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विषवृक्ष न बनो । जातक कथा

विषवृक्ष न बनो

 एक बार जब काशी में ब्रह्मदत्त राज्य करते थे, उस समय बोधिसत्व का जन्म उत्तर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। सयाने होने पर उन्होंने तक्षशिला में वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया। पिता के देहान्त के उपरांत बोधिसत्व ने घर-बार छोड दिया और हिमालय पर्वत पर तप करके विश्व के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया। बहुत दिन पश्चात्‌ वे जनपद की ओर लौटे और काशी के राजा के उद्यान में अतिथि के रूप में रहने लगे। 

जातक कथा । विषवृक्ष न बनो

राजा बोधिसत्व पर बहुत श्रद्धा रखते थे और दिन में कई बार उनके दर्शनों को उद्यान में आते थे। 

इस राजा के एक पुत्र था, जो स्वभाव से अत्यन्त क्रूर था और उसके व्यवहार से सभी दुःखी थे। राजा को इस पुत्र के विषय में बडी चिन्ता थी। अंत में उन्होंने उसे बोधिसत्व की सेवा में रख दिया। 

एक दिन बोधिसत्व राजकुमार के साथ उद्यान में टहल रहे थे। मार्ग में एक छोटा-सा नीम का अंकुर उन्हें दिखाई दिया। बोधिसत्व उसके पास ठहर गए। उसमें केवल दो पत्तियाँ ही फूटी थीं। 

बोधिसत्व ने राजकुमार से कहा, "जरा इसकी पत्ती चखकर तो देखो।" राजकुमार ने एक पत्ती तोड़ कर चखी और उसकी असहा कड़वाहट के कारण उसे तुरंत ही थूक दिया। परन्तु थूक देने पर भी उसकी कटुता का प्रभाव मुख से ना गया।

बोधिसत्व के पूछने पर राजकुमार ने कहा, "हे संन्यासिन्‌, इस नन्हे से पौधे में बहुत विष है। बड़ा होने पर यह एक भयंकर विषवृक्ष बनेगा।" ऐसा कहकर उसने उस पौधे को जड़ से उखाड़कर एक ओर फेंक दिया और उपरोक्त गाथा कही। 

बोधिसत्व ने कहा, "एक छोटा-सा पौधा कहीं बढ़कर भयंकर विष-वृक्ष न बन जाय, इस आशंका से तुमने उसे नष्ट कर डाला। क्‍या इसी प्रकार इस राज्य की प्रजा इस आशंका से, कि तुम राजा बनकर अपने क्रोध और क्रूर स्वभाव से उसे त्रस्त करोगे, तुम्हें राज्य से वंचित नहीं कर सकती? इस घटना से तुम शिक्षा ग्रहण करो और अपने को एक दयालु और लोक हितैषी राजकुमार सिद्ध करो।” 

बोधिसत्व के उपदेश ने उस क्रूर राजपुत्र का हृदय परिवर्तन कर दिया। पिता का राज्य प्राप्त होने पर उसने लोकहित के अनेक कार्य किये, जिससे काशी की सारी प्रजा उसे प्राणों के समान प्यार करने लगी। उस समय यह लिच्छवि राजकुमार ही क्रूर राजपुत्र था, आनन्द काशी का राजा था और मैं तो संन्यासी था ही। 


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Don't be a Poison Tree

 Once a Bodhisattva was born in a Brahmin family in the north, when Brahmadatta reigned in Kashi. When he grew up, he studied the Vedas and Shastras at Taxila. After the death of his father, the Bodhisattva left home and attained knowledge of the mysteries of the world by doing penance on the Himalaya Mountains. After many days he returned to the district and started living as a guest in the garden of the king of Kashi.

जातक कथा । विषवृक्ष न बनो

The king had great reverence for the Bodhisattva and used to visit the garden several times a day.

This king had a son, who was very angry by nature and everyone was saddened by his behavior. The king was very worried about this son. Finally they put him in the service of the Bodhisattva.

One day the Bodhisattva was walking in the garden with the prince. They saw a small neem sprout on the way. The Bodhisattvas stayed beside him. There were only two leaves in it.

The Bodhisattva said to the prince, "Just taste its leaf and see." The prince plucked a leaf and tasted it and immediately spit it out because of its unbearable bitterness. But even after spitting, the effect of his bitterness did not go from his mouth.

On being asked by the Bodhisattva, the prince said, “O sannyasin, there is a lot of poison in this little plant. When it grows up, it will become a terrible poison tree." Saying this, he uprooted the plant and threw it aside and told the above story.

The Bodhisattva said, "You destroyed it out of fear that a small plant might grow into a terrible poison tree. In the same way, can the subjects of this kingdom not deprive you of the kingdom, fearing that by becoming the king, you will plague him with your anger and cruel nature? Take a lesson from this incident and prove yourself to be a kind and benevolent prince.

The teachings of the Bodhisattva changed the heart of the cruel king. On getting the kingdom of his father, he did many works of public interest, due to which all the people of Kashi started loving him like life. At that time this Lichchavi prince was the only cruel prince, Anand was the king of Kashi and I was a sanyasi.

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