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मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..आखिरी हिला

मानसरोवर-1 ..आखिरी हिला

आखिरी हीला - मुंशी प्रेमचंद | Aakhiri Hila by Munshi Premchand

यद्यपि मेरी स्मरण-शक्ति पृथ्वी के इतिहास की सारी स्मरणीय तारीख़े भूल गयी, वे तारीख़े जिन्हें रातों का जागकर औऱ मस्तिष्क को खपाकर याद किया था; मगर विवाह की तिथि समतल भूमि में एक स्तम्भ की भाँति अटल हैं। न भूलता हूँ, न भूल सकता हूँ । उससे पहले और पीछे की सारी घटनाएँ दिल से मिट गयीं, उनका निशान तक बाकी नहीं। वह सारी अनेकता एक एकता में मिश्रित हो गयी हैं और वह मेरे विवाह की तिथि हैं। चाहता हूँ उसे भूल जाऊँ, मगर जिस; तिथि का नित्यप्रति सुमिरन किया जाता हो, वह कैसे भूल जाय? नित्यप्रति सुमिरन क्यों करता हूँ, यह उस विपत्ति-मारे से पूछिए, जिसे भगवद्-भजन के सिवा जीवन के उद्धार का कोई आधार न रहा हो।

आखिरी हीला - मुंशी प्रेमचंद | Aakhiri Hila by Munshi Premchand

लेकिन क्या मैं वैवाहिक जीवन से इसलिए भागता हूँ कि मुझमें रसिकता का अभाव हैं और कोमल वर्ग की मोहिनी शक्ति से निर्लिप्त हूँ और अनासक्ति का पद प्राप्त कर चुका हूँ ? क्या मैं नहीं चाहता कि जब मैं सैर करने निकलूँ तो हृदयेश्वरी भी मेरे साथ विराजमान हो? विलास-वस्तुओं की दुकानों पर उनके साथ जाकर थोड़ी देर के लिए रसमय आग्रह का आनन्द उठाऊँ। मैं उस गर्व और आनन्द और महत्त्व को अनुमान कर सकता हूँ जो मेरे अन्य भाईयों की भाँति, मेरे हृदय में भी आन्दोलित होगा, लेकिन मेरे भाग्य में वह खुशियाँ- वह रँगरेलियाँ नहीं हैं।

क्योंकि चित्र का दूसरा पक्ष भी तो देखता हूँ । एक पक्ष जितना ही मोहक और आकर्षक हैं, दूसरा उतना ही हृदयविदारक और भयंकर। शाम हुई और आप बदनसीब बच्चे को गोद में लिये तेल या ईधन की दुकान पर खड़े हैं। अँधेरा हुआ और आप आटे की पोटली बगल में दबाये हुए गलियों में यों कदम बढ़ाये हुए निकल जाते हैं, मानो चोरी की हैं। सूर्य निकला और बालकों को गोद में लिये होम्योपैथ डॉक्टर की दुकान में टूटी कुर्सी पर आरूढ़ हैं। किसी खोमचेवाले की रसीली आवाज़ सुनकर बालक ने गगनभेदी विलाप आरम्भ किया औऱ आपके प्राण सूखे। ऐसे बापों को भी देखा हैं जो दफ़्तर से लौटते हुए पैसे-दो पैसे की मूँगफली या रेवड़ियाँ लेकर लज्जास्पद शीध्रता के साथ मुँह में रखते चले जाते हैं कि घर पहुँचते- पहुँचते बालकों के आक्रमण से पहले ही यह पदार्थ समाप्त हो जाय। कितना निराशाजनक होता है यह दृश्य, जब देखता हूँ कि मेले में बच्चा किसी खिलौने की दुकान के सामने मचल रहा हैं और पिता महोदय ऋषियों की- सी विद्वता के साथ उनकी क्षणभंगुरता का राग आलाप रहे हैं।

आखिरी हीला - मुंशी प्रेमचंद | Aakhiri Hila by Munshi Premchand

चित्र का पहला रुख तो मेरे लिए एक मादक स्वप्न हैं, दूसरा रुख एक भयंकर सत्य। इस सत्य के सामने मेरी सारी रसिकता अन्तर्धान हो जाती हैं। मेरी सारी मौलिकता, सारी रचनाशीलता इसी दाम्पत्य के फन्दों से बचने के लिए प्रयुक्त हुई हैं। जानता हूँ कि जाल के नीचे जाना हैं, मगर जाल कितना ही रंगीन और ग्राहक हैं, दाना उतना ही घातक और विषैला। इस जाल में पक्षियों को तड़पते और फड़फड़ाते देखता हूँ और फिर डाली पर जा बैठता हूँ ।

लेकिन इधर कुछ दिनों से श्रीमतीजी ने अविश्रांत रूप से आग्रह करना शुरू किया है कि मुझे बुला लो। पहले जब छुट्टियों में जाता था, तो मेरा केवल ‘कहाँ चलोगी‘ कह देना उनकी चित्तशान्ति के लिए काफी होता था, फिर मैंने ‘झंझट हैं‘ कहकर तसल्ली देनी शुरू की। इसके बाद गृहस्थ-जीवन की असुविधाओं से डराया किन्तु, अब कुछ दिनों से उनका अविश्वास बढ़ता जाता हैं। अब मैने छुट्टियों में भी उनके आग्रह के भय से घर जाना बन्द कर दिया हैं कि कहीं वह मेरे साथ न चल खड़ी हो और नाना प्रकार के बहानों से उन्हें आशंकित करता रहता हूँ ।

मेरा पहला बहाना पत्र-सम्पादकों को जीवन की कठिनाइयों के विषय में था। कभी बारह बजे रात को सोना नसीब होता हैं, कभी रतजगा करना पड़ जाता हैं। सारे दिन गली-गली ठोकरें खानी पड़ती हैं। इस पर तुर्रा यह हैं कि हमेशा सिर पर नंगी तलवार लटकती रहती हैं। न जाने कब गिरफ्तार हो जाऊँ, कब जमानत तलब हो जाय। खुफिया पुलिस की एक फौज हमेशा पीछे पड़ी रहती हैं। कभी बाजार में निकल जाता हूँ तो लोग उँगलियाँ उठाकर कहते हैं- वह जा रहा हैं अखबारवाला। मानो संसार में जितने दैविक, आधिदैविक, भौतिक, आधिभौतिक बाधाएँ हैं, उनका उत्तरदायी मैं हूँ। मानो मेरा मस्तिष्क झूठी खबरें गढने का कार्यालय हैं। सारा दिन अफसरों की सलाम और पुलिस की खुशामद में गुजर जाता हैं। कान्स्टेबलों को देखा और प्राण-पीड़ा होने लगी। मेरी तो यह हालत, और हुक्काम हैं मेरी सूरत से काँपते हैं। एक दिन दुर्भाग्यवश एक अंग्रेज के बँगले तरफ जा निकला। साहब ने पूछा- क्या काम करता हैं? मैने गर्व से साथ कहा- पत्र का सम्पादक हूँ। साहब तुरन्त अन्दर घुस गये और कपाट बन्द कर लिये। फिर मेम साहब और बाबा लोगों को खिड़कियों से झाँकते देखा, मानो कोई भयंकर जन्तु है। एक बार रेलगाड़ी में सफर कर रहा था। साथ और भी कई मित्र थे, इसलिए अपने पद का सम्मान निभाने के लिए सेकंड क्लास का टिकट लेना पड़ा। गाड़ी में बैठा तो एक साहब ने मेरे सूटकेस पर मेरा नाम और पेशा देखते ही तुरन्त अपना सन्दूक खोला और रिवाल्वर निकालकर मेरे सामने गोलियाँ भरी, जिसमें मुझे मालूम हो जाय कि वह मुझसे सचेत हैं। मैने देवीजी से अपनी आर्थिक कठिनाइयों की भी चर्चा नहीं की; क्योंकि मैं रमणियों के सामने यह जिक्र करना अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझता हूँ हालाँकि यह चर्चा करता, तो देवीजी की दया का अवश्य पात्र बन जाता।

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्र

मुझे विश्वास था कि श्रीमतीजी फिर यहाँ आने का नाम न लेंगी। मगर यह मेरा भ्रम था। उनके आग्रह पूर्ववत् होते रहे!

तब मैंने दूसरा बहाना सोचा। शहर बीमारियों के अड्डे हैं। हर एक खाने-पीने की चीज में विष की शंका दूध में विष, फलों में विष, शाक-भाजी में विष, हवा में विष, पानी में विष। यहाँ मनुष्य का जीवन पानी का लकीर हैं। जिसे आज देखो, वह कल गायब। अच्छे-खासे बैठे हैं, हृदय की गति बन्द हो गयी। घर से सैर को निकले, मोटर से टकराकर सुरपुर की राह ली। अगर शाम को सांगोपांग घर आ जाय, तो उसे भाग्यवान समझो। मच्छर की आवाज कान में आयी, दिल बैठा; मक्खी नजर आयी और हाथ-पाँव फूले। चूहा बिल से निकला और जान निकल गयी। जिधर देखिए यमराज की अमलदारी हैं। अगर मोटर और ट्राम से बचकर आ गये, तो मच्छर और मक्खी के शिकार हुए। बस, यही समझ लो कि मौत हरदम सिर पर खेलती रहती हैं। रात-भर मच्छरों से लड़ता हूँ, दिन-भर मक्खियों से। नन्हीं-सी जान को किन-किन दुश्मनों से बचाऊँ। साँस भी मुश्किल से लेता हूँ कि कहीं क्षय के कीटाणु फेफड़े में न पहुँच जायँ।

देवीजी को फिर मुझ पर विश्वास न आया। दूसरे पत्र में भी वही आरजू थी। लिखा था, तुम्हारे पत्र ने और चिन्ता बढ़ा दी। अब प्रतिदिन पत्र लिखा करना, नही, मैं एक न सुनूँगी और सीधे चली आऊँगी मैने दिन में कहा- चलो सस्ते छूटे।

मगर खटका लगा हुआ था कि न जाने कब उन्हें शहर आने की सनक सवार हो जाय। इसलिए मैने तीसरा बहाना सोच निकाला। यहाँ मित्रों के मारे नाकों दम रहता हैं आकर बैठ जाते हैं तो उठने का नाम भी नहीं लेते, मानो अपना घर बेच, आये हैं। अगर घर से टल जाओ, तो आकर बेधड़क कमरे में बैठ जाते है और नौकर से जो चीज चाहते हैं, उधार मँगवा लेते हैं। देना मुझे पड़ता हैं। कुछ लोग तो हफ्तों पड़े रहते हैं टलने का नाम ही नही लेते। रोज उनका सेवा-सत्कार करो, रात को थिएटर या सिनेमा ले जाओ, फिर सवेरे तक ताश या शतरंज खेलो। अधिकांश तो ऐसे हैं, जो शराब के बगैर जिन्दा ही नही रह सकते। अकसर तो बीमार आते हैं बल्कि अधिकतर बीमार हो आते हैं। अब रोज डॉक्टर को बुलाओ, सेवा- शुश्रषा करो, रात भर सिरहाने बैठे पंखा झलते रहो, उस पर यह शिकायत भी सुनते रहो कि यहाँ कोई हमारी बात भी नहीं पूछता। मेरी घड़ी महीनों से मेरी कलाई पर नहीं आयी। दोस्तों के साथ जलसों में शरीक हो रही हैं। अचकन हैं, वह एक साहब के पास हैं, कोट दूसरे साहब ले गये। जूते और एक बाबू ले उड़े। मैं वही रद्दी कोट और वहीं चमरौधा जूता पहनकर दफ्तर जाता हूँ । मित्र-वृन्द ताड़ते रहते हैं कि कौन-सी नयी वस्तु लाया। कोई चीज लाता हूँ, तो मारे डर के सन्दूक में बन्द कर देता हूँ, किसी की निगाह पड़ जाय, तो कहीं-न-कहीं न्योता खाने की धुन सवार हो जाय। पहली तारीख को वेतन मिलता हैं, तो चोरों की तरह दबे पाँव घर में आता हूँ कि कहीं कोई महाशय रुपयों की प्रतीक्षा में द्वार पर धरना जमाये न बैठे हो। मालूम नहीं, उनकी सारी आवश्यकताएँ पहली ही तारीख की बाट क्यों जोहती रहती हैं? एक दिन वेतन लेकर बारह बजे रात को लौटा मगर देखा तो आधे दर्जन मित्र उस वक़्त भी डटे हुए थे। माथा ठोक, लिया। कितने बहाने करूँ, उनके सामने एक नहीं चलती। मै कहता हूँ, घर से पत्र आया हैं, माताजी बहुत बीमार हैं। जवाब देते हैं, अजी, बूढे इतनी जल्द नही मरते। मरना ही होता तो इतने दिन जीवित क्यों रहतीं देख लेना, दो-चार दिन में अच्छी हो जायँगी, और अगर मर भी जायँ, तो वृद्धजनों की मृत्यु का शोक ही क्या, वह तो और खुशी की बात हैं। कहता हूँ, लगान का बड़ा तकाजा हो रहा हैं। जवाब मिलता हैं आजकल लगान तो बन्द हो रहा हैं। लगान देने की जरूरत ही नहीं। अगर किसी संस्कार का बहाना करता हूँ, तो फरमाते हैं तुम भी विचित्र जीव हो। इन कुप्रथाओं की लकीर पीटना तुम्हारी शान के खिलाफ है। अगर तुम उनका मूलोच्छेद न करोगे तो वह लोग क्या आकाश से आयेंगे गरज यह कि किसी तरह प्राण नही बचते।

मैने समझा कि हमारा यह बहाना निशाने पर बैठेगा। ऐसे घर में कौन रमणी रहना पसन्द करेगी जो मित्रों पर ही अर्पित हो गया हो। किन्तु मुझे फिर भ्रम हुआ। उत्तर में फिर वही आग्रह था।

तब मैने चौथा हीला सोचा। यहाँ मकान हैं कि चिड़ियों के पिंजरे, न हवा न रोशनी। वह दुर्गन्ध उड़ती हैं कि खोपड़ी भन्ना जाती हैं। कितने ही को तो इसी दुर्गन्ध के कारण विशूचिका, टाइफाइड, यक्ष्मा आदि रोग हो जाते हैं। वर्षा हुई और मकान टपकने लगा। पानी चाहे घंटे-भर बरसे, मकान रात-भर बरसता रहता हैं। ऐसे बहुत ही कम घर होंगे जिनमें प्रेत-बाधाएँ न हों। लोगों को डरावने स्वपन दिखाई देते हैं। कितनों ही को उन्माद-रोग हो जाता हैं। आज नये घर में आयें, कल ही उसे बदलनें की चिन्ता सवार हो गयी। कोई ठेला असबाब से लदा हआ जा रहा हैं। कोई आ रहा हैं। जिधर देखिए, ठेले-ही-ठेले नजर आते हैं। चोरियाँ तो इस कसरत से होती हैं कि अगर कोई रात कुशल से बीत जाय, तो देवताओं की मनौती की जाती हैं। आधी रात हुई और चोर-चोर पकड़ो-पकड़ो! की आवाजे आने लगीं। लोग दरवाजों पर मोटे-मोटं लकड़ी फट्टे या जूते या चिमटे लिये खड़े रहते हैं; फिर भी लोग कुशल है कि आँख बचाकर अन्दर पहुँच जाते हैं। एक मेरे बेतकल्लुफ दोस्त हैं। स्नेहवश मेरे पास बहुत देर तक बैठे रहते थे। रात-अँधेरे में बर्तन खड़के, तो मैंने बत्ती जलायी। देखा, तो वही महाशय बर्तन समेंट रहे थे। मेरी आवाज सुनकर जोर से कहकहा मारा; बोले, मैं तुम्हें चकमा देना चाहता था। मैने दिल में समझ लिया, अगर निकल जाते तो बर्तन आपके थे, अब जाग पड़ा, तो चकमा हो गया। घर में आये कैसे थे? यह रहस्य हैं। कदाचित रात को ताश खेलकर चले, तो बाहर जाने के बदले नीचे अँधेरी कोठरी में छिप गये। एक दिन एक महाशय मुझसे पत्र लिखाने आये, कमरे में कमल-दवात न था। ऊपर के कमरे से लाने गया। लौटकर आया तो देखा, आप गायब हैं और उनके साथ फाउंटेन पेन भी गायब हैं। सारांश यह हैं कि नगर-जीवन नरक-जीवन से कम दुःखदायी नहीं हैं।

मगर पत्नीजी पर नागरिक जीवन का ऐसा जादू चढ़ा हुआ हैं कि मेरा कोई बहाना उन पर असर नहीं करता। इस पत्र के जवाब में उन्होंने लिखा- मुझसे बहाने करते हो मैं हर्गिज न मानूँगी। तुम आकर मुझे ले जाओ।

आखिर मुझे पाँचवाँ बहाना करना पड़ा। यह खोंचेवालों के विषय में था।

अभी बिस्तर से उठने की नौबत नहीं आयी कि कानों में विचित्र आवाजें आने लगीं। काबुल के मीनार के निर्माण के समय भी ऐसी निरर्थक आवाजें न आयी होंगी। यह खोंचेवालों की शब्द-क्रीड़ा हैं। उचित तो यह था, यह खोंचेवाले ढोल- मँजीरे के साथ लोगों को अपनी चीजों की ओर आकर्षित करते; मगर इन औंधी अक्लवालों को यह कहाँ सूझती हैं। ऐसे पैशाचिक स्वर निकालते हैं कि सुननेवालों के रोएँ खड़े हो जाते हैं। बच्चे माँ की गोद में चिपट जाते हैं। मैं भी रात को अक्सर चौंक पड़ता हूँ। एक दिन तो मेरे पड़ोस में एक दुर्घटना हो गयी। ग्यारह बजे थे। कोई महिला बच्चे को दूध पिलाने उठी थी। एकाएक किसी खोंचेवाले की भयंकर ध्वनि कानों में, तो चीख मारकर चिल्ला उठी और फिर बेहोश हो गयी। महीनों की दवा-दारू के बाद अच्छी हुई। अब रात को कानों में रुई डालकर सोती हैं। ऐसे कारण नगरों में नित्य ही रहते हैं। मेरे ही मित्रों में कई ऐसे हैं, जो अपनी स्त्रियों को घर में लाये मगर बेचारियाँ दूसरे ही दिन इन आवाजों से भयभीत होकर लौट गयीं।

श्रीमती ने इसके जवाब में लिखा- तुम समझते हो, मैं खोंमवालों की आवाजों से डर जाऊँगी यहाँ गीदड़ो का हौवाना और उल्लूओं का चीखना सुनकर तो डरती नहीं, खोंमेवालों से क्या डरूँगी ।

फिर मैने लिखा- शहर शरीफ जादियों के रहने की जगह नही। यहाँ की महरियाँ इतनी कटुभाषिणी हैं कि बातों का जवाब गालियों से देती हैं और उनके बनाव- सँवार का क्या पूछना भले घरों की स्त्रियाँ तो इनके ठाट देखकर ही शर्म से पानी-पानी हो जाती हैं। सिर से पाँव तक सोने से लदी हुई, सामने से निकल जाती हैं तो मालूम होता हैं कि सुगन्धि की लपट लग गयी। गृहणियाँ ये ठाट कहाँ से लाएँ; उन्हें तो और भी सैकड़ों चिन्ताएँ हैं। इन महरियों को तो बनाव- सिंगार के सिवा दूसरा काम ही नहीं। नित्य नयी सज-धज, नित्य नयी अदा, और चंचल तो इस गजब की हैं मानो अंगों में रक्त की जगह पारा भर दिया हो। उनका चमकना और मटकना और मुस्कराना देखकर गृहणियाँ लज्जित हो जाती हैं। और ऐसी दीदा-दीलेर हैं कि जबरदस्ती घरों में घुस पड़ती हैं। जिधर देखों इनका मेला-सा लगा हुआ हैं। इनके मारे भले आदमियों का घर में बैठना मुश्किल हैं। कोई खत लिखाने के बहाने से आ जाती हैं, कोई खत पढ़ाने के बहाने से। असली बात यह हैं कि गृहदेवियों का रंग फीका करने में इन्हें आनन्द आता हैं। इसीलिए शरीफजादियाँ बहुत कम शहरों में आती हैं।

मालूम नही, इस पत्र में मुझसे क्या गलती हुई कि तीसरे दिन पत्नीजी एक बूढ़े कहार के साथ मेरा पता पूछती हुई अपने तीनो बच्चों को लिये एक असाध्या रोग का भाँति आ डटी।

मैने बदहवास होकर पूछा- क्यों कुशल तो हैं?

पत्नी ने चादर उतारते हुए कहा- घर में कोई चुड़ैल बैठी तो नहीं हैं? यहाँ किसी ने कदम रखा तो नाक काट लूँगी हाँ, जो तुम्हारी शह न हो।

अच्छा तो अब रहस्य खुला। मैने सिर पीट लिया। क्या जानता था, तमाचा अपने, ही मुँह पर पड़ेगा!

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