श्रीमद्भगवद्गीता || अध्याय दो ~ सांख्ययोग ||
अथ द्वितीयोऽध्यायः ~ सांख्ययोग
अध्यायदो के अनुच्छेद 54 - 72
अध्याय दो के अनुच्छेद 64-72 में स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा की व्याख्या है।
अर्जुन उवाच
भावार्थ :
अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥54॥
श्रीभगवानुवाच
भावार्थ :
श्री भगवान् बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥
भावार्थ :
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है॥56॥
भावार्थ :
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥
भावार्थ :
और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥58॥
भावार्थ :
इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है॥59॥
भावार्थ :
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं॥60॥
भावार्थ :
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥
भावार्थ :
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥
भावार्थ :
क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥
भावार्थ :
परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥64॥
भावार्थ :
अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥65॥
भावार्थ :
न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?॥66॥
भावार्थ :
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥67॥
भावार्थ :
इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है॥68॥
भावार्थ :
सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥69॥
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥2.70॥
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥2.71॥
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥2.72॥
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जय श्री कृष्ण
ReplyDeleteश्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय दो सांख्ययोग का बहुत ही अच्छा हिंदी अनुवाद पढ़ना सुखद लगा
ReplyDeleteये अदभुत और दुर्लभ जानकारी है 👍🏻
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteRadhe radhe
ReplyDeleteJai Shree Krishna 🙏
ReplyDeleteBhagwat Geeta ka badhiya adhyay
Very nice
ReplyDeletejai shree krishna
ReplyDeleteJai shri krishana
ReplyDeleteमोह माया के बंधन से मुक्त होना इस दुनिया में सबसे कठिन काम है। भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा कही गई बातें तब जितनी सार्थक थीं आज कहीं उससे ज्यादा सार्थक हैं।
ReplyDeleteॐ नमो भगवते वासुदेवाय
🙏हरि ॐ🙏
ReplyDeleteयोगी राज श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया ज्ञान हमलोगों के लिये कितनी आवश्यक है। यदि हमलोग भी सभी कामनाओं को त्याग दें,क्रोध पर नियंत्रण कर लें,सुख-दुख को एक समान देखें और अपने सारे इंद्रियें को नियंत्रण में रख ले तो फिर तो ब्रह्मानंद को निश्चित पा सकते है । मनुष्य जीवन का यही तो मुख्य लक्ष्य है।
🙏ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🙏
Jai Shri Krishna 🙏🙏
ReplyDeleteश्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव 🙏🙏
ReplyDelete👌👌👍 जय श्री कृष्ण 🙏
ReplyDeleteJai shree krishna.
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