सुंदरकांड
हनुमानजी सुग्रीव से मिले
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥
सुग्रीवको आनंद क्यों हुआ? उसका कारण कहते हैं। सुग्रीवने मनमें विचार किया कि जो उनको सीताजीकी खबर नहीं मिली होती तो वे लोग मधुवनके फल कदापि नहीं खाते॥
राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे। इतनेमें समाजके साथ वे तमाम वानर बहां चले आये॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे। इतनेमें समाजके साथ वे तमाम वानर बहां चले आये॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥
सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया। और आकर उन सभीने नमस्कार किया तब बड़े प्यारके साथ सुग्रीव उन सबसे मिले॥
सुग्रीवने सभीसे कुशल पूंछा तब उन्होंने कहा कि नाथ! आपके चरण कुशल देखकर हम कुशल हैं और जो यह काम बना है सो केवल रामचन्द्रजीकी कृपासे बना है॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
सुग्रीवने सभीसे कुशल पूंछा तब उन्होंने कहा कि नाथ! आपके चरण कुशल देखकर हम कुशल हैं और जो यह काम बना है सो केवल रामचन्द्रजीकी कृपासे बना है॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥
हे नाथ! यह काम हनुमानजीने किया है। यह काम क्या किया है मानो सब वानरोंके इसने प्राण बचा लिये हैं॥
यह बात सुनकर सुग्रीव उठकर फिर हनुमानजीसे मिले और वानरोंके साथ रामचन्द्रजीके पास आए॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
यह बात सुनकर सुग्रीव उठकर फिर हनुमानजीसे मिले और वानरोंके साथ रामचन्द्रजीके पास आए॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥
किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥
वानरोंको आते देखकर रामचन्द्रजीके मनमें बड़ा आनन्द हुआ कि ये लोग काम सिद्ध करके आ गये हैं॥ राम और लक्ष्मण ये दोनों भाई स्फटिकमणिकी शिलापर बैठे हुए थे। वहां जाकर सब वानर दोनों भाइयोंके चरणोंमें गिरे॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
दोहा (Doha – Sunderkand)
प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29॥
करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजी प्रीतिपूर्वक सब वानरोंसे मिले और उनसे कुशल पूँछा. तब उन्होंने कहा कि हे नाथ! आपके चरणकमलोंको कुशल देखकर (चरणकमलोंके दर्शन पाने से) अब हम कुशल हें ॥29॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
हनुमानजी और सुग्रीव रामचन्द्रजी से मिले
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
उस समय जाम्बवान ने रामचन्द्रजीसे कहा कि हे नाथ! सुनो, आप जिसपर दया करते हो॥
उसके सदा सर्वदा शुभ और कुशल निरंतर रहते हें। तथा देवता मनुष्य और मुनि सभी उसपर सदा प्रसन्न रहते हैं॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
उसके सदा सर्वदा शुभ और कुशल निरंतर रहते हें। तथा देवता मनुष्य और मुनि सभी उसपर सदा प्रसन्न रहते हैं॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥
और वही विजयी (विजय करनेवाला), विनयी (विनयवाला) और गुणोंका समुद्र होता है और उसकी सुख्याति तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध रहती है॥
यह सब काम आपकी कृपासे सिद्ध हुआ हैं। और हमारा जन्म भी आजही सफल हुआ है॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
यह सब काम आपकी कृपासे सिद्ध हुआ हैं। और हमारा जन्म भी आजही सफल हुआ है॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी॥)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी॥)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजीने जो काम किया है उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता
(वह कोई आदमी जो लाख मुखोंसे कहना चाहे तो भी वह कहा नहीं जा सकता)॥
हनुमानजीकी प्रशंसाके वचन और कार्य जाम्बवानने रामचन्द्रजीको सुनाये॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
(वह कोई आदमी जो लाख मुखोंसे कहना चाहे तो भी वह कहा नहीं जा सकता)॥
हनुमानजीकी प्रशंसाके वचन और कार्य जाम्बवानने रामचन्द्रजीको सुनाये॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
उन वचनोंको सुनकर दयालु श्रीरामचन्द्वजीने उठकर हनुमानजीको अपनी छातीसे लगाया॥
और श्रीरामने हनुमानजीसे पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणोंकी रक्षा वह किस तरह करती है?॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
और श्रीरामने हनुमानजीसे पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणोंकी रक्षा वह किस तरह करती है?॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
दोहा (Doha – Sunderkand)
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30॥
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30॥
हनुमानजीने कहा कि हे नाथ । यद्यपि सीताजीको कष्ट तो इतना है कि उनके प्राण एक क्षणभर न रहे। परंतु सीताजीने आपके दर्शनके लिए प्राणोंका ऐसा बंदोबस्त करके रखा है कि रात दिन अखंड पहरा देनेके वास्ते आपके नामको तो उसने सिपाही बना रखा है (आपका नाम रात-दिन पहरा देनेवाला है)। और आपके ध्यानको कपाट बनाया है (आपका ध्यान ही किवाड़ है)। और अपने नीचे किये हुए नेत्रोंसे जो अपने चरणकी ओर निहारती है वह यंत्रिका अर्थात् ताला है. अब उसके प्राण किस रास्ते बाहर निकलें ॥30॥
हनुमानजी ने श्रीराम को सीताजी का सन्देश दिया
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥
और चलते समय मुझको यह चूड़ामणि दिया हे. ऐसे कह कर हनुमानजीने वह चूड़ामणि रामचन्द्रजीको दे दिया। तब रामचन्द्रजीने उस रत्नको लेकर अपनी छातीसे लगाया॥
तब हनुमानजीने कहा कि हे नाथ! दोनो हाथ जोड़कर नेत्रोंमें जल लाकर सीताजीने कुछ वचनभी कहे है सो सुनिये॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
तब हनुमानजीने कहा कि हे नाथ! दोनो हाथ जोड़कर नेत्रोंमें जल लाकर सीताजीने कुछ वचनभी कहे है सो सुनिये॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
सीताजीने कहा है कि लक्ष्मणजीके साथ प्रभुके चरण धरकर मेरी ओरसे ऐसी प्रार्थना करना कि हे नाथ! आप तो दीनबंधु और शरणागतोके संकटको मिटानेवाले हो॥
फिर मन, वचन और कर्मसे चरणोमें प्रीति रखनेवाली मुझ दासीको आपने किस अपराधसे त्याग दिया है॥
फिर मन, वचन और कर्मसे चरणोमें प्रीति रखनेवाली मुझ दासीको आपने किस अपराधसे त्याग दिया है॥
अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
हाँ, मेरा एक अपराध पक्का (अवश्य) हैं और वह मैंने जान भी
लिया है कि आपसे बिछुरतेही (वियोग होते ही) मेरे प्राण नही निकल गये॥
परंतु हें नाथ! वह अपराध मेरा नहीं है किन्तु नेत्रोका है; क्योंकि जिस समय प्राण निकलने लगते है उस समय ये नेत्र हठ कर उसमें बाधा कर देते हैं (अर्थात् केवल आपके दर्शनके लोभसे मेरे प्राण बने रहे हैं)॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
परंतु हें नाथ! वह अपराध मेरा नहीं है किन्तु नेत्रोका है; क्योंकि जिस समय प्राण निकलने लगते है उस समय ये नेत्र हठ कर उसमें बाधा कर देते हैं (अर्थात् केवल आपके दर्शनके लोभसे मेरे प्राण बने रहे हैं)॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी॥
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी॥
हे प्रभु! आपका विरह तो अग्नि है, मेरा शरीर तूल (रुई) है। श्वास प्रबल वायु है। अब इस सामग्रीके रहते शरीर क्षणभरमें जल जाय इसमें कोई आश्चर्य नहीं॥
परंतु नेत्र अपने हितके लिए अर्थात् दर्शनके वास्ते जल बहा बहा कर उस विरह की आग को शांत करते हैं, इससे विरह की आग भी मेरे शरीरको जला नहीं पाती॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
परंतु नेत्र अपने हितके लिए अर्थात् दर्शनके वास्ते जल बहा बहा कर उस विरह की आग को शांत करते हैं, इससे विरह की आग भी मेरे शरीरको जला नहीं पाती॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
हनुमानजी ने कहा कि हे दीनदयाल! सीताकी विपत्ति ऐसी भारी है कि उसको न कहना ही अच्छा है॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
दोहा (Doha – Sunderkand)
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥
हे करुणानिधान! हे प्रभु! सीताजीके एक एक क्षण, सौ सौ कल्पके समान व्यतीत होते हैं। इसलिए जल्दी चलकर और अपने बाहुबलसे दुष्टोंके दलको जीतकर उनको जल्दी ले आइए ॥31॥ जय सियाराम जय जय सियाराम
जय श्री राम
Ram bhakt Hanuman ki Jai 🙏
ReplyDeleteबजरंग बली की जय।
ReplyDeleteसंकट मोचन हनुमान की जय
ReplyDeletejai ho bajrang bali tod de dushmn ki nali...
ReplyDeleteजय बजरंग बली
ReplyDeleteजय हनुमान जी
ReplyDeleteजय हनुमान जी
ReplyDeleteपवनपुत्र हनुमान जी की जय,मंगलवार के पावन दिन श्री हनुमानजी का सुमिरन कराने के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteJai sri ram
ReplyDeleteJai Shri Ram
ReplyDeleteपवन सुत हनुमान जी की जय 🙏🙏
ReplyDeleteश्रीराम जय राम जय जय राम 🙏
ReplyDeleteJai hanunaan
ReplyDeleteJai jai hanuman
ReplyDelete🙇🙇
ReplyDeleteSunder..
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