हरे रंग की चेस्टनट के पेड़ से घिरा हुआ है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार यमुना में एक डुबकी लगाने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। 

सनातन शास्त्रों में निहित है कि इस स्थल पर असित मुनि रहते थे। आसान शब्दों में कहें तो यमुनोत्री उनका निवास स्थान था। ब्रह्मांड पुराण में यमुनोत्री को पावन स्थल बताया गया है। साथ ही यमुना नदी के बारे में विस्तार से बताया गया है।

यमुनोत्री गंगोत्री, उत्तराखंड || Yamunotri Temple, Uttarakhand

महाभारत काल में पांडवों ने चार धाम यात्रा की शुरुआत यमुनोत्री से की थी। इसके बाद क्रमशः गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा की थी। उस समय से चार धाम यात्रा की शुरुआत यमुनोत्री से की जाती है। यमुनोत्री प्रांगण में एक स्तंभ स्थापित है। इस विशाल स्तंभ को दिव्यशिला कहा जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में पदयात्रा कर पहुंचना होता है। पूर्व में वाहन से श्रद्धालु हनुमान चट्टी तक पहुंचते थे। इस स्थल से मंदिर की दूरी 14 किलोमीटर है। वहीं, अब श्रद्धालु जानकी चट्टी तक वाहन से पहुंच सकते हैं। यहां से मंदिर की दूरी महज 5 किलोमीटर है। इस दौरान श्रद्धालु देवी-देवताओं का उद्घोष करते हैं। ऋषिकेश से यमुनोत्री की दूरी 200 किलोमीटर है। माता यमुना मंदिर का निर्माण टिहरी गढवाल के महाराजा प्रताप शाह ने करवाया था।

मंदिर के कपाट दीवाली के बाद बंद कर दिए जाते हैं। वहीं, अक्षय तृतीया के दिन चार धाम के कपाट खोले जाते हैं। हर साल बड़ी संख्या में श्रद्धालु चार धाम की यात्रा करते हैं। श्रद्धालु देश की राजधानी दिल्ली से वायु, सड़क और रेल मार्ग के जरिए यमुनोत्री के निकटतम गंतव्य तक पहुंच सकते हैं।

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Yamunotri Temple

Uttarakhand is called the land of Gods. There are many major religious places on this holy place. Among these, the Char Dham Yatra is world famous. These Dhams are Yamunotri, Gangotri, Kedarnath and Badrinath respectively. The Char Dham Yatra starts from Yamunotri. The height of Yamunotri is 3291 m above sea level. The temple of Mother Yamuna is established at this place.

यमुनोत्री गंगोत्री, उत्तराखंड || Yamunotri Temple, Uttarakhand

Yamunotri Temple is located in the western region of the Garhwal Himalayas, in Uttarkashi district of Uttarakhand state at an altitude of 3,291 meters (10,804 feet). This temple is dedicated to Goddess Yamuna and a black marble statue of the goddess is installed in it. Yamunotri Temple can be reached by a full day trip from the main cities of Uttarakhand - Rishikesh, Haridwar and Dehradun.

Yamunotri is the source of the Yamuna River and the place of Goddess Yamuna in Hinduism. It is one of the four sites in the Char Dham pilgrimage of Uttarakhand. The sacred citadel of Yamunotri, the source of the river Yamuna, is the westernmost temple in the Garhwal Himalaya, situated atop a spur of the Bandar Poonch Mountains.

To reach the Yamunotri temple, one has to trek 13 km from the town of Hanuman Chatti. After this, one has to trek 6 km from Janaki Chatti. Horses or palanquins are also available for hire along this route. Several waterfalls can be seen during the climb from Hanuman Chatti to Yamunotri. There are two trekking routes from Hanuman Chatti to Yamunotri, one proceeds along the right bank through Markandeya Tirtha, where the sage Markandeya wrote the Markandeya Purana, the other route which is located on the left bank of the river goes through Kharsali, from where Yamunotri is a five or six hour uphill walk.

The temple opens on Akshaya Tritiya and closes for the winter on Yama Dwitiya (the second day after Diwali). A little further is the actual source of the Yamuna river, which is at an altitude of about 4,421 metres. Two hot springs are also present at Yamunotri, which is at an altitude of 3,292 metres. The Surya Kund has hot water, while the Gauri Kund has lukewarm water suitable for bathing. A few small ashrams and guest houses are available around the temple. The duties like making, distributing prasad and performing ritual worship are performed by the priests of the Uniyal family.

यमुनोत्री गंगोत्री, उत्तराखंड || Yamunotri Temple, Uttarakhand

The idol of Yamuna has a female visage in black and white and the Yamuna flows from the Kalindi mountain in the Bandar Poonch range. Flowers, especially wild roses, grow in abundance here. Yamunotri is surrounded by a few green chestnut trees. According to Hindu mythology a dip in the Yamuna frees one from all sins.

It is contained in the Sanatan scriptures that sage Asit lived at this site. In simple words, Yamunotri was his abode. Yamunotri is described as a holy place in the Brahmanda Purana. Also, Yamuna river has been described in detail.

During the Mahabharata period, the Pandavas started the Char Dham Yatra from Yamunotri. After this, they visited Gangotri, Kedarnath and Badrinath respectively. Since that time, the Char Dham Yatra is started from Yamunotri. A pillar is installed in the Yamunotri courtyard. This huge pillar is called Divyashila. One has to reach the courtyard of this temple by foot. Earlier, devotees used to reach Hanuman Chatti by vehicle. The distance of the temple from this place is 14 kilometers. Whereas, now devotees can reach Janaki Chatti by vehicle. The distance of the temple from here is just 5 kilometers. During this time, devotees chant the names of gods and goddesses. The distance of Yamunotri from Rishikesh is 200 kilometers. Mata Yamuna Temple was built by Maharaja Pratap Shah of Tehri Garhwal.

यमुनोत्री गंगोत्री, उत्तराखंड || Yamunotri Temple, Uttarakhand

The doors of the temple are closed after Diwali. At the same time, the doors of the four Dhams are opened on the day of Akshaya Tritiya. Every year a large number of devotees visit the four Dhams. Devotees can reach the nearest destination of Yamunotri by air, road and rail from the country's capital Delhi.

आधा सीसी (माइग्रेन) || Migraine

 आधा सीसी (माइग्रेन) माइग्रेन से बचाव के घरेलू उपचार

माइग्रेन क्या है : -  

यह एक ऐसी बीमारी है जिसमें सिर के आधे हिस्से में दर्द होता है। कभी -कभी पुरे सिर में भी हो जाता है। यह कई वजह से होती है तथा माइग्रेन की समस्या का कारण हर किसी के लिए अलग- अलग होता है। किसी किसी में यह समस्या आनुवंशिक भी होता है। यह किसी भी उम्र के व्यक्ति को हो सकता है।

माइग्रेन से बचाव के घरेलू उपचार

आधासीसी का दर्द अधिकाशंतः दिन में ही होता है। यह अत्यधिक मानसिक श्रम, पेट में वायु के बने रहने से, शरीर में धातु दोष होने से होता है। यह पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक होता है। आधासीसी का रोग सिर के आधे हिस्से में ही होता है और काफी तेज दर्द होता है और रोगी बेचैन हो जाता है।

माइग्रेन क्यों होता है : -  

माइग्रेन में होने वाले सिर दर्द के कई कारण हो सकते हैं।
1. किसी चीज से एलर्जी।
2. दर्द निवारक दवाओं का ज्यादा सेवन।
3. हाई ब्लड प्रेशर।
4. नींद पूरी न होना।
5. मौसम में बदलाव।
6. हार्मोनल बदलाव।

माइग्रेन से बचाव : -  

माइग्रेन से पीड़ित व्यक्ति को कभी भी इसका अटैक पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में सभी को यह पता लगाना चाहिए की दर्द की वजह क्या है और हमेशा उन उपायों पर गौर फरमाना चाहिए, जिनसे माइग्रेन के अटैक से अपना बचाव कर सकते हैं।
1. अगर मौसम में बदलाव वजह हो तो , तेज़ धूप होने की स्थिति में घर से बाहर निकलने से बचें।
2. तीव्र महक वजह हो तो, तेज़ खुशबू वाले परफ्यूम या डियो न लगाएं।
3. अपनी नींद में किसी तरह की कमी या खलल न पड़ने दें। शांत वातावरण में पर्याप्त नींद लेने की कोशिश करें।
4. तनाव के कारण भी माइग्रेन होता है। माइग्रेन से बचने के लिए मेडिटेशन, योग व एक्सरसाइज़ को अपनी नियमित दिनचर्या में शामिल करें।
5. दर्द निवारक दवाओं के ज्यादा सेवन से बचें। 
6. संतुलित आहार लें। 
7. अपने दैनिक जीवन में योग और मेडिटेशन को शामिल करें। 

माइग्रेन से बचाव के घरेलू उपचार निम्नलिखित हैं-

# बादाम का तेल नाक में डालने से आराम मिलता।

# मेहंदी की पत्तियों को पीसकर माथे पर लेप लगाएं।

# दर्द के समय नाक में सरसों का तेल डालकर ऊपर की ओर खींचने से दर्द में काफी राहत मिलती है।

# देशी गाय का घी नाक के नथुनों में डालें।

# एक चुटकी नौसादर और आधा चम्मच अदरक का रस शहद में मिलाकर रोगी को चटाई।

# तुलसी के रस में शहद मिला कर सेवन करने से दर्द में आराम मिलता है।

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

गुरु तेग़ बहादुर (Guru Tegh Bahadur)

गुरु तेगबहादुर जी मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतन्त्रता के लिए अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रान्तिकारी युग पुरुष थे। गुरु तेगबहादुर जी का शीश औरंगजेब ने 24 नवम्बर 1675 को दिल्ली के चाँदनी चौक में फतवा पढ़वाकर जलालदिन जल्लाद के हाथों तलवार से कटवाया था। इसलिए इस दिन को गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है और उनकी शहादत को याद किया जाता है। 

कौन थे गुरु तेगबहादुर? क्यों इतिहास के पन्नो में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा गया इनका नाम?

श्री गुरु तेग बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे। इनका जन्म अमृतसर में 1 अप्रैल 1621 में हुआ था। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धान्त की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है। सारे विश्व मे सिख समुदाय के साथ साथ अन्य धर्मों के लोग भी गुरु तेगबहादुर जी से अत्यधिक प्रभावित हैं।

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

सन 1675 में जब मुग़ल शासक औरंगजेब ने उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को कहा एवं अपने प्रयत्नों से बाध्य करना चाहा, तब श्री गुरु तेगबहादुरजी जी ने कहा था शीश कटा सकता हुँ अपना पर अपने केश (बाल ) नहीं। उनके इस कथन को सुनकर मुगल बादशाह औरंगजेब ने गुस्से में सबके सामने उनका शीश कटवा दिया था। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब एवं गुरुद्वारा रकाव गंज साहिब आज भी उन स्थानों की याद दिला देते हैं, जहाँ गुरु तेगबहादुरजी का शीश काटा गया एवं उनका अंतिम संस्कार किया गया था। गुरु जी का बलिदान हमें बताता है कि उन्होंने अपने धर्म पालन के लिए अपने प्राणों का मोह तक न किया। धर्म के प्रति उनकी आस्था कितनी कियोशक्तिप्रबल थी। 

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

गुरु तेग़ बहादुर जी ने समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए बलिदान दिया था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।

मुगल शासक औरंगजेब की धर्म विरोधी धर्म के प्रति वैचारिक स्वतंत्रता को खत्म करने वाली गतिविधियों इक्षाओ के खिलाफ गुरु तेगबहादुर जी का बलिदान ऐतिहासिक घटना थी। गुरु जी का जीवन सदैव अपने धर्म के नियम सिद्धांत पर अडीग रहते हुए धर्म पालन का अद्भुत प्रमाण देता है।

उन्होंने धर्म के प्रचार प्रसार के लिए कई स्थानों का भ्रमण किया था। इन्ही यात्राओं के बीच 1666 में गुरु साहेब को पटना में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जो आगे चल कर दसवें गुरुगोविंद सिंह हुए।

गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान की गाथा

औरंगजेब के शासन काल में उसके दरबार में एक विद्वान पंडित आकर गीता के श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगजेब को गीता सुनाने के लिए उसने अपने बेटे को भेज दिया, किंतु उसे किन श्लोकों  छोड़ना है ये बताना भूल गया जिनका अर्थ वहां नहीं करना था।

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

दरबार में पहुंचकर पंडित के बेटे ने जाकर औरंगजेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया, जिससे औरंगजेब को यह स्पष्ट हो गया कि हर धर्म अपने आपमें एक महान धर्म है और औरंगजेब खुद के धर्म के अलावा किसी और धर्म की प्रशंसा नहीं सुन सकता था। उसके सलाहकारों ने उसे सलाह दी कि वह सबको इस्लाम धारण करवा दे। औरंगजेब ने सबको इस्लाम धर्म अपनाने का आदेश दिया और कुछ लोगों को यह कार्य सौंप दिया।

उसने सबसे कह दिया कि इस्लाम धर्म कबूल करो या मौत को गले लगाओ। ऐसे में अन्य धर्म के लोगों का जीना मुश्किल हो गया। इस जुल्म के शिकार कश्मीरी पंडित गुरु तेगबहादुर के पास आए और उन्हें बताया कि किस तरह ‍इस्लाम धर्म स्वीकारने के लिए दबाव बनाया जा रहा है और न करने वालों को तरह-तरह की यातनाएं दी जा रही हैं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत को खतरा है। जहां से हम पानी भरते हैं वहां हड्डियां फेंकी जाती है। हमें बुरी तरह मारा जा रहा है। 

जिस समय यह लोग समस्या सुना रहे थे उसी समय गुरु तेगबहादुर के नौ वर्षीय सुपुत्र बाला प्रीतम (गुरु गोविंदसिंह) वहां आए और पिताजी से पूछा- पिताजी यह लोग इतने उदास क्यों हैं? आप इतनी गंभीरता से क्या सोच रहे हैं? गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों की सारी समस्या बताई तो बाला प्रीतम ने कहा- इसका निदान कैसे होगा? गुरु साहिब ने कहा- इसके लिए बलिदान देना होगा। बाला प्रीतम ने कहा कि आपसे महान पुरुष मेरी नजर में कोई नहीं है, भले ही बलिदान देना पड़े पर आप इनके धर्म को बचाइए।

ऐसा कहने पर  प्रीतम को समझाया गया कि अगर आपके पिता जी बलिदान दे देंगे तो आप यतीम हो जाएंगे और आपकी मां विधवा हो जाएगी। बालक ने कहा कि अगर मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों लोग यतीम होने से बच सकते हैं और अकेले मेरी मां के विधवा होने से लाखों मां विधवा होने से बच सकती हैं, तो मुझे यह स्वीकार है। फिर गुरु तेगबहादुर ने उन पंडितों से कहा कि जाकर औरंगजेब से कह ‍दो ‍अगर गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धारण कर लिया तो हम भी कर लेंगे और अगर तुम उनसे इस्लाम धारण नहीं करा पाए तो हम भी इस्लाम धारण नहीं करेंगे और तुम हम पर जबरदस्ती नहीं कर पाओगे। औरंगजेब ने इस बात को स्वीकार कर लिया।

गुरु तेगबहादुर दिल्ली में औरंगजेब के दरबार में स्वयं चलकर गए। वहां औरंगजेब ने उन्हें तरह-तरह के लालच दिए। लेकिन बात नहीं बनी तो उन पर बहुत सारे जुल्म किए। उन्हें कैद कर लिया गया। औरंगजेब की सभा में गुरु तेग बहादुर और उनके शिष्यों को पेश किया गया और उनके ही सामने उनके शिष्यों के सिर कलम कर दिये गए, लेकिन उनकी आंखों में डर का नामो निशान तक नहीं था। वहीं उनके भाई मति दास के शरीर के दो टुकड़े कर डाले। भाई दयाल सिंह और तीसरे भाई सति दास को भी दर्दनाक अंत दिया गया, फिर भी गुरु तेग़ बहादुर को उनके इरादों से डिगा न सके।

गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस || Guru Teg Bahadur Shaheedi Diwas

गुरु तेगबहादुर जी ने औरंगजेब से कहा कि अगर तुम जबरदस्ती करके लोगों को इस्लाम धारण करने के लिए मजबूर कर रहे हो, तो तुम खुद भी सच्चे मुसलमान नहीं हो, क्योंकि तुम्हारा धर्म भी यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म किया जाए। औरंगजेब को यह सुनकर बहुत गुस्सा आया और उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु साहिब के शीश को काटने का हुक्म दे दिया।

गुरु तेगबहादुर जी अपने धर्म पालन के लिए सदैव सबकी जेहन में जिंदा हैं और रहेंगे। गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी शहादत से पहले ही 8 जुलाई, 1675 को गुरु गोविंद सिंह को सिखों का 10वां गुरु घोषित कर दिया था। 

निन्दा तू न गई मन से

निन्दा तू न गई मन से

परनिंदा में जो सुख है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है। मन को शांति मिल जाती है। स्त्रियां बहुत होशियार होती हैं। वे इसका पूरा लुत्फ़ उठती हैं। वे इसके आनंद को भली भांति समझती हैं। दिन में दो चार घंटे भी अगर आनन्द पूर्वक न बिताया तो जीवन व्यर्थ सा प्रतीत होता है। 

निन्दा तू न गई मन से

पुरुषों को तो अपने काम से ही फुरसत नहीं मिलती, बेचारे। कभी कभार कोई मौका मिलता भी है तो बोलते हैं कि पहले ही इतने लफ़ड़े हैं, जिंदगी में अब उसके पचड़े में क्यों अपनी नाक घुसेड़ूँ। फिर उनके पास एक गुप्त कार्य भी होता है, ताक झांक करने का, इनसे फुर्सत मिले तब ना।

निंदा की एक बड़ी खूबी है, जितना करो, इसकी इच्छा उतनी ही बढ़ती जाती है। आनन्द भी उतना ही बढ़ता जाता है। इसी आनन्द को हासिल करने के लिए ही तो स्त्रियां निंदा में मशगूल होती हैं।

एक महान हास्य साहित्यकार हुए हैं, नाम सुना होगा आप लोगों ने श्रीमान "हरिशंकर परसाई"। उन्होंने काफी शोध किया है इस विषय पर। उनका कहना है कि निंदा में भरपूर विटामिन और प्रोटीन होते हैं। इससे खून साफ़ होता है और पाचन क्रिया बेहतर होती है। यह बल और स्फूर्ति देती है और पायरिया का शर्तिया इलाज है।

संतों को परनिंदा की मनाही है सो वे स्वनिन्दा से काम चलाते हैं। उन्हीं के लिए गोस्वामी जी ने राह दिखाई है "मो सो कौन कुटिल खल कामी"। यह संत की विनय या आत्मग्लानि नहीं है। टॉनिक है। 

अब यह शोध का विषय हो सकता है कि स्त्रियों ने सन्तों से प्रेरणा ली या सन्तों ने स्त्रियों से।

अब स्त्रियां निन्दा न करें तो क्या करें? पड़ोसन खूबसूरत है, अच्छे वस्त्र पहनती है तो डर तो लगता है ना। करमजली उसके पति को फाँस तो नहीं रही? बदसूरत है, गन्दगी से रहती है तो अपना स्टेटस गड़बड़ाता है। फिर आपकी सोसाइटी में आजू बाजू, ऊपर नीचे न जाने कितनी ही स्त्रियां रहतीं हैं। अब बम्बई वाला कल्चर आ गया है तो लोग बगल वाले को भी नहीं पहचानते। फिर क्या करें वो, मन के गुबार को दीवारों पर या हवा में तो नहीं निकाल सकती ना। वैसे जिनको निंदा के लिए कोई पार्टनर नहीं मिल पाता उन्हें आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हवा से बातें करते हुए देखा है। यूपी बोर्ड से पढ़े हुए बन्धु इस तथ्य से भली भांति परिचित होंगे।

गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" मुझे लगता है कि वे शायद "पर निन्दा कुशल बहुतेरे" लिखना चाहते थे। पर अपनी पत्नी से कौन नहीं डरता। परसाई जी बहुत हिम्मती थे। नर्मदा के जल का कुछ प्रभाव रहा होगा जो इतना कुछ लिख गए (वैसे नर्मदा जल का कुछ प्रभाव तो मुझ पर भी है )

आजकल इंटरनेट का ज़माना है। निन्दा भी मॉडर्न हो गई है। अब वह फेसबुक और वाट्स एप्प पर ज्यादा पाई जाती है। एक झंझट खत्म हुआ। पहले निन्दा चर्चा में मुंह दर्द होता था। अब उससे मुक्ति मिल गई है। कोई आवाज नहीं और कार्य फटाफट हो रहा है। और अब तो अड़ोस पड़ोस में कोई पार्टनर न भी मिला तो कोई गम नहीं। पार्टनर बम्बई या अहमदाबाद से भी ऑप्ट किया जा सकता है।

पर हर जगह कुछ न कुछ रिस्क तो रहता ही है। कल मिसेज सिंह मिसेज तिवारी से शिकायत कर रहीं थीं कि उन्होंने सरोज से चैटिंग में कमीनी कामिनी की पूरी पोल पट्टी खोल दी। पर सरोज तो और भी छिनाल निकली, उसने मेरे पोस्ट सब कामिनी को कॉपी पेस्ट कर दिए। अब मैंने उसकी असलियत सबको न बताई तो कहना।

कबीरदास जी भी कह गए हैं कि "निन्दक नियरे राखिए" यानी कि शादी अवश्य कीजिए। वैसे महान लोगों का अनुभव बताता है कि इसका लाभ भी शुरुआत के वर्षों में नहीं मिलता। चार छह साल बाद ही नियरे रखने का लाभ मिल पाता है।

ये पुराण सतयुग से प्रारम्भ हुआ है और अभी चल रहा है जब कि बाकी पुराणों को लोग पढ़ कर भूल भी गए। अस्तु। 

इति श्रीनिन्दा पुराण 1001 वां अध्याय।

( सभी निंदकों से क्षमा याचना सहित)

हरियाणा का राजकीय फूल " कमल " || State flower of - Haryana - "Lotus"

हरियाणा का राजकीय फूल

सामान्य नाम:  कमल 
स्थानीय नाम: कमल 
वैज्ञानिक नाम: 'नेलुम्बो न्यूसिफ़ेरा'

कमल या वाटर लिली एक जलीय पौधा है जिसके चौड़े, तैरते हुए हरे पत्ते और चमकीले सुगंधित फूल होते हैं जो केवल उथले पानी में ही उगते हैं। इसके फूल के रंग के आधार पर इसे दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है, लाल कमल का फूल और सफ़ेद कमल का फूल। सुंदर फूल तैरते हैं और इनमें कई पंखुड़ियाँ एक सममित पैटर्न में एक दूसरे पर ओवरलैप होती हैं। कमल, अपनी शांत सुंदरता के लिए बेशकीमती हैं, तालाब की सतह पर खिलते हुए उनके फूलों को देखना आनंददायक होता है।
हरियाणा का राजकीय फूल " कमल " || State flower of - Haryana  - "Lotus"

हरियाणा के राज्य प्रतीक  

राज्य पशु – कृष्णमृग
राज्य पक्षी – ब्लैक फ्रैंकोलीन (काला तीतर)
राज्य वृक्ष – पीपल,पीपुल या बो पेड़ 
राज्य पुष्प – कमल 
राज्य की भाषा – हरियाणवी 
राज्य गीत – जकड़ी

कमल एक जलीय पौधा है जो हिंदुओं और बौद्धों के लिए पवित्र माना जाता है और अक्सर हमारी कला और पौराणिक कथाओं में दर्शाया जाता है। यह कई संस्कृतियों में पवित्रता और ज्ञान का प्रतीक भी है। कमल एक जलीय बारहमासी पौधा है जो कीचड़ या उथले पानी में उगता है। कमल के बड़े, गोल पत्ते होते हैं जो पानी पर तैरते हैं, और सुंदर गुलाबी या सफेद फूल होते हैं, जो गर्मियों में खिलते हैं। 

हरियाणा का राजकीय फूल " कमल " || State flower of - Haryana  - "Lotus"

इसका उपयोग भोजन, दवा और धार्मिक समारोहों सहित कई उद्देश्यों के लिए किया जाता है। हिंदू धर्म में, कमल भगवान विष्णु और ब्रह्मा से जुड़ा हुआ है और इसे एक पवित्र पौधा माना जाता है। बौद्ध धर्म में, कमल ज्ञान का प्रतीक है और इसे अक्सर बुद्ध जी के हाथों में दर्शाया जाता है। कमल भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का एक अभिन्न अंग है।

हरियाणा का राजकीय फूल " कमल " || State flower of - Haryana  - "Lotus"

इसके अलावा, कमल एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक संकेतक है, क्योंकि यह कठोर और प्रदूषित वातावरण में भी विकसित और जीवित रह सकता है । प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद खिलने की इसकी लचीलापन और क्षमता इसे आशा और लचीलेपन का एक शक्तिशाली प्रतीक बनाती है। भारत का राष्ट्रीय फूल होने के नाते, कमल राष्ट्रीय पहचान और गौरव का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। यह देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है, और अक्सर भारतीय कला, वास्तुकला और डिजाइन में दर्शाया जाता है।

हरियाणा का राजकीय फूल " कमल " || State flower of - Haryana  - "Lotus"
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State flower of - Haryana

Common name: Lotus
Local name: Lotus
Scientific name: 'Nelumbo nucifera'

The lotus or water lily is an aquatic plant with broad, floating green leaves and brightly scented flowers that grow only in shallow water. It is divided into two types, red lotus flower and white lotus flower, depending on the color of its flower. The beautiful flowers float and have many petals that overlap each other in a symmetrical pattern. Lotus, prized for their serene beauty, is a delight to watch as their flowers bloom on the surface of a pond.
हरियाणा का राजकीय फूल " कमल " || State flower of - Haryana  - "Lotus"

State symbols of Haryana

State animal – Blackbuck
State bird – Black Francolin
State tree – Peepal, Pipal or Bo tree
State flower – Lotus
State language – Haryanvi
State song – Jakdi

The lotus is an aquatic plant that is considered sacred to Hindus and Buddhists and is often depicted in our art and mythology. It is also a symbol of purity and wisdom in many cultures. The lotus is an aquatic perennial plant that grows in muddy or shallow water. The lotus has large, round leaves that float on water, and beautiful pink or white flowers, which bloom in summer.

It is used for many purposes, including food, medicine, and religious ceremonies. In Hinduism, the lotus is associated with Lord Vishnu and Brahma and is considered a sacred plant. In Buddhism, the lotus symbolizes wisdom and is often depicted in the hands of the Buddha. The lotus is an integral part of Indian culture and spirituality.

हरियाणा का राजकीय फूल " कमल " || State flower of - Haryana  - "Lotus"

Also, the lotus is an important ecological indicator, as it can grow and survive even in harsh and polluted environments. Its resilience and ability to bloom despite adversity makes it a powerful symbol of hope and resilience. Being the national flower of India, the lotus is an important symbol of national identity and pride. It represents the country's rich cultural heritage, and is often depicted in Indian art, architecture and design.