श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta)
इस ब्लॉग के माध्यम से हम सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता प्रकाशित करेंगे, इसके तहत हम सभी 18 अध्यायों और उनके सभी श्लोकों का सरल अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करेंगे।
श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्यायों में से अध्याय 1 के पूरे होने के बाद आज से अध्याय 2 की शुरुवात करते हैं।
अध्याय दो - सांख्ययोग
01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद11-30 गीताशास्त्रका अवतरण31-38 क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
श्रीमद्भगवद्गीता || अध्याय दो ~ सांख्ययोग ||
अथ द्वितीयोऽध्यायः ~ सांख्ययोग
अध्यायदो के अनुच्छेद 01 - 10
अध्याय दो के अनुच्छेद 01 - 10 में अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद की व्याख्या है।
संजय उवाच
भावार्थ :
संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥
श्रीभगवानुवाच
भावार्थ :
श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है॥2॥
भावार्थ :
इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥
अर्जुन उवाच
भावार्थ :
अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥
भावार्थ :
.इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥
भावार्थ :
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ॥6॥
भावार्थ :
इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण में हूँ। मुझको शिक्षा दीजिए ॥7॥
भावार्थ :
क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥8॥
संजय उवाच
भावार्थ :
संजय बोले- हे राजन्! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान् से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए ॥9॥
भावार्थ :
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले ॥10॥
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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिरभवति भारत तदा तदा ही धर्मस्य उत्ताफनय सृज्यामि अहम
ReplyDeleteॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteगीता का पाठ पढ़ने को मिल रहा.. तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद रुपा👌👌👍👍
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण
ReplyDeleteजय श्री राधे कृष्णा रूपा जी 🌹🙏🏻
ReplyDeleteजय श्री राधेश्याम राधेश्याम राधेश्याम
ReplyDeleteJai shree Krishna
ReplyDeleteगीता का ज्ञान इस ब्लॉग में देना भी एक महत्वपूर्ण कार्य है।
ReplyDeleteJai shree krishna.
ReplyDeleteAapke madhyam se pahli baar Geeta ke paath padh raha hun
ReplyDelete🙏🏻
ReplyDeleteJai ho
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