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नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है | निदा फ़ाज़ली (Nida-Fazli)

 नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है 

नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है | निदा फ़ाज़ली (Nida-Fazli)
"खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं 
    हवा चले न चले दिन पलटते रहते हैं ..❣️"

नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है 

कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन अब घर अच्छा लगता है


मिलने-जुलने वालों में तो सब ही अपने जैसे हैं 

जिस से अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है


मेरे आँगन में आए या तेरे सर पर चोट लगे 

सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है


चाहत हो या पूजा सब के अपने अपने साँचे हैं 

जो मौत में ढल जाए वो पैकर अच्छा लगता है


हम ने भी सो कर देखा है नए पुराने शहरों में 

जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है

नई नई आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है | निदा फ़ाज़ली (Nida-Fazli)

"नींद आये तो मिल लू उससे
रु-ब-रु मिलना अब मुमकिन नहीं,
ये नींद भी उनकी तरह ही संगदिल निकली
न ख़ुद आइ न आने दी उसे..❣️"

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