Cricket News: Latest Cricket News, Live Scores, Results, Upcoming match Schedules | Times of India

Sportstar - IPL

श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta) अध्याय- 13 (01-19)

श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta)

इस ब्लॉग के माध्यम से हम सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता प्रकाशित कर रहे हैं, इसके तहत हम सभी 18 अध्यायों और उनके सभी श्लोकों का सरल अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करेंगे। 

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता के 18 अध्यायों में से अध्याय 1,2,3,4,5, 6, 7, 8,9, 10,11 और 12 के पूरे होने के बाद आज प्रस्तुत है, अध्याय 13 के सभी अनुच्छेद। 

श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta) अध्याय- 13 (01-19)

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय

अर्जुन उवाच

प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव  || 13.1 ||

भावार्थ : 

अर्जुन ने पूछा - हे केशव! मैं आपसे प्रकृति एवं पुरुष, क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ और ज्ञान एवं ज्ञान के लक्ष्य के विषय में जानना चाहता हूँ॥13.1॥

श्रीभगवानुवाच

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः || 13.2 ||

भावार्थ : 

श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर 'क्षेत्र' (जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोए हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम 'क्षेत्र' ऐसा कहा है) इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं॥13.2॥

श्रीभगवानुवाच

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम || 13.3 ||

भावार्थ : 

हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान (गीता अध्याय 15 श्लोक 7 और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिए) और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है (गीता अध्याय 13 श्लोक 23 और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिए) वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है৷৷13.3৷৷

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्‌।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु || 13.4 ||

भावार्थ : 

वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन৷৷13.4৷৷

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्‌ ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः  || 13.5 ||

भावार्थ : 

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है৷৷13.5৷৷

महाभूतान्यहङ्‍कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ || 13.6 ||

भावार्थ : 

पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध৷৷13.6৷৷

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्‍घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्‌  || 13.7 ||

भावार्थ : 

तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड, चेतना (शरीर और अन्तःकरण की एक प्रकार की चेतन-शक्ति।) और धृति (गीता अध्याय 18 श्लोक 34 व 35 तक देखना चाहिए।)-- इस प्रकार विकारों (पाँचवें श्लोक में कहा हुआ तो क्षेत्र का स्वरूप समझना चाहिए और इस श्लोक में कहे हुए इच्छादि क्षेत्र के विकार समझने चाहिए।) के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया৷৷13.7৷৷

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्‌ ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः  || 13.8 ||

भावार्थ : 

श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि (सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है।) अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह৷৷13.8৷৷

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्‍कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्‌  || 13.9 ||

भावार्थ : 

इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना৷৷13.9৷৷

असक्तिरनभिष्वङ्‍ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु  || 13.10 ||

भावार्थ : 

पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना॥13.10॥

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि || 13.11 ||

भावार्थ : 

मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना 'अव्यभिचारिणी' भक्ति है) तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना॥13.11॥

त्मज्ञाअध्याननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा || 13.12 ||

भावार्थ : 

अध्यात्म ज्ञान में (जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम 'अध्यात्म ज्ञान' है) नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान (इस अध्याय के श्लोक 7 से लेकर यहाँ तक जो साधन कहे हैं, वे सब तत्वज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से 'ज्ञान' नाम से कहे गए हैं) है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान (ऊपर कहे हुए ज्ञान के साधनों से विपरीत तो मान, दम्भ, हिंसा आदि हैं, वे अज्ञान की वृद्धि में हेतु होने से 'अज्ञान' नाम से कहे गए हैं) है- ऐसा कहा है॥13.12॥

ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते || 13.13 ||

भावार्थ : 

जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत्‌ ही कहा जाता है, न असत्‌ ही৷৷13.13৷৷

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्‌ ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति || 13.14 ||

भावार्थ : 

वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है) ॥13.14॥

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्‌ ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च || 13.15 ||

भावार्थ : 

वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है॥13.15॥

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्‌ || 13.16 ||

भावार्थ : 

वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) है तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है॥13.16॥

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌ ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च || 13.17 ||

भावार्थ : 

वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है (जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है॥13.17॥

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्‌ || 13.18 ||

भावार्थ : 

वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति (गीता अध्याय 15 श्लोक 12 में देखना चाहिए) एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है॥13.18॥

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते  || 13.19 ||

भावार्थ : 

इस प्रकार क्षेत्र (श्लोक 5-6 में विकार सहित क्षेत्र का स्वरूप कहा है) तथा ज्ञान (श्लोक 7 से 11 तक ज्ञान अर्थात ज्ञान का साधन कहा है।) और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप (श्लोक 12 से 17 तक ज्ञेय का स्वरूप कहा है) संक्षेप में कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥13.19॥

16 comments:

  1. जय श्री कृष्ण

    ReplyDelete
  2. ओम नमो भगवते वासुदेवाय नमः🙏🏻🚩

    ReplyDelete
  3. Om namo bhagwate vasudevay namah

    ReplyDelete
  4. सृष्टि के रचयिता भगवान श्री कृष्ण को शत-शत नमन
    ‼️ श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा ‼️

    ReplyDelete
  5. Jai shree krishna 🙏

    ReplyDelete
  6. जय श्री कृष्णा 🙏

    ReplyDelete
  7. Jai shree radhe 💞 Krishna 🙏🏻

    ReplyDelete
  8. संजय कुमारAugust 18, 2023 at 11:41 AM

    🙏🙏💐💐सुप्रभात 🕉️
    🙏जय श्री कृष्णा 🚩🚩🚩
    🙏जय श्री कृष्णा 🚩🚩🚩
    🙏आप का दिन मंगलमय हो 🙏
    🙏जय श्री कृष्णा 🚩🚩🚩
    👌👌अति उत्तम, आप का बहुत बहुत धन्यवाद 💐💐

    ReplyDelete
  9. Shivangi SrivastavaAugust 18, 2023 at 4:46 PM

    Jai shree Krishna.🙏🙏

    ReplyDelete
  10. Jai shree krishna

    ReplyDelete