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श्रीमद्भगवद्गीता ||अध्याय सात - ज्ञानविज्ञान योग || अनुच्छेद 01 - 07 ||

 श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta)

इस ब्लॉग के माध्यम से हम सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता प्रकाशित करेंगे, इसके तहत हम सभी 18 अध्यायों और उनके सभी श्लोकों का सरल अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करेंगे। 

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता के 18 अध्यायों में से अध्याय 1,2,3,4,5 और 6 के पूरे होने के बाद आज प्रस्तुत है, अध्याय 7 के सभी अनुच्छेद। 

श्रीमद्भगवद्गीता ||अध्याय सात ज्ञानविज्ञान योग ||

अथ सप्तमोऽध्यायः- ज्ञानविज्ञानयोग

अध्याय सात के अनुच्छेद 01 - 07

अध्याय सात      - ज्ञानविज्ञानयोग

                    01-07 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय,इश्वर की व्यापकता
                    08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन
                    13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा
                    20-23 अन्य देवताओं की उपासना और उसका फल 
                    24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जाननेवालों की महिमा

अध्याय सात के अनुच्छेद 01-07 में विज्ञान सहित ज्ञान का विषय,इश्वर की व्यापकता बताया गया है।  

श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीभगवानुवाच 

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥

भावार्थ : 

श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन॥1॥ 

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥

भावार्थ : 

मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता॥2॥

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥

भावार्थ : 

हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है॥3॥

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ॥

भावार्थ : 

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान॥4-5॥

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥

भावार्थ : 

हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात्‌ सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ॥6॥

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥

भावार्थ : 

हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है॥7॥

18 comments:

  1. जय भगवान कृष्ण

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  2. श्रीमद्भागवत पुराण की जय हो 🙏🚩

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  3. महत्ती कार्य।
    🙏🏼🙏🏼

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  4. श्री मद भगवत पुराण को प्रणाम 🙏🏻

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  5. कई दिन से तुम्है देखा नही है
    ये आखो के लिये अच्छा नही है

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  6. कई दिन से तुम्है देखा नही है
    ये आखो के लिये अच्छा नही है

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  7. जानकारी की पाठशाला

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  8. गजब की मेहनत करने वाली हैं ये

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  9. राधे राधे, जय श्री कृष्णा

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  10. कर्म करना आप का अधिकार है,फल में नहीं।

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  11. पवन कुमारFebruary 17, 2023 at 6:52 PM

    🙏गोविंद🙏
    यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश गोविंद गुँथा हुआ है🙏हे गोविंद🙏

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  12. ‼️ श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा ‼️
    🙏🏻🪷 राधे राधे रूपा जी 🪷🙏🏻

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  13. Jai shree krishna

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  14. जय श्री कृष्ण

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