खालसा पंथ (Khalsa Panth) की स्थापना
खालसा पंथ के स्थापना दिवस और वैसाखी पर्व की आप सभी को लख - लख बधाइयाँ।
भारत में धर्म की रक्षा के लिए आज का दिन ऐतिहासिक महत्व रखता है। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने आज के ही दिन खालसा पंथ की स्थापना की थी। सिखों के इतिहास के बगैर मध्यकालीन इतिहास अधूरा माना जाता है।सिखों के त्याग और बलिदान की एक लंबी परंपरा है, आज उसी का परिणाम है कि देश और धर्म सुरक्षित है।
खालसा का शाब्दिक अर्थ होता है 'शुद्ध होना' या 'स्पष्ट होना' या 'मुक्त होना'। यह एक ऐसे समुदाय को संदर्भित करता है जो सिख धर्म को अपना मानते हैं। खालसा परंपरा की शुरुआत 1699 में सिख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह ने की थी। इसका गठन सिख धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। वैसाखी के त्योहार के दौरान सिखों द्वारा खालसा की स्थापना का जश्न मनाया जाता है क्यूंकि बैसाखी के दिन ही इस पंथ की स्थापना हुई थी। उस दौर में बैसाखी का पर्व अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 13 अप्रैल को था और इस वर्ष भी बैसाखी 13 अप्रैल को ही मनाई जा रही है।
खालसा के यदि शाब्दिक अर्थ की बात करें तो होता है ‘शुद्ध’। यह अरबी शब्द ‘खालिस’ से लिया गया है। खालसा शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में संत कबीर की वाणी में केवल एक बार आता है। इसमें लिखा है, “कहू कबीर जब भाये खालसा प्रेम भगत जिह जानी”, जिसका अर्थ है, “कबीर कहते हैं कि वे लोग जो परमात्मा के प्रेम और भक्ति को जानते हैं, वे सबसे शुद्ध हैं।”
मुगल सम्राट औरंगजेब के इस्लामी शरिया शासन के दौरान अपने पिता गुरु तेग बहादुर के सिर काटे जाने के बाद गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा को एक योद्धा के रूप में स्थापित किया, जिसका कर्तव्य था कि वह किसी भी प्रकार के धार्मिक उत्पीड़न से निर्दोषों की रक्षा करें। खालसा की स्थापना के साथ ही सिख परंपरा में एक नए चरण की शुरुआत हुई। इसने सिखों के अस्थायी नेतृत्व के लिए एक नई संस्था का रूप लिया, जिसने मसंद व्यवस्था की जगह ली। इसके अतिरिक्त, खालसा ने सिख समुदाय के लिए एक राजनीतिक और धार्मिक दृष्टि भी प्रदान की। और उस दिन से, वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह सिख धर्म का एक अभिन्न अंग बन गया।
गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान
ये वो समय था, जब औरंगजेब का अत्याचार लगातार ही बढ़ता जा रहा था और देश भर के हिन्दू सहित कश्मीरी पंडित आतंकित थे। वाराणसी, उदयपुर और मथुरा सहित हिन्दुओं की श्रद्धा वाले कई क्षेत्रों में औरंगजेब की फ़ौज मंदिरों को ध्वस्त किए जा रही थी। सन 1669 में तो हद ही हो गई जब हिन्दुओं को नदी किनारे मृतकों का अंतिम-संस्कार तक करने से रोक दिया गया। शाही आदेश और जोर-जबरदस्ती, दोनों के जरिए हिन्दुओं पर प्रहार हो रहे थे।
जम्मू-कश्मीर में शेर अफगान नामक आक्रांता कश्मीरी पंडितों का नामोनिशान मिटा देना चाहता था और औरंगजेब को उसका संरक्षण प्राप्त था। ऐसे कठिन समय में कश्मीरी पंडितों का एक प्रतिनिधिमंडल गुरु तेग बहादुर के पास पहुँचा और उन्हें अपनी समस्या बताई। औरंगजेब के अत्याचार और क्रूरता की दास्तान सुनाई तो वो काफी दुःखी हो उठे।
कहते हैं, जब पूरे दरबार में निराशा का माहौल था, तब बालक गोविंद राय को भी ये ठीक नहीं लगा और उन्होंने कई सवाल दाग दिए। वो पूछने लगे कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि जहाँ दिन-रात भजन-कीर्तन और शास्त्रों की बातें होती थीं, वहाँ आज इस तरह नीरसता का माहौल छाया हुआ है। बच्चे की जिद के आगे गुरु तेग बहादुर झुक गए और सारी व्यथा कह डाली। दरबार में कौन लोग आए थे और उनकी व्यथा थी- सब।
उन्होंने ये तक कह दिया कि इनके दुःखों के निवारण के लिए किसी महापुरुष का बलिदान चाहिए। इस पर बालक गोविंद राय ने पूछा इस समय भारतवर्ष में आपसे बढ़ कर विद्वान, सद्गुणों वाला और महान महापुरुष कौन है, इसीलिए क्या आपको ही इस बलिदान के लिए स्वयं को प्रस्तुत नहीं करना चाहिए? एक बालक के मुँह से गुरु नानक की शिक्षाओं और शरणागत की रक्षा के लिए प्राण त्यागने की बातें सुन कर गुरु तेग बहादुर समझ गए कि ये ईश्वर का ही संदेशा है।
गुरु तेग बहादुर जी औरंगजेब से मिलने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल के साथ दिल्ली गए, जहाँ उन्होंने औरंगजेब चुनौती दी कि यदि वे गुरु तेग बहादुर जी को इस्लाम में परिवर्तित कर सकते हैं, तो सभी कश्मीरी पंडित भी धर्मांतरित हो जाएँगे। औरंगजेब ने अपने शिष्यों को गुरु तेग बहादुर जी को किसी भी कीमत पर परिवर्तित करने का आदेश दिया।
उन्होंने गुरु तेग बहादुर को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करने के लिए हर संभव यातना दिया लेकिन असफल रहे। अंततः औरगजेब के आदेश पर श्री गुरु तेग बहादुर का सर धड़ से अलग कर दिया। तीन अन्य सिखों, भाई मति दास, भाई सती दास, और भाई दयाल दास, जो उनके साथ दिल्ली आए थे, को भी श्री गुरु तेग बहादुर जी की हत्या से पहले औरंगजेब ने मरवा डाला था।
खालसा का गठन
गुरु तेग बहादुर जी की औरंगजेब द्वारा हत्या के बाद, उनके पुत्र श्री गुरु गोबिंद सिंह सिखों के दसवें और अंतिम गुरु बने। खालसा के गठन से कई महीने पहले, गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने सभी अनुयायियों को 1699 में बैसाखी पर आनंदपुर साहिब आने का निमंत्रण भेजा था, जो 30 मार्च को था। आनंदपुर साहिब में हजारों अनुयायी इस शुभ आयोजन के लिए एकत्रित हुए थे।
विशेष रूप से, गुरु गोबिंद सिंह ने निमंत्रण में खालसा बनाने के अपने इरादे के बारे में कोई सूचना नहीं दी थी, लेकिन एक धार्मिक मण्डली का उल्लेख किया था। बैसाखी से कुछ समय पहले श्री गुरु गोबिंद सिंह ने मसंदों की संस्था को समाप्त कर दिया था। वे मूल रूप से गुरु और अनुयायियों बीच माध्यम की तरह थे। मसंद प्रथा के उन्मूलन के साथ संगत और गुरु के बीच एक सीधा संबंध बन गया।
गुरु ने माँगा प्यारों का शीश
सिख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों को वैसाखी के दिन 30 मार्च 1699 को श्री आनंदपुर साहिब में इकट्ठा होने के लिए कहा। गुरु गोबिंद सिंह जी ने एक पहाड़ी (जिसे अब श्री केसगढ़ साहिब कहा जाता है) पर जमा हुए मण्डली को संबोधित किया। उन्होंने सिख परंपरा के अनुसार अपनी तलवार खींची, और फिर इकट्ठा हुए लोगों से एक स्वयंसेवक को आगे आने के लिए कहा, जो अपना सिर बलिदान करने के लिए तैयार हो।
एक आगे आया, जिसे गुरु गोबिंद सिंह एक तंबू के अंदर ले गए। और अंदर ‘खचाक’ की आवाज आई और गुरु बिना स्वयंसेवक के भीड़ में लौट आए, लेकिन तलवार पर लगे खून के साथ। उन्होंने फिर एक और स्वयंसेवक के लिए कहा और बिना किसी के और खून से लथपथ तलवार के साथ चार बार तम्बू से लौटने की उसी प्रक्रिया को दोहराया।
पाँचवाँ स्वयंसेवक जब उनके साथ तंबू में गया, तब गुरु सभी पाँच स्वयंसेवकों के साथ लौट आए, और सभी सुरक्षित। उन्होंने उन्हें पंज प्यारे और सिख परंपरा में पहला खालसा कहा। ये पांच स्वयंसेवक थे: दया राम (भाई दया सिंह जी), धर्म दास (भाई धर्म सिंह जी), हिम्मत राय (भाई हिम्मत सिंह जी), मोहकम चंद (भाई मोहकम सिंह जी), और साहिब चंद (भाई साहिब सिंह जी)।
गुरु गोबिंद सिंह ने फिर एक लोहे के कटोरे में पानी और चीनी मिलाकर उसे दोधारी तलवार से हिलाकर अमृत तैयार किया। इसके बाद उन्होंने पंज प्यारे को आदि ग्रंथ के पाठ के साथ निर्देशित किया, इस प्रकार खालसा की स्थापना ने सिख परंपरा में एक नए चरण की शुरुआत की। इसने खालसा योद्धाओं के लिए एक दीक्षा समारोह (अमृत पहुल , अमृत समारोह) और आचरण के नियम तैयार किए। पहले पाँच खालसा को दीक्षा देने के बाद, गुरु ने पाँचों को खालसा के रूप में दीक्षा देने के लिए कहा। इसने गुरु को छठा खालसा बना दिया और उनका नाम गुरु गोबिंद राय जी से बदलकर गुरु गोबिंद सिंह जी कर दिया गया।
खालसा पंथ
खालसा की रचना सिख धर्म के अनुयायियों को दस गुरुओं के प्रशिक्षण और शिक्षाओं पर आधारित है। गुरु गोबिंद सिंह जी चाहते थे कि हर सिख हर तरह से परिपूर्ण हो, यानी भक्ति और शक्ति या भक्ति और शक्ति का संयोजन। सिख धर्म के मुख्य सिद्धांतों में दान और तेग या तलवार शामिल हैं, जो खालसा की में अंतर्निहित थे।
उन्होंने प्रत्येक सिख में त्याग, स्वच्छता, ईमानदारी, दान और साहस जैसे पाँच गुण पैदा किए। उन्होंने सिख कोड ऑफ डिसिप्लिन भी निर्धारित किया। साथ ही खालसा तलवार का प्रयोग केवल आपात स्थिति में ही कर सकता है, अर्थात तलवार तब तक नहीं खींची जा सकती जब तक कि सभी शांतिपूर्ण तरीके विफल नहीं हो जाते। इसका उपयोग केवल आत्मरक्षा और उत्पीड़ितों की रक्षा के लिए किया जा सकता है।
उन्होंने खालसा को पंज कक्का- केश, कंघा, कच्छ, कारा और कृपाण (केस या केश (बिना कटे बाल), कंघा (कंघी), कच्छा (छोटी सूती पतलून), कारा (स्टील कंगन) और कृपाण (औपचारिक तलवार) धारण करने के लिए कहा। सिख धर्म की मूल बातों के अनुसार, एक सच्चा खालसा भेदभाव नहीं करता है या किसी को नीच आत्मा के रूप में नहीं देखता है। वह उत्पीड़ितों की रक्षा में उठ खड़ा होगा और जरूरतमंदों की मदद के लिए दान करेगा।
Khalsa alag dharm nahi sirf alag Pooja padhati hai, sanatan ki ek shakha ke roop me 🙏🏻
ReplyDeleteWahe guru ji ka Khalsa waheguru Ji ki Fateh
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteSatnam Waheguru guru
ReplyDeleteबैसाखी पर्व की बधाई
ReplyDeleteबैसाखी पर्व की बधाई
ReplyDeleteVery nice
ReplyDelete🙏🙏💐💐
ReplyDelete🕉️सुप्रभात🕉
🕉️शुभ रविवार:🕉️
🚩सतनाम श्री वाहेगुरु जी 🚩
🙏आपको और आपके परिवार को वैशाखी पर्व की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें 💐💐
🚩🚩सतनाम श्री वाहेगुरु जी 🚩🚩
Roopa ji very true article . Pl read it carefully to understand the Khalsa panth. waheguru ji ka khalsa waheguru Ji ki Fateh
ReplyDeletesatnam waheguru
ReplyDeleteNice
ReplyDelete