प.पू. रामकृष्ण परमहंसजी
पिछले हफ्ते संतों की कथा में हमने संत तुकाराम महाराज जी के बारे में पढ़ा। इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं और आज बात करते हैं प.पू. रामकृष्ण परमहंसजी की।
कौन थे प.पू. रामकृष्ण परमहंसजी?
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी माँ काली के अनन्य भक्त थे तथा भक्ति और साधना के आदर्श उदाहरण हैं। कालीमाता ने भी उनपर कितना और कैसे प्रेम किया? आज पढ़ते हैं यह भक्तिमय प्रसंग।
प.पू. रामकृष्ण परमहंसजी का जन्म 18 फरवरी 1836 को कोलकाता से लगभग साठ मील उत्तर-पश्चिम में कामारपुकुर नामक गाँव में हुआ था। उनके माता-पिता, क्षुद्रराम चट्टोपाध्याय और चंद्रमणि देवी थे, जो बहुत गरीब थे, लेकिन बहुत ही सरल स्वभाव के थे। छह साल की उम्र में परमहंसजी ने काले बादलों की पृष्ठभूमि में उड़ते हुए सफेद सारसों की उड़ान को देखकर पहली बार परमानंद का अनुभव किया। उम्र के साथ परमानंद में प्रवेश करने की यह प्रवृत्ति तीव्र होती गई। जब वे सात वर्ष के थे, तब उनके पिता की मृत्यु ने उनके आत्मनिरीक्षण को और गहरा कर दिया और दुनिया से उनकी वैराग्यता को और बढ़ा दिया।
जब श्री रामकृष्ण सोलह वर्ष के हुए, तो उनके भाई रामकुमार उन्हें पुरोहिती के पेशे में सहायता करने के लिए कोलकाता ले गए। 1855 में रानी रासमणि द्वारा निर्मित दक्षिणेश्वर में काली मंदिर का अभिषेक किया गया और रामकुमार जी को उस मंदिर में मुख्य पुजारी बनाया गया, परंतु कुछ महीने बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। इनकी मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण परमहंसजी को पुजारी नियुक्त किया गया।
वे प्रतिदिन देवी की पूजा करते थे; परंतु उन्हें कभी देवी के दर्शन नहीं हुए थे। एक बार उन्हें ऐसा लगा कि ‘यदि देवी यहीं हैं, तो वे मुझे दर्शन क्यों नहीं देतीं?’ तब रामकृष्ण परमहंसजी ने माँ काली के प्रति गहन भक्ति विकसित की और पुरोहिती कर्तव्यों के अनुष्ठानों को भूलकर उनकी छवि की प्रेमपूर्ण आराधना में घंटों बिताने लगे और देवी के दर्शन हेतु व्याकुल होकर प्रार्थना करने लगे। वे देवी से प्रार्थना करते थे कि "हे देवी! आप वास्तव में यदि यही हैं, तो मैं आपका रूप क्यों नहीं देख सकता?"
एक दिन की बात है कि श्रीरामकृष्णजी देवी के सामने उनका स्मरण कर पूजा कर रहे थे। देवी के दर्शन न होने के कारण वे कहने लगे कि ‘यदि मुझे देवी के दर्शन नहीं होते, तो मेरे जीवन का क्या अर्थ है? मुझे यह जीवन ही नहीं चाहिए।’ ऐसा बोलकर उन्होंने देवी के हाथ में स्थित शस्त्र उठा लिया और वे स्वयंपर वार करने ही वाले थे कि इतने में मूर्ति से साक्षात कालीमाता प्रकट हुईं। भगवान का स्मरण निष्ठा और लगन से करने पर भगवान प्रकट होते है, इस बात का उदहारण भक्त प्रल्हाद और रामकृष्ण परमहंस जी ने प्रस्तुत किया है।
इस प्रसंग के उपरांत रामकृष्ण परमहंसजी में देवी के प्रति भक्ति और अधिक बढ गई। रामकृष्ण कभी अपनी चिंता नहीं करते थे। जैसे छोटा बालक अपनी माता से सबकुछ मांग लेता है, उसी प्रकार रामकृष्णजी माता से सबकुछ मांगते थे। वे प्रत्येक कृत्य देवी की आज्ञा से ही करते थे। देवी काली उनकी माता ही थी। उनके पास माता की छोटी मूर्ति थी, जिससे वे सदैव बातें करते थे। वे देवी को भोजन खिलाते और देवी भी उसे ग्रहण कर लेतीं थीं।
जब रामकृष्णजी काली माता के अनुसंधान में रहते अर्थात उनका अखंड स्मरण करते थे, तब वे देहभान भूल इतना आनंदित होकर नाचते-गाते थे कि कभी कभी वे अचेत हो जाते थे। इस प्रकार उनकी उच्च स्तर की भाव की अवस्था रहती थी, परंतु उनकी जीवनशैली तो लोगों को पागलों के जैसी लगती थी ।
एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, "आप ऐसा कहते हैं कि देवी हर एक वस्तु में और प्राणी में है, तो आप इस छोटी सी मूर्ति को कालीमाता कैसे कहते हैं ?" उस समय रामकृष्णजी ने उससे पूछा, "सूर्य पृथ्वी से कितना बडा है?" उस व्यक्ति ने यह उत्तर दिया, "सूर्य पृथ्वी से ९ लाख गुना बडा है।" तब रामकृष्णजी ने उससे पूछा, "वह इतना बडा होते हुए भी हमें इतना छोटा क्यों दिखाई देता है?" उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, "सूर्य भले ही पृथ्वी से ९ लाख गुना बडा हो, परंतु वह हम से बहुत दूर है इसलिए वह हमें इतना छोटा दिखाई देता है।" इसपर रामकृष्ण परमहंसजी बोले, "इसी प्रकार काली माता आपसे बहुत दूर हैं इसलिए वे आपको छोटी दिखती हैं। मैं तो देवी के गोद में ही होता हूं, इसलिए वे मुझे बड़ी लगती हैं। आप उनकी ओर बाह्य दृष्टि से देखते हैं, परंतु मैं उनकी ओर श्रद्धा के साथ सृष्टि के शक्तिरूप में देखता हूं।"
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