कर दें न क़त्ल ख़ुद ही ख़्वाबों का ख़ंजरों से
कर दें न क़त्ल ख़ुद ही ख़्वाबों का ख़ंजरों से
डरने लगे हैं हम तो अपने ही बाज़ुओं से..
ये शक्ल भी किसी दिन हो जाएगी मुकम्मल
ख़ुद को तराशते हैं हम रोज छेनियों से..
ग़मगीन रास्तों पर कैसे ये चल रही हैं
हम रोज पूछते हैं ये राज़ धड़कनों से..
फूलों की डोलियाँ जब रुख़्सत हुई चमन से
बेकाबू होके काँटे जा उलझे क़ातिलों से..
ख़त इश्क़ के जले हैं या ख़्वाब ज़िंदगी के
लपटें सी उठ रहीं हैं आँखों की चिमनियों से..
आया है अश्क़ पीने का हल्क़ को हुनर जब
आँखों ने बहने का हक़ छीना है आँसुओं से..
धोखे फ़रेब की हैं दीवार बीच में जब
हो दोस्ती भी कैसे पत्थर की आइनों से..
- Amit verma
वाह वाह क्या बात है
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteशुभ रविवार
Happy sunday
ReplyDelete✍🏻वो लौटकर आया है मनाने को.
ReplyDeleteशायद
आज़मा कर आया है ज़माने को.💕
Happy Sunday🌹🌹🌹🌹🌹
ReplyDeleteVery nice👍👍
ReplyDeleteVery Nice Happy Sunday 🌻👌🏻👍
ReplyDeletevery nice.. happy sunday..
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 6 मार्च 2024को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
"पांच लिंकों का आनन्द" पर इस रचना को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार।
DeleteVery nice
ReplyDeleteवाह वाह वाह.... बेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteवाह्ह क्या खूब लिखा है आपने।
ReplyDeleteहर इक शेर बहुत अच्छा है।
सादर।
ख़त इश्क़ के जले हैं या ख़्वाब ज़िंदगी के
ReplyDeleteलपटें सी उठ रहीं हैं आँखों की चिमनियों से..
बहुत सुंदर । सादर ।