हाँ नहीं करती याद तुम्हें
हाँ नहीं करती याद तुम्हें और तुम्हारी यादों को,
पर हर रोज आँख खुलते ही,
उँगलियाँ थिरक उठती हैं
गुड मॉर्निंग लिखने को और
हर रोज़ सुबह की प्रार्थना में,
तुम्हारे सलामती की अर्जी डालती हूं।
हाँ वो जब भी शाम को टहलने निकलती हूँ
पार्क के रास्ते,
तो तुम्हारी बातें
अनायास ही गूंज उठती हैं कानों में,
पर सच में नहीं याद करती !
अब तो बरसो हो गए बीते बातों को,
उन बिसरी यादों को !
पर जब भी रेलवे स्टेशन पर जाती हूँ तो,
खो जाती हूँ उन बीते लम्हों में,
पर सच पूछो तो बिलकुल भी याद नहीं करती तुम्हें।
हाँ जब भी ब्लॉग लिखने बैठती हूँ,
गुजर जाती है तुम्हारी तस्वीर मेरी आँखों के सामने से
और हर रोज यूं ही डल जाती है एक पोस्ट
पर सच में बिल्कुल याद नहीं करती तुम्हें।
सोशल मीडिया पर तुम्हारे नाम के व्यक्ति के
दोस्ती के पैगाम को अपना लेती हूँ
और तो और तुम्हारे नाम की दुकान पर चली जाती हूँ हर रोज
कुछ समान लेने के बहाने
हाँ, पर सच कहती हूँ बिल्कुल याद नहीं करती तुम्हें।
वो हर शाम हांथों में 'ओस की बूँद लिखा'
चाय का प्याला होता है और
मुँह में बस स्टैंड की तपरी वाली
अदरक की चाय का स्वाद
पर कसम से सच कहती हूँ बिल्कुल याद नहीं करती तुम्हें।
बस यूँ ही गुजर जाती है शाम भी
और आ जाती है रात,
जो गुजर जाती है यह सोचते कि
शायद उसे बिल्कुल भी नहीं आती
कभी मेरी याद।
मैं तो बिल्कुल भी नहीं करती तुम्हें याद।
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