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वाणी का तप

वाणी का तप

कृष्ण भगवान ने गीता में वाणी का तप बताया है। उनके अनुसार हमेशा मीठा बोलना, हितकारी बोलना और स्वाद वाली चीजों से जीभ को बचाकर रखना वाणी का तप है। एक चीनी संत लाओत्से ने इसे दूसरे रूप में कहा है। बहुत बूढ़े हो गए थे वे। देखा कि अंतिम समय निकट आ गया है। तो अपने सभी भक्तों और शिष्यों को अपने पास बुलाया। उनको कहा, तनिक मेरे मुंह के अंदर तो देखो भाई ! कितने दांत शेष हैं। प्रत्येक शिष्य ने मुंह के अंदर देखा और कहा-

वाणी का तप

दांत तो कई वर्ष से समाप्त हो चुके हैं महाराज। एक भी दांत नहीं है। संत ने कहा-जिव्हा तो विद्यमान है? सबने कहा जी हां। संत बोले ये बात कैसे हुई? जिव्हा तो जन्म समय भी विद्यमान थी, दांत उससे पीछे आए। पीछे आने वाले को पीछे जाना चाहिए था। ये दांत पहले कैसे चले गए? शिष्यों ने कहा - हम तो इसका कारण समझ नहीं पाते। तब संत ने धीमी आवाज में कहा - यही बतलाने के लिए मैंने तुम्हें बुलाया है।

देखों ये वाणी अब तक विद्यमान है तो इसलिए कि इसमें कठोरता नहीं और ये दांत पीछे आकर पहले समाप्त हो गए तो इसलिए कि ये बहुत कठोर हैं। इन्हें अपनी कठोरता पे अभिमान था। यह कठोरता ही इनकी समाप्ति का कारण बनी। इसलिए यदि देर तक जीना चाहते हो तो नर्म बनो, कठोर नहीं। संस्कृत के नीतिकारों ने तो कहा है कि ये हमारी जीभ रूपी गाय हमेशा ही दूसरे के मान की हरी भरी खेती करने को सदा लालायित रहती है, अतः इसे खूंटे से बांध कर रखो। 

वाणी का तप

तो मधुर मीठा हितकर बोलिये... प्रसन्न रहिये, खुश रहिये और खुशियाँ बांटिए। 



10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 16 जून 2024 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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    1. पांच लिंकों के आनन्द में इस रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार।

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  2. जय श्री कृष्णा🙏🏼

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  3. Jai Shri krishna

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  4. जय श्री कृष्णा

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  5. बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि
    हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
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    बढ़िया लेख।
    सादर।

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