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श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta) अध्याय- 15 (01 - 06)

 श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta)

इस ब्लॉग के माध्यम से हम सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता प्रकाशित कर रहे हैं, इसके तहत हम सभी 18 अध्यायों और उनके सभी श्लोकों का सरल अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करेंगे। 

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता के 18 अध्यायों में से अध्याय 1,2,3,4,5, 6, 7, 8,9, 10,11,12,13 और 14 के पूरे होने के बाद आज प्रस्तुत है, अध्याय 15 के सभी अनुच्छेद। 

अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग

श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta)

संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय

श्रीभगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌  || 15.01 ||

भावार्थ : 

श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है। 

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके || 15.02 ||

भावार्थ : 

इस संसार रूपी वृक्ष की समस्त योनियाँ रूपी शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फ़ैली हुई हैं, इस वृक्ष की शाखाएँ प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा विकसित होती है, इस वृक्ष की इन्द्रिय-विषय रूपी कोंपलें है, इस वृक्ष की जड़ों का विस्तार नीचे की ओर भी होता है जो कि सकाम-कर्म रूप से मनुष्यों के लिये फल रूपी बन्धन उत्पन्न करती हैं৷

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्‍गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा || 15.03 ||

भावार्थ : 

इस संसार रूपी वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत में नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो इसका आदि है और न ही इसका अन्त है और न ही इसका कोई आधार ही है, अत्यन्त दृड़ता से स्थित इस वृक्ष को केवल वैराग्य रूपी हथियार के द्वारा ही काटा जा सकता है৷

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी || 15.04 ||

भावार्थ : 

वैराग्य रूपी हथियार से काटने के बाद मनुष्य को उस परम-लक्ष्य (परमात्मा) के मार्ग की खोज करनी चाहिये, जिस मार्ग पर पहुँचा हुआ मनुष्य इस संसार में फिर कभी वापस नही लौटता है, फिर मनुष्य को उस परमात्मा के शरणागत हो जाना चाहिये, जिस परमात्मा से इस आदि-रहित संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति और विस्तार होता है৷

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ || 15.05 ||

भावार्थ : 

जो मनुष्य मान-प्रतिष्ठा और मोह से मुक्त है तथा जिसने सांसारिक विषयों में लिप्त मनुष्यों की संगति को त्याग दिया है, जो निरन्तर परमात्म स्वरूप में स्थित रहता है, जिसकी सांसारिक कामनाएँ पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है और जिसका सुख-दुःख नाम का भेद समाप्त हो गया है ऎसा मोह से मुक्त हुआ मनुष्य उस अविनाशी परम-पद (परम-धाम) को प्राप्त करता हैं৷

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम || 15.06 ||

भावार्थ : 

उस परम-धाम को न तो सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा प्रकाशित करता है और न ही अग्नि प्रकाशित करती है, जहाँ पहुँचकर कोई भी मनुष्य इस संसार में वापस नहीं आता है वही मेरा परम-धाम है৷

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