श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta)
इस ब्लॉग के माध्यम से हम सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता प्रकाशित कर रहे हैं, इसके तहत हम सभी 18 अध्यायों और उनके सभी श्लोकों का सरल अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करेंगे।
श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्यायों में से अध्याय 1,2,3,4,5, 6, 7 और 8 के पूरे होने के बाद आज प्रस्तुत है, अध्याय 9 के सभी अनुच्छेद।
श्रीमद्भगवद्गीता || अध्याय नौवाँ- राजविद्याराजगुह्य योग ||
नवमोऽध्यायः- राजविद्याराजगुह्ययोग
अध्याय नौ के अनुच्छेद 01 -06
अध्याय नौ के अनुच्छेद 01-06 में परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार बताया गया है।
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्| | 9.1 ||
भावार्थ :
श्री भगवान बोले- तुझ दोषदृष्टिरहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुनः भली भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जाएगा॥1॥
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् || 9.2 ||
भावार्थ :
यह विज्ञान सहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है॥2॥
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि || 9.3 ||
भावार्थ :
हे परंतप! इस उपयुक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं॥3॥
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः || 9.4 ||
भावार्थ :
मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत् जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ॥4॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः || 9.5 ||
भावार्थ :
वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं, किंतु मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख कि भूतों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है॥5॥
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय || 9.6 ||
भावार्थ :
जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाला महान् वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से संपूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान॥6॥
अध्याय नौ के अनुच्छेद 07-10
अध्याय नौ के अनुच्छेद 07-10 में जगत की उत्पत्ति के विषय में बताया गया है।
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् || 9.7 ||
भावार्थ :
हे अर्जुन! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ॥7॥
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् || 9.8 ||
भावार्थ :
अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूतसमुदाय को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ॥8॥
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु || 9.9 ||
भावार्थ :
हे अर्जुन! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश (जिसके संपूर्ण कार्य कर्तृत्व भाव के बिना अपने आप सत्ता मात्र ही होते हैं उसका नाम 'उदासीन के सदृश' है।) स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते॥9॥
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || 9.10 ||
भावार्थ :
हे अर्जुन! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्वजगत को रचती है और इस हेतु से ही यह संसारचक्र घूम रहा है॥10॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
ReplyDeleteJai shree krishna🙏🙏
ReplyDeleteShree Krishna govind hare murari hey naath Narayan vasudev 🙏🙏
ReplyDeleteJai shri shri krishna
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteप्रकृति चराचर सहित सर्वजगत को रचने वाले
ReplyDeleteतथा इसके लिये ही इस मायालोक को घूमने वाले
भी गोविंद ही हैं। मारने वाले भी वही हैं और बचाने वाले भी यही तो गोविंद की लीला है।
प्रभु की लीला प्रभु ही जाने🙏
प्रकृति चराचर सहित सर्वजगत को रचने वाले
ReplyDeleteतथा इसके लिये ही इस मायालोक को घूमने वाले
भी गोविंद ही हैं। मारने वाले भी वही हैं और बचाने वाले भी यही तो गोविंद की लीला है।
प्रभु की लीला प्रभु ही जाने🙏
कर्म करना ही अधिकार है ,फल की इच्छा में नहीं।
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा
ReplyDeleteकर्म प्रधान जीवन मंत्र
ReplyDeleteजय श्री मन नारायण
ReplyDeleteBhagwat Geeta ka saar....karm karo
ReplyDelete🙏🙏🙏
ReplyDeleteJai shree krishna
ReplyDeleteJai shree krishna
ReplyDeleteJai shree krishna
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