अपरीक्षितकारकम्
दक्षिण प्रदेश में एक प्रसिद्ध नगर पाटलिपुत्र में मणिभद्र नाम का एक धनिक महाजन रहता था। लोक-सेवा और धर्म-कार्यों में रत रहने से उसके धन-संचय में कुछ कमी आ गई, समाज में मान घट गया। इससे मणिभद्र को बहुत दुःख हुआ। वह दिन-रात चिन्तातुर रहने लगा। वह चिन्ता निष्कारण नहीं थी। धनहीन मनुष्य के गुणों का भी समाज में आदर नहीं होता।
उसके शील-कुल-स्वभाव की श्रेष्ठता भी दरिद्रता में दब जाती है। बुद्धि, ज्ञान और प्रतिभा के सब गुण निर्धनता के तुषार में कुम्हला जाते हैं। जैसे पतझड़ के झंझावात में मौलसिरी के फूल झड़ जाते हैं, उसी तरह घर-परिवार के पोषण की चिन्ता में उसकी बुद्धि कुन्द हो जाती है। घर की घी, तेल, नमक, चावल की निरन्तर चिन्ता प्रखर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति की प्रतिभा को भी खा जाती है। धनहीन घर श्मशान का रूप धारण कर लेता है। प्रियदर्शना पत्नी का सौन्दर्य भी रूखा और निर्जीव प्रतीत होने लगता है। जलाशय में उठते बुलबुलों की तरह उसकी मान-मर्यादा समाज में नष्ट हो जाती है।
निर्धनता की इन भयानक कल्पनाओं में मणिभद्र का दिल काँप उठा। उसने सोचा, इस अपमानपूर्ण जीवन से मृत्यु अच्छी है। इन्हीं विचारों में डूबा हुआ था कि उसे नींद आ गई। नींद में उसने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में पद्मनिधि ने एक भिक्षु की वेश-भूषा में उसे दर्शन दिए और कहा कि वैराग्य छोड़ दे। तेरे पूर्वजों ने मेरा भरपूर आदर किया था। इसलिए तेरे घर आया हूँ। कल सुबह फिर इसी वेश में तेरे पास आऊँगा। उस समय तू मुझे लाठी की चोट से मार डालना। तब मैं मरकर स्वर्णमय हो जाऊँगा। वह स्वर्ण तेरी गरीबी को हमेशा के लिए मिटा देगा।
सुबह उठने पर मणिभद्र इस स्वप्न की सार्थकता के सम्बन्ध में ही सोचता रहा। उसके मन में विचित्र शंकाएँ उठने लगीं। न जाने यह स्वप्न सत्य था या असत्य, यह सम्भव है या असम्भव, इन्हीं विचारों में उसका मन डाँवाडोल हो रहा था। हर समय धन की चिन्ता के कारण ही शायद उसे धनसंचय का स्वप्न आया था। उसे किसी के मुख से सुनी हुई यह बात याद आ गई कि रोगग्रस्त, शोकातुर, चिन्ताशील और कामार्त मनुष्य के स्वप्न निरर्थक होते हैं। उनकी सार्थकता के लिए आशावादी होना अपने को धोखा देना है।
मणिभद्र यह सोचा ही रहा था कि स्वप्न में देखे हुए भिक्षु के समान ही एक भिक्षु अचानक वहाँ आ गया। उसे देखकर मणिभद्र का चेहरा खिल गया, सपने की बात याद आ गई। उसने पास में पड़ी लाठी उठाई और भिक्षु के सिर पर मार दी। भिक्षु मर गया। भूमि पर गिरने के साथ ही उसका सारा शरीर स्वर्णमय हो गया। मणिभद्र ने उसकी स्वर्णमय मृतदेह को छिप लिया।
किन्तु, उसी समय एक नाई वहाँ आ गया था। उसने यह सब देख लिया था। मणिभद्र ने उसे पर्याप्त धन-वस्त्र आदि का लोभ देकर इस घटना को गुप्त रखने का आग्रह किया। नाई ने वह बात किसी और से तो नहीं कही, किन्तु धन कमाने की इस सरल नीति का स्वयं प्रयोग करने का निश्चय कर लिया। उसने सोचा यदि एक भिक्षु लाठी से चोट खाकर स्वर्णमय हो सकता है। तो दूसरा क्यों नहीं हो सकता। मन ही मन ठान ली कि वह भी कल सुबह कई भिक्षुओं को स्वर्णमय बनाकर एक ही दिन में मणिभद्र की तरह श्रीसम्पन्न हो जाएगा। इसी आशा से वह रात भर सुबह होने की प्रतीक्षा करता रहा, एक पल की नींद नहीं ली।
सुबह उठकर वह भिक्षुओं की खोज में निकला। पास ही भिक्षुओं का एक मन्दिर था। मन्दिर की तीन परिक्रमाएँ करने और अपनी मनोरथ सिद्धि के लिए भगवान बुद्ध से वरदान माँगने के बाद वह मन्दिर के प्रधान भिक्षु के पास गया, उसके चरणों का स्पर्श किया और उचित वन्दना के बाद यह विनम्र निवेदन किया कि आज की भिक्षा के लिए आप समस्त भिक्षुओं समेत मेरे द्वार पर पधारें।
प्रधान भिक्षु ने नाई से कहा- तुम शायद हमारी भिक्षा के नियमों से परिचित नहीं हो। उन ब्राह्मणों के समान नहीं है जो भोजन का निमन्त्रण पाकर गृहस्थों के घर जाते हैं। हम भिक्षु हैं जो यथेष्ठता से घूमते-घूमते किसी भी भक्त श्रावक के घर चले जाते हैं और वहाँ उतना ही भोजन करते हैं, जितना प्राण धारण करने मात्र के लिए पर्याप्त हो, अतः हमें निमन्त्रण न दो। अपने घर जाओ, हम किसी भी दिन तुम्हारे द्वार पर अचानक आ जाएँगे।
नाई को प्रधान भिक्षु की बात से कुछ निराशा हुई, किन्तु उसने नई युक्ति से काम लिया। वह बोला- मैं आपके नियमों से परिचित हूँ, किन्तु मैं आपको भिक्षा के लिए नहीं बुला रहा। मेरा उद्देश्य तो आपको पुस्तक-लेखन की सामग्री देना है। इस महान कार्य की सिद्धि आपके आए बिना नहीं होगी। प्रधान भिक्षु नाई की बात मान गया। नाई ने जल्दी से घर की राह ली। वहाँ जाकर उसने लाठियाँ तैयार कर लीं और उन्हें दरवाज़े के पास रख दिया।
तैयारी पूरी हो जाने पर वह फिर भिक्षुओं के पास गया और उन्हें घर की ओर ले चला भिक्षुवर्ग भी धन-वस्त्र के लालच से उसके पीछे-पीछे चलने लगा। भिक्षुओं के मन में भी तृष्णा का निवास रहता ही है। जगत् के सब प्रलोभन छोड़ने के बाद भी तृष्णा सम्पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होती। उनके देह के अंगों में जीर्णता आ जाती है, बाल रूखे हो जाते हैं, दाँत टूटकर गिर जाते हैं, आँख-कान बूढ़े हो जाते हैं, केवल मन की तृष्णा ही है, जो अन्तिम श्वास तक जवान रहती है।
उनकी तृष्णा ने ही उन्हें ठग लिया। नाई ने उन्हें घर के अन्दर ले जाकर लाठियों से मारना शुरू कर दिया। उनमें से कुछ तो वहीं धराशाई हो गए। नगर के द्वारपाल भी वहाँ आ पहुँचे वहाँ आकर उन्होंने देखा कि अनेक भिक्षुओं की मृत देह पड़ी है, और अनेक भिक्षु आहत प्राण-रक्षा के लिए इधर-उधर दौड़ रहे हैं।
नाई से जब इस रक्तपात का कारण पूछा गया तो उसने मणिभद्र के घर में आहत भिक्षु के स्वर्णमय हो जाने की बात बतलाते हुए कहा कि वह भी शीघ्र स्वर्णसंचय करना चाहता था। नाई के मुख से यह बात सुनने के बाद राज्य के अधिकारियों ने बुलाया और पूछा कि तुमने किसी भिक्षु की हत्या की है? तब मणिभद्र ने अपने स्वप्न की कहानी आरम्भ से लेकर अन्त तक सुना दी। राज्य के धर्माधिकारियों ने उस नाई को मृत्यु दण्ड की आज्ञा दी और कहा- ऐसे कुपरीक्षितकारी, बिना सोचे काम करने वाले के लिए यही दण्ड उचित था। मनुष्य को उचित है कि वह अच्छी तरह देखे, जाने सुने और उचित परीक्षा किए बिना कोई भी कार्य न करे। अन्यथा उसका वही परिणाम होता है जो इस कहानी के नाई का हुआ और उसके बाद में वैसा ही सन्ताप होता है जैसे नेवले को मारने वाली ब्राह्मणी को ?
मणिभद्र ने पूछा- किस ब्राह्मणी को ?
धर्माधिकारियों ने इसके उत्तर में यह कथा सुनाई
रोचक और मजेदार 👏🏻
ReplyDeleteअच्छी कथा
ReplyDeleteबिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय
ReplyDeleteकाम बिगारे आपने जग में होत हंसाय।
बहुत ही ज्ञानवर्धक कहानी🙏🙏🙏
अपरीक्षित कार्य नहीं करना चाहिए।
ReplyDeleteअच्छी सोच देती कहानी
ReplyDeleteअच्छी कहानी
ReplyDeleteNice story
ReplyDeleteWaiting for the next
good story
ReplyDeleteGood story
ReplyDeleteअच्छी कहानी
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteVery nice
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