दुर्गावती देवी या दुर्गा भाभी
आज एक ऐसी विदुषी महिला के बारे में बात करेंगे, जिन्हें इतिहास के पन्नों में उचित स्थान ना मिल सका, जिन्होंने आजाद भारत के लिए सीखा था बम बनाना और जिनसे अंग्रेज भी खाते थे खौफ, यह दुर्गा भाभी हैं, वही दुर्गा भाभी जिन्होंने साण्डर्स वध के बाद राजगुरू और भगतसिंह को लाहौर से अंग्रेजों की नाक के नीचे से निकालकर कोलकत्ता ले गयीं। इनके पति क्रन्तिकारी भगवती चरण वोहरा थे। ये भी कहा जाता है कि चंद्रशेखर आजाद के पास आखिरी वक्त में जो माउजर था, वो भी दुर्गा भाभी ने ही उनको दिया था।
कौन थीं दुर्गा भाभी
दुर्गा भाभी का असली नाम दुर्गावती देवी था। इनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 को उत्तर प्रदेश के शहजादपुर गांव में हुआ था। दुर्गावती भारत की आजादी और ब्रिटिश सरकार को देश से बाहर खदेड़ने के लिए सशस्त्र क्रांति में सक्रिय भागीदार थीं। जब वह भगत सिंह और उनके दल में शामिल हुईं तो उन्हें आजादी के लिए लड़ने का मौका भी मिल गया।
दुर्गावती देवी का विवाह 11 साल की उम्र में ही हो गया था। उनके पति का नाम भगवती चरण वोहरा था, जो कि हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे। इस एसोसिएशन के अन्य सदस्य उन्हें दुर्गा भाभी कहते थे। इसीलिए वह इसी नाम से प्रसिद्ध हो गईं। 16 नंवबर 1926 को लाहौर में करतार सिंह सराभी की शहादत की 11वीं वर्षगांठ मनाने को लेकर दुर्गा भाभी चर्चा में आईं थीं।
दुर्गा भाभी का आजादी की लड़ाई में योगदान
दुर्गा भाभी को भारत की 'आयरन लेडी' भी कहा जाता है। बहुत ही कम लोगों को ये बात पता होगी कि जिस पिस्तौल से चंद्र शेखर आजाद ने खुद को गोली मारकर बलिदान दिया था, वह पिस्तौल दुर्गा भाभी ने ही आजाद को दी थी। इतना ही नहीं दुर्गा भाभी एक बार भगत सिंह के साथ उनकी पत्नी बन कर अंग्रेजो से बचाने के लिए उनके प्लान का हिस्सा बनी थीं। लाला लाजपत राय की मौत के बाद भगत सिंह ने साॅन्डर्स की हत्या की योजना बनाई थी। तब साॅन्डर्स और स्काॅर्ट से बदला लेने के लिए आतुर दुर्गा भाभी ने ही भगत सिंह और उनके साथियों को टीका लगाकर रवाना किया था। इस हत्या के बाद अंग्रेज उनके पीछे पड़ गए थे। दुर्गा भाभी ने उन्हें बचाने के लिए भगत सिंह के साथ भेष बदलकर शहर छोड़ दिया था। इतना ही नहीं सन् 1929 में जब भगत सिंह ने विधानसभा में बम फेंकने के बाद आत्मसमर्पण किया था उसके बाद दुर्गा भाभी ने लॉर्ड हैली की हत्या करने का प्रयास किया था। हालांकि वह बच गया था। दुर्गा भाभी ने भगत सिंह और उनके साथियों की जमानत के लिए एक बार अपने गहने तक बेच दिए थे।
दुर्गा भाभी भारत की आजादी के लिए अपनी जान की परवाह किए बिना अंग्रेजो से लड़ने वालों में महिला स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का भी विशेष महत्व है। झांसी की रानी, अहिल्या बाई और कई दमदार व्यक्तित्व की महिलाओं की जाबांजी का भारतीय इतिहास गवाह है। इन महिलाओं में एक नाम और भी शामिल हैं, वह हैं दुर्गावती देवी का।
दुर्गा भाभी भले ही भगत सिंह, सुख देव और राजगुरू की तरह फांसी पर न चढ़ी हों लेकिन कंधें से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ती रहीं। स्वतंत्रता सेनानियों के हर आक्रमक योजना का हिस्सा बनी। दुर्गा भाभी बम बनाती थीं तो अंग्रेजो से लोहा लेने जा रहे देश के सपूतों को टीका लगाकर विजय पथ पर भी भेजती थीं।
दुर्गा भाभी का व्यक्तिगत जीवन (source Wikipedia)
दुर्गा भाभी का जन्म सात अक्टूबर 1907 को शहजादपुर ग्राम अब कौशाम्बी जिला में पंडित बांके बिहारी के यहां हुआ। इनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और इनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन जिला में थानेदार के पद पर तैनात थे। इनके दादा पं॰ शिवशंकर शहजादपुर में जमींदार थे जिन्होंने बचपन से ही दुर्गा भाभी के सभी बातों को पूर्ण करते थे।
दस वर्ष की अल्प आयु में ही इनका विवाह लाहौर के भगवती चरण बोहरा के साथ हो गया। इनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर तैनात थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें राय साहब का खिताब दिया था। भगवती चरण बोहरा राय साहब का पुत्र होने के बावजूद अंग्रेजों की दासता से देश को मुक्त कराना चाहते थे। वे क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव थे। वर्ष 1920 में पिता जी की मृत्यु के पश्चात भगवती चरण वोहरा खुलकर क्रांति में आ गए और उनकी पत्नी दुर्गा भाभी ने भी पूर्ण रूप से सहयोग किया। सन् 1923 में भगवती चरण वोहरा ने नेशनल कालेज बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की और दुर्गा भाभी ने प्रभाकर की डिग्री हासिल की। दुर्गा भाभी का मायका व ससुराल दोनों पक्ष संपन्न था। ससुर शिवचरण जी ने दुर्गा भाभी को 40 हजार व पिता बांके बिहारी ने पांच हजार रुपये संकट के दिनों में काम आने के लिए दिए थे लेकिन इस दंपती ने इन पैसों का उपयोग क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश को आजाद कराने में उपयोग किया। मार्च 1926 में भगवती चरण वोहरा व भगत सिंह ने संयुक्त रूप से नौजवान भारत सभा का प्रारूप तैयार किया और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इसकी स्थापना की। सैकड़ों नौजवानों ने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान वेदी पर चढ़ाने की शपथ ली। भगत सिंह व भगवती चरण वोहरा सहित सदस्यों ने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए। 28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहरा जी शहीद हो गए। उनके शहीद होने के बावजूद दुर्गा भाभी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं।
9 अक्टूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने गवर्नर हैली पर गोली चला दी थी जिसमें गवर्नर हैली तो बच गया लेकिन सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने गोली मारी थी जिसके परिणाम स्वरूप अंग्रेज पुलिस इनके पीछे पड़ गई। मुंबई के एक फ्लैट से दुर्गा भाभी व साथी यशपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। दुर्गा भाभी का काम साथी क्रांतिकारियों के लिए राजस्थान से पिस्तौल लाना व ले जाना था। चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते वक्त जिस पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी उसे दुर्गा भाभी ने ही लाकर उनको दी थी। उस समय भी दुर्गा भाभी उनके साथ ही थीं। उन्होंने पिस्तौल चलाने की ट्रेनिंग लाहौर व कानपुर में ली थी।
भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त जब केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने जाने लगे तो दुर्गा भाभी व सुशीला मोहन ने अपनी बांहें काट कर अपने रक्त से दोनों लोगों को तिलक लगाकर विदा किया था। असेंबली में बम फेंकने के बाद इन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया तथा फांसी दे दी गई।
साथी क्रांतिकारियों के शहीद हो जाने के बाद दुर्गा भाभी एकदम अकेली पड़ गई। वह अपने पांच वर्षीय पुत्र शचींद्र को शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करने के उद्देश्य से वह साहस कर दिल्ली चली गई। जहां पर पुलिस उन्हें बराबर परेशान करती रहीं। दुर्गा भाभी उसके बाद दिल्ली से लाहौर चली गई, जहां पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तीन वर्ष तक नजरबंद रखा। फरारी, गिरफ्तारी व रिहाई का यह सिलसिला 1931 से 1935 तक चलता रहा। अंत में लाहौर से जिलाबदर किए जाने के बाद 1935 में गाजियाबाद में प्यारेलाल कन्या विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करने लगी और कुछ समय बाद पुन: दिल्ली चली गई और कांग्रेस में काम करने लगीं। कांग्रेस का जीवन रास न आने के कारण उन्होंने 1937 में छोड़ दिया। 1939 में इन्होंने मद्रास जाकर मारिया मांटेसरी से मांटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लिया तथा 1940 में लखनऊ में कैंट रोड के (नजीराबाद) एक निजी मकान में सिर्फ पांच बच्चों के साथ मांटेसरी विद्यालय खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ में मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है।
आज आज़ादी के इतने सालों के बाद भी न तो इस विरांगना को इतिहास के पन्नों में वो जगह ही मिली जिसकी वो हकदार थीं और न ही वो किसी को याद रहीं। 14अक्टूबर 1999 में वो इस दुनिया से गुमनाम ही विदा हो गयीं। एक स्मारक का नाम तक उनके नाम पर नहीं है ना ही कहीं कोई मूर्ति है।
ऐसी वीरांगना को शत शत नमन
शत शत नमन है विरंगना को 🙏
ReplyDeleteजय मेरे देश की माटी जो ऐसी वीरांगनाओ को जन्म दिया🙏🏻 शत शत नमन
ReplyDeleteशत शत नमन।
ReplyDeleteshat shat naman
ReplyDeleteऐसी वीरांगनायें को भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज होनी चाहिए थी लेकिन हमारे
ReplyDeleteतथाकथित कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने इन्हें
भुला दिया । भले ही इन इतिहासकारों ने इन्हें
भुला दिया लेकिन कहि न कही किसी न किसी
किताबों में उनकी वीरता की कथा दर्ज है। आपने
उन्ही किताबों से हमलोगों के बीच इनकी कहानी
को लेकर आई है इसके लिये आप बधाई के पात्र
है। ऐसी महान वीरांगना दुर्गा भाभी उर्फ दुर्गावती
देवी को सत सत नमन है🙏🙏🙏
दुर्गावती देवी की राष्ट्र सेवाओं को कभी नहीं भुलाया जा सकता है,ऐसी वीरांगना को शत शत नमन।
ReplyDeleteGood
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