नालंदा विश्वविद्यालय
नालंदा एक प्रशंसित महाविहार था, जो भारत में प्राचीन साम्राज्य मगध (आधुनिक बिहार) में एक बड़ा बौद्ध मठ था। यह बिहार शरीफ शहर के पास पटना से लगभग 95 किलोमीटर दक्षिणपूर्व में स्थित है। यह यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल है। नालंदा को तक्षशिला के बाद दुनिया का दूसरा सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय माना जाता है। वहीं, आवासीय परिसर के तौर पर यह पहला विश्वविद्यालय है, यह 800 साल तक अस्तित्व में रहा।
प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था, जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुंदर मूर्तियां स्थापित थीं, जो अब नष्ट हो चुकी हैं। नालंदा विश्वविद्यालय की दीवारों के अवशेष आज भी इतनी चौड़ी हैं कि इनके ऊपर ट्रक भी चलाया जा सकता है।
नालंदा संस्कृत शब्द 'नालम् + दा' से बना है। संस्कृत में 'नालम' का अर्थ 'कमल' होता है। कमल ज्ञान का प्रतीक है। नालम् + दा अर्थात ज्ञान देने वाली। कालक्रम से यहाँ महाविहार की स्थापना के बाद इसका नाम 'नालंदा महाविहार' रखा गया, जो वास्तव में इसका प्रतीक है, वह इसकी संस्कृत मूल-व्युत्पत्ति है, “न अलं ददाति: "वह जो कम नहीं देता है।" प्रसिद्ध चीनी बौद्ध तीर्थयात्री जुआनज़ैंग (ह्वेन-त्सांग) ने नालंदा का अर्थ "उपहारों का अंत नहीं" और "बिना रुकावट के दान" बताया है।
इस विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं सदी में गुप्त काल के दौरान हुई थी। तब कुमारगुप्त प्रथम ने इसकी नींव रखी थी और उस समय यह दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय बना था। विश्वविद्यालय काफ़ी बड़ा था और इसमें 300 कमरे 7 बड़े-बड़े कक्ष और अध्ययन के लिए 9 मंजिला एक विशाल पुस्तकालय था, जिसे धर्म गूंज कहा जाता था, जिसका मतलब ‘सत्य का पर्वत’ से था। नालंदा विश्वविद्यालाय के तीन महान् पुस्तकालय थे-
- रत्नोदधि,
- रत्नसागर
- रत्नरंजक।
नालन्दा विश्वविद्यालय भारत का सबसे लंबे समय तक चलने वाला विश्वविद्यालय था। इसका पुनर्निर्माण छठी शताब्दी ईसा पूर्व में नरसिम्हा देव द्वारा किया गया था और यह 13वीं शताब्दी तक सक्रिय था। इस प्रकार यह विश्वविद्यालय 700 वर्षों तक बिना किसी रुकावट के चलता रहा। यह उस समय दुनिया भर में प्रशंसित विश्वविद्यालय था और दूर-दूर के देशों से छात्र यहां आकर ज्ञान प्राप्त करते थे।
प्रवेश एक बहुत ही कठिन प्रवेश परीक्षा के आधार पर सुरक्षित किया जाता था और यहां छात्रों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। इसके साथ उनका रहना और खाना भी पूरी तरह निःशुल्क होता था। विज्ञान, दर्शन, चिकित्सा, युद्ध आदि सहित लगभग सभी विषयों पर ज्ञान प्रदान किया जाता था। इसकी प्रसिद्धि न केवल भारत में बल्कि दक्षिण-पूर्व और मध्य एशिया में भी थी। इसका गणित के साथ-साथ खगोलीय विभाग भी बहुत प्रसिद्ध था। वास्तव में नालंदा दुनिया का पहला विश्वविद्यालय था, जिसने खगोल विज्ञान को गणित से अलग दर्जा दिया था।
विश्वविद्यालय में चीन, जापान, कोरिया, फारस, ग्रीस, इंडोनेशिया, मंगोलिया और कई अन्य देशों के छात्र थे और पढ़ाए जाने वाले विषयों में इतिहास, अर्थशास्त्र, भूगोल, खगोल विज्ञान, कानून, चिकित्सा, भूविज्ञान, गणित, वास्तुकला, धातु विज्ञान, भाषा विज्ञान और कई अन्य विषय शामिल थे। .
तकरीबन 10,000 से ज़्यादा विद्यार्थी, यहां पर एक साथ पढ़ाई करते थे, जिन्हें पढ़ाने के लिए 2700 से ज्यादा गुरु थे। दुनिया के कई विद्वान, यहां से शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं। इस विश्वविद्यालय की एक खास बात यह थी कि, यहां लोकतान्त्रिक प्रणाली से सभी कार्य होता था। कोई भी फैसला सभी की सहमति से लिया जाता था। मतलब, सन्यासियों के साथ आचार्य और विद्यार्थी भी अपनी राय देते थे।
नालंदा में पढ़ाने वाले कुछ उल्लेखनीय विद्वानों में नागार्जुन (सबसे महत्वपूर्ण महायान दार्शनिकों में से एक), दिननाग (भारतीय तर्कशास्त्र के बौद्ध संस्थापकों में से एक), धर्मपाल (बंगाल क्षेत्र के पाल साम्राज्य के दूसरे शासक), शीलभद्र, चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानचन्द्र, वसुबन्धु, असंग, धर्मकीर्ति आदि थे।
नालंदा में बौद्ध धर्म के अतिरिक्त हेतुविद्या, शब्दविद्या, चिकित्सा शास्त्र, अथर्ववेद तथा सांख्य से संबंधित विषय भी पढ़ाए जाते थे। युवानच्वांग ने लिखा था कि नालंदा के एक सहस्त्र विद्वान् आचार्यों में से सौ ऐसे थे, जो सूत्र और शास्त्र जानते थे, पांच सौ 3 विषयों में पारंगत थे और बीस 50 विषयों में। केवल शीलभद्र ही ऐसे थे जिनकी सभी विषयों में समान गति थी।
इनके भवनों की ऊँचाई का वर्णन करते हुए युवानच्वांग ने लिखा है कि 'इनकी सतमंजिली अटारियों के शिखर बादलों से भी अधिक ऊँचे थे और इन पर प्रातःकाल की हिम जम जाया करती थी। इनके झरोखों में से सूर्य का सतरंगा प्रकाश अन्दर आकर वातावरण को सुंदर एवं आकर्षक बनाता था। इन पुस्तकालयों में सहस्त्रों हस्तलिखित ग्रंथ थे।' जैन ग्रंथ 'सूत्रकृतांग' में नालंदा के 'हस्तियान' नामक सुंदर उद्यान का वर्णन है।
2006 के भारतीय राष्ट्रपति अब्दुल कलाम द्वारा इस प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने की परियोजना पर विचार किया गया था, तो इसे दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, सिंगापुर जैसे विविध देशों से उत्साही प्रतिक्रिया और सहायता प्राप्त हुई थी।
कथित तौर पर नालंदा विश्वविद्यालय को आक्रमणकारियों द्वारा तीन बार नष्ट किया गया था, लेकिन केवल दो बार ही इसका पुनर्निर्माण किया गया। पहला विनाश स्कंदगुप्त (455-467 ई.) के शासनकाल के दौरान मिहिरकुल के अधीन हूणों द्वारा किया गया था ।
माना जाता है कि पहले दो विनाश हूण राजा मिहिरकुल और गौड़ राजा शशांक द्वारा किए गए थे। मिहिरकुल हिंदू नहीं एक अल्चोन हूण राजा था, जिसने 515 ई. से 540 ई. तक अधिकांश उत्तर पश्चिमी भारत और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों पर शासन किया। वह हूण जनजाति से था जो एक मध्य एशियाई खानाबदोश जनजाति थी और वेदों के अनुसार उन्हें "म्लेच्छ" माना जाता था।
सोंग यून द्वारा लिखित चीनी बौद्ध ग्रंथों में यह भी उल्लेख है कि मिहिराकुला किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करता था और संभवतः नास्तिक था। बाद में मिहिरकुल के साम्राज्य पर गुप्तों का कब्ज़ा हो जाने के बाद, उन्होंने स्वयं कट्टर वैष्णव हिंदू बनकर विश्वविद्यालय का पुनर्निर्माण किया। स्कंद के उत्तराधिकारियों ने एक बड़ी संरचना जोड़कर नालंदा विश्वविद्यालय तथा उसके पुस्तकालय में सुधार किया।
दूसरा विनाश 7वीं शताब्दी के आरंभ में गौड़ों द्वारा हुआ । इस बार बौद्ध राजा हर्षवर्द्धन (606-648 ई.) ने विश्वविद्यालय का जीर्णोद्धार कराया।
तीसरा और सबसे विनाशकारी हमला तब हुआ जब 1193 में तुर्की के भगोड़े बख्तियार खिलजी के नेतृत्व वाली मुस्लिम सेना ने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया ।
इतिहास में बताया गया कि एक बार बख्तियार खिलजी बीमार पड़ गया था और उसके दरबार का कोई हकीम उसे ठीक करने में सफल नहीं रहा। तभी किसी ने उसे सलाह दी कि वे खुद को नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य राहुल श्री भद्र से ठीक करवा ले।
खिलजी को अपनी इस्लामी संस्कृति पर बहुत गर्व था और उसने अपने धर्म के बाहर किसी व्यक्ति से अपना इलाज कराने से इनकार कर दिया था, लेकिन उनकी तबीयत दिन बा दिन खराब होती गई और उनके पास नालंदा से श्री भद्र देव को आमंत्रित करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था। लेकिन खिलजी ने इस्लाम की मदबुद्धिता में एक शर्त रखी और आचार्य से बिना किसी स्पर्श किए और बिना किसी दवा के उसे ठीक करने के लिए कहा। तब आयुर्वेद के श्रेष्ठ वैद्य श्री भद्र जी ने खिलजी को उसकी बीमारी के इलाज के लिए कुरान पढ़ने के लिए कहा।
बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के बताए अनुसार कुरान को पढ़ा और ठीक हो गया। ऐसा कहा जाता है कि राहुल श्रीभद्र ने कुरान के कुछ पन्नों पर एक दवा का लेप लगा दिया था, वह थूक के साथ उन पन्नों को पढ़ता गया और ठीक होता चला गया। ठीक होने के बाद खिलजी खुश होने की बजाय इस तथ्य से परेशान रहने लगा कि एक भारतीय विद्वान और शिक्षक को उसके हकीमों से ज्यादा ज्ञान था। फिर उसने देश से ज्ञान, बौद्ध धर्म और आयुर्वेद की जड़ों को नष्ट करने का फैसला किया। परिणाम स्वरूप खिलजी ने नालंदा की महान पुस्तकालय में आग लगा दी और लगभग 9 मिलियन पांडुलिपियों को जला दिया।
ऐसा कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय में इतनी किताबें थीं कि वह तीन महीने तक जलती रहीं। इसके बाद खिलजी के आदेश पर तुर्की आक्रमणकारियों ने नालंदा के हजारों धार्मिक विद्वानों और भिक्षुओं की भी हत्या कर दी।
वैसे तो नालंदा विश्वविद्यालय के बचे हुए खंडहर और भी बहुत कुछ बयाँ करते हैं, जिसकी चर्चा फिर कभी करेंगे। अभी राजगीर ट्रिप को आगे बढ़ाते हैं और अगले ब्लॉग में चलेंगे "वाइल्ड लाइफ सफारी"....
सनातन संस्कृति और शिक्षा का केंद्र रहा है नालंदा
ReplyDeleteअच्छी जानकारी है कभी वक़्त मिला तो जरूर जाएंगे घूमने 😊
ReplyDeleteअच्छी जानकारी
ReplyDeleteVery nice information...
ReplyDeletevery good and useful information
ReplyDelete🙏🙏💐💐शुभरात्रि 🕉️
ReplyDelete🚩🚩हर हर महादेव 🚩🚩
👍👍👍सनातन संस्कृति व शिक्षा का केंद्र ---बहुत बढ़िया जानकारी ---
आप का बहुत बहुत धन्यवाद 💐💐
🙏I Pray Lord Mahadev to bless the kids with happiness, health and success 🙌🙌🍫🍫🍫🍫
अपूरणीय क्षति
ReplyDeleteNice information
ReplyDeleteSuperbbbb 😍💞💞
ReplyDeleteNice
ReplyDelete