दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय हमारा मन है
कर्म शब्द 'कृ' धातु से निकला है; 'कृ' धातु का अर्थ है- करना। जो कुछ किया जाता है, वही कर्म है। कर्मयोग में कर्म शब्द से हमारा मतलब केवल कार्य ही है। मानवजाति का चरम लक्ष्य ज्ञानलाभ है। मनुष्य का अंतिम ध्येय सुख नहीं बल्कि ज्ञान है, क्योंकि सुख और आनंद का तो एक न एक दिन अंत हो ही जाता है। संसार में सब दुःखों का मूल भी यही है कि मनुष्य अज्ञानवश यह समझ बैठता है कि सुख ही उसका चरम लक्ष्य है।
ज्ञान मनुष्य में अंतर्निहित है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अंदर ही है। हम जो कहते हैं कि मनुष्य 'जानता' है, उसे ठीक-ठीक मनोवैज्ञानिक भाषा में व्यक्त करने पर हमें कहना चाहिए कि वह 'आविष्कार' करता है। मनुष्य जो कुछ सीखता है, वह वास्तव में 'आविष्कार करना' ही है। 'आविष्कार' का अर्थ है - मनुष्य का अपनी अनंत ज्ञानस्वरूप आत्मा के ऊपर से आवरण को हटा लेना। विश्व का असीम पुस्तकालय हमारे मन में ही विद्यमान है। बाह्य जगत् तो अपने मन को अध्ययन में लगाने के लिए उद्दीपक तथा सहायक मात्र है; परंतु हर समय अध्ययन का विषय मन ही है। जब आवरण धीरे-धीरे हटता जाता है, तो हम कहते हैं कि 'हमें ज्ञान हो रहा है।' ज्यों-ज्यों इस आविष्करण की क्रिया बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों हमारे ज्ञान की वृद्धि होती जाती है।
कर्म जैसा होगा, इच्छाशक्ति का विकास भी वैसा ही होगा। संसार में प्रबल इच्छाशक्ति संपन्न जितने महापुरुष हुए हैं, वे सभी धुरंधर कर्मी थे। यह सनातन नियम है कि जब तक कोई मनुष्य किसी वस्तु का उपार्जन न करे, तब तक वह उसे प्राप्त नहीं हो सकती। हम अपने भौतिक सुखों के लिए भिन्न-भिन्न चीजों को भले ही इकट्ठा करते जाएं, परंतु वास्तव में जिसका उपार्जन हम अपने कर्मों द्वारा करते हैं, वही हमारा होता है। कोई संसार भर की सारी पुस्तकें मोल लेकर रख ले, परंतु वह केवल उन्हीं को पढ़ सकेगा, जिनको पढ़ने का वह अधिकारी होगा, और यह अधिकार कर्म द्वारा ही प्राप्त होता है। हम किसके अधिकारी हैं, हम अपने भीतर क्या-क्या ग्रहण कर सकते हैं, इस सबका निर्णय कर्म द्वारा ही होता है।
अपनी वर्तमान अवस्था के जिम्मेदार हम ही हैं; और जो कुछ हम होना चाहें, उसकी शक्ति भी हम ही में है। हमें यह जान लेना आवश्यक है कि कर्म किस प्रकार किए जाएं। संभव है, आप कहें, 'कर्म करने की शैली जानने से क्या लाभ?' संसार में प्रत्येक मनुष्य किसी-न-किसी प्रकार से तो काम करता ही रहता है। परंतु यह भी ध्यान रखना चाहिए कि शक्तियों का निरर्थक क्षय भी कोई चीज होती है। गीता का कथन है, कर्मयोग का अर्थ है- कुशलता से अर्थात् वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना। कर्मानुष्ठान की विधि ठीक-ठीक जानने से मनुष्य को श्रेष्ठ फल प्राप्त हो सकता है। यह स्मरण रखना चाहिए कि समस्त कर्मों का उद्देश्य है मन के भीतर पहले से ही स्थित शक्ति को प्रकट कर देना, आत्मा को जाग्रत कर देना। प्रत्येक मनुष्य के भीतर पूर्ण शक्ति और पूर्ण ज्ञान विद्यमान है। भिन्न-भिन्न कर्म इन महान् शक्तियों को जाग्रत करने तथा बाहर प्रकट कर देने में साधन मात्र हैं।
आत्मसंयम से महान् इच्छाशक्ति पैदा होती है। हमें कर्म करने का ही अधिकार है, कर्मफल में हमारा कोई अधिकार नहीं। कर्मफलों को एक ओर रहने दो, उनकी चिंता हमें क्यों हो? यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस आदमी का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा रहता है। यदि तुम एक श्रेष्ठ एवं भला कार्य करना चाहते हो, तो यह सोचने का कष्ट मत करो कि उसका फल क्या होगा। कर्मयोगी के लिए सतत कर्मशील होना आवश्यक है; हमें सदैव कर्म करते रहना चाहिए।
- स्वामी विवेकानंद की किताब 'कर्मयोग से साभार
Ji bilkul shi
ReplyDeleteVery thoughtful and interesting
ReplyDeleteसही बात
ReplyDeleteVery True
ReplyDeleteJai shree krishna 🙏
ReplyDeleteJai shree krishna
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