वास्तव में सुखी कौन..?
सुख हमारे अंतर मन मे जन्म लेता है। वाह्य जगत में जो सुख दिखता है वह आभासी है।
आज मैंने एक कहानी पढ़ी। मुझे बहुत पसंद आई। उम्मीद है आपलोगों को भी अच्छी लगेगी।
एक भिखारी किसी किसान के घर भीख माँगने गया। किसान की स्त्री घर में थी, उसने चने की रोटी बना रखी थी। किसान जब घर आया, उसने अपने बच्चों का मुख चूमा, स्त्री ने उनके हाथ पैर धुलाये, उसके बाद वह रोटी खाने बैठ गया। स्त्री ने एक मुट्ठी चना भिखारी को डाल दिया, भिखारी चना लेकर चल दिया।
रास्ते में भिखारी सोचने लगा, “हमारा भी कोई जीवन है? दिन भर कुत्ते की तरह माँगते फिरते हैं। फिर स्वयं बनाना पड़ता है। इस किसान को देखो कैसा सुन्दर घर है। घर में स्त्री है, बच्चे हैं, अपने आप अन्न पैदा करता है। बच्चों के साथ प्रेम से भोजन करता है। वास्तव में सुखी तो यह किसान है।
इधर वह किसान रोटी खाते-खाते अपनी स्त्री से कहने लगा, “नीला बैल बहुत बुड्ढा हो गया है, अब वह किसी तरह काम नहीं देता, यदि कहीं से कुछ रुपयों का इन्तजाम हो जाये तो इस साल का काम चले। साधोराम महाजन के पास जाऊँगा, वह ब्याज पर दे देगा।”
भोजन करके वह साधोराम महाजन के पास गया। बहुत देर चिरौरी विनती करने पर 1रु. सैकड़ा सूद पर साधों ने रुपये देना स्वीकार किया। एक लोहे की तिजोरी में से साधोराम ने एक थैली निकाली और गिनकर रुपये किसान को दे दिये।
रुपये लेकर किसान अपने घर को चला, वह रास्ते में सोचने लगा- “हम भी कोई आदमी हैं, घर में 5 रु. भी नकद नहीं। कितनी चिरौरी विनती करने पर उसने रुपये दिये हैं। साधो कितना धनी है, उसके पास सैकड़ों रुपये हैं।” वास्तव में सुखी तो यह साधो राम ही है। साधोराम छोटी सी दुकान करता था, वह एक बड़ी दुकान से कपड़े ले आता था और उसे बेचता था।
दूसरे दिन साधोराम कपड़े लेने गया, वहाँ सेठ पृथ्वीचन्द की दुकान से कपड़ा लिया। वह वहाँ बैठा ही था कि इतनी देर में कई तार आए कोई बम्बई का था तो कोई कलकत्ते का, किसी में लिखा था 5 लाख मुनाफा हुआ, किसी में एक लाख का। साधो महाजन यह सब देखता रहा, कपड़ा लेकर वह चला आया। रास्ते में सोचने लगा, “हम भी कोई आदमी हैं, सौ दो सौ जुड़ गये महाजन कहलाने लगे। पृथ्वीचन्द कैसे हैं, एक दिन में लाखों का फायदा। “वास्तव में सुखी तो यह है, उधर पृथ्वीचन्द बैठा ही था, कि इतने ही में तार आया कि 5 लाख का घाटा हुआ। वह बड़ी चिन्ता में था कि नौकर ने कहा, आज लाट साहब की रायबहादुर सेठ के यहाँ दावत है। आपको जाना है, मोटर तैयार है।”
पृथ्वीचन्द मोटर पर चढ़ कर रायबहादुर की कोठी पर चला गया। वहाँ सोने चाँदी की कुर्सियाँ पड़ी थी, रायबहादुर जी से कलक्टर-कमिश्नर हाथ मिला रहे थे। बड़े-बड़े सेठ खड़े थे। वहाँ पृथ्वीचन्द सेठ को कौन पूछता, वे भी एक कुर्सी पर जाकर बैठ गया। लाट साहब आये, राय बहादुर से हाथ मिलाया, उनके साथ चाय पी और चले गये।
पृथ्वीचन्द अपनी मोटर में लौट रहें थे, रास्ते में सोचते आते हैं, हम भी कोई सेठ हैं, 5 लाख के घाटे से ही घबड़ा गये। राय बहादुर का कैसा ठाठ है, लाट साहब उनसे हाथ मिलाते हैं। “वास्तव में सुखी तो ये ही है।”
अब इधर लाट साहब के चले जाने पर रायबहदुर के सिर में दर्द हो गया, बड़े-बड़े डॉक्टर आये एक कमरे वे पड़े थे। कई तार घाटे के एक साथ आ गये थे। उनकी भी चिन्ता थी, कारोबार की भी बात याद आ गई। वे चिन्ता में पड़े थे, तभी खिड़की से उन्होंने झाँक कर नीचे देखा, एक भिखारी हाथ में एक डंडा लिये अपनी मस्ती में जा रहा था। राय बहादुर ने उसे देखा और बोले, “वास्तव में तो सुखी यही है, इसे न तो घाटे की चिन्ता न मुनाफे की फिक्र, इसे लाट साहब को पार्टी भी नहीं देनी पड़ती, सुखी तो यही है।”
इस कहानी से हमें यह पता चलता है कि हम एक-दूसरे को सुखी समझते हैं, पर वास्तव में सुखी कौन है, इसे तो वही जानता है, जिसे आन्तरिक शान्ति है, जिसे आन्तरिक सुकून है। कोई चाहे भिखारी हों चाहे करोड़पति हों। लेकिन उसके मन में जब तक शांति नहीं है, तब तक उसको सुकून नहीं मिल सकता। अतः जहाँ तक हो सके सदैव प्रसन्न रहने का प्रयास करिये - जो प्राप्त है, पर्याप्त है। जिसका मन मस्त है - उसके पास समस्त है।
मुझे पता है यह लिखना कितना आसान है और इसपर अमल करना कितना मुश्किल। फिर भी.... छोटा सा एक प्रयास ....
आज की कहानी पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। सारी खुशी हमारे भीतर ही है उसे न खोजकर हम खुशी को वाह्य जगत में ढूंढने के प्रयास करते हैं।
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ReplyDeleteधन हीन कहे धनवान सुखी 🙏
धनवान कहे सुख राजा को भारी।
राजा कहे महाराजा सुखी 🙏
महाराजा कहे सुख इन्द्र को भारी।
इन्द्र कहें चतुरानन को सुख 🙏
ब्रह्मा कहें सुख विष्णु को भारी।
तुलसी यह सोच विचार कहे 🙏
हरिभजन बिना सब लोग दुखारी।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
बहुत ही सुंदर और अनुकरणीय कहानी है🙏
बस आंतरिक शांति ही सुख दे सकता है🙏
और आंतरिक शांति हरिभजन बिना मिल
नही सकती🌹🙏गोविंद🙏🌹
धन हीन कहे धनवान सुखी 🙏
ReplyDeleteधनवान कहे सुख राजा को भारी।
राजा कहे महाराजा सुखी 🙏
महाराजा कहे सुख इन्द्र को भारी।
इन्द्र कहें चतुरानन को सुख 🙏
ब्रह्मा कहें सुख विष्णु को भारी।
तुलसी यह सोच विचार कहे 🙏
हरिभजन बिना सब लोग दुखारी।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
बहुत ही सुंदर और अनुकरणीय कहानी है🙏
बस आंतरिक शांति ही सुख दे सकता है🙏
और आंतरिक शांति हरिभजन बिना मिल
नही सकती🌹🙏गोविंद🙏🌹
अंतर्मन में झांक कर देखो
ReplyDeleteहमारी सोच पर निर्भर करता है कि हम सुखी हैं या दुखी।। बहुत सुंदर प्रस्तुति है आपकी।। शुभ अपराह्न
सुख अपने भीतर ही है बस उसे समझने की क्षमता को विकसित करने की आवश्यकता है जोईश्वर के सानिध्य या ध्यान से प्राप्त कर सकते हैं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर विचारणीय आलेख, दी। खुशी इंसान के खुद के अंदर ही होती है।
ReplyDeleteबेहद गहन विचार और आत्म चिंतन के बीच 👍🏻
ReplyDeleteजो शांत एवं संतुष्ट है वही प्रसन्न एवं सुखी है।
ReplyDeleteवाह बेहद सुंदर विचार रूपा जी 😊🙏🏻
ReplyDeleteआत्मीय सुख ही सबसे बड़ा सुख है
ReplyDeleteNice story
ReplyDeleteआत्मा सुख ही बढ़ा सुख है
ReplyDeleteAntarik Shanti vastvik sukh hai, par vartmaan ki sacchai shayad hi koi vastav me sukhi hai..
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