श्रीमद्भगवद्गीता || अध्याय ग्यारह- विश्वरूपदर्शनयोग ||
भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना
संजय उवाच
भावार्थ : संजय बोले- केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर काँपते हुए नमस्कार करके, फिर भी अत्यन्त भयभीत होकर प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गद्गद् वाणी से बोले॥35॥
अर्जुन उवाच
भावार्थ :
अर्जुन बोले- हे अन्तर्यामिन्! यह योग्य ही है कि आपके नाम, गुण और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है तथा भयभीत राक्षस लोग दिशाओं में भाग रहे हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार कर रहे हैं॥36॥
भावार्थ :
हे महात्मन्! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिए वे कैसे नमस्कार न करें क्योंकि हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं॥37॥
भावार्थ :
आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इन जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे यह सब जगत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण हैं॥38॥
भावार्थ :
आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिए हजारों बार नमस्कार! नमस्कार हो!! आपके लिए फिर भी बार-बार नमस्कार! नमस्कार!!॥39॥
भावार्थ : हे अनन्त सामर्थ्यवाले! आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार! हे सर्वात्मन्! आपके लिए सब ओर से ही नमस्कार हो, क्योंकि अनन्त पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं॥40॥
भावार्थ :
आपके इस प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैंने 'हे कृष्ण!', 'हे यादव !' 'हे सखे!' इस प्रकार जो कुछ बिना सोचे-समझे हठात् कहा है और हे अच्युत! आप जो मेरे द्वारा विनोद के लिए विहार, शय्या, आसन और भोजनादि में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किए गए हैं- वह सब अपराध अप्रमेयस्वरूप अर्थात अचिन्त्य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ ॥41-42॥
भावार्थ :
आप इस चराचर जगत के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अनुपम प्रभाववाले! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं हैं, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है॥43॥
भावार्थ : अतएव हे प्रभो! मैं शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर, प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करता हूँ। हे देव! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्नी के अपराध सहन करते हैं- वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्य हैं। ॥44॥
भावार्थ :
मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है, इसलिए आप उस अपने चतुर्भुज विष्णु रूप को ही मुझे दिखलाइए। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्न होइए॥45॥
भावार्थ : मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूँ। इसलिए हे विश्वस्वरूप! हे सहस्रबाहो! आप उसी चतुर्भुज रूप से प्रकट होइए॥46॥
🙏🙏
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण
ReplyDeleteJai shri krishna
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा 🙏🙏
ReplyDeleteश्रीमद्भागवत गीता में निहित जीवन दर्शन यदि हम अपने जीवन में उतार लें तो हमारी समस्त परेशानियां स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी
Jai shree krishna 🙏
ReplyDelete🌹🙏गोविंद🙏🌹
ReplyDeleteजय श्री गोविंद हरे मुरारी 🙏🏻
ReplyDelete🙏🙏💐💐शुभरात्रि 🕉️
ReplyDelete🙏जय श्री कृष्णा🚩🚩🚩
🙏जय श्री कृष्णा 🚩🚩🚩
🙏जय श्री कृष्णा 🚩🚩🚩
👌👌बहुत बढ़िया, आप का बहुत बहुत धन्यवाद 💐💐
राधे राधे जय श्री कृष्णा 🪷🪷🙏🏻🙏🏻
ReplyDeleteJai shree krishna
ReplyDeleteJai shree krishna
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