पंचतंत्र । Panchtantra

पंचतंत्र । Panchtantra

पंचतंत्र (Panchtantra) नीति कथा और कहानियों का एक संग्रह है, जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा जी हैं।  पंचतंत्र (Panchtantra) की कहानी में बच्चों के साथ-साथ बड़े भी रुचि लेते हैं इन कहानियों में कोई न कोई शिक्षा या मूल छिपा होता है, जो हमें शिक्षा देता है। पंचतंत्र की कहानी बच्चे बड़ी चाव से पढ़ते हैं तथा सीख लेते हैं।  पंचतंत्र की कुछ कहानियों में ऐसा भी है, जो हिंदी के कहानी लेखन में दी जाती है तथा इसके साथ-साथ कई परीक्षाओं में भी पंचतंत्र की कहानियों के विषय में पाठ्यपुस्तक में दी हुई है। 

पंचतंत्र । Panchtantra

आचार्य विष्णु शर्मा

पंडित विष्णु शर्मा एक प्रसिद्ध संस्कृत के लेखक थे, जिन्हें प्रसिद्ध संस्कृत नीति पुस्तक पंचतंत्र का रचनाकार माना जाता है। नीति कथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि इस ग्रंथ की रचना पूरी हुई तब उनकी उम्र 80 वर्ष के करीब थी। 

आचार्य विष्णु शर्मा के जन्म स्थान का कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है। इस वजह से इनका जन्म कहां हुआ, यह कहना संभव नहीं है। परंतु इनकी कर्मस्थली के बारे में सारे तथ्य और साक्ष्य मिलते हैं। वे दक्षिण भारत के महिलारोप्य नामक नगर में रहते थे। 

पंचतंत्र की उत्पत्ति

महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति के तीन मूर्ख पुत्र थे, जो राजनीति एवं नेतृत्व गुण सीखने में असफल रहे। विष्णु शर्मा राजनीति तथा नीतिशास्त्र सहित सभी शास्त्रों के ज्ञाता थे। राजा अमरशक्ति ने आचार्य विष्णु शर्मा को दरबार में बुलाकर घोषणा की कि यदि वे उनके पुत्रों को कुशल राज्य प्रशासक बनाने में सफल होते हैं, तो वह उन्हें 100 गांव तथा बहुत सारा स्वर्ण देंगे। 

विष्णु शर्मा हंसे और कहे, " हे राजन! मैं अपनी विद्या को बेचता नहीं हूं। मुझे किसी उपहार की भी इच्छा या लालच नहीं है। आपने मुझे विशेष सम्मान सहित बुलाया है, इसलिए मैं आप के पुत्रों को 6 महीने के भीतर कुशल प्रशासक बनाने की शपथ लेता हूं।"

राजा ने हर्ष पूर्वक तीनों राजकुमारों की जिम्मेदारी विष्णु शर्मा जी को दे दी। विष्णु शर्मा ने उन्हें शिक्षित करने हेतु कुछ कहानियों की रचना की, जिनके माध्यम से वे उन्हें नीति सिखाया करते थे। शीघ्र ही राजकुमारों ने इसमें रुचि लेना आरंभ कर दिया तथा नीति सीखने में सफलता प्राप्त की। राजपूत्र इन कथाओं को सुनकर 6 महीने में ही पूरे राजनीतिज्ञ बन गए। 

इन कहानियों का संकलन 5 समूहों में पंचतंत्र के नाम से कोई 2000 साल पहले बना। 

पंचतंत्र का रचनाकाल

उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी के आसपास बताई जाती है। पंचतंत्र की रचना किस काल में हुई यह सही से नहीं बताया जा सकता है, क्योंकि पंचतंत्र की मूल प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं है। 

कुछ विद्वानों ने पंचतंत्र के रचयिता एवं पंचतंत्र की भाषा शैली के आधार पर इसके रचनाकार के विषय में अपने मत प्रस्तुत किए हैं। जैसे महामहोपाध्याय पंडित सदाशिव शास्त्री जी के अनुसार पंचतंत्र के रचयिता विष्णु शर्मा थे और विष्णु शर्मा चाणक्य का ही दूसरा नाम है। अतः पंचतंत्र की रचना चंद्रगुप्त मौर्य के समय में हुई होगी और इसका रचनाकाल 300 ईसवी पूर्व मानते हैं।

पंचतंत्र की कहानियां बहुत जीवंत हैं। इसमें लोक व्यवहार को बहुत सरल तरीके से समझाया गया है। इस पुस्तक की महत्ता इसी से है कि इसका अनुवाद विश्व की लगभग हर भाषा में हो चुका है।

पंचतंत्र की कहानियां 5 भागों में बटी हुई  हैं 

  1. मित्र भेद (मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव)
  2. मित्र लाभ या मित्र संप्राप्ति
  3. काकोलुकियम (कौवे एवं उल्लू की कथा)
  4. लब्धप्रणाश (हाथ लगी चीज का हाथ से निकल जाना)
  5. अपरिक्षित कारक (जिसको पर खा नहीं गया हो, उसे करने से पहले सावधान रहें।)

🔯🔯    सूची     🔯🔯
चतुर्थ तंत्र : लब्धप्रणाशम्
  1. मेंढक सांप की मित्रता 
  2. आजमाएं को आजमाना 
  3. समय का राग कुछ समय की टर्र 
  4. गीदड़ गीदड़ ही रहता है 
  5. स्त्री का विश्वास 
  6. स्त्री भक्त राजा 
  7. वाचाल गधा 
  8. घर का न घाट का 
  9. घमंड का सिर नीचा 
  10. राजनीतिज्ञ गीदड़ 
  11. कुत्ते का बैरी कुत्ता

पंचम तंत्र : अपरिक्षित कारकम्
  1. बिना विचारे जो करे 
  2. लालच बुरी बला 
  3. वैज्ञानिक मूर्ख 
  4. चार मूर्ख पंडित 
  5. एक बुद्धि की कथा 
  6. संगीतविशारद गधा 
  7. मित्र की शिक्षा मानो 
  8. शेखचिल्ली ना बनो 
  9. लोभ बुद्धि पर पर्दा डाल देता है 
  10. भय का भूत 
  11. जिज्ञासु बनो 
  12. मिलकर काम करो 
  13. मार्ग का साथी

पंचतंत्र । Panchtantra ~ प्रथम तंत्र - मित्र भेद

प्रथम तंत्र - मित्र भेद 

महिलारोप्य नाम के नगर में वर्धमान नाम का एक वणिक पुत्र रहता था। उसने धर्मयुक्त रीति से व्यापार में पर्याप्त धन एकत्र किया था। किंतु उतने से उसे संतुष्टी नहीं थी उसे और भी अधिक धन कमाने की इच्छा थी। छः उपाय से ही धनोपार्जन किया जाता है। भिक्षा, राज्यसेवा, खेती, विद्या, सूद और व्यापार से। इनमें से व्यापार का साधन ही सर्वश्रेष्ठ है। व्यापार के भी अनेक प्रकार हैं। उनमें सबसे अच्छा यही है कि परदेश से उत्तम वस्तुओं का संग्रह करके स्वदेश में उन्हें बेचा जाए। यही सोचकर वर्धमान ने अपने नगर से बाहर जाने का संकल्प किया। 

मथुरा जाने वाले मार्ग के लिए उसने अपना रथ तैयार करवाया। रथ में दो सुंदर सुदृढ़ बैल लगवाया। उनके नाम थे - संजीवक और नंदन। वर्धमान का रथ जब यमुना किनारे पहुंचा, तो संजीवक नाम का बैल नदी तट की दलदल में फंस गया। वहां से निकलने की चेष्टा में उसका एक पैर भी टूट गया। वर्धमान को यह देखकर बड़ा दुख हुआ। 

पंचतंत्र । Panchtantra ~ प्रथम तंत्र - मित्र भेद

तीन रात उसने बैल के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा की। बाद में उसके सारथी ने कहा कि इस वन में अनेक हिंसक जंतु रहते हैं। यहां उनसे बचाव का कोई उपाय नहीं है। संजीवक के अच्छा होने में बहुत दिन लग जाएंगे। इतने दिन यहां रहकर प्राणों का संकट नहीं उठाया जा सकता है। इस बैल के लिए अपने जीवन को मृत्यु के मुख में क्यों डालते हैं?

तब वर्धमान ने संजीवक की रखवाली के लिए रक्षक रखकर आगे प्रस्थान किया। रक्षकों ने भी जब देखा कि जंगल अनेक शेर, बाघ, चीता से भरा पड़ा है तो वह भी दो एक दिन बाद ही वहां से प्राण बचाकर भागे और वर्धमान के सामने यह झूठ बोल दिया कि "स्वामी! संजीवक तो मर गया। हमने उसका दाह संस्कार कर दिया।" वर्धमान यह सुनकर बड़ा दुखी हुए किंतु अब कोई उपाय न था। 

इधर संजीवक यमुना तट की शीतल वायु के सेवन से कुछ स्वस्थ हो गया। नदी के किनारे की दूब का अग्रभाग पशुओं के लिए बहुत बलदायी होता है। उसे निरंतर खाने के बाद वह खूब मांसल और हृष्ट - पुष्ट हो गया। दिनभर नदी के किनारों को सिंघों से पाटना और मदमस्त होकर गरजते हुए किनारों की झाड़ियों से सिंह उलझा कर खेलना ही उसका एक काम था। 

एक दिन उसी यमुना तट पर पिंगलक नाम का एक शेर पानी पीने आया। वहां उसने दूर से ही संजीवक की गंभीर हुँकार सुनी। उसे सुनकर वह भयभीत हो गया और सिमटकर झाड़ियों में जा छिपा। 

शेर के साथ दो गीदड़ भी थे - करकट और दमनक। यह दोनों सदा शेर के पीछे पीछे रहते थे। उन्होंने जब अपने स्वामी को भयभीत देखा तो आश्चर्य में डूब गए। वन में स्वामी का इस तरह भयातुर होना सचमुच बड़े अचंभे की बात थी। आज तक पिंगलक कभी इस तरह भयभीत नहीं हुआ था। दमनक ने अपने साथी गीदड़ को कहा - करटक! हमारा स्वामी वन का राजा है। सब पशु उससे डरते हैं। आज वही इस तरह सिमटकर डरा सा बैठा है। प्यासा होकर भी वह पानी पीने के लिए यमुना तट पर जाकर लौट आया। इसका क्या कारण है? 

करटक ने उत्तर दिया - दमनक! कारण कुछ भी हो, हमें क्या? दूसरों के काम में हस्तक्षेप करना ठीक नहीं। जो ऐसा करता है, वह उसी बंदर की तरह तड़प तड़प कर मरता है, जिसने दूसरों के काम में कौतूहल वश व्यर्थ ही हस्तक्षेप किया था। दमनक ने पूछा - यह क्या बात कही तुमने। करटक ने कहा सुनो:

इसके बाद करटक दमनक को एक कहानी सुनाता है...... 

1. अनाधिकार चेष्टा

अव्यापारेषु व्यापारम् यो नरः कर्तुमिच्छति। 
स एव निधनं याति कीलोत्पाटीव वानरः।। 

"दूसरे के काम में हस्तक्षेप करना मूर्खता है। 

एक गांव के पास जंगल की सीमा पर मंदिर बन रहा था। वहां के कारीगर दोपहर के समय भोजन के लिए गांव में आ जाते थे। 

एक दिन जब वह गांव में आए तो बंदरों का एक दल इधर-उधर घूमता हुआ वहीं आ गया, जहां कारीगरों का काम चल रहा था। कारीगर उस समय वहां नहीं थे। बंदरों ने इधर-उधर उछलना और खेलना शुरू कर दिया। 

वही एक कारीगर शहतीर को आधा चीरने के बाद उसमें कील फंसाकर गया था। एक बंदर को यह कौतूहल हुआ कि यह कील यहां क्यों फंसी है? तब आधे चीरे हुए शहतीर पर बैठकर वह अपने दोनों हाथों से कील को बाहर खींचने लगा। कील बहुत मजबूती से वहां गड़ी थी, इसलिए बाहर नहीं निकली। लेकिन बंदर भी हठी था। वह पूरे बल से कील निकालने में जूझ गया। 

 अंत में भारी झटके के साथ वह कील निकल आई , किंतु उसके निकलते ही बंदर का पिछला भाग शहतीर के चीरे हुए दोनों भागों के बीच में आकर चिपक गया। बंदर वही तड़प तड़प कर मर गया।"

यह कहानी सुनाने के बाद करटक दमनक से कहता है -

 इसलिए मैं कहता हूं कि हमें दूसरों के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हमें शेर के भोजन का अवशेष तो मिल ही जाता है, अन्य बातों की चिंता क्यों करें? 

दमनक ने कहा - करकट! तुझे तो बस अपने अवशिष्ट आहार की ही चिंता रहती है। स्वामी के हित की तो तुझे परवाह ही नहीं। 

करकट-  हमारी चिंता से क्या होता है? हमारी गिनती उसके प्रधान सहायकों में तो है ही नहीं। बिना पूछे सम्मति देना मूर्खता है। इससे अपमान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। 

दमनक - प्रधान अप्रधान की बात रहने दो। जो भी स्वामी की अच्छी सेवा करेगा, वह प्रधान बन जाएगा। जो सेवा नहीं करेगा वह प्रधान पद से भी गिर जाएगा। राजा, स्त्री और लता का यही नियम है कि वह पास रहने वाले को ही अपनाते हैं। 

करटक - तब क्या किया जाए? अपना अभिप्राय स्पष्ट स्पष्ट कह दो। 

दमनक - आज हमारे स्वामी बहुत भयभीत हैं। उनके भय का कारण जानकर संधि, विग्रह, आसन, संश्रय द्वैधीभाव आदि उपायों से हम भय निवारण की सलाह देंगे। 

करटक - तुझे कैसे मालूम कि स्वामी भयभीत हैं ?

दमनक- यह जानना कोई कठिन काम नहीं है। मन के भाव छिपे नहीं रहते। चेहरे से, इशारों से, चेष्टा से, भाषण शैली से, आंखों की भ्रूभंगी से वे सबके सामने आ जाते हैं। आज हमारे स्वामी भयभीत हैं  उनके भय को दूर करके हम उन्हें अपने वश में कर सकते हैं। तब वह हमें अपना प्रधान सचिव बना लेंगे। 

करटक - तू राज सेवा के नियमों से अनभिज्ञ है। स्वामी को वश में कैसे करेगा? 

दमनक - मैंने तो बचपन में अपने पिता के संग खेलते खेलते राज सेवा का पाठ पढ़ लिया था। राज सेवा स्वयं एक कला है। मैं उस कला में प्रवीण हूं। यह कहकर दमनक ने राज सेवा के नियमों का निर्देश किया। राजा को संतुष्ट करने और उसकी दृष्टि में सम्मान पाने के अनेक उपाय भी बताए।  करटक दमनक की चतुराई देखकर दंग रह गया। उसने भी उसकी बात मान ली और दोनों शेर की राज सभा की ओर चल दिए। 

दमनक को आता देखकर पिंगलक द्वारपाल से बोला - हमारे भूतपूर्व मंत्री का पुत्र दमनक आ रहा है  उसे हमारे पास बेरोक आने दो। दमनक राज सभा में आकर पिंगलक को प्रणाम करके निर्दिष्ट स्थान पर बैठ गया। पिंगलक ने अपना दाहिना हाथ उठाकर दमनक से कुशल क्षेम पूछते हुए कहा कहो  दमनक सब कुशल तो है? बहुत दिनों बाद आए। क्या कोई विशेष प्रयोजन है? 

दमनक विशेष प्रयोजन तो कोई भी नहीं, फिर भी सेवक को स्वामी के हित की बात कहने के लिए स्वयं आना चाहिए। राजा के पास उत्तम, मध्यम, अधम सभी प्रकार के सेवक हैं। राजा के लिए सभी का प्रयोजन है। समय पर तिनके का सहारा लेना पड़ता है। सेवक की तो बात ही क्या है?

आपने बहुत दिनों बाद आने का उपालंभ दिया है। उसका भी कारण है। जहां कांच की जगह मणि और मणि के स्थान पर कांच जड़ा जाए, वहां अच्छे सेवक नहीं ठहरते। जहां पारखी नहीं, वहां रत्नों का मूल्य नहीं लगता। स्वामी और सेवक परस्पर आश्रयी होते हैं। उन्हें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए। राजा तो संतुष्ट होकर सेवक को केवल सम्मान देते हैं, किंतु सेवक संतुष्ट होकर राजा के लिए प्राणों की बलि दे देते हैं। 

पिंगलक दमनक की बातों से प्रसन्न होकर बोला - तू तो हमारे भूतपूर्व मंत्री का बेटा है। इसलिए तुझे जो कहना है, निश्चिंत होकर कह दे। 

दमनक - मैं स्वामी से कुछ एकांत में कहना चाहता हूं। चार कानों में ही भेद की बात सुरक्षित रह सकती है। छह कानों में कोई भेद गुप्त नहीं रह सकता। 

तब पिंगलक के इशारे से बाघ, रीछ, चीते आदि सब जानवरों को सभा से बाहर भेज दिया। सभा में एकांत होने के बाद दमनक ने शेर के कानों के पास जाकर प्रश्न किया: 

दमनक -स्वामी जब आप पानी पीने गए थे, तब पानी पिए बिना क्यों लौट आए थे? इसका कारण क्या था? 

पिंगलक ने जरा सुखी हंसी हंसते हुए उत्तर दिया - कुछ भी नहीं। 

दमनक - देव! यदि वह बात कहने योग्य नहीं है, तो मत कहिए। सभी बातें कहने योग्य नहीं होती। कुछ बातें अपने स्त्री से भी छिपाने योग्य होती हैं। कुछ पुत्रों से भी छिपा ली जाती हैं। बहुत अनुरोध पर भी यह बात नहीं कही जाती। 

पिंगलक ने सोचा, यह दमनक बुद्धिमान दिखता है; क्यों ना इससे अपने मन की बात कह दी जाए? यह सोच वह कहने लगा :

पिंगलक - दमनक! दूर से जो यह हूंकार की आवाज आ रही है, उसे तुम सुनते हो? 

दमनक - सुनता हूं स्वामी! उससे क्या हुआ स्वामी? 

पिंगलक - दमनक! मैं ईस वन से चले जाने की बात सोच रहा हूं। 

दमनक - किसलिए भगवन! 

पिंगलक - इसलिए कि इस वन में कोई दूसरा बलशाली जानवर आ गया है। उसी का यह भयंकर घोर गर्जन है। अपनी आवाज की तरह वह स्वयं भी इतना ही भयंकर होगा। उसका पराक्रम भी इतना ही भयानक होगा। 

दमनक - स्वामी! ऊंचे शब्द मात्र से भय करना युक्ति युक्त नहीं है। ऊँचे शब्द तो अनेक प्रकार के होते हैं। भेरी, मृदंग, पटह, शंख, काहल आदि अनेक वाद्य हैं, जिनकी आवाज बहुत ऊंची होती है। उनसे कौन डरता है? यह जंगल आपके पूर्वजों के समय का है। वह यही राज्य करते रहे हैं। इसे इस तरह छोड़कर जाना ठीक नहीं। ढोल भी कितनी जोर से बजता है। गोमायु को उसके अंदर जाकर ही पता लगा कि वह अंदर से खाली था। 

पिंगलक ने कहा - गोमायु की कहानी कैसी है?

दमनक ने तब कहा - ध्यान देकर सुनिए:

2. ढोल की पोल (गोमयु गीदड़ की कथा )

शब्दमात्रात् न भीतव्यम् 

शब्द मात्र से डरना उचित नहीं

"गोमायु नाम का गीदड़ एक बार भूखा - प्यासा जंगल में घूम रहा था। घूमते - घूमते हुए एक युद्ध भूमि में जा पहुंचा। वहां दो सेनाओं में युद्ध होकर शांत हो चुका था। किंतु एक ढोल अभी तक वहीं पड़ा था। उस ढोल पर इधर-उधर की बेलों की शाखाएं हवा से हिलती हुई प्रहार करती थी। उस प्रहार से ढोल से बड़े जोर की आवाज होती थी। 

आवाज सुनकर गोमायु बहुत डर गया। उसने सोचा, इससे पूर्व की भयानक शब्द वाला जानवर मुझे देखे, मैं यहां से भाग जाता हूं। किंतु दूसरे ही पल उसे याद आया कि भय या आनंद के उद्धेग में हमें सहसा कोई काम नहीं करना चाहिए। पहले भय के कारण की खोज करनी चाहिए। यह सोचकर वह धीरे-धीरे उधर चल पड़ा, जिधर से शब्द आ रहा था। शब्द के बहुत निकट पहुंचा, तो ढोल को देखा। ढोल पर बेलों की शाखाएं चोट कर रही थी। गोमायु ने स्वयं भी उस पर हाथ मारने शुरू कर दिए। ढोल और भी जोर से बज उठा। 

गीदड़ ने सोचा यह जानवर तो बहुत सीधा-साधा मालूम होता है। इसका शरीर भी बहुत बड़ा है। मांसल भी है। इसे खाने से बहुत दिनों की भूख मिट जाएगी। इसमें चर्बी, मांस, रक्त खूब होगा। यह सोचकर उसने ढोल के ऊपर लगे चमड़े में दांत गड़ा दिए। चमड़ा बहुत कठोर था। गीदड़ के 2 दांत टूट गए। बड़ी कठिनाई से ढोल में एक छेद हुआ।  उस छेद को चौड़ा करके गोमायु गीदड़ जब ढ़ोल में घुसा, तो यह देखकर बड़ा निराश हुआ कि वह तो अंदर से बिल्कुल खाली है। उसमें रक्त - मांस - मज्जा थे ही नहीं।"

यह कहानी सुनाने के बाद दमनक पिंगलक से कहता है -

इसलिए कहता हूं कि शब्द मात्र से डरना उचित नहीं है। 
पिंगलक ने कहा - मेरे सभी साथी उस आवाज से डरकर जंगल से भागने की योजना बना रहे हैं। इन्हें किस तरह धीरज बँधाऊँ?
दमनक - इसमें इनका क्या दोष? सेवक तो स्वामी का ही अनुकरण करते हैं। जैसा स्वामी होगा, वैसे ही सेवक होंगे। यह संसार की रीति है। आप कुछ काल धीरज रखें, साहस से काम लें। में शीघ्र ही शब्द का स्वरूप देख कर आऊंगा। 
पिंगलक - तूम वहां जाने का साहस कैसे करोगे? 
दमनक - स्वामी के आदेश का पालन करना ही सेवक का काम है। स्वामी की आज्ञा हो तो आग में कूद पड़ूँ, समुद्र में छलांग लगा दूं। 
पिंगलक - जाओ इस शब्द का पता लगाओ। तुम्हारा मार्ग कल्याणकारी हो। यही मेरा आशीर्वाद है। 

तब दमनक पिंगलक को प्रणाम करके संजीवक के शब्द की ध्वनि का लक्ष्य बांधकर उसी दिशा में चल दिया।

दमनक के जाने के बाद पिंगलक ने सोचा - यह बात अच्छी नहीं हुई कि मैंने दमनक का विश्वास करके उसके सामने अपने मन का भेद खोल दिया। कहीं वह उसका लाभ उठाकर दूसरे पक्ष से मिल जाए और उसे मुझ पर आक्रमण करने के लिए उकसा दे तो बुरा होगा। मुझे दमनक का भरोसा नहीं करना चाहिए। यह पदच्युत है। उसका पिता मेरा प्रधानमंत्री था। एक बार सम्मानित होकर अपमानित हुए सेवक विश्वास पात्र नहीं होते। वह सदा अपने इस अपमान का बदला लेने का अवसर खोजते रहते हैं। इसलिए किसी दूसरे स्थान पर जाकर दमनक की प्रतीक्षा करता हूं। 

यह सोचकर दमनक की राह देखते हुए वह दूसरे स्थान पर अकेला चला गया। 

दमनक जब संजीवक के शब्द का अनुकरण करता हुआ उसके पास पहुंचा, तो यह देखकर उसे प्रसन्नता हुई कि वह कोई भयंकर जानवर नहीं बल्कि सीधा-साधा बैल है। उसने सोचा जब मैं संधि विग्रह की कूटनीति से पिंगलक  को अवश्य अपने बस में कर लूंगा। आपत्तीग्रस्त राजा की मंत्रियों के बस में होते हैं। यह सोंचकर वह पिंगलक से मिलने के लिए वापस चल दिया। 

पिंगलक ने उसे अकेले आता देखा तो उसके दिल में धीरज बंधा। उसने कहा - दमनक वह जानवर देख लिया तुमने? 
दमनक - आपकी दया से देखा स्वामी। 
पिंगलक - सचमुच? 
दमनक - स्वामी के सामने असत्य नहीं बोल सकता मैं। आपकी तो मैं देवता की तरह पूजा करता हूं। आपसे झूठ कैसे बोल सकूंगा। 
पिंगलक - संभव है तूने देखा हो। इसमें विस्मय क्या? और इसमें भी आश्चर्य नहीं कि उसने तुझे नहीं मारा। महान व्यक्ति महान शत्रु पर ही अपना पराक्रम दिखाते हैं। दीन और तुच्छ जन पर नहीं। आंधी का झोंका बड़े वृक्षों को ही गिराता है, घास - पात को नहीं। 
दमनक - मैं दीन ही सही, किंतु आपकी आज्ञा हो तो मैं उस महान पशु को भी आपका दीन सेवक बना दूं। 
पिंगलक ने लंबी सांस खींचते हुए कहा - यह कैसे होगा? 
दमनक - बुद्धि के बल से सब कुछ हो सकता है। स्वामी! जिस काम को बड़े - बड़े हथियार नहीं कर सकते, उस काम को छोटी सी बुद्धि कर सकती है। 
पिंगलक - यदि यही बात है तो मैं तुझे आज से अपना प्रधानमंत्री बनाता हूं। आज से मेरे राज्य के इनाम बांटने या दंड देने के काम तेरे ही अधीन होंगे। 

पिंगलक से यह आश्वासन पाने के बाद दमनक संजीवक के पास जाकर अकड़ता हुआ बोला - अरे दुष्ट बैल! मेरा स्वामी पिंगलक तुझे बुला रहा है। तू यहां नदी के किनारे व्यर्थ ही हूंकार क्यों भरता रहता है?
संजीवक - यह पिंगलक कौन? 
दमनक - अरे पिंगलक को नहीं जानता? थोड़ी देर ठहर तो उसकी शक्ति को जान जाएगा। जंगल में जब सब जानवरों का स्वामी पिंगलक शेर वहां वृक्ष की छाया में बैठा है। 
यह सुनकर संजीवक के प्राण सूख गए। दमनक के सामने गिडगिडाते हुए बोला - मित्र! तू सज्जन प्रतीत होता है। यदि तू मुझे वहां ले जाना चाहता है, तो पहले स्वामी से मेरे लिए अभय वचन ले ले। 
दमनक - तेरा कहना सच है। मित्र तू यहीं बैठ मैं अभय वचन लेकर अभी आता हूं। 

तब, दमनक पिंगलक के पास जाकर बोला, स्वामी! वह कोई साधारण जीव नहीं है। वह तो भगवान का वाहक बल है। मेरे पूछने पर उसने मुझे बताया कि उसे भगवान ने प्रसन्न होकर यमुना तट की हरी-भरी घास खाने को भेजा है। वह तो कहता है कि भगवान ने उसे यह सारा वन खेलने और चढ़ने को सौंप दिया है। 
पिंगलक - सच कहते हो भगवान के आशीर्वाद के बिना कौन है जो यहां इस वन में इतनी निष्ठा से घूम सके। फिर तूने क्या उत्तर दिया? 
दमनक - मैंने उसे कहा कि इस वन में तो चंडिका वाहन रूप शेर पिंगलक पहले से ही रहता है। तुम भी उसके अतिथि बनकर रहो। उसके साथ आनंद से विचरण करो। वह तुम्हारा स्वागत करेगा। 
पिंगलक - फिर उसने क्या कहा? 
दमनक - उसने यह बात मान ली और कहा कि अपने स्वामी से अभय वचन ले आओ। मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। अब स्वामी जैसा चाहे वैसा करूंगा। 

दमनक की बात सुनकर पिंगलक बहुत प्रसन्न हुआ और बोला - बहुत अच्छा, तूने बहुत अच्छा कहा। मेरे दिल की बात कह दी। अब उसे अभय वचन देकर शीघ्र मेरे पास ले आओ। 
दमनक संजीवक के पास जाते - जाते सोचने लगा - स्वामी आज बहुत प्रसन्न हैं। बातों ही बातों में मैंने उन्हें प्रसन्न कर दिया। आज मुझ से अधिक धन्यभाग्य कोई नहीं। 
संजीवक के पास जाकर दमनक सविनय बोला - मित्र! मेरे स्वामी ने तुम्हें अभय वचन दे दिया है। मेरे साथ आ जाओ, किंतु राजप्रसाद में जाकर अभिमानी ना हो जाना। मुझसे मित्रवत मित्रता का संबंध निभाना। मैं भी तुम्हारे संकेत से राज्य चलाऊंगा। हम दोनों मिलकर राज्य लक्ष्मी का भोग करेंगे। दोनों मिलकर पिंगलक के पास गए।

पिंगलक ने नख विभूषित दाहिना हाथ उठाकर संजीवक का स्वागत किया और कहा कल्याण हो। आप इस निर्जन वन में कैसे आ गए? 
संजीवक ने सब वृतांत कह सुनाया। पिंगलक ने सब सुन कर कहा - मित्र! डरो मत इस वन में मेरा ही राज्य है। मेरी भुजाओं से रक्षित वन में तुम्हारा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। फिर भी अच्छा यही है कि तुम हर समय मेरे साथ रहो। वन में अनेक बड़े-बड़े हिंसक भयंकर पशु रहते हैं। वनचरों को भी डरकर रहना पड़ता है। तुम तो फिर हो ही निरामिषभोजी। 

शेर और बैल की इस मैत्री के बाद कुछ दिन तो वन का शासन करटक दमनक ही करते रहे। किंतु बाद में संजीवक के संपर्क में पिंगलक भी नगर की सभ्यता से परिचित हो गया। संजीवक को सभ्य जीव मानकर वह उसका सम्मान करने लगा और स्वयं भी संजीवक की तरह से सभ्य होने का यत्न करने लगा। थोड़े दिन बाद संजीवक का प्रभाव पिंगलक पर इतना बढ़ गया कि पिंगलक ने अन्य सब वन्य पशुओं की उपेक्षा शुरू कर दी। प्रत्येक प्रश्न पर पिंगलक संजीवक के साथ ही एकांत में मंत्रणा किया करता। करटक दमनक बीच में दखल नहीं दे पाते थे। संजीवक की इस मान वृद्धि से उनके मन में आग लग गई। 

शेर और बैल की इस मैत्री का एक दुष्परिणाम यह भी हुआ कि शेर ने शिकार के काम में ढ़ील कर दी। करटक - दमनक शेर का उच्छिष्ट मांस खाकर ही जीते थे। अब यह उच्छिष्ट मांस बहुत कम हो गया था। करटक - दमनक इससे भूखे रहने लगे। तब दोनों इसका उपाय सोचने लगे। 

दमनक बोला - करटक भाई! यह तो अनर्थ हो गया। शेर की दृष्टि में महत्व पाने के लिए ही तो मैंने यह प्रपंच रचा था। इसी लक्ष्य से मैंने संजीवक को शेर से मिलाया था। अब उसका परिणाम सर्वथा विपरीत हो रहा है। संजीवक को पाकर स्वामी ने हमें बिल्कुल भुला दिया है। यहां तक कि अपना काम भी वह भूल गया है। 
करटक ने कहा - किंतु इसमें भूल किसकी है? तूने ही दोनों की भेंट कराई थी। अब तू ही कोई उपाय कर। जिससे इन दोनों में बैर हो जाए। 
दमनक बोला - जिसने मेल कराया है, वह फूट भी डाल सकता है। 
करटक - यदि इनमें से किसी को भी यह ज्ञान हो गया कि तू फूट करना चाहता है, तो तेरा कल्याण नहीं। 
दमनक - मैं इतना कच्चा खिलाड़ी नहीं हूं। सब दांवपेच जानता हूं। करटक मुझे तो फिर भी डर लगता है। संजीवक बुद्धिमान है। वह ऐसा नहीं होने देगा। 
दमनक - भाई! मेरा बुद्धि कौशल सब करा देगा। बुद्धि के बल से असंभव भी संभव हो जाता है। जो काम शस्त्र से नहीं हो पाता वह बुद्धि से हो जाता है। जैसे - सोने की माला से काक पत्नी ने काले सांप का वध किया था। 

करकट ने पूछा - वह कैसे?
दमनक ने तब "सांप और कौवे" की कहानी सुनाई। 

 3. अक्ल बड़ी या भैंस (सांप और कौवे की कहानी)

उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः  

उपाय द्वारा जो काम हो जाता है, वह पराक्रम से नहीं हो पाता

एक स्थान पर वट वृक्ष की एक बड़ी खोल में एक कौवा कौवी रहते थे। उसी खोल के पास एक काला सांप भी रहता था। वह सांप कौवी के नन्हे - नन्हे बच्चों को उनके पंख निकलने से पहले ही खा जाता था। दोनों इससे बहुत दुखी थे। अंत में दोनों ने अपनी दुख भरी कथा उस वृक्ष के नीचे रहने वाले एक गीदड़ को सुनाई और उससे यह भी पूछा कि अब क्या किया जाए? सांप वाले घर में रहना प्राणघातक है। 

गीदड़ ने कहा - इसका उपाय चतुराई से ही हो सकता है। शत्रु पर बुद्धि के उपाय द्वारा विजय पाना अधिक आसान है। एक बार एक बगुला बहुत ही उत्तम, मध्यम, अधम मछलियों को खाकर प्रलोभनवश एक केकड़ा के हाथों उपाय(बुद्धि) से ही मारा गया था।  

कौवा कौवी दोनों ने पूछा - कैसे?
तब गीदड़ ने कहा: - सुनो। 

इसके बाद गीदड़ बगुला भगत की कहानी सुनाता है। 

 4. बगुला भगत (बगुला और केकड़े की कहानी)

उपायेन जयो यादृग्रिपोस्तादृड् न हेतिभिः 

उपाय से शत्रु को जीतो, हथियार से नहीं। 

एक जंगल में बहुत सी मछलियों से भरा एक तालाब था। एक बगुला वह दिनवहाँ प्रतिदिन मछलियों को खाने के लिए आता था, किंतु वृद्ध होने के कारण मछलियों को पकड़ नहीं पाता था। इस तरह भूख से व्याकुल हुआ वह एक दिन अपने बुढ़ापे पर रो रहा था कि एक केकड़ा उधर आया। उसमें बगुले को निरंतर आंसू बहाते देखा तो कहा - "मामा! आज तुम पहले की तरह आनंद से भोजन नहीं कर रहे और आंखों में आंसू बहाते हुए बैठे हो। इसका क्या कारण है? 

बगुले ने कहा - "मित्र! तुम ठीक कहते हो। मुझे मछलियों को भोजन बनाने से विरक्ति हो चुकी है। आजकल अनशन कर रहा हूं। इसी से मैं पास में आई मछलियों को भी नहीं पकड़ता। 

केकड़े ने यह सुनकर पूछा - "मामा! इस वैराग्य का कारण क्या है? 
बगुला बोला - "मित्र! बात यह है कि मैंने इस तालाब में जन्म लिया। बचपन से ही यही रहा हूं और यही मेरी उम्र गुजरी। इस तालाब और तालाब वासियों से मेरा प्रेम है। किंतु मैंने सुना है कि अब बड़ा भारी अकाल पड़ने वाला है।  12 वर्षों तक वृष्टि नहीं होगी। 

केकड़ा - किससे सुना है?

बगुला - एक ज्योतिषी से सुना है। शनिश्चर जब शकटाकार रोहिणी तारक मंडल को खंडित करके शुक्र के साथ एक राशि में जाएगा, तब 12 वर्ष तक वर्षा नहीं होगी। पृथ्वी पर पाप फैल जाएगा। माता - पिता अपनी संतान का भक्षण करने लगेंगे। इस तालाब में पहले ही पानी कम है। यह बहुत जल्दी सूख जाएगा। इसके सूखने पर मेरे सब बचपन के साथी, जिनके बीच मैं इतना बड़ा हुआ हूं, मर जाएंगे। उनके वियोग दुख की कल्पना से ही मैं इतना रो रहा हूं और इसीलिए मैंने अनशन किया है। दूसरे जलाशयों से भी जलचर अपने छोटे - छोटे तालाब छोड़कर बड़ी-बड़ी झीलों में चले जा रहे हैं। बड़े-बड़े जलचर तो स्वयं ही चले जाते हैं। छोटों के लिए ही कुछ कठिनाई है। दुर्भाग्य से इस जलाशय के जलचर बिल्कुल निश्चिंत बैठे हैं। मानो कुछ होने वाला ही नहीं है। उनके लिए ही मैं रो रहा हूं।  उनका वंश नाश हो जाएगा। 

केकड़े ने बगुले के मुंह से यह बात सुनकर अन्य सब मछलियों को भी भावी दुर्घटना की सूचना दे दी। सूचना पाकर जलाशय के सभी जलचरों, मछलीयों, कछुओं आदि ने बगुले को घेरकर पूछना शुरू कर दिया। मामा क्या किसी उपाय से हमारी रक्षा हो सकती है?

बगुला बोला - यहां से थोड़ी दूर पर एक प्रचुर जल से भरा जलाशय है। वह इतना बड़ा है कि 24 वर्ष सूखा पड़ने पर भी ना सूखेगा। तुम यदि मेरी पीठ पर चढ़ जाओगे, तो तुम्हें वहां ले चलूंगा। 

यह सुनकर सभी मछलियां, कछुआ और अन्य जल जीवों ने बगुले को भाई, मामा, चाचा पुकारते हुए चारों ओर से घेर लिया और चिल्लाना शुरू कर दिया - 'पहले मुझे', 'पहले मुझे'। 

वह दुष्ट सब को बारी-बारी अपनी पीठ पर बिठाकर जलाशय से कुछ दूर ले जाता और वहां एक शिला पर उन्हें पटक-पटक कर मार देता था। उन्हें खाकर दूसरे दिन वह फिर जलाशय में आ जाता और नए शिकार ले जाता। कुछ दिन बाद केकड़े ने बगुले से कहा - "मामा! मेरी तुमसे पहले पहल भेंट हुई थी, फिर भी आज तक मुझे नहीं ले गए। अब प्रायः सभी जलाशय तक पहुंच चुके हैं। आज मेरा भी उद्धार कर दो। 

केकड़े की बात सुनकर बगुले ने सोचा मछलियां खाते-खाते मेरा मन भी उठ गया है। केकड़े का मांस चटनी का काम करेगा। आज इसका भी आहार करूंगा। यह सोचकर उसने केकड़े को गर्दन पर बिठा लिया और चल दिया। 

केकड़े ने जब दूर से ही एक शिला पर मछलियों की हड्डी का पहाड़ देखा, तो समझ गया कि यह बगुला किस अभिप्राय से मछलियों को यहां लाता था। फिर भी वह असली बात को छुपाकर बोला, मामा! यह जलाशय कितनी दूर रह गया है। मेरे भार से तुम काफी थक गए होगे। इसलिए पूछ रहा हूं। 

बगुले ने सोचा, अब इसे सच्ची बात कह देने में भी कोई हानि नहीं है। इसलिए वह बोला केकड़े साहब! दूसरे जलाशय की बात अब भूल जाओ। यह तो मेरी प्राण यात्रा चल रही थी। अब तेरा भी काल आ गया है। अंतिम समय में देवता का स्मरण कर ले। इसी शिला पर पटक कर तुझे भी मार डालूंगा और खा जाऊंगा। 

बगुला अभी यह बात कह ही रहा था कि, केकड़े ने अपने तीखे दांत बगुले की नर्म मुलायम गर्दन पर गड़ा दिए।  बगुला वही मर गया। उसकी गर्दन कट गई। केकड़ा मृत बगुले की गर्दन लेकर धीरे-धीरे अपने पुराने जलाशय पर ही आ गया। उसे देख कर उसके भाई बंधु ने उसे घेर लिया और पूछने लगे क्या बात है? आज मामा नहीं आए? हम सब उनके साथ जलाशा पर जाने को तैयार बैठे हैं। 

केकरे ने हंसकर उत्तर दिया, मूर्खों! उस बगुले ने सभी मछलियों को यहां से ले जाकर एक शिला पर पटक कर मार दिया है। यह कह कर उसने अपने पास से बगुले की कटी हुई गर्दन दिखाई और कहा अब चिंता की कोई बात नहीं है, तुम सब यहां आनंद से रहोगे। 

गीदड़ ने जब यह कथा सुनाई तो कौवे ने पूछा - मित्र! उस बगुले की तरह यह सांप भी किसी तरह मर सकता है क्या?

गीदड़ - एक काम करो। तुम नगर के राज महल में चले जाओ। वहां से रानी का कंठहार उठाकर सांप के बिल के पास रख दो। राजा के सैनिक कंठहार की खोज में आएंगे और सांप को मार देंगे। 

दूसरे ही दिन कौवी राज महल के अंतःपुर में जाकर एक कंठ हार उठा लाई। राजा ने सिपाहियों को उस कौवी का पीछा करने का आदेश दिया। कौवी ने वह कंठ हार सांप के बिल के पास रख दिया। सांप ने उस हार को देख कर उस पर अपना फन फैसला दिया। सिपाहियों ने सांप को लाठियों से मार दिया और कंठ हार ले लिया। 

उस दिन के बाद कौवा कौवी की संतान को किसी सांप ने नहीं खाया। तभी मैं कहता हूं कि उपाय से ही शत्रु को वश में कर लेना चाहिए। 

दमनक ने फिर कहा - सच तो यह है कि बुद्धि का स्थान बल से बहुत ऊंचा है। जिसके पास बुद्धि है, वही बली है।  बुद्धिहीन का बल भी व्यर्थ है। बुद्धिमान निर्बुद्धि को उसी तरह हरा देते हैं जैसे खरगोश ने शेर को हरा दिया था। 

करटक ने पूछा कैसे ?

दमनक ने तब "शेर और खरगोश" की कथा सुनाई।

5. सबसे बड़ा बल : "बुद्धि बल" (शेर और खरगोश की कथा)

यस्य बुद्धिर्बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् 

बली वही है, जिसके पास बुद्धि बल है। 

आज की कहानी बिल्कुल बच्चों वाली है, फिर भी इसको छोड़ नहीं सकती हूँ। क्यूंकि यहाँ श्री विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतंत्र पुस्तक की कहानियाँ शिलशिलेवार रूप से प्रस्तुत की जा रही हैं।  

एक जंगल में भासुरक नाम का शेर रहता था। बहुत बलशाली होने के कारण वह प्रतिदिन जंगल के मृग, खरगोश, हिरण, रिछ, चीता आदि पशुओं को मारा करता था। 

एक दिन जंगल के सभी जानवरों ने मिलकर सभा की और निश्चय किया कि भासुरक से प्रार्थना की जाएगी कि वह अपने भोजन के लिए प्रतिदिन एक पशु से अधिक की हत्या ना किया करे। इस निश्चय को शेर तक पहुंचाने के लिए पशुओं के प्रतिनिधि शेर से मिले। उन्होंने शेर से निवेदन किया कि उसे रोज एक पशु शिकार के लिए मिल जाया करेगा। इसलिए वह अनगिनत पशुओं का शिकार ना किया करे। शेर यह बात मान गया। दोनों ने प्रतिज्ञा की कि वे अपने वचनों का पालन करेंगे। 

उस दिन के बाद से वन के सभी पशु वन में निर्भय होकर घूमने लगे। उन्हें शेर का भय नहीं रहा। शेर को घर बैठे एक पशु मिलता रहा। शेर ने यह धमकी दे दी थी कि जिस दिन उसे कोई पशु नहीं मिलेगा, उस दिन वह फिर से अपने शिकार पर निकल जाएगा और मनमाने पशुओं की हत्या कर देगा। इस डर से भी सब पशु यथाक्रम एक- एक पशु के पास भेजते रहे। 

इसी क्रम से एक दिन खरगोश की बारी आ गई। खरगोश शेर की मांद की ओर चल पड़ा, किंतु मृत्यु के भय से उसके पैर नहीं उठते थे। मौत की घड़ियों को कुछ देर और टालने के लिए वह जंगल में इधर-उधर भटकता रहा। एक स्थान पर उसे एक कुआं दिखाई दिया। कुएं में झांक कर देखा तो उसे अपनी परछाई दिखाई दी। उसे देखकर उसके मन में एक विचार उठा। क्यों ना भासुरक को उसके वन में दूसरे शेर के नाम से उसकी परछाई दिखाकर इस कुएं में गिरा दिया जाए? 

यही उपाय सोचता- सोचता वह शेर के पास बहुत समय बाद पहुंचा। शेर उस समय तक भूखा प्यासा होंठ चाटता बैठा था। उसके भोजन की घड़ियां बीत रही थी। वह सोच ही रहा था कि कुछ देर और कोई पशु ना आया तो वह अपने शिकार पर चल पड़ेगा और पशुओं के खून से सारे जंगल को सींच देगा। इसी बीच वह खरगोश उसके पास पहुंच गया और प्रणाम करके बैठ गया। खरगोश को देखकर शेर ने क्रोध से लाल- लाल आंखें करते हुए गरजकर कहा- नीच खरगोश! एक तो तू इतना छोटा है और फिर इतनी देर लगा कर आया है। आज तुझे मार कर कल मैं जंगल के सारे पशुओं की जान ले लूंगा। वंश नाश कर दूंगा। 

खरगोश ने सिर झुका कर उत्तर दिया - स्वामी! आप विरोध करते हैं, इसमें ना मेरा अपराध है और ना ही अन्य पशुओं का। कुछ भी फैसला करने से पहले देरी का कारण तो सुन लीजिए। 

शेर - जो कुछ कहना है, जल्दी कह। मैं बहुत भूखा हूं। कहीं तेरे कुछ कहने से पहले ही तुझे अपनी दाढ़ों में ना चबा लूं।

खरगोश - बात यह है कि सभी पशुओं ने आज सभा करके और यह सोच कर कि मैं बहुत छोटा हूं, मुझे तथा अन्य चार खरगोशों को आपके भोजन के लिए भेजा था। हम पांचों आपके पास आ रहे थे कि मार्ग में कोई दूसरा शेर अपनी गुफा से निकल कर आया और बोला अरे किधर जा रहे हो तुम सब। अपने देवता का अंतिम स्मरण कर लो। मैं तुम्हें मारने आया हूं। मैंने उससे कहा हम सब अपने स्वामी भासुरक शेर के पास आहार के लिए जा रहे हैं। तब वह बोला भासुरक कौन होता है ? यह जंगल तो मेरा है। मैं ही तुम्हारा राजा हूं। तुम्हें जो बात करनी है, मुझसे कहो। भासुरक चोर है। तुम में से चार खरगोश यही रह जाएं। एक खरगोश भासुरक के पास जाकर उसे बुला लाए। मैं उससे स्वयं निपट लूंगा। हममें से जो शेर अधिक बली होगा, वही इस जंगल का राजा होगा। अब मैं किसी तरह उसे जान छुड़ाकर आपके पास आया हूं। इसीलिए मुझे देर हो गई।आगे स्वामी की जो इच्छा हो करें। 

यह सुनकर भासुरक बोला - ऐसा ही है तो, जल्दी से मुझे उस दूसरे शेर के पास ले चलो। आज मैं उसका रक्त पी कर अपनी भूख मिटा लूंगा। इस जंगल में मैं किसी दूसरे का हस्तक्षेप पसंद नहीं करूंगा। 

खरगोश - स्वामी! यह तो सच है कि अपने स्वत्व के लिए युद्ध करना आप जैसे सूर वीरों का धर्म है, किंतु दूसरा शेर अपने दुर्ग में बैठा है। दुर्ग से बाहर आकर ही उसने हमारा रास्ता रोका था। दुर्ग में रहने वाले शत्रु पर विजय पाना बड़ा कठिन होता है। दुर्ग में बैठा शत्रु, सौ शत्रुओं के बराबर माना जाता है। दुर्गहीन राजा दंतहीन सांप और मदहीन हाथी की तरह कमजोर हो जाता है। 

भासुरक - तेरी बात ठीक है, किंतु मैं उस शेर को भी मार डालूंगा। शत्रु को जितना जल्दी हो नष्ट कर देना चाहिए। मुझे अपने बल पर पूरा भरोसा है। शीघ्र ही उसका नाश ना किया गया तो, वह बाद में असाध्य रोग की तरह प्रबल हो जाएगा। 

खरगोश - यदि स्वामी का यही निर्णय है, तो आप मेरे साथ चलिए। यह कहकर खरगोश भासुरक को उसी कुएं के पास ले गया, जहां झुककर उसने अपनी परछाई देखी थी। वहां जाकर वह बोला - स्वामी! मैंने जो कहा था, वही हुआ। आपको दूर से ही देख कर वह अपने दुर्ग में घुस गया। आप आइए मैं आपको उसकी सूरत तो दिखा दूं। 

भासुरक - जरूर उस नीच को देखकर मैं उसके दुर्ग में ही उस से लड़ लूंगा। खरगोश शेर को कुएं की मेड़ पर ले गया। भासुरक ने झुककर कुएं में अपनी परछाई देखी, तो समझा कि यही दूसरा शेर रहता है। वह जोर से गरजा। उसकी गरज के उत्तर में कुएं से दुगुनी गूंज पैदा हुई। उस गूंज को विपक्षी शेर की ललकार समझकर भासुरक उसी क्षण कुएं में कूद पड़ा और वहीं पानी में डूब कर मर गया। 

खरगोश ने अपनी बुद्धिमत्ता से शेर को हरा दिया। वहां से लौट कर वापस पशुओं की सभा में गया। उसकी चतुराई सुनकर और शेर की मौत का समाचार सुनकर सब जानवर खुशी से नाच उठे। 

इसीलिए मैं कहता हूं कि बलि वही है, जिसके पास बुद्धि का बल है। 

कहानी सुनाने के बाद दमनक ने करटक से कहा - तेरी सलाह हो तो मैं भी अपनी बुद्धि से उनमें फूट डलवा दूँ।अपनी प्रभुता बनाने का यही मार्ग है। मैत्री भेद किए बिना काम नहीं चलेगा। 

करटक - मेरी भी यही राय है। तू उनमें भेद कराने का यत्न कर, ईश्वर करे तुझे सफलता मिले। 

वहां से चलकर दमनक पिंगलक के पास गया। उस समय पिंगलक के पास संजीवक नहीं बैठा था। पिंगलक ने दमनक को बैठने का इशारा करते हुए कहा - कहो दमनक! बहुत दिन बाद दर्शन दिए। 

दमनक - स्वामी! आपको अब हमसे कुछ प्रयोजन ही ना रह गया, तो आपके पास आने का क्या लाभ। फिर भी आपके हित की बात कहने को आपके पास आ जाता हूं। हित की बात बिना पूछे ही कह देनी चाहिए। 

पिंगलक - जो कहना हो निर्भय होकर कहो। मैं अभय वचन देता हूं। 

दमनक - स्वामी! संजीवक आपका मित्र नहीं वैरी है। एक दिन उसने मुझे एकांत में कहा था। पिंगलक का बल मैंने देख लिया। उसने कोई विशेषता नहीं है। उसको मार कर मैं तुझे मंत्री बनाकर सब पशुओं पर राज्य करूंगा।

 दमनक के मुख से उन वज्र की तरह कठोर शब्दों को सुनकर पिंगलक कैसा चुप रह गया मानो मूर्छा आ गई हो। दमनक ने जब पिंगलक की यह अवस्था देखी तो सोचा पिंगलक का संजीवक से प्रगाढ़ स्नेह है, संजीवक ने इसे अपने वश में कर रखा है। जो राजा इस तरह मंत्री के वश में हो जाता है, वह नष्ट हो जाता है। यह सोचकर उसने पिंगलक के मन से संजीवक का जादू मिटाने का निश्चय और भी पक्का कर लिया। 

पिंगलक अपने थोड़ा होश में आकर किसी तरह धैर्य धारण करते हुए कहा - दमनक, संजीवक तो हमारा बहुत ही विश्वासपात्र नौकर है। उसके मन में मेरे लिए बैर भावना नहीं हो सकती। 

दमनक -स्वामी! आज जो विश्वासपात्र है, वही कल विश्वास घातक बन जाता है। राज्य का लोभ किसी के भी मन को चंचल बना सकता है। इसमें अनहोनी की कोई बात नहीं। 

पिंगलक - दमनक! फिर भी मेरे मन में संजीवक के लिए द्वेष भावना नहीं उठती। अनेक दोष होने पर भी प्रियजनों को छोड़ा नहीं जाता। जो प्रिय है वह प्रिय ही रहता है। 

दमनक - यही तो राज्य संचालन के लिए बुरा है। जिसे भी आप स्नेह का पात्र बनाएंगे वही आपका प्रिय हो जाएगा। इसमें संजीवक की कोई विशेषता नहीं। विशेषता तो आपकी है। आपने उसे अपना प्रिय बना लिया, तो वह बन गया। अन्यथा उसमें गुण ही कौन सा है? आप यह समझते हैं कि उसका शरीर बहुत भारी है और वह शत्रु संहार में सहायक होगा, तो यह आपकी भूल है। वह तो घास पात खाने वाला जीव है। आपके शत्रु तो सभी मांसाहारी हैं। अतः उसकी सहायता से शत्रु नाश नहीं हो सकता। आज वह आपको धोखे से मार कर राज्य करना चाहता है। अच्छा है कि उसका षड्यंत्र पकने से पहले ही आप उसको मार दें। 

पिंगलक - दमनक! जिसे हमने पहले गुणी मानकर अपनाया है, उसे राज्यसभा में आज निर्गुण कैसे कह सकते हैं? फिर तेरे कहने से ही तो मैंने उसे अभय वचन दिया था। मेरा मन करता है कि संजीवक मेरा मित्र है। मुझे उसके प्रति क्रोध नहीं है। यदि उसके मन में वैर आ गया है, तो भी मैं उसके प्रति वैर भावना नहीं रखता। अपने हाथों लगाया विष - वृक्ष भी अपने हाथों नहीं काटा जाता। 

दमनक - स्वामी! यह आपकी भावुकता है। राजधर्म इसका आदेश नहीं देता। वैर बुद्धि रखने वाले को छमा करना राजनीति की दृष्टि से मूर्खता है। आपने उसकी मित्रता के वश में आकर सारा राजधर्म भुला दिया है। आपके राजधर्म से च्युत होने के कारण ही जंगल के अन्य पशु आप से विरक्त हो गए हैं। सच तो यह है कि आप में और संजीवक में मैत्री होना स्वभाविक ही नहीं है। आप मांसाहारी हैं, वह निरामिष भोजी। यदि आप उस घास पात खाने वाले को अपना मित्र बनाएंगे, तो अन्य पशु आपसे सहयोग करना बंद कर देंगे। यह भी आपके राज्य के लिए बुरा होगा। उसके संग से आप की प्रकृति में भी यह दुर्गुण आ जाएंगे, जो शाकाहारी में होते हैं। शिकार से आपको अरुचि हो जाएगी। अपना साथ अपनी प्रकृति के पशुओं से होना चाहिए। इसलिए साधु लोग नीच का संग छोड़ देते हैं। संगदोष से ही खटमल की तीव्र गति के कारण मंदविसर्पिणी जूं को मरना पड़ताथा। 

पिंगलक ने पूछा - यह कथा कैसे है? 
दमनक ने कहा सुनिए :

कुसंग का फल

न ह्यविज्ञातशीलस्य प्रदातव्यः प्रतिश्रयः 

 अज्ञात या विरोधी प्रवृत्ति के व्यक्ति को आश्रय नहीं देना चाहिए।

एक राजा के शयनगृह में शय्या पर बिछी सफेद चादरों के बीच एक मंदविसर्पिणी सफेद जूं रहती थी। एक दिन इधर-उधर घूमता हुआ एक खटमल वहां आ गया। उस खटमल का नाम था अग्निमुख। 

अग्निमुख को देखकर दु:खी जूं ने कहा - हे अग्निमुख! तू यहां अनुचित स्थान पर आ गया है। इससे पूर्व कि कोई आकर तुझे देखे, यहां से भाग जा। 

खटमल बोला - भगवती! घर आए हुए दुष्ट व्यक्ति का भी इतना अनादर नहीं किया जाता, जितना तू मेरा कर रही है। उससे भी कुशल क्षेम पूछा जाता है। घर बना कर बैठने वालों का यही धर्म है। मैंने आज तक अनेक प्रकार का कटु -तिक्त, कषाय- अम्ल रस का खून पिया है। केवल मीठा खून नहीं पिया। आज इस राजा के मीठे खून का स्वाद लेना चाहता हूं। तू तो रोज ही मीठा खून पीती है। एक दिन मुझे भी इसका स्वाद लेने दे। 

जूँ बोली - अग्निमुख! मैं राजा के सो जाने के बाद उसका खून पीती हूं। तू बड़ा चंचल है, कहीं मुझसे पहले ही तूने खून पीना शुरू कर दिया तो दोनों ही मारे जाएंगे। हां, मेरे पीछे रक्तदान करने की प्रतिज्ञा करे, तो एक रात भले ही ठहर जा। 

खटमल बोला - भगवती! मुझे स्वीकार है। मैं तब तक रक्त नहीं पियूंगा, जब तक तुम नहीं पी लेती। वचन भंग करूं तो मुझे देवगुरु का शाप लगे। 

इतने में राजा ने चादर ओढ़ ली। दीपक बुझा दिया। खटमल बड़ा चंचल था। उसकी जीभ से पानी निकल रहा था। मीठे खून के लालच से उसने जूँ के रक्तदान से पहले ही राजा को काट लिया। जिसका जो स्वभाव हो, वह उपदेशों से नहीं छूटता। अग्नि अपनी जलन और पानी अपनी शीतलता के स्वभाव को कहां छोड़ सकता है? मर्त्य जीव भी अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते। 

अग्निमुख के पैने दातों राजा को तड़पा कर उठा दिया। पलंग से नीचे कूदकर राजा ने संतरी से कहा - देखो, इस शय्या में खटमल या जूँ  अवश्य हैं। इन्हीं में से किसी ने मुझे काटा है। संतरियों ने दीपक जलाकर चादर की तहें देखनी शुरू कर दी। इस बीच खटमल जल्दी से भागकर पलंग के पायों के जोड़ों में जा छिपा। मंदविसर्पिणी जूँ चादर की तह में ही छिपी थी। संतरियों ने उसे देखकर पकड़ लिया और मसल डाला। 

दमनक शेर से बोला - इसीलिए मैं कहता हूं कि संजीवक को मार दें। अन्यथा वह आपको मार देगा, अथवा उसकी संगति से आप जब स्वभाव - विरुद्ध काम करेंगे, अपनों को छोड़कर परायों को अपनाएंगे, तो आप पर वही आपत्ति आ जाएगी जो चण्डरव पर आई थी। 

पिंगलक ने पूछा - कैसे? 
दमनक ने कहा - सुनो :            

रंगा सियार

त्यक्ताश्चान्तरा येन बाह्यश्चम्यतरीकृताः।
स एव मृत्युमाप्नोति मूर्खश्चण्डरवीयथा ।।

अपने स्वभाव के विरुद्ध आचरण करने वाला ...आत्मीयों को छोड़कर परकीयों में रहने वाला नष्ट हो जाता है।

एक दिन जंगल में रहने वाला चण्डरव नाम का गीदड़ भूख से तड़पता हुआ लोभवश नगर में भूख मिटाने के लिए आ पहुंचा। 

उसके नगर में प्रवेश करते ही नगर के कुत्तों ने भौंकते - भौंकते उसे घेर लिया और नोचकर खाने लगे। कुत्तों से किसी तरह जान बचाकर चण्डरव भागते भागते जो भी दरवाजा पहले मिला उसी में घुस गया। वह एक धोबी के मकान का दरवाजा था। मकान के अंदर एक बड़ी कड़ाही में धोबी ने नील घोलकर नीला पानी बनाया हुआ था। कड़ाही नीले पानी से भरी थी। गीदड़ जब डरा हुआ अंदर घुसा तो अचानक उस कड़ाही में जा गिरा। जब सियार वहां से निकला, तो उसका रंग बदला हुआ था। अब वह बिल्कुल नीले रंग का हो गया। नीले रंग में रंगा हुआ चण्डरव जब वन में पहुंचा तो सभी पशु उसको देखकर चकित रह गए। वैसे रंग का जानवर उन्होंने आज तक नहीं देखा था। 

उसे विचित्र जीव समझकर शेर, बाघ, चीते भी डरकर जंगल से भागने लगे। सब ने सोचा ना जाने इस विचित्र पशु में कितना सामर्थ्य हो। इस से डरना ही अच्छा है। 

चण्डरव ने जब सब पशुओं को डरकर भागते देखा, तो उन्हें बुलाकर बोला - "पशुओं !मुझसे डरते क्यों हो? मैं तुम्हारी रक्षा के लिए यहां आया हूं। त्रिलोक के राजा ब्रह्मा ने मुझे आज ही बुला कर कहा था कि आजकल चौपाइयों का कोई राजा नहीं है। सिंह मृगादि सब राजाहीन हैं। आज मैं तुझे उन सबका राजा बना कर भेजता हूं। तुम वहां जाकर सब की रक्षा कर। इसलिए मैं यहां आया हूं। मेरी छत्रछाया में पशु आनंद से रहेंगे। मेरा नाम ककुद्रुम राजा है।"

यह सुनकर शेर बाघ आदि पशुओं ने चण्डरव को राजा मान लिया और बोले - "स्वामी! हम आपके दास हैं। आज्ञा पालक हैं। आगे से आपकी आज्ञा का पालन करेंगे।" 

चण्डरव ने राजा बनने के बाद शेर को अपना प्रधानमंत्री बनाया। बाघ को नगर रक्षक और भेड़िए को संतरी बनाया। अपने आत्मीय गीदड़ों को जंगल से बाहर निकाल दिया। उनसे बात भी नहीं की। 

उसके राज्य में शेरा आदि जीव छोटे-छोटे जानवरों को मारकर चण्डरव को भेंट करते थे। चण्डरव उनमें से कुछ भाग खाकर शेष अपने नौकर चाकरों को बांट देता था। कुछ दिन तो उसका राज्य बड़ी शांति से चलता रहा। किंतु एक दिन बड़ा अनर्थ हो गया। 

उस दिन चण्डरव को दूर से गीदड़ों की किलकारियां सुनाई दीं। उन्हें सुनकर चण्डरव का रोम-रोम खिल उठा। खुशी में पागल होकर वह भी किलकारियां मारने लगा। 

शेर बाघ आदि पशुओं ने जब उसकी किलकारियां सुनी तो वे समझ गए कि वह चण्डरव ब्रह्मा का दूत नहीं बल्कि मामूली गीदड़ है। अपनी मूर्खता पर लज्जा से सिर झुकाकर वे आपस में सलाह करने लगे। इस गीदड़ ने तो हमें खूब मूर्ख बनाया। इसे इसका दंड दो। इसे मार डालो। 

चण्डरव ने शेर - बाघ आदि की बात सुन ली। वह भी समझ गया कि अब उसकी पोल खुल गई है। अब जान बचाना कठिन है। इसलिए वह वहां से भागा। किंतु शेर के पंजे से भाग कर कहां जाता? एक ही छलांग में शेर ने उसे दबोच कर खंड खंड कर दिया। 

इसीलिए मैं कहता हूं कि जो आत्मीयों को दुत्कार कर परायों को अपनाता है, उसका नाश हो जाता है। 

दमनक की बात सुनकर पिंगलक ने कहा - "दमनक! अपनी बात को तुम्हें प्रमाणित करना होगा। इसका क्या प्रमाण है कि संजीवक मुझे द्वेष भाव से देखता है?"

दमनक - इसका प्रमाण आप स्वयं अपनी आंखों से देख लेना। आज सुबह ही उसने मुझे यह भेद प्रकट किया है कि वह कल आपका वध करेगा। यदि कल आप उसे अपने दरबार में लड़ाई के लिए तैयार देखें, उसकी आंखें लाल हो, होंठ फड़कते हों, एक ओर बैठ कर आपको क्रूर वक्र दृष्टि से देख रहा हो, तब आपको मेरी बात पर स्वयं विश्वास हो जाएगा। 

शेर पिंगलक को संजीवक बैल के विरुद्ध उकसाने के बाद दमनक संजीवक के पास गया। संजीवक ने जब उसे घबराए हुए आते देखा, तो पूछा मित्र स्वागत है। क्या बात है? बहुत दिन बाद आए कुशल तो है?

दमनक - राज सेवकों के कुशल का क्या पूछना? उनका चित्त सदा अशांत बना रहता है। स्वेच्छा से वह कुछ भी नहीं कर सकते। निःशंक होकर एक शब्द भी बोल नहीं सकते। इसलिए सेवावृत्ति को सब वृत्तियों से अधम कहा जाता है। 

संजीवक - मित्र! आज तुम्हारे मन में कोई विशेष बात करने को है। वह निश्चिंत होकर कहो। साधारणतया राज सचिवों को सब कुछ गुप्त रखना चाहिए, किंतु मेरे तुम्हारे बीच कोई पर्दा नहीं है। तुम बेखटके अपने दिल की बात मुझसे कह सकते हो। 

दमनक - आपने अभय वचन दिया है, इसलिए मैं कह देता हूं। बात यह है कि इनके मन में आपके प्रति पाप भावना आ गई है। आज उसने मुझे बिल्कुल एकांत में बुलाकर कहा है कि कल सुबह सुबह ही वह आपको मारकर अन्य मांसाहारी जीवो की भूख मिटाएगा। 

दमनक की बात सुनकर संजीवक देर तक हतप्रभ सा रहा। मूर्छा सी छा गई उसके शरीर में। कुछ चेतना आने के बाद तीव्र वैराग्य भरे शब्दों में बोला - राज सेवा सचमुच बड़ा धोखे का काम है। राजाओं के दिल होता ही नहीं। मैंने भी शेर से मैत्री करके मूर्खता की। समान बल शील वालों से ही मैत्री होती है। समान शील व्यसन वाले ही सखा बन सकते हैं। अब यदि मैं उसे प्रसन्न करने की चेष्टा करूंगा, तो भी व्यर्थ है। क्योंकि जो किसी कारणवश क्रोध करे, उसका क्रोध उस कारण के दूर होने पर दूर किया जा सकता है, लेकिन जो अकारण ही कुपित हो, उसका कोई उपाय नहीं है। निश्चय ही पिंगलक के पास रहने वाले जीवों ने ईर्ष्याबस उसे मेरे विरुद्ध उकसा दिया। सेवकों में प्रभु की प्रसन्नता पाने की होड़ लगी रहती है। वह एक दूसरे की वृद्धि सहन नहीं करते। 

दमनक - मित्रवर! यदि यही बात है तो मीठी बातों से अब राजा पिंगलक को प्रसन्न किया जा सकता है। वहीं उपाय करो। 

संजीवक - नहीं दमनक! यह उपाय सच्चा उपाय नहीं है। एक बार तो मैं राजा को प्रसन्न कर लूंगा, किंतु उसके पास वाले कूट-कपटी लोग फिर किन्हीं दूसरे झूठे बहानों से उसके मन में मेरे लिए जहर भर देंगे और मेरे वध का उपाय करेंगे, जिस तरह गीदड़ और कौवे ने मिलकर ऊंट को शेर के हाथों मरवा दिया था। 

दमनक ने पूछा - किस तरह? 

संजीवक ने तब ऊंट, कौवों और शेर की यह कहानी सुनाई।  

फूँक - फूँक कर पग धरो

सेवाधर्मः परमगहनो...
सेवा धर्म बड़ा कठिन धर्म है।  
फूंक फूंक कर पग धरो : पंचतंत्र / Fuk Fuk kar pag dharo : Panchtantra

एक जंगल में मदोत्कट नाम का शेर रहता था। उसके नौकर चाकरों में कौवा, गीदड़, बाघ, चीता आदि अनेक पशु थे। एक दिन वन में घूमते घूमते एक ऊंट वहां आ गया। शेर ने ऊंट को देखकर अपने नौकरों से पूछा - "यह कौन सा पशु है? जंगली है या ग्राम्य? 

कौवे ने शेर के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा - "स्वामी, यह पशु ग्राम्य है और आपका भोज्य है। आप इसे खाकर भूख मिटा सकते हैं। 

शेर ने कहा - "नहीं यह हमारा अतिथि है। घर आए को मारना उचित नहीं। शत्रु भी अगर घर आए, तो उसे नहीं मारना चाहिए। फिर यह तो हम पर विश्वास करके हमारे घर आया है। इसे मारना पाप है। इसे अभयदान देकर मेरे पास लाओ। मैं इससे वन में आने का प्रयोजन पूछूंगा।" 

शेर की आज्ञा सुनकर अन्य पशु ऊंट को, जिसका नाम क्रथनक था, शेर के दरबार में लाए। ऊंट ने अपनी दुख भरी कहानी सुनाते हुए बताया कि वह अपने साथियों से बिछड़ कर जंगल में अकेला रह गया है। शेर ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा - "अब तुझे ग्राम में जाकर भार ढोने की कोई आवश्यकता नहीं है। जंगल में रहकर हरी भरी घास से सानंद पेट भरो और स्वतंत्रता पूर्वक खेलो कूदो।" 

फूंक फूंक कर पग धरो : पंचतंत्र / Fuk Fuk kar pag dharo : Panchtantra

शेर का आश्वासन मिलने पर ऊँट जंगल में आनंद से रहने लगा। कुछ दिन बाद उस वन में एक मतवाला हाथी आ गया। मतवाले हाथी से अपने अनुचर पशुओं की रक्षा करने के लिए शेर को हाथी से युद्ध करना पड़ा। युद्ध में जीत तो शेर की ही हुई, किंतु हाथी ने भी जब एक बार शेर को सूँड़ में लपेट कर घुमाया, तो उसका अस्थि पंजर हिल गया। हाथी का एक दांत भी शेर की पीठ में चुभ गया था। इस युद्ध के बाद शेर बहुत घायल हो गया था और नए शिकार के योग्य नहीं रहा था। शिकार के अभाव में उसे बहुत दिन से भोजन नहीं मिला था। उसके अनुचर भी जो शेर के अवशिष्ट भोजन से ही पेट पालते थे, कई दिनों से भूखे थे। 

एक दिन उन सब को बुला कर शेर ने कहा - "मित्रों! मैं बहुत घायल हो गया हूं, फिर भी यदि कोई शिकार तुम मेरे पास तक ले आओ, तो मैं उसको मार कर तुम्हारे पेट भरने योग्य मांस अवश्य तुम्हें दे दूंगा।" 

शेर की बात सुनकर चारों अनुचर ऐसे शिकार की खोज में लग गए। किंतु कोई फल ना निकला। तब कौवे और गीदड़ में मंत्रणा हुई। गीदड़ बोला काकराज! अब इधर- उधर भटकने का क्या लाभ? क्यों नहीं इस ऊँट क्रथनक को मारकर ही भूख मिटाएं? 

कौवा बोला - तुम्हारी बात तो ठीक है, किंतु स्वामी ने उसे अभय वचन दिया हुआ है। 

गीदड़ बोला - मैं ऐसा उपाय करूंगा, जिससे स्वामी उसे मारने को तैयार हो जाएं। आप यहीं रहें, मैं स्वयं जाकर स्वामी से निवेदन करता हूं। 

गीदड़ ने तब शेर के पास जाकर कहा - "स्वामी! हमने सारा जंगल छान मारा है, किंतु कोई भी पशु हाथ नहीं आया। अब तो हम सभी इतने भूखे प्यासे हो गए हैं कि एक कदम आगे नहीं चला जाता आपकी भी दशा ऐसी ही है आज्ञा दें तो क्रथनक को ही मार कर उससे भूख शांत की जाए। 

गीदड़ की बात सुनकर शेर ने क्रोध से कहा - "पापी! आगे कभी यह बात मुख से निकाली तो उसी क्षण तेरे प्राण ले लूंगा। जानता नहीं कि उसे मैंने अभय वचन दिया है।" 

गीदड़ - "स्वामी! मैं आपको वचन भंग करने के लिए नहीं कह रहा। आप उस का स्वयं वध ना कीजिए, किंतु यदि वही स्वयं आपकी सेवा में प्राणों की भेंट लेकर आए, तब तो उसके वध में कोई दोष नहीं है। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो हम में से सभी आपकी सेवा में अपने शरीर की भेंट लेकर आपकी भूख शांत करने के लिए आएंगे। जो प्राण स्वामी के काम ना आए उनका क्या उपयोग। स्वामी के नष्ट होने पर अनुचर स्वयं नष्ट हो जाते हैं। स्वामी की रक्षा करना उनका धर्म है।" 

फूंक फूंक कर पग धरो : पंचतंत्र / Fuk Fuk kar pag dharo : Panchtantra

मदोत्कट- यदि तुम्हारा यही विश्वास है तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं। 

शेर से आश्वासन पाकर गीदड़ अपने अन्य अनुचर साथियों के पास गया और उन्हें लेकर फिर शेर के सामने उपस्थित हो गया। वह सब अपने शरीर के दान से स्वामी की भूख शांत करने आए थे। गीदड़ उन्हें यह वचन देकर लाया था कि शेर शेष सभी पशुओं को छोड़कर ऊंट को ही मारेगा। 

सबसे पहले कौवे ने शेर के सामने जाकर कहा - स्वामी! मुझे खाकर अपनी जान बचाईए, जिससे मुझे स्वर्ग मिले। स्वामी के लिए प्राण देने वाला स्वर्ग जाता है। वह अमर हो जाता है। 

गीदड़ ने कौवे से कहा - अरे कौवे तू इतना छोटा है कि तेरे खाने से स्वामी की भूख बिल्कुल शांत नहीं होगी। तेरे शरीर में मांस ही कितना है जो कोई खाएगा? मैं अपना शरीर स्वामी को अर्पण करता हूं। 

गीदड़ ने जब अपना शरीर भेंट किया तो बाघ ने उसे हटाते हुए कहा - तू भी बहुत छोटा है, तेरे नख कितने बड़े और विषैले हैं कि जो खाएगा उसे जहर चढ़ जाएगा। इसलिए तू अभय है। मैं अपने को स्वामी को अर्पण करुंगा। मुझे खाकर वे अपनी भूख शांत करें। 

उसे देखकर क्रथनक ने सोचा कि वह भी अपने शरीर को अर्पण कर दे। जिन्होंने ऐसा किया था, उसमें से शेर ने किसी को भी नहीं मारा था। इसीलिए उसे भी मरने का डर नहीं था। यही सोचकर क्रथनक ने भी आगे बढ़कर बाघ को एक ओर हटा दिया और अपने शरीर को शेर को अर्पण किया। तब शेर का इशारा पाकर गीदड़, चीता, बाघ आदि पशु ऊंट पर टूट पड़े और उसका पेट फाड़ डाला। सबने उसके मांस से अपनी भूख शांत की। 

संजीवक ने दमक से कहा - तभी मैं कहता हूं कि छल - कपट से भरे वचन सुनकर किसी को उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए और यह कि राजा के अनुचर जिसे मरवाना चाहे उसे किसी न किसी उपाय से मरवा ही देते हैं।निसंदेह किसी ने मेरे विरुद्ध राजा पिंगलक को उकसा दिया है। अब दमनक भाई मैं एक मित्र के नाते तुझ से पूछता हूं कि मुझे क्या करना चाहिए? 

दमनक - मैं तो समझता हूं कि ऐसे स्वामी की सेवा का कोई लाभ नहीं है। अच्छा है कि तुम यहां से जाकर किसी दूसरे देश में घर बनाओ। ऐसी उल्टी राह पर चलने वाले स्वामी का परित्याग करना ही अच्छा है। 

संजीवक - दूर जाकर भी अब छुटकारा नहीं है। बड़े लोगों से शत्रुता लेकर कोई कहीं शांति से नहीं बैठ सकता। अब तो युद्ध करना ही ठीक जंचता है। युद्ध में एक बार ही मौत मिलती है, किंतु शत्रु से डर कर भागने वाला तो प्रतिक्षण चिंतित रहता है। उस चिंता से एक बार की मृत्यु कहीं अच्छी है। 

दकनक ने जब संजीवक को युद्ध के लिए तैयार देखा तो वह सोचने लगा, कहीं ऐसा ना हो, यह अपने पैने सिंघों से स्वामी पिंगलक का पेट फाड़ दे। ऐसा हो गया तो महान अनर्थ हो जाएगा। इसलिए वह फिर संजीवक को देश छोड़कर जाने की प्रेरणा करता हुआ बोला - मित्र! तुम्हारा कहना भी सच है, किंतु स्वामी और नौकर के युद्ध से क्या लाभ? विपक्षी बलवान हो तो क्रोध को पी जाना ही बुद्धिमता है। बलवान से लड़ना अच्छा नहीं। अन्यथा उसकी वही गति होती है, जो टिटिहरे से लड़कर समुंद्र की हुई थी। 

संजीवक ने पूछा - कैसे? 

दमनक ने तब टिटिहरे की यह कथा सुनाई।

घड़े - पत्थर का न्याय

बलवन्तं रिपु दृष्ट्वा न वामान प्रकोप्येत् 

शत्रु अधिक बलशाली हो तो क्रोध प्रकट न करें, शांत हो जाए।

समुद्र तट के एक भाग में एक टिटिहरी का जोड़ा रहता था। अंडे देने से पहले टिटिहरी ने अपने पति को किसी सुरक्षित प्रदेश की खोज करने के लिए कहा। 

टिटिहरे ने कहा - यहां सभी स्थान पर्याप्त सुरक्षित हैं, तू चिंता ना कर। 

टिटिहरी - समुद्र में जब ज्वार आता है, तो उसकी लहरें मतवाले हाथी को भी खींच कर ले जाती हैं, इसलिए हमें इन लहरों से दूर कोई स्थान देख रखना चाहिए।

टिटिहरा - समुंद्र इतना दुस्साहसी नहीं है कि वह मेरी संतान को हानि पहुंचाए। वह मुझसे डरता है। इसलिए तू निःशंक होकर यहीं तट पर अंडे दे। 

समुद्र ने टिटहरी की यह बातें सुन ली। उसने सोचा, यह टिटिहरा बहुत अभिमानी है। आकाश की ओर टॉंगे करके भी इसलिए सोता है कि इन टॉंगों पर गिरते हुए आकाश को थाम लेगा। इसका अभिमान भंग होना चाहिए। यह सोचकर उसने ज्वार आने पर टिटिहरी के अण्डों को लहरों में बहा दिया।

 टिटिहरी जब दूसरे दिन आई तो अण्डों को बहता देखकर रोती बिलखती टिटिहरे से बोली - मूर्ख! मैंने पहले ही कहा था कि समुंद्र की लहरें इन्हें बहा ले जाएँगी, किंतु तूने अभिमानवश मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। अपने प्रियजनों के कथन पर भी जो कान नहीं देता उसकी वही दुर्गति होती है जो उस मूर्ख कछुए की हुई थी। जिसने रोकते-रोकते भी मुख खोल दिया था।

टिटिहरे ने टिटिहरे से पूछा -कैसे?  

टिटिहरे ने तब मूर्ख कछुए की कहानी सुनाई :

हितैषी की सीख मानो

सुहृदां हितकामानां न करोतीह यो वचः। 
सकूम इव दुर्बुधिः काष्ठाद् भ्रष्टो विनश्यति ।। 

हितचिन्तक मित्रों की बात पर जो ध्यान नहीं देता वह मूर्ख नष्ट हो जाता है।

एक तालाब में कंबूग्रिव नाम का कछुआ रहता था। उसी तालाब में प्रति दिन आने वाले दो हंस, जिनका नाम संकट और विकट था, उसके मित्र थे। तीनों में इतना स्नेह था कि रोज शाम होने तक तीनों मिलकर बड़े प्रेम से कथालाप किया करते थे।
कूछ दिन बाद वर्षा के अभाव में वह तालाब सूखने लगा। हंसों को यह देखकर कछुए से बड़ी सहानुभूति हुई। कछुए ने भी आंखों में आंसू भरकर कहा - अब यह जीवन अधिक दिन का नहीं है। पानी के बिना इस तालाब में मेरा मरण निश्चित है। तुमसे कोई उपाय बन पाए तो करो। विपत्ति में धैर्य ही काम आता है। यत्न से सब काम सिद्ध हो जाते हैं। 
बहुत विचार के बाद यह निश्चय किया गया कि दोनों हंस जंगल से एक बांस की छड़ी लाएंगे। कछुआ उस छड़ी के मध्य भाग को मुख से पकड़ लेगा। हंसों का यह काम होगा कि वे दोनों ओर से छड़ी को मजबूती से पकड़ कर दूसरे तालाब के किनारे तक उड़ते हुए पहुंचेंगे। 
यह निश्चित होने के बाद दोनों हंसों ने कछुए को कहा - मित्र! हम तुझे इस प्रकार उड़ते हुए दूसरे तालाब तक ले जाएंगे, किंतु एक बात का ध्यान रखना कहीं बीच में लकड़ी का छोड़ मत देना, नहीं तो तुम गिर जाओगे। कुछ भी हो पूरा मौन बनाए रखना। प्रलोभनों की ओर ध्यान ना देना। यही तेरी परीक्षा का मौका है। 
हंसों ने लकड़ी को उठा लिया। कछुए ने उसे मध्य भाग से दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया। इस तरह निश्चित योजना के अनुसार वे आकाश में उड़े जा रहे थे कि कछुए ने नीचे झुककर नागरिकों को देखा जो गर्दन उठाकर आकाश में हंसों के बीच किसी चक्राकार वस्तु को उड़ता देखकर कौतूहलवश शोर मचा रहे थे। 
उस शोर को सुनकर कंबूग्रिव से नहीं रहा गया। वह बोल उठा - अरे! यह कैसा शोर है। 
यह कहने के लिए मुंह खोलने के साथ ही कछुए के मुंह से लकड़ी की छड़ी छूट गई और कछुआ जब नीचे गिरा तो लोगों ने उसकी बोटी बोटी कर डाली। 
टिटिहरी ने यह कहानी सुनाकर कहा - इसलिए मैं कहती हूं कि अपने हितचिंतकों की राय पर न चलने वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है। बल्कि बुद्धिमान में भी वही बुद्धिमान सफल होते हैं जो बिना आई हुई विपत्ति की पहले से ही उपाय सोचते हैं और वे भी उसी प्रकार सफल होते हैं जिनकी बुद्धि तत्काल अपनी रक्षा का उपाय सोच लेती है। पर "जो होगा, देखा जाएगा" कहने वाले शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। 
    टिटिहरे ने पूछा - यह कैसे ?
    टिटिहरी ने कहा - सुनो :

दूरदर्शी बनो

यद्भ भविष्यो विनश्यति

"जो होगा देखा जाएगा" कहने वाले नष्ट हो जाते हैं। 

एक तालाब में तीन मछलियां थीं: अनागतविधाता, प्रत्युत्पन्नमति और यद्भविष्य। एक दिन मछियारों ने उन्हें देख लिया और सोचा इस तालाब में खूब मछलियां हैं। आज तक कभी इसमें जाल भी नहीं डाला है। इसलिए यहां खूब मछलियां हाथ लगेगी। उस दिन शाम अधिक हो गई थी। खाने के लिए मछलियां भी पर्याप्त मिल चुकी थीं। अतः अगले दिन सुबह ही वहां आने का निश्चय करके वे चले गए। 

अनागतविधाता नाम की मछली ने उनकी बात सुनकर सब मछलियों को बुलाया और कहा मैने उन मछुआरों की बात सुन ली है। रातों-रात ही हमें यह तालाब छोड़कर दूसरे तालाब में चले जाना चाहिए। एक क्षण की भी देर करना उचित नहीं। 

प्रत्युत्पन्नमति ने भी उसकी बात का समर्थन किया। उसने कहा - परदेश में जाने का डर प्रायः सबको नपुंसक बना देता है। 'अपने ही कुएं का जल पिएंगे'- यह कहकर लोग जन्म भर खारा पानी पीते हैं, वह कायर होते हैं। स्वदेश का यह राग वही गाते हैं, जिनकी कोई और गति नहीं होती। 

उन दोनों की बातें सुनकर यद्भवति नाम की मछली हंस पड़ी। उसने कहा - किसी राह जाते आदमी के वचन मात्र से डरकर हम अपने पूर्वजों के देश को नहीं छोड़ सकते। दैव अनुकूल होगा तो हम यहां भी सुरक्षित रहेंगे। प्रतिकूल होगा तो अन्यत्र जाकर भी किसी के जाल में फंस जाएंगे। मैं तो नहीं जाती, तुम्हें जाना हो तो जाओ।

उसका आग्रह देखकर अनागतविधाता और प्रत्युत्पन्नमति दोनों सपरिवार पास के तालाब में चली गईं। यदभविष्य अपने परिवार के साथ उसी तालाब में रही। अगले दिन सुबह मछुआरों ने उस तालाब में जाल फैलाकर सब मछलियों को पकड़ लिया। 

इसीलिए मैं कहती हूं कि 'जो होगा देखा जाएगा' कि नीति विनाश की ओर ले जाती है। हमें प्रत्येक विपत्ति का उचित उपाय करना चाहिए। 

यह बात सुनकर टिटिहरे ने टिटिहरी से कहा - मैं यद्भविष्य जैसा मूर्ख और निष्कर्ष नहीं हूं। मेरी बुद्धि का चमत्कार देखती जा। मैं अभी अपनी चोंच से पानी बाहर निकाल कर समुद्र को सुखा देता हूं। 

टिटिहरी - समुंद्र के साथ तेरा बैर तुझे शोभा नहीं देता। इस पर क्रोध करने से क्या लाभ? अपनी शक्ति देखकर हमें किसी से बैर करना चाहिए, नहीं तो आग में जलने वाले पतंगे जैसी गति होगी।

टिटिहरा फिर भी अपनी चोंच से समुद्र को सुखा डालने की डींगे मरता रहा। तब टिटिहरी ने फिर उसे मना करते हुए कहा कि जिस समुंद्र को गंगा - यमुना जैसी सैकड़ों नदियां निरंतर पानी से भर रही हैं, उसे तू अपनी बूंद भर उठाने वाली चोंच से कैसे खाली कर देगा?

 टिटिहरा तब भी अपने हठ पर तुला रहा। तब टिटिहरी ने कहा - यदि तूने समुंद्र को सुखाने का हठ ही कर लिया है, तो अन्य पक्षियों की भी सलाह लेकर काम कर। कई बार छोटे-छोटे प्राणी मिलकर अपने से बहुत बड़े जीव को भी हरा देते हैं। जैसे चिड़िया, कठफोड़े और मेंढक ने मिलकर हाथी को मार दिया था।

टिटिहरे ने पूछा - कैसे? 

टिटिहरी ने तब चिड़िया और हाथी की यह कहानी सुनाई। 

एक और एक ग्यारह

बहूनामप्यससाराणां  समवायो हि दुर्जयः 

छोटे और निर्बल भी संख्या में बहुत होकर दुर्जेय हो जाते हैं। 

जंगल में वृक्ष की एक शाखा पर चिड़ा-चिड़ी का जोड़ा रहता था। उनके अंडे भी उसी शाखा पर बने घोसले में थे। एक दिन मतवाला हाथी वृक्ष की छाया में विश्राम करने आया। वहां उसने अपनी सूंड में पकड़कर वही शाखा तोड़ दी, जिस पर चिड़ियों का घोंसला था। अंडे जमीन पर गिरकर टूट गए। 

चिड़िया अपने अंडों के टूटने से बहुत दुखी हो गई। उसका विलाप सुनकर उसका मित्र कठफोड़ा भी वहां आ गया। उसने शोकातुर चिड़ा चिड़ी को धीरज बढ़ाने का बहुत यत्न किया, किंतु उसका विलाप शांत नहीं हुआ।  चिड़िया ने कहा - यदि तू हमारा सच्चा मित्र है, तो मतवाले हाथी से बदला लेने में हमारी सहायता कर। उसको मार कर ही हमारे मन को शांति मिलेगी। 

कठफोड़ ने कुछ सोचने के बाद कहा - यह काम हम दोनों से ही नहीं होगा, इसमें दूसरों से भी सहायता लेनी पड़ेगी। एक मक्खी मेरी मित्र है; उसकी आवाज बहुत सुरीली है, उसे भी बुला लेता हूं। 

मक्खी ने भी जब कठफोड़े और चिड़िया की बात सुनी तो वह मतवाले हाथी को मारने में उनको सहयोग देने को तैयार हो गई। किंतु उसने कहा कि यह काम हम तीन का ही नहीं, हमें औरों की भी सहायता लेनी चाहिए। मेरा मित्र एक मेंढक है, उसे भी बुला लाऊँ। 

तीनों ने जाकर मेघनाद नाम के मेंढक को अपनी दुख भरी कहानी सुनाई। उनकी बात सुनकर मेंढक भी मतवाले हाथी के विरुद्ध षडयंत्र में शामिल हो गया। उसने कहा - तभी तो मैं कहती हूं कि छोटे और निर्बल भी मिल-जुल कर बड़े-बड़े जानवरों को मार सकते हैं। 

टिटिहरा - अच्छी बात है। मैं भी दूसरे पक्षियों की सहायता से समुंद्र को सुखाने का यत्न करूंगा। 

यह कहकर उसने बगुले, सारस, मोर आदि अनेक पक्षियों को बुलाकर अपनी दुख कथा सुनाई। उन्होंने कहा- हम तो अशक्त है, किंतु हमारा राजा गरुड़ अवश्य इस संबंध में हमारी सहायता कर सकता है। तब सब पक्षी मिलकर गरुड़ के पास जाकर रोने और चिल्लाने लगे - गरुड़ महाराज! आपके रहते पक्षिकुल पर समुद्र ने यह अत्याचार कर दिया है। हम इसका बदला चाहते हैं। आज उसने टिटहरी के अंडे नष्ट किए हैं, कल वह दूसरे पंछियों के अंडों को बहा ले जाएगा। इस अत्याचार की रोकथाम होनी चाहिए। अन्यथा संपूर्ण पक्षिकुल नष्ट हो जाएगा। 

गरुड़ ने पक्षियों का रोना सुनकर उनकी सहायता करने का निश्चय किया। उसी समय उसके पास भगवान विष्णु का दूत आया। उस दूत द्वारा भगवान विष्णु ने उसे सवारी के लिए बुलाया था। गरुड़ ने दूत से क्रोधपूर्वक कहा कि विष्णु भगवान को कह दे कि वे दूसरी सवारी का प्रबंध कर लें। दूत ने गरुड़ के क्रोध का कारण पूछा तो गरुड़ ने समुद्र के अत्याचार की कथा सुनाई। 

दूत के मुख से गरुड़ के क्रोध की कहानी सुनकर भगवान विष्णु स्वयं गरुड़ के घर गए। वहां पहुंचने पर गरुड़ ने प्रणामपूर्वक विनम्र शब्दों में कहा - "भगवान! आपके आश्रय का अभिमान करके समुद्र ने मेरे साथी पक्षियों के अंडों का अपहरण कर दिया है। इस तरह मुझे भी अपमानित किया है। मैं समुद्र से इस अपमान का बदला लेना चाहता हूं।"

भगवान विष्णु बोले - "गरुड़! तुम्हारा क्रोध युक्तियुक्त है। समुद्र को ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। चलो, मैं समुद्र से उन अंडों को वापस लेकर टिटिहरी को दिलवा देता हूं। उसके बाद हमें अमरावती जाना है।"

 तब भगवान ने अपने धनुष पर अग्निबाण को चढ़ा कर समुद्र से कहा - "दुष्ट, अभी सब उन अंडों को वापस दे दे नहीं तो तुझे क्षण भर में सुखा दूंगा। 

विष्णु भगवान के भय से समुद्र ने उसी क्षण अण्डे वापस दे दिए। 

दमनक ने इन कथाओं को सुनाने के बाद संजीवकसे कहा - इसलिए मैं कहता हूं कि शत्रु पक्ष का बल जानकर ही युद्ध के लिए तैयार होना चाहिए, किंतु मुझे कैसे पता लगेगा कि पिंगलक के मन में मेरे लिए हिंसा के भाव हैं। आज तक वह मुझे सदा स्नेह की दृष्टि से देखता रहा है। उसकी वक्रदृष्टि का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। मुझे उसके लक्षण बदला तो मैं उन्हें जानकर आत्मरक्षा के लिए तैयार हो जाऊंगा। 

दमनक - उन्हें जानना कुछ भी कठिन नहीं है। यदि उनके मन में तुम्हें मारने का पाप होगा तो उसकी आंखें लाल हो जाएँगी, भवें चढ़ जाएगी और वह होठों को चाटता हुआ तुम्हारी और क्रूर दृष्टि से देखेगा। अच्छा तो यह है कि तुम रातों-रात चुपके से चले जाओ। आगे तुम्हारी इच्छा। 

यह कहकर दमनक अपने साथी करटक के पास आया। करटक ने उससे भेंट करते हुए पूछा - कहो दमनक! कुछ सफलता मिली तुम्हें अपनी योजना में?

दमनक - मैंने तो नीतिपूर्वक जो कुछ भी करना उचित था, कर दिया। अब आगे सफलता देव के अधीन है। पुरुषार्थ करने के बाद भी यदि कार्य सिद्ध न हो तो हमारा दोष नहीं। 

करटक - तेरी क्या योजना है? किस तरह नितीयुक्त काम किया है तूने? मुझे भी बता। 

दमनक - मैंने झूठ बोल कर दोनों को एक दूसरे का ऐसा बैरी बना दिया है कि भविष्य में कभी एक दूसरे का विश्वास नहीं करेंगे। 

करटक - यह तूने अच्छा नहीं किया। मित्र! दो स्नेही हृदयों में द्वेष का बीज बोना बुरा काम है। 

दमनक - करटक! तू नीति की बातें नहीं जानता, तभी ऐसा कहता है। संजीवक ने हमारे मंत्री पद को हथिया लिया। वह हमारा शत्रु था। शत्रु को परास्त करने में धर्म अधर्म नहीं देखा जाता। आत्मरक्षा सबसे बड़ा धर्म है। स्वार्थ साधन ही सबसे महान कार्य है। स्वार्थ साधन करते हुए कपट नीति से ही काम लेना चाहिए, जैसे चतुरक ने लिया था। 

कटटक ने पूछा - कैसे?

दमनक ने तब चतुर गीदड़ और शेर की यह कहानी सुनाई:

कुटिल नीति का रहस्य

परस्य पीडनं कुर्वन् स्वार्थसिद्धिं च पण्डितः 
गूढ़बुद्धिर्न लक्ष्मेत वने चतुरको यथा 

स्वार्थ साधना करते हुये कपत से भी काम लेना चहिये। 

किसी जंगल में वज्रदंष्ट्र नाम का शेर रहता था। उसके दो अनुचर, चतुरक गीदड़ और क्रव्यमुख भेड़िया, हर समय उसके साथ रहते थे। एक दिन शेर ने जंगल में बैठी हुई ऊंटनी को मारा। ऊंटनी के पेट से एक छोटा सा ऊंट का बच्चा निकला। शेर को उस बच्चे पर दया आई। घर लाकर उसने बच्चे को कहा - अब मुझसे डरने की कोई बात नहीं है। मैं तुझे नहीं मारूंगा। तू जंगल में आनंद से विहार कर। ऊंट के बच्चे के कान शंकु के जैसे थे। इसलिए उनका नाम शेर ने शंकुकर्ण रख दिया। वह भी शेर के अन्य अनु चारों के समान सदा शेर के साथ रहता था। जब वह बड़ा हो गया तब भी वह शेर का मित्र बना रहा। एक क्षण के लिए भी वह शेर को छोड़ कर नहीं जाता था। 

एक दिन उस जंगल में एक मतवाला हाथी आ गया। उससे शेर की जबरदस्त लड़ाई हुई। इस लड़ाई में शेर इतना घायल हो गया कि उसके लिए एक कदम आगे चलना भी भारी हो गया। अपने साथियों से उसने कहा कि तुम कोई ऐसा शिकार ले आओ, जिसे मैं यहां बैठा बैठा ही मार दूं। तीनों साथी शेर की आज्ञा अनुसार शिकार की तलाश करते रहे, लेकिन बहुत यत्न करने पर भी कोई शिकार हाथ नहीं आया। 

चतुरक ने सोंचा, यदि शंकुकर्ण को मरवा दिया जाए तो कुछ दिन की निश्चिंतता हो जाए। किंतु शेर ने उसे अभय वचन दिया है, कोई ऐसी युक्ति निकालनी चाहिए कि वह वचन भंग किए बिना इसे मारने को तैयार हो जाए। 

अंत में चतुररक ने एक युक्ति सोंच ली। शंकुकर्ण से वह बोला - शंकुकर्ण मैं तुझे एक बात तेरे लाभ की ही कहता हूं। स्वामी का इसमें कल्याण हो जाएगा। हमारा स्वामी शेर कई दिन से भूखा है। उसे यदि तू अपना शरीर दे दे तो वह कुछ दिन बाद तुझे दुगुना होकर मिल जाएगा और शेर की भी तृप्ति हो जाएगी। 

शंकुकर्ण - मित्र! शेर की तृप्ति में तो मेरी भी प्रसन्नता है। स्वामी को कह दो कि मैं इसके लिए तैयार हूं। किन्तु इस सौदे में धर्म हमारा साक्षी होगा। 

इतना निश्चित होने के बाद वे सब शेर के पास गए। चतुरक ने शेर से कहा - स्वामी! शिकार तो कोई भी हाथ नहीं आया। सूर्य भी अस्त हो गया। अब एक ही उपाय है, यदि आप शंकुकर्ण को इस शरीर के बदले द्विगुण शरीर देना स्वीकार करें तो वह यह शरीर ऋण रूप में देने को तैयार है। 

शेर - मुझे यह व्यवहार स्वीकार है। हम धर्म को साक्षी रखकर यह सौदा करेंगे। शंकुकर्ण अपने शरीर को ऋण रूप में हमें देगा तो हम उसे बाद में द्विगुण शरीर देंगे। 

तब सौदा होने के बाद शेर के इशारे पर गीदर और भेड़ियों ने ऊंट को मार दिया। 

वज्रदंष्ट्र शेर ने तब चतुरक से कहा - चतुरक! मैं नदी में स्नान करके आता हूं, तू यहाँ इसकी रखवाली करना। 

शेर के जाने के बाद चतुरक ने सोचा - कोई युक्ति ऐसी होनी चाहिए कि वह अकेला ही ऊंट को खा सके। यह सोंचकर वह क्रव्यमुख से बोला, मित्र तू बहुत भूखा है इसलिए तू शेर के आने से पहले ही ऊंट को खाना शुरु कर दे। मैं शेर के सामने तेरी निर्दोषता सिद्ध कर दूंगा। तू चिंता न कर। 

अभी क्रव्यमुख ने दांत गड़ाए ही थे कि चतुरक चिल्ला उठा - स्वामी आ रहे हैं, दूर हट जा। 

शेर ने आकर देखा तो ऊंट पर भेड़िए के दांत लगे थे। उसने क्रोध से भवें तानकर पूछा - किसने ऊंट को जूठा किया है।

क्रव्यमुख चतुरक की ओर देखने लगा। चतुरक बोला - दुष्ट! स्वयं मांस खाकर अब मेरी तरफ क्यों देखता है? अब अपने किए का दंड भोग। 

चतुरक की बात सुनकर भेड़िया शेर के डर से उसी क्षण वहाँ से भाग गया। थोड़ी देर में उधर कुछ दूरी पर ऊंटों का एक काफिला आ रहा था। ऊंटों के गले में घंटीया बंधी हुई थी। घंटीयों के शब्द से जंगल का आकाश गूंज रहा था। शेर ने पूछा - चतुरक! यह कैसा शब्द है? यह तो मैं पहली बार ही सुन रहा हूं, पता तो करो। 

चतुरक बोला - स्वामी! आप देर न करें, जल्दी से चले जाएं। 

शेर - आखिर बात क्या है? इतना भयभीत क्यों करता है मुझे? 

चतुरक - स्वामी! यह ऊंटों का दल है। धर्मराज आप पर बहुत क्रुद्ध हैं। आपने उनकी आज्ञा के बिना उन्हें साक्षी बनाकर अकाल में ही ऊंट के बच्चे को मार डाला है। अब वह सौ ऊंटों को, जिनमें शंकुकर्ण के पुरखे भी शामिल हैं, लेकर आपसे बदला लेने आया है। धर्मराज के विरुद्ध लड़ना युक्तियुक्त नहीं है। आप हो सके तो तुरंत भाग जाइए। 

शेर ने चतुर के कहने पर विश्वास कर लिया। धर्मराज से डरकर वह मरे हुए ऊंट को वैसा ही छोड़कर दूर भाग गया।

दमनक ने यह कथा सुनाकर कहा - इसलिए मैं तुम्हें कहता हूं कि स्वार्थ साधन में छल -बल सबसे काम लें। 

दमनक के जाने के बाद संजीवक ने सोचा, मैंने अच्छा नहीं किया, जो शाकाहारी होने पर एक मांसाहारी से मैत्री की। किन्तु अब क्या करूँ? क्यों न अब पिंगलक की शरण में जाकर उससे मित्रता बढ़ाऊं। दूसरी जगह अब मेरी गति भी कहां है?

यही सोचता हुआ वह धीरे-धीरे शेर के पास चला। वहां जाकर उसने देखा कि पिंगलक शेर के मुंह पर वही भाव अंकित थे, जिसका वर्णन दमनक ने कुछ समय पहले किया था। पिंगलक को इतना क्रुध्द देखकर संजीवक आज ज़रा दूर हटकर बिना प्रणाम किए बैठ गया। पिंगलक ने भी आज संजीवक के चेहरे पर वही भाव अंकित देखे जिनकी सूचना दमनक ने पिंगलक को दी थी। दमनक की चेतावनी का स्मरण करके पिंगलक संजीवक से कुछ भी पूछे बिना उस पर टूट पड़ा। संजीवक इस अचानक आक्रमण के लिए तैयार नहीं था, किन्तु जब उसने देखा कि शेर उसे मारने को तैयार है तो वह भी सींगों को तानकर अपनी रक्षा के लिए तैयार हो गया। 

उन दोनों को एक-दूसरे के विरुद्ध भयंकरता से प युद्ध करते देखकर करटक ने कहा: दमनक! तूने दो मित्रों को लड़वाकर अच्छा नहीं किया। तुझे सामनीति से काम लेना चाहिए था। अब यदि शेर का वध हो गया तो हम क्या करेंगे? सच तो यह है कि तेरे जैसा नीच स्वभाव का मन्त्री कभी अपने स्वामी का कल्याण नहीं कर सकता। अब भी कोई उपाय है तो कर। तेरी सब प्रवृत्तियां केवल विनाशोन्मुख हैं। जिस राज्य का तू मन्त्री होगा, वहां भद्र सज्जन व्यक्तियों का प्रवेश ही नहीं होगा। अथवा अब तुंझे उपदेश देने का क्या लाभ? उपदेश भी पात्र को दिया जाता है। तू उसका पात्र नहीं है, तुझे उपदेश देना व्यर्थ है। अन्यथा कहीं मेरी हालत भी सूचीमुख चिड़ियों की तरह ना हो जाए।

दमनक ने पूछा - सूचीमुख चिड़िया कौन थी?

करटक ने तब सूचीमुख चिड़िया की यह कहानी सुनाई -

सीख न दीजे बानरा

उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये। 

उपदेश से मूर्खों का क्रोध और भी भडक उठता है, शान्त नहीं होता। 

किसी पर्वत के एक भाग में बन्दरों का दल रहता था। एक दिन हेमन्त ऋतु के दिनों में वहां इतनी बर्फ पड़ी और ऐसी हिम वर्षा हुई कि बंदर सर्दी के मारे ठिठुर गए। 

कुछ बंदर लाल फलों को ही अग्नि कण समझकर उन्हें फूंके मार - मार कर सुलगाने की कोशिश करने लगे। 

सूचीमुख पक्षी ने तब उन्हें वृथा प्रयत्न से रोकते हुए कहा - ये आग के शोले नहीं, गुंजाफल हैं। इन्हें सुलगाने की व्यर्थ चिंता क्यों करते हो? अच्छा यह है कि कहीं गुफा कंदरा में चले जाओ। तभी सर्दी से रक्षा होगी। 

बंदरों में एक बूढ़ा बंदर भी था। उसने कहा सूचीमुख इनको उपदेश ना दें। यह मूर्ख हैं। तेरे उपदेश को नहीं मानेंगे, बल्कि तुझे मार डालेंगे। 

वह बंदर कह ही रहा था कि एक बंदर ने सूचीमुख को उसके पंखों से पकड़कर झकझोर दिया। 

इसलिए मैं कहता हूं कि मूर्ख को उपदेश देकर हम उसे शांत नहीं करते, बल्कि और भी भड़काते हैं। जिस तिस को उपदेश देना स्वयं मूर्खता है। मूर्ख बंदर ने उपदेश देने वाली चिड़िया का घोंसला तोड़ दिया था। 

दमनक ने पूछा कैसे? 

करटक ने तब बंदर और चिड़िया की यह कहानी सुनाई:

शिक्षा का पात्र

उपदेशो न दातव्यो यादृशे तादृशे जने। 

जिसको तिसको उपदेश देना उचित नहीं। 

किसी जंगल के एक घने वृक्ष की शाखा पर चिड़ा-चिड़ी का एक जोड़ा रहता था। अपने घोसले में दोनों बड़े सुख से रहते थे। सर्दियों का मौसम था। उस समय एक बन्दर बर्फीली हवा और बरसात में ठिठुरता हुआ उस वृक्ष की शाखा पर आ बैठा। जाड़े के मारे उसके दांत कटकटा रहे थे। उसे देख चिड़िया ने कहा-अरे, तुम कौन हो? देखने में तो तुम्हारा चेहरा आदमियों का सा है; हाथ-पैर भी हैं तुम्हारे। फिर भी तुम कहां यहां बैठे हो। घर बनाकर क्यों नहीं रहते?

वानर बोला - अरी, तुझसे चुप नहीं रहा जाता? तू अपना  काम कर, मेरा उपहास क्यों करती है?

चिड़िया फिर भी कुछ कहती गई! वह चिढ़ गया। क्रोध में आकर उसने चिड़िया के उस घोंसले को तोड़-फोड़ डाला।

करटक ने कहा - इसलिए मैं कहता था। जिस - तिसको उपदेश नहीं देना चाहिए। किंतु तुझ पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा। तुझे शिक्षा देना भी व्यर्थ है‌। बुद्धिमान को दी हुई शिक्षा का ही फल होता है। ‌मूर्ख को दी हुई शिक्षा का फल क‌ई बार उलटा निकल आता है, जिस तरह पापबुद्धि नाम के मूर्ख पुत्र ने विद्वता के जोश में पिता की हत्या कर दी थी।

दमनक ने पूछा-कैसे?

करटक ने तब धर्मबुद्धि-पापबुद्धि नाम के दो मित्रों की कथा सुनाई:

मित्र - द्रोह का फल

किं करोत्येव पाण्डित्यमस्थाने विनियोजितम् 

अयोग्य को मिले ज्ञान का फल विपरीत ही होता है। 

किसी स्थान पर धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे। एक दिन पापबुद्धि ने सोचा कि धर्मबुद्धि की सहायता से विदेश में जाकर धन पैदा किया जाए दोनों ने देश-देशान्तरों मैं घूमकर प्रचुर धन पैदा किया। जब वे वापस आ रहे थे, तो गांव के पास आकर पापबुद्धि ने सलाह दी की इतने धन के बंधु -बान्धवों के बीच नहीं ले जाना चाहिए। इसे देखकर ईर्ष्या होगी, लोभ होगा। किसी ने किसी बहाने वे बांटकर खाने का यत्न करेंगे। इसीलिए इस धन का ब‌ड़ा भाग ज़मीन में गाड़ देते हैं। जब जरूरत होगी लेते रहेंगे।

धर्मबुद्धि यह बात मान गया। ज़मीन में गड्ढा खोदकर दोनों ने अपना संचित धन वहां रख दिया और गांव में चले आए।

कुछ दिन बाद पापबुद्धि आधी रात को उसी स्थान पर जाकर सारा धन खोद लाया और ऊपर से मिट्टी डालकर गड्ढा भरकर चला आया।

दूसरे दिन वह धर्मबुद्धि के पास गया और बोला-मित्र! मेरा परिवार बड़ा है। मुझे फिर कुछ धन की ज़रूरत पड़ गई है। चलो, चलकर थोड़ा-थोड़ा और ले आएं।

धर्मबुद्धि मान गया। दोनों ने आकर जब ज़मीन खुदी और वह बर्तन निकाला जिसमें धन रखा था, तो देखा कि वह खाली है। पापबुद्धि सिर पीटकर रोने लगा-मैं लुट गया, धर्मबुद्धि ने मेरा धन चुरा लिया। मैं मर गाया, लुट गया।

दोनों अदालत में धर्माधिकारी के सामने पेश हुए। पाप बुद्धि ने कहा मैं गड्ढे के पास वाले वृक्ष के साक्षी मानने को तैयार‌ हूं। वे जिसे चोर कहेंगे, वह चोर माना जाएगा।

अदालत ने यह बात मान ली और निश्चय किया कि कल वृक्षों की साक्षी ली जाएगी और साक्षी पर ही निर्णय सुनाया जाएगा।

रात को पापबुद्धि ने अपने पिता से कहा-तुम अभी गड्ढे के पास वाले वृक्ष की खोखली जड़ में बैठ जाओ। जब धर्माधिकारी पूछे तो कह देना कि चोर धर्मबुद्धि है।

उसके पिता ने यह किया; वह सवेरे ही वहां जाकर बैठ गया धर्माधिकारी ने जब ऊंचे‌ स्वर।में पुकारा-हे वनदेवता! तुम्हीं साक्षी हो कि इन दोनों में चोर कौन है?

तब वृक्ष की में बैठे हुए पापबुद्धि के पिता ने कहा:- धर्मबुद्धि चोर है, उसने ही धन चुराया है।

धर्माधिकारी तथा राजपुरुषों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे अभी अपने धर्मग्रन्थों को देखकर निर्णय देने की तैयारी ही कर रहे थे कि धर्मबुद्धि ने उस वृक्ष को आग लगा दी, जहां से वह आवाज़ आई थी।

थोड़ी देर में पापबुद्धि का पिता आग से झुलसा हुआ उस वृक्ष की जड़ में से निकला। उसने वनदेवता की साक्षी का सच्चा भेद प्रकट कर दिया।

तब राजपुरुष ने पापबुद्धि को उसी वृक्ष की शाखाओं पर लटकाते हुए कहा कि मनुष्य का यह धर्म है कि वह उपाय की चिन्ता के साथ अपाय की भी चिन्ता करे। अन्यथा उसकी वही दशा होती है जो उन बगुलों की हुई थी। जिन्हे नेवले ने मार दिया था।

धर्मबुद्धि ने पूछा-कैसे? राजपुरुषों ने कहा-सुनो:

करने से पहले सोंचो

उपायं चिन्तयेत्प्रज्ञास्त्थाSपायं च चिन्तयेत्। 

उपाय की चिन्ता के साथ, तज्जन्य अपाय या 
दुष्परिणाम की भी चिन्ता कर लेनी चाहिए।

जंगल के एक बड़े वटवृक्ष की खोल में बहुत-से बगुले रहते थे। उसी वृक्ष की जड़ में एक सांप भी रहता था। वह बगुलों के छोटे-छोटे बच्चों को खा जाता था।

एक बगुला सांप द्वारा बार-बार बच्चों के खाए जाने पर बहुत दु:खी और विरक्त-सा होकर नदी के किनारे आ बैठा। उसकी आंखों में आंसू भरे हुए थे। उसे इस प्रकार दु:खमग्न देखकर एक केकड़े ने पानी से निकालकर उसे कहा - मामा ,क्या बात है? आज रो क्यों रहे हो?

बगुले ने कहा - भैया! बात यह है कि मेरे बच्चों को सांप बार-बार खा जाता है। कुछ उपाय नहीं सूझता,किस प्रकार सांप का नाश किया जाए? तुम्हीं कोई उपाय बताओ।

केकड़ी ने मन में सोचा, यह बगुला मेरा जन्मबैरी है। इसे ऐसा उपाय बताऊंगा, जिससे सांप के नाश के साथ-साथ इसका भी नाश हो जाए। यह सोचकर वह बोला:

मामा , एक काम करो! मांस के कुछ टुकड़े लेकर नेवले के बिल के सामने डाल दो। इसके बाद बहुत से टुकडे उस बिल से शुरू करके सांप के बिल तक बिखेर दो। नेवला उन टुकड़ों को खाता - खाता सांप के बिल तक आ जाएगा और वहां सांप को भी देख कर उसे मार डालेगा। 

बगुले ने ऐसा ही किया। नेवले ने सांप को तो खा लिया, किंतु सांप के बाद उस वृक्ष पर रहने वाले बगुलों को भी खा डाला।

बगुले ने उपाय तो सोचा, किंतु उसने अन्य दुष्परिणाम नहीं सोचे। अपनी मूर्खता का फल उसे मिल गया। पाप बुद्धि ने भी उपाय तो सोचा, किंतु अपाय नहीं सोचा।

करटक ने कहा - इसी तरह दमनक तूने भी उपाय तो किया, किंतु अपाय की चिंता नहीं की। तू भी पापबुद्धि के समान ही मुर्ख है। तेरे जैसे पापबुद्धि के साथ रहना भी दोषपूर्ण है। आज से तू मेरे पास मत आना। जिस स्थान पर ऐसे - ऐसे अनर्थ हों वहां से दूर ही रहना चाहिए। जहां चूहे मन भर की तराजू को खा जाएं, वहां यह भी संभव है कि चील बच्चे को उठाकर ले जाए। 

दमक में पूछा - कैसे?          

करटक ने तब लोहे की तराजू की एक कहानी सुनाई। 

जैसे को तैसा

तुलां  लोहसहस्त्रस्य यत्र खादन्ति मूषिकाः 
राजन्स्तत्र हरेच्छ्येनो बालकं नात्र संशयः 

जहां मन भर लोहे की तराजू को चूहे खा जाएं 
वहां की चील भी बच्चे को उठाकर ले जा सकती है।
 

एक स्थान पर जीर्णधन नाम का बनिया का लड़का रहता था। धन की खोज में उसने परदेस जाने का विचार किया। उसके घर में विशेष संपत्ति तो थी नहीं, केवल एक मन भर लोहे की तराजू थी। उसे एक महाजन के पास धरोहर रख कर वह विदेश चला गया। विदेश से वापस आने के बाद उसने महाजन से अपनी धरोहर वापस मांगी। महाजन ने कहा - वह लोहे की तराजू तो चूहों ने खा ली। 

बनिए का लड़का समझ गया कि वह उसे तराजू देना नहीं चाहता, किंतु अब उपाय कोई नहीं था। कुछ देर सोचकर उसने कहा कोई चिंता नहीं चूहों ने खा डाली, तो चूहों का दोष है, तुम्हारा नहीं। तुम उसकी चिंता ना करो। 

थोड़ी देर बाद बनिए ने उस महाजन से  कहा - मित्र! नदी पर स्नान के लिए जा रहा हूं। तुम अपने पुत्र धनदेव को मेरे साथ भेज दो, वह भी नहा आएगा। 

महाजन बनिए की सज्जनता से बहुत प्रभावित था, इसलिए उसने तत्काल अपने पुत्र को उसके साथ नदी स्थान के लिए भेज दिया। बनिए ने महाजन के पुत्र को वहां से कुछ दूर ले जाकर एक गुफा में बंद कर दिया। गुफा के द्वार पर बड़ी शिला रख दी, जिससे वह निकल कर भाग ना पाए। फिर जब वह महाजन के घर आया, तो महाजन ने पूछा मेरा लड़का भी तो तेरे साथ स्नान के लिए गया था, वह कहां है? 

बनिए ने कहा -"उसे चीज उठाकर ले गई।"

महाजन - यह कैसे हो सकता है। कभी चील भी इतने बड़े बच्चे को उठाकर ले जा सकती है? 

बनिया - भले आदमी! यदि चील बच्चे को उठाकर नहीं ले जा सकती, तो चूहे भी मन भर भारी लोहे की तराजू को नहीं खा सकते। तुझे बच्चा चाहिए तो तराजू निकाल कर दे दे। 

इसी तरह विवाद करते हुए दोनों राजमहल में पहुंचे। वहां न्याय अधिकारी के सामने महाजन ने अपनी दुख कथा सुनाते हुए कहा कि इस बनिए ने मेरा लड़का चुरा लिया है। 

धर्माधिकारी ने बनिए से कहा - उसका लड़का इसे दे दो। 

बनिया बोला - महाराज! उसे तो चील उठा ले गई है। 

धर्माधिकारी - क्या कभी चील भी बच्चे को उठा ले जा सकती है? 

बनिया - प्रभु! यदि मन भर भारी तराजू को चूहे खा सकते हैं, तो चील भी बच्चे को उठाकर ले जा सकती है। 

धर्माधिकारी के प्रश्न पर बनिए ने सब वृतांत कह सुनाया। 

कहानी कहने के बाद दमनक को पर करटक ने फिर कहा - "तूने भी असंभव को संभव बनाने का यत्न किया है। तूने स्वामी का हित चिंतक होकर अहित कर दिया है। ऐसे हित चिंतक मूर्ख मित्रों की अपेक्षा, अहित चिंतक वैरी अच्छे होते हैं। हित चिंतक मूर्ख बंदर से हितसंपादन करते-करते राजा का खून ही कर दिया था।"

दमनक ने पूछा - कैसे?

कटक ने तब बंदर और राजा की यह कहानी सुनाई। 

मूर्ख मित्र

 पण्डितोऽपि वरं शत्रुर्न मूर्खो हितकारकः 

हितचिंतक मूर्ख की अपेक्षा अहितचिंतक बुद्धिमान अच्छा होता है। 

किसी राजा के राजमहल में एक बंदर सेवक के रूप में रहता था। वह राजा बहुत विश्वासपात्र और भक्त था। अंतःपुर में ही वह बेरोक-टोक जा सकता था।  

एक दिन राजा सो रहे थे और बंदर पंखा झेल रहा था, तो बंदर ने देखा, एक मक्खी बार-बार राजा की छाती पर बैठी तो उसने पूरे बल से मक्खी पर तलवार का हाथ छोड़ दिया। मक्खी तो उड़ गई, किंतु राजा की छाती तलवार की चोट से टुकड़े हो गई। राजा का देहांत हो गया। 

कथा सुनाकर करटक ने कहा - इसीलिए मैं मूर्ख मित्र की अपेक्षा विद्वान शत्रु को अच्छा समझता हूं। 

इधर दमनक करटक बातचीत कर रहे थे, उधर शेर और बैल का संग्राम चल रहा था। शेर ने थोड़ी देर बाद बैल को इतना घायल कर दिया कि वह जमीन पर गिर कर मर गया। 

मित्र हत्या के बाद पिंगलक को बड़ा पश्चाताप हुआ, किंतु दमनक ने आकर पिंगलक को फिर राजनीति का उपदेश दिया। पिंगलक ने दमनक को फिर अपना प्रधानमंत्री बना लिया। दमनक की इच्छा पूरी हुई। पिंगलक दमनक की सहायता से राज कार्य करने लगा। 

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यहां पंचतंत्र का प्रथम तंत्र समाप्त होता है। 
अगले हफ्ते मिलते हैं द्वितीय तंत्र के साथ। 

द्वितीय तंत्र: मित्र संप्राप्ति

दक्षिण देश के एक प्रांत में महिलारोप्य नाम का एक नगर था। वहां एक विशाल वटवृक्ष की शाखाओं पर लघुपतनक नाम का कौवा रहता था। एक दिन वह अपने आहार की चिंता में शहर की ओर चला ही था कि उसने देखा कि एक काले रंग, फटे पांव और बिखरे बालों वाला यमदूत की तरह भयंकर व्याध उधर ही चला आ रहा है। कौवे को वृक्ष पर रहने वाले अन्य पक्षियों की भी चिंता थी। उन्हें व्याध के चंगुल से बचाने के लिए वह पीछे लौट पड़ा और वहां सब पक्षियों को सावधान कर दिया कि जब यह व्याघ वृक्ष के पास भूमि पर अनाज के दाने बिखेरे तब कोई भी पक्षी उन्हें चुगने के लालच से ना जाए। उन दानों को कालकूट की तरह जहरीला समझे। 

कौवा अभी यह कह ही रहा था कि व्याध ने वटवृक्ष के नीचे आकर दाने विखेर दिए और स्वयं दूर जाकर झाड़ी के पीछे छुप गया। पक्षियों ने भी लघुपतनक का उपदेश मानकर दाने नहीं चुगे। वे इन दानों को हलाहल विष की तरह मानते रहे। 

किंतु इस बीच में व्याध के सौभाग्य से कबूतरों का एक दल परदेश से उड़ता हुआ वहां आया। उनका मुखिया चित्रग्रीव नाम का कबूतर था। लघुपतनक के बहुत समझाने पर भी वह भूमि पर बिखरे हुए उन दानों को चुगने के लालच को ना रोक सका। परिणाम यह हुआ कि वह अपने परिवार के साथियों समेत जाल में फंस गया। लोभ का यही परिणाम होता है। लोभ से विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है। स्वर्णमय हिरण के लोभ से श्री राम यह ना सोच सके कि कोई हिरण सोने का नहीं हो सकता। 


जाल में फंसने के बाद चित्रग्रीव ने अपने साथी कबूतरों को समझा दिया कि वे अब अधिक फड़फड़ाये नहीं या उड़ने की कोशिश ना करें, नहीं तो व्याध उन्हें मार देगा। इसीलिए वह अब अधमरे से हुए जाल में बैठ गए। व्याध ने भी उन्हें शांत देखकर मारा नहीं। जाल समेटकर वह आगे चल पड़ा। चित्रग्रीव ने जब देखा कि अब व्याध निश्चिंत हो गया है और उसका ध्यान दूसरी ओर गया है, तभी उसने अपने साथियों को जाल समेत उड़ जाने का संकेत किया। संकेत पाते ही सब कबूतर जाल लेकर उड़ गए। व्याध को बहुत दुख हुआ। पक्षियों के साथ उसका जाल भी हाथ से निकल गया था। लघुपतनक भी उन उड़ते हुए कबूतरों के साथ उड़ने लगा। 

चित्रग्रीव ने जब देखा कि अब व्याध का डर नहीं है, तो उसने अपने साथियों को कहा - व्याध तो लौट गया। अब चिंता की कोई बात नहीं। चलो, हम महिलारोप्य शहर के पूर्वोत्तर भाग की ओर चलें। वहां मेरा घनिष्ट मित्र हिरण्यक नाम का चूहा रहता है। उससे हम अपने जाल को कटवा लेंगे। तभी हम आकाश में स्वच्छंद घूम सकेंगे। 

वहां हिरण एक नाम का चूहा अपने 100 बिलों वाले दुर्ग में रहता था। इसीलिए उसे डर नहीं लगता था। चित्रग्रीव ने उसके द्वार पर पहुंचकर आवाज लगाई। वह बोला - मित्र हिरण्यक! शीघ्र आओ। मुझ पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है। 

उसकी आवाज सुनकर हिरण्यक अपने ही बिल में छुपे छुपे प्रश्न किया? तुम कौन हो? कहां से आए हो? क्या प्रयोजन है? 

चित्रग्रीव ने कहा - मैं चित्रग्रीव नाम का कपोतराज हूं। तुम्हारा मित्र हूं। तुम जल्दी बाहर आओ: मुझे तुमसे विशेष काम है। 

यह सुनकर हिरण्यक चूहा अपने बिल से बाहर आया। वहां अपने परम मित्र चित्रग्रीव को देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ, किंतु चित्रग्रीव को अपने साथियों समेत जाल में फंसा देखकर वह चिंतित भी हो गया। उसने कहा - मित्र! यह क्या हो गया तुम्हें? 

चित्रग्रीव ने कहा - जीभ के लालच में हम जाल में फंस गए। तुम हमें जाल से मुक्त कर दो। 

हिरण्यक जब चित्रग्रीव के जाल का धागा काटने लगा, तब उसने कहा - पहले मेरे साथियों के बंधन काट दो। बाद में मेरे काटना। 

चित्रग्रीव - यह मेरे आश्रित हैं, अपने घर बार को छोड़कर मेरे साथ आए हैं। मेरा धर्म है कि पहले इनकी सुख सुविधा को दृष्टि में रखूँ। अपने अनुचरों  में किया हुआ विश्वास बड़े से बड़े संकट से रक्षा करता है।

हिरण्यक चित्रग्रीव की यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सब के बंधन काटकर चित्रग्रीव से कहा मित्र! अब अपने घर जाओ। विपत्ति के समय फिर मुझे याद करना। उन्हें भेज कर हिरण्यक चूहा अपने बिल में घुस गया। चित्रग्रीव भी परिवार सहित अपने घर चला गया। 

लघुपतनक कौवा यह सब दूर से देख रहा था। वह हिरण्यक के कौशल और उसकी सज्जनता पर मुग्ध हो गया। उसने मन ही मन सोचा यद्यपि मेरा स्वभाव है कि मैं किसी का विश्वास नहीं करता, किसी को अपना हितैषी नहीं मानता, तथापि इस चूहे के गुणों से प्रभावित होकर मैं इसे अपना मित्र बनाना चाहता हूं। 

यह सोचकर वह हिरण्यक के दरवाजे पर जाकर चित्रग्रीव के समान ही आवाज बनाकर हिरण्यक को पुकारने लगा। उसकी आवाज सुनकर हिरण्यक ने सोचा यह कौन सा कबूतर है? क्या इसके बंधन कटने से रह गए हैं? 

हिरण ने पूछा - तुम कौन हो? 

लघुपतनक - मैं लघुपतनक नाम का एक कौवा हूं। 

हिरण्यक - मैं तुम्हें नहीं जानता, तुम अपने घर चले जाओ।

लघुपतक - मुझे तुमसे बहुत जरूरी काम है। एक बार दर्शन तो दे दो। 

हिरण्यक - मुझे तुम्हें दर्शन देने का कोई प्रयोजन दिखाई नहीं देता। 

लघुपतनक - चित्रग्रीव के बंधन काटते देखकर मुझे तुमसे बहुत प्रेम हो गया है। कभी मैं बंधन में पड़ जाऊंगा तो तुम्हारी सेवा में आना पड़ेगा। 

हिरण्यक - तुम भोक्ता हो मैं तुम्हारा भोजन हूं। हम में प्रेम कैसा? जाओ दो प्रकृति के विरोधी जीवों में मैत्री नहीं हो सकती। 

लघुपतनक - मैं तुम्हारे द्वार पर मित्रता की भीख लेकर आया हूं। तुम मैत्री नहीं करोगे तो मैं यही प्राण दे दूंगा। 

हिरण्यक - हम सहज बैरी हैं। हमसे मैत्री नहीं हो सकती। 

लघुपतक - मैंने तो कभी तुम्हारे दर्शन भी नहीं किए। हम से बैर कैसा? 

हिरण्यक - वैर दो तरह का होता है - सहज और कृत्रिम। तुम मेरे सहज बैरी हो। 

लघुपतक - मैं दो तरह के वैरों का लक्षण सुनना चाहता हूं। 

हिरण्यक - जो वैर कारण से हो वह कृत्रिम होता है। कारणों से ही उस वैर का अंत भी हो सकता है। स्वभाविक वैर निष्कारण होता है, उसका अंत हो ही नहीं सकता है। 

लघुपतनक में बहुत विरोध किया, किंतु हिरण्यक ने मैत्री के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। तब लघुपतनक ने कहा - यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास ना हो तो तुम अपने दिल में छुपे रहो। मैं बिल के बाहर बैठा बैठा ही तुमसे बातें कर लिया करूंगा। 

हिरण्यक ने लघुपतनक की यह बात मान ली। किंतु लघुपतनक को सावधान करते हुए कहा - कभी मेरे दिल में प्रवेश करने की चेष्टा मत करना।  कौवा इस बात को मान गया। उसने शपथ ली कि कभी वह ऐसा नहीं करेगा। 

तब से दोनों मित्र बन गए। ये नित्य प्रति परस्पर बातचीत करते थे। दोनों के दिन बड़े सुख से कटते थे। कौवा कभी इधर उधर से अन्य संग्रह करके चूहे को भेंट भी देता था। मित्रता में आदान-प्रदान स्वभाविक था। धीरे-धीरे दोनों की मैत्री घनिष्ट होती गई। दोनों एक क्षण भी एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे। 

बहुत दिन बाद एक दिन आंखों में आंसू भरकर लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा - मित्र! अब मुझे इस देश से विरक्ति हो गई है, इसलिए दूसरे देश में चला जाऊंगा। 

कारण पूछने पर उसने कहा - इस देश में अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ गया है। लोग स्वयं भूखे मर रहे हैं। एक दाना भी नहीं रहा। घर - घर में पक्षियों के पकड़ने के लिए जाल बिछ गए हैं। मैं तो भाग्य से ही बच गया। ऐसे देश में रहना ठीक नहीं। 

हिरण्यक - कहां जाओगे? लघुपतनक दक्षिण दिशा की ओर एक तालाब है। वहां मंथरक नाम का एक कछुआ रहता है। वह भी मेरा वैसा ही घनिष्ट मित्र है, जैसे तुम हो। उसकी सहायता से मुझे पेट भरने योग्य अन्न, मांस आदि अवश्य मिल जाएगा। 

हिरण्यक - यही बात है, तो मैं भी तुम्हारे साथ जाऊंगा। मुझे भी यहां बड़ा दुख है। 

लघुपतनक - अब तुम्हें किस बात का दुख है? 

हिरण्यक - यह मैं वहीं पहुंचकर तुम्हें बताऊंगा। 

लघुपतनक - किंतु मैं तो आकाश में उड़ने वाला हूं, मेरे साथ तुम कैसे जाओगे? 

हिरण्यक - मुझे अपने पंखों पर बिठाकर वहां ले चलो। 

लघुपतनक यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि वह सपात आदि आठों प्रकार की उड़ने की गतियों से परिचित है। वह उसे सुरक्षित निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचा देगा। यह सुनकर हिरण्यक चूहा लघुपतनक कौवे की पीठ पर बैठ गया। दोनों आकाश में उड़ते हुए तालाब के किनारे पहुंचे। 

मंथरक ने जब देखा कि कोई कौवा चूहे को पीठ पर बिठाकर आ रहा है, तो वह डर के मारे पानी में घुस गया। लघुपतनक को उसने पहचाना नहीं। 

तब लघुपतनक हिरण्यक को थोड़ी दूर छोड़ कर पानी में लटकती हुई शाखा पर बैठकर जोर जोर से पुकारने लगा - मंथरक - मंथरक, मैं तेरा मित्र लघुपतनक आया हूं। आकर मुझसे मिल। 

लघुपतनक की आवाज सुनकर मंथरक खुशी से नाचता हुआ बाहर आया। दोनों ने एक दूसरे का आलिंगन किया।  हिरण्यक भी तब वहां आ गया और मंथरक को प्रणाम कर के वहां बैठ गया। 

मंथरक ने लघुपतनक से पूछा - यह चूहा कौन है? भक्छय होते हुए भी इसे अपनी पीठ पर कैसे लाया? 

लघुपतनक - एक हिरण्यक नाम का चूहा मेरा अभिन्न मित्र है। बड़ा गुनी है। फिर भी किसी दुख से दुखी होकर मेरे साथ यहां आ गया है। इसे अपने देश से वैराग्य हो गया है। 

मंथरक - वैराग्य का कारण! 

लघुपतनक - यह बात मैंने भी पूछी थी। इसने कहा था, वही चल कर बताऊंगा। मित्र हिरण्यक! अब तुम अपने वैराग्य का कारण बतलाओ। हिरण अपने तब यह कहानी सुनाई।

धन सब क्लेशों की जड़ है 

दक्षिण देश के एक प्रांत में महिलारोप्य नामक नगर से थोड़ी दूर महादेव जी का एक मंदिर था। वहां ताम्रचूड़ नाम का भिक्षु रहता था। वह नगर में से भिक्षा मांग कर भोजन कर लेता था और भिक्षा शेष को भिक्षा पात्र में रखकर खूटों पर टांग देता था। सुबह उसी भिक्षा शेष में से थोड़ा-थोड़ा अन्य वह अपने नौकरों को बांट देता था और उन नौकरों से मंदिर की लिपाई - पुताई और सफाई कराता था। 

एक दिन मेरे कई जाती भाई चूहों ने मेरे पास आकर कहा - स्वामी! वह ब्राह्मण खूंटी पर भिक्षा शेष वाला पात्र टांग देता है, जिससे हम उस पात्र तक नहीं पहुंच सकते। आप चाहे तो खूंटी पर टंगे पात्र तक पहुंच सकते हैं। आपकी कृपा से हमें भी प्रतिदिन उसमें से अन्न - भोजन मिल सकता है। 

उनकी प्रार्थना सुनकर मैं उन्हें साथ लेकर उसी रात वहां पहुंच गया। उछलकर मैं खूंटी पर टंगे पात्र तक पहुंच गया। वहां से अपने साथियों को भी मैंने भरपेट अन्न दिया और स्वयं भी खूब खाया। प्रतिदिन उसी तरह से मैं अपना और अपने साथियों का पेट पालता रहा। 

ताम्रचूड़ ब्राह्मण ने इस चोरी से बचने का एक उपाय किया। वह कहीं से बांस का डंडा ले आया और रात भर खूंटी पर टंगी पात्र को खटखटाता रहता है। मैं भी बांस से पिटने के डर से पात्र में नहीं जाता था। सारी रात यही संघर्ष चलता रहता। 

कुछ दिन बाद उस मंदिर में बृहत्सिफक नाम का एक सन्यासी अतिथि बनकर आया। ताम्रचूड़ ने उसका बहुत सत्कार किया। रात के समय दोनों में देर तक धर्म चर्चा भी होती रही, किंतु ताम्रचूड़ ने उस चर्चा के बीच भी फटे बांस से भिक्षा पात्र को खटखटाने का कार्यक्रम चालू रखा। आगंतुक सन्यासी को यह बात बहुत बुरी लगी। उसने समझा कि ताम्रचूड़ उनकी बात को पूरे ध्यान से नहीं सुन रहा। इसे उसने अपमान समझा। इसीलिए अत्यंत क्रोधाविष्ट होकर उसने कहा - ताम्रचूड़! तू मेरे साथ मैत्री नहीं निभा रहा। मुझसे पूरे मन से बात भी नहीं करता। मैं भी इसी समय तेरा मंदिर छोड़कर दूसरी जगह चला जाता हूं। 

ताम्रचूड़ ने डरते हुए उत्तर दिया - मित्र! तू मेरा अनन्य मित्र है। मेरी व्यग्रता का कारण दूसरा है; वह यह है कि वह दुष्ट चूहा खूंटी पर टंगे भिक्षा पात्र में से वस्तुओं को चुरा कर खा जाता है। चूहे को डराने के लिए ही मैं भिक्षा पात्र को खटका रहा हूं। इस चूहे ने तो उछलने में बिल्ली और बंदर को भी मात दे दिया है। 

बृहत्सिफक - चूहे का बिल तुझे मालूम है?

ताम्रचूड़ - नहीं, मैं नहीं जानता। 

बृहत्सिफक - हो ना हो उसका बिल भूमि में गड़े किसी खजाने के ऊपर है। तभी उसकी गर्मी से वह इतना उछलता है। कोई भी काम अकारण नहीं होता। कूटे हुए तिलों को यदि कोई बिना कुटे तिलों के भाव बेचने लगे तो भी उसका कारण होता है। 

ताम्रचूड़ - कूटे हुए तिलों का उदाहरण आपने कैसा दिया?

बृहत्सिफक ने तब कूटे हुए तिलों की बिक्री की यह कहानी सुनाई। 

बिना कारण कार्य नहीं

हेतुरत्र भविष्यति 

हर कार्य के कारण की खोज करो,
अकारण कुछ भी नहीं हो सकता।

एक बार मैं चौमासे में एक ब्राह्मण के घर गया था। वहां रहते हुए एक दिन मैंने सुना कि ब्राह्मण और ब्राह्मण - पत्नी में यह बातचीत हो रही थी: 

ब्राह्मण - कल सुबह कर्क संक्रांति है, भिक्षा के लिए मैं दूसरे गांव जाऊंगा। वहां एक ब्राह्मण सूर्यदेव की तृप्ति के लिए कुछ दान करना चाहता है। 

 पत्नी - तुम्हें तो भोजन योग्य अन्य कमाना भी नहीं आता। तेरी पत्नी होकर मैंने कभी सुख नहीं होगा, मिष्ठान नहीं खाए, वस्त्र और आभूषणों की तो बात ही करनी क्या कहनी।

 ब्राह्मण - देवी! तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए। अपनी इच्छा के अनुरूप धन किसी को नहीं मिलता। पेट भरने योग्य अन्न तो मैं भी ले ही आता हूं। इससे अधिक की तृष्णा का त्याग कर दो। अति तृष्णा के चक्कर में मनुष्य के माथे पर शिखा हो जाती है।

 ब्राह्मणी ने पूछा - यह कैसे?

 तब ब्राह्मण ने सूअर, शिकारी और गीदड़ की यह कथा सुनाई :

अति लोभ नाश का मूल

अतितृष्णा न कर्तव्या, तृष्णां नैव परित्यजेत् 

लोभ तो स्वाभाविक है, 
किंतु अतिशय लोग मनुष्य का सर्वनाश कर देता है।

एक दिन एक शिकारी शिकार की खोज में जंगल की ओर गया। जाते-जाते उसे वन में काले अंजन के पहाड़ जैसा काला बड़ा सूअर दिखाई दिया। उसे देखकर उसने अपनी धनुष की प्रत्यंचा को कानों तक खींच कर निशाना मारा। निशाना ठीक स्थान पर लगा, सूअर घायल होकर शिकारी की ओर दौड़ा। शिकारी भी तीखे दांत वाले सुअर के हमले से गिरकर घायल हो गया। उसका पेट फट गया। शिकारी और शिकार दोनों का अंत हो गया। 

इसी बीच एक भटकता और भूख से तड़पता गीदड़ वहां आ निकला। वहां सूअर और शिकारी दोनों को मरा देखकर वह सोचने लगा आज देववश बड़ा अच्छा भोजन मिला है। कई बार बिना उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल जाता है। इसे पूर्व जन्मों का फल भी कहना चाहिए। 

यह सोचकर वह शवों के पास जाकर पहले छोटी चीजें खाने लगा। उसे याद आ गया कि अपने धन का उपयोग मनुष्य को धीरे-धीरे ही करना चाहिए। इसका प्रयोग रसायन के प्रयोग की तरह करना उचित है। इस तरह अल्प धन भी बहुत काल तक काम देता है। अतः इसका भोग मैं इस रीति से करूंगा कि बहुत दिन तक उनके उपयोग से मेरी प्राण यात्रा चलती रहे। 

यह सोचकर उसने निश्चय किया कि पहले धनुष की डोरी को खाएगा। उस समय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी। उसकी डोरी कमान के दोनों सिरों पर कसकर बंधी हुई थी। गीदड़ ने डोरी को मुख में लेकर चबाया। चबाते ही वह डोरी बहुत तेज वेग से टूट गई और धनुष के कोने का एक सिरा उसके माथे को भेदकर ऊपर निकल गया। मानो माथे पर शिखा निकल आई हो। इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी वही मर गया। 

ब्राह्मण ने कहा - इसीलिए मैं कहता हूं कि अतिशय लोभ से माथे पर शिखा हो जाती है। 

ब्राह्मणी ने ब्राह्मण की क्या कहानी सुनने के बाद कहा - यदि यही बात है, तो मेरे घर में थोड़े से तिल पड़े हैं। उनका शोधन करके कूट छांटकर अतिथि को खिला देती हूं। 

ब्राह्मण उसकी बात से संतुष्ट होकर भिक्षा के लिए दूसरे गांव की ओर चल दिया। ब्राह्मणी ने भी वचनानुसार घर में पड़े तीलों को छांटना शुरू कर दिया। जब उसने तीलों को सुखाने के लिए धूप में फैलाया तो एक कुत्ते ने उन तीलों को मूत्र विष्ठा से खराब कर दिया। ब्राह्मणी बड़ी चिंता में पड़ गई। यही तिल थे, जिन्हें पकाकर उसे अतिथि को भोजन देना था। बहुत विचार के बाद उसने सोचा कि अगर वह इन शोधित तिलों के बदले अशोधित तिल मांगेगी, तो कोई भी दे देगा। इसके उच्छिष्ट होने का किसी को पता भी नहीं लगेगा। यह सोचकर वह उन छंटे हुए तिलों को छाज में रखकर घर घर घूमने लगी और कहने लगी कोई इन छंटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छंटे तिल दे दो। 

अचानक यह हुआ कि जिस घर में मैं भिक्षा के लिए गया था, उसी घर में वह भी तिलों को बेचने पहुंच गई और कहने लगी बिना छंटे हुए तिलों के स्थान पर छंटे हुए तिलों को ले लो। उस घर की गृह पत्नी जब यह सौदा करने जा रही थी, तब उसके लड़के ने जो अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था, कहा - माता! इन तिलों को मत लो। कौन पागल होगा जो बिना छंटे तिलों को लेकर छंटे हुए तिल देगा। यह बात निष्कारण नहीं हो सकती। अवश्यमेव इन छंटे हुए तिलों में कोई दोष होगा। 

पुत्र के कहने पर माता ने सौदा नहीं किया। 

यह कहानी सुनाने के बाद  बृहत्सिफक ने ताम्रचूड़ से पूछा - क्या तुम्हें उसके आने जाने का मार्ग मालूम है?

ताम्रचूड़ - भगवन वह तो मालूम नहीं। वह अकेला नहीं आता, दल - बल समेत आता है। उसके साथ ही वह आता है और साथ ही जाता है। 

 बृहत्सिफक - तुम्हारे पास कोई फावड़ा है?

ताम्रचूड़ ने कहा - हाँ, फावड़ा तो है। 

दोनों ने दूसरे दिन फावड़ा लेकर हमारे चूहों के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए बिल तक आने का निश्चय किया। मैं उनकी बातें सुनकर बड़ा चिंतित हुआ। मुझे विश्वास हो गया कि वह इस समय मेरे दुर्ग तक पहुंच कर फावड़े से उसे नष्ट कर देंगे। इसीलिए यह सोचकर मैं अपने दुर्ग की ओर न जाकर किसी अन्य स्थान की ओर चल देता हूं। इस तरह सीधा रास्ता छोड़कर दूसरे रास्ते से जब मैं सदल - बल जा रहा था, तो मैंने देखा कि एक मोटा बिल्ला आ रहा है। यह बिल्ला चूहों की मंडली देख कर उस पर टूट पड़ा। बहुत से चूहे मारे गए। बहुत से घायल हुए। एक भी चूहा ऐसा ना था जो लहूलुहान ना हुआ हो। उन सब ने इस विपत्ति का कारण मुझे ही माना। मैं ही उन्हें असली रास्ते के स्थान पर दूसरे रास्ते से ले जा रहा था। बाद में उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। वह सब पुराने दुर्ग में चले गए। 

इस बीच  बृहत्सिफक और ताम्रचूड़ भी फावड़ा समेत दुर्ग तक पहुंच गए। वहां पहुंच कर उन्होंने दुर्ग को खोदना शुरू कर दिया। खोदते- खोदते उनके हाथ में खजाना लग गया, जिसकी गर्मी से मैं बंदर और बिल्ली से भी अधिक उछल सकता था। खजाना लेकर दोनों ब्राह्मण मंदिर को लौट गए। मैं जब अपने दुर्ग को गया, तो उसे उजड़ा देख कर मेरा दिल बैठ गया। उसकी यह अवस्था देखी नहीं जाती थी। सोचने लगा क्या करूं? कहां जाऊं? मेरे मन को कहां शांति मिलेगी? 

बहुत सोचने के बाद मैं फिर निराशा में डूबा हुआ उसी मंदिर में चला गया, जहां ताम्रचूड़ रहता था। मेरे पैरों की आहट सुन ताम्रचूड़ ने फिर खूंटी पर टंगे भिक्षा पात्र को फटे बांस से पीटना शुरू कर दिया। बृहत्सिफक ने उससे पूछा - मित्र! अभी तू निश्चिंत होकर नहीं सोता। क्या बात है?

ताम्रचूड़ - भगवन! वह चूहा फिर यहां आ गया है। मुझे डर है मेरे भिक्षा शेष को वह फिर ना कहीं खा जाए। 

बृहत्सिफक - मित्र! अब डरने की कोई बात नहीं। धन के खजाने के छीनने के साथ उसके उछलने का उत्साह भी नष्ट हो गया। सभी जीवों के साथ ऐसा होता है। धन बल से ही मनुष्य उत्साही होता है, वीर होता है और दूसरों को पराजित करता है। यह सुनकर मैंने पूरे बल से छलांग मारी, किंतु खूंटी पर टंगे भिक्षा तक ना पहुंच सका और मुख के बल जमीन पर गिर पड़ा। मेरे गिरने की आवाज सुनकर मेरा शत्रु बृहत्सिफक ताम्रचूड़ से हंसकर बोला - देख ताम्रचूड़! इस चूहे को देख, खजाना छिन जाने के बाद वह फिर मामूली चूहा ही रह गया है। इसकी छलांग में अब वह वेग नहीं रहा जो पहले था। धन में बड़ा चमत्कार है। धन से ही सब बली होते हैं, पंडित होते हैं। धन के बिना मनुष्य की अवस्था दंत हीन सांप की तरह हो जाती है। 

धनाभाव में मेरी भी बड़ी दुर्गति हो गई। मेरे ही नौकर मुझे उलाहना देने लगे कि यह चूहा हमारा पेट पालने योग्य तो है नहीं। हां, हमें बिल्ली को खिलाने योग्य अवश्य है। यह कह कर उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। मेरे साथी मेरे शत्रुओं के साथ मिल गए। 

मैंने भी एक दिन सोचा कि मैं फिर मंदिर में जाकर खजाना पाने का यत्न करूंगा। इसमें मेरी मृत्यु भी हो जाए तो भी चिंता नहीं। यह सोचकर मैं फिर मंदिर में गया। मैंने देखा कि ब्राह्मण खजाने की पेटी को सिर के नीचे रख कर सो रहे हैं। मैं पेटी में छिद्र करके जब धन चुराने लगा, तो वे जाग गए। लाठी लेकर वह मेरे पीछे दौड़े। एक लाठी मेरे सिर पर लगी। आयु शेष थी, इसलिए मृत्यु नहीं हुई। किंतु घायल बहुत हो गया। सच तो यह है कि जो धन भाग्य में लिखा होता है, वह तो मिल ही जाता है। संसार की कोई शक्ति उसे हस्तगत होने में बाधा नहीं डाल सकती। इसी लिए मुझे कोई शक नहीं है, जो हमारे हिस्से का है, वह हमारा अवश्य होगा। 

इतनी कथा कहने के बाद हिरणयक ने कहा - इसीलिए मुझे वैराग्य हो गया है और इसीलिए मैं लघुपतनक की पीठ पर चढ़कर यहां आ गया हूं। 

मंथरक ने आश्वासन देते हुए कहा - मित्र! जवानी और धन की चिंता ना करो। जवानी और धन का उपयोग क्षणिक ही होता है। पहले धन के आर्जन में दुख है, फिर उसके संरक्षण में दुःख। जितने कष्टों से मनुष्य धन का संचय करता है, उससे शतांश कष्टों से भी यदि वह धर्म का संचय करें तो उसे मोक्ष मिल जाए। विदेश प्रवास का भी दुख मत करो। व्यवसाई के लिए कोई स्थान दूर नहीं, विद्वानों के लिए कोई विदेश नहीं और प्रियवादी के लिए कोई पराया नहीं। 

इसके अतिरिक्त धन कमाना तो भाग्य की बात है। भाग्य ना हो तो संचित धन भी नष्ट हो जाता है। अभागा आदमी अर्थ उपार्जन करके भी उसका भोग नहीं कर पाता, जैसे मूर्ख सोमिलक नहीं कर पाया था। 

हिरण्यक ने पूछा - कैसे?

मंथरक ने तब सोमिलक की यह कथा सुनाई।

भाग्यहीन नर पावत नाहीं 

अर्थस्योपार्जनं कृत्वा नैवाभोगं समश्नुते ।
करतलगतमपि नश्यति तु भवितव्यता नास्ति ॥ 

भाग्य में न हो तो हाथ में आए धन का भी उपभोग नहीं होता।
एक नगर में सोमिलक नाम का एक जुलाहा रहता था। विविध प्रकार के रंगीन और सुन्दर वस्त्र बनाने के बाद भी उसे भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन कभी प्राप्त नहीं होता था। अन्य जुलाहे मोटा-सादा कपड़ा बुनते हुए धनी हो गए थे। उन्हें देखकर एक दिन सोमिलक ने अपनी पत्नी से कहा-प्रिये! देखो मामूली कपड़ा बुनने वाले जुलाहों ने भी कितना धन-वैभव संचित कर लिया है। और मैं इतने सुन्दर, उत्कृष्ट वस्त्र बनाते हुए भी आज तक निर्धन ही हूँ। प्रतीत होता है, यह स्थान मेरे लिए भाग्यशाली नहीं है; अतः विदेश जाकर धनोपार्जन करूंगा।

सोमिलनक-पत्नी ने कहा-प्रियतम! विदेश में धनोपार्जन की कल्पना मिथ्या स्वप्न से अधिक नहीं। धन की प्राप्ति होनी हो तो स्वदेश में ही हो जाती है। न होनी हो तो हथेली में आया धन भी नष्ट हो जाता है। अतः यहीं रहकर व्यवसाय करते रहो, भाग्य में लिखा होगा तो यहीं धन की वर्षा हो जाएगी।
सोमिलक-भाग्य-अभाग्य की बात तो कायर लोग करते हैं। लक्ष्मी उद्योगी और पुरुषार्थी सिंह-नर को प्राप्त होती है। सिंह को भी अपने भोजन के लिए उद्यम करना पड़ता है। मैं भी उद्यम करूंगा; विदेश जाकर धन संचय काम करूँगा।
यह कहकर सोमितक वर्धमानपुर चला गया। वहाँ तीन वर्षों में अपने कौशल से 300 सोने की मुहरे नेकर वह घर की ओर चल दिया। रास्ता लम्बा था। आधे रास्ते में ही दिन ढल गया, शाम हो गई। आसपास कोई घर नहीं था। एक मोटे वृक्ष की शाखा के ऊपर चढ़कर रात बिताई। सोते-साते स्वप्न में आया कि दो भयंकर आकृति के पुरुष आपस में बात कर रहे हैं। एक ने कहा- हे पौरूष, तुझे क्या मालूम नहीं है कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक घन नहीं रह सकता; तब तूने इसे 300 मोहरें क्यों दीं?- दूसरा बोता-हे भाग्य! में तो प्रत्येक पुरुषार्थी को एक बार उसका फल दूँगा। उसे उसके पास रहने देना या नहीं रहने देना तेरे अधीन है।
स्वप्न के बाद सोमिलक की नींद खुली तो देखा मुहरों का पात्र खाली था। इतने कष्टों से संचित धन के इस तरह लुप्त हो जाने से सोमिलक बड़ा दुःखी हुआ और सोचने लगा, अपनी पत्नी को कौन-सा मुख दिखाऊँगा, मित्र क्या कहेंगे? यह सोचकर वह फिर वर्धमान को ही वापस आ गया। वहाँ दिन-रात घोर परिश्रम करके उसने वर्ष भर में ही 500 महरें जमा कर लीं। उन्हें लेकर वह घर की ओर आ रहा था कि आधे रास्ते रात पड़ गई। इस बार वह सोने के लिए ठहरा नहीं, चलता ही गया। किन्तु चलते-चलते ही उसने फिर दोनों-पौरुष और भाग्य-को पहले की तरह बातचीत करते सुना। भाग्य ने फिर वही बात कही-हे पौरुष! क्या तुझे मालूम नहीं कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता; तब तूने 500 मुहरे क्यों दीं? - पौरुप ने वहीं उत्तर दिया- हे भाग्य! में तो प्रत्येक व्यवसायी को एक बार उसका फल दूँगा ही, इससे आगे तेरे अधीन है; उसके पास रहने दें या छीन ले। इस बातचीत के बाद सोमिलक ने जब अपनी मुहरों वाली गठरी देखी तो वह मुहरों से खाली थी।
इस तरह दो बार खाली हाथ होकर सोमिलक का मन बहुत दुःखी हुआ। उसने सोचा- इस धनहीन जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है। आज इस वृक्ष की टहनी से रस्सी बाँधकर उस पर लटक जाता हूँ और यहीं प्राण दे देता हूँ।
गले में फंदा लगा, उसे टहनी से बाँधकर जब वह लटकने वाला ही था कि आकाशवाणी हुई-सोमिलक! ऐसा दुःसाहस मत कर। मैंने ही तेरे धन चुराया है। तेरे भाग्य में भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन का उपयोग नहीं लिखा है। व्यर्थ के धन संचय में अपनी शक्तियाँ नष्ट मत कर। घर जाकर सुख से रह । तेरे साहस से तो मैं प्रसन्न हूँ; तू चाहे तो एक वरदान माँग ले। मैं तेरी इच्छा पूरी करूँगा।
सोमिलक ने कहा- मुझे वरदान में प्रचुर धन दे दो।
अदृष्ट देवता ने उत्तर दिया-धन का क्या उपयोग? तेरे भाग्य में उसका उपभोग नहीं है। भोगरहित धन को लेकर क्या करेगा?
सोमिलक तो धन का भूखा था, बोला- भोग हो या न हो, मुझे धन ही चाहिए। बिना उपयोग या उपभोग के भी धन की बड़ी महिमा है। संसार में वही पूज्य माना जाता है, जिसके पास धन का संचय हो। कृपण और अकुलीन भी समाज में आदर पाते हैं। संसार उनकी ओर आशा लगाए बैठा रहता है; जिस तरह वह गीदड़ बैल से आशा रखकर उसके पीछे पन्द्रह दिन तक घूमता रहा।
भाग्य ने पूछा- किस तरह?
सोमिलक ने फिर बैल और गीदड़ की यह कहानी सुनाई।

 उड़ते के पीछे भागना 

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि ।।

जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के पीछे भटकता है,
उसका निश्चित धन भी नष्ट हो जाता है।

एक स्थान पर तीक्ष्णविषाण नाम का एक बैल रहता था। बहुत उन्मत्त होने के कारण उसे किसान ने छोड़ दिया था। अपने साथी बैलों से भी छूटकर जंगल में ही मतवाले हाथी की तरह बेरोक-टोक घूमा करता था।

उसी जंगल में प्रलोभक नाम का एक गीदड़ भी था। एक दिन वह अपनी पत्नी सहित नदी के किनारे बैठा था कि वह बैल वहीं पानी पीने आ गया। बेल के मांसल कन्धों पर लटकते हुए मांस को देखकर गीदड़ी ने गीदड़ से कहा-स्वामी, इस बैल की लटकती हुई लोथ को देखो। न जाने किस दिन यह जमीन पर गिर जाए। इसके पीछे-पीछे जाओ-जब यह ज़मीन पर गिरे, ले आना।

गीदड़ ने उत्तर दिया-प्रिये! न जाने यह लोथ गिरे या न गिरे। कब तक इसका पीछा करूँगा? इस व्यर्थ के काम में मुझे मत लगाओ। हम यहाँ चैन से बैठे हैं। जो चूहे इस रास्ते से जाएँगे, उन्हें मारकर ही हम भोजन कर लेंगे। तुझे यहाँ अकेली छोड़कर जाऊँगा तो शायद कोई दूसरा गी ही इस घर को अपना बना ले। अनिश्चित लाभ की आशा में निश्चित वस्तु का परित्याग कभी अच्छा नहीं होगा।

गीदड़ी बोली- मैं नहीं जानती थी कि तू इतना कायर और आलसी है। तुझमें इतना भी उत्साह नहीं है। जो थोड़े से धन से सन्तुष्ट हो जाता है, वह थोड़े से धन को भी गँवा बैठता है। इसके अतिरिक्त अब मैं चूहे के माँस से ऊब गई हूँ। बैल के ये मांस-पिण्ड अब गिरने ही वाले दिखाई देते हैं। इसलिए अब इसका पीछा करना चाहिए।

तब से गीदड़-गीदड़ी दोनों बैल के पीछे घूमने लगे। उनकी आँखें उसके लटकते मांस-पिण्ड पर लगी थीं, लेकिन वह मांस-पिण्ड 'अब गिरा, तब गिरा', लगते हुए भी गिरता नहीं था। अन्त में दस-पन्द्रह दिन इसी तरह बैल का पीछा करने के बाद एक दिन गीदड़ ने कहा-प्रिये! न मालूम यह गिरे भी या नहीं, इसलिए अब इसकी आशा छोड़कर अपनी राह लो।

कहानी सुनने के बाद पौरुष ने कहा- यदि यही बात है, धन की इच्छा इतनी ही प्रबल है, तो तू फिर वर्धमानपुर चला जा। वहाँ दो बनियों के पुत्र हैं, एक गुप्तधन, दूसरा उपभुक्तधन। इन दोनों प्रकार के धनों का स्वरूप जानकर तू किसी एक का वरदान माँगना। यदि तू उपयोग की योग्यता के "तू बिना धन चाहेगा तो तुझे गुप्तधन दे दूंगा। और यदि खर्च के लिए धन चाहेगा तो उपभुक्त धन दे दूँगा।

यह कहकर वह देवता लुप्त हो गया। सोमिलक उसके आदेशानुसार फिर वर्धमान पुर पहुँचा। शाम हो गई थी। पूछता-पाछता वह गुप्तधन के घर चला गया। घर पर उसका किसी ने सत्कार नहीं किया। इसके विपरीत उसे भला-बुरा कहकर गुप्तधन और उसकी पत्नी ने घर से बाहर धकेलना चाहा। किन्तु सोमिलक अपने संकल्पों का पक्का था। सबके विरुद्ध होते हुए भी वह घर में घुसकर जा बैठा। भोजन के समय उसे गुप्तधन ने रूखी-सूखी रोटी दे दी। उसे खाकर वह वहीं सो गया। स्वप्न में उसने फिर दोनों देव देखें। वे बातें कर रहे थे। एक कह रहा था-हे पोरुष! तूने गुप्तधन को भोग्य से इतना अधिक धन क्यों दे दिया कि उसने सोमिलक को भी रोटी गुप्तधन को दे दी। - पौरुष ने उत्तर दिया- मेरा इसमें दोष नहीं। मुझे पुरुष के हाथों धर्म-पालन करवाना ही है, उसका फल देना तेरे अधीन है।

दूसरे दिन गुप्तधन पेचिस से बीमार हो गया और उसे उपवास करना पड़ा। इस तरह उसकी क्षतिपूर्ति हो गई।

सोमिलक अगले दिन सुबह उपभुक्तधन के घर गया। वहाँ उसने भोजनादि द्वारा उसका सत्कार किया। सोने के लिए सुन्दर शय्या भी दी। सोते-सोते उसने फिर सुना, वही दोनों देव बातें कर रहे थे। एक कह रहा था-हे पौरुष! इसने सोमिलक का सत्कार करते हुए बहुत धन व्यय कर दिया है। अब इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी?-दूसरे ने कहा- हे भाग्य! सत्कार के लिए धन व्यय करना मेरा धर्म था, इसका फल देना तेरे अधीन है।

सुबह होने पर सोमिलक ने देखा कि राजदरबार से एक राजपुरुष राजप्रसाद के रूप में धन की भेंट लाकर उपभुक्तधन को दे रहा था। यह देखकर सोमिलक ने विचार किया कि यह संचयरहित उपयुक्त धन ही गुप्तधन से श्रेष्ठ है। जिस धन का दान कर दिया जाए या सत्कार्यों में व्यय कर दिया जाए वह धन संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है।

मन्थरक ने ये कहानियाँ सुनाकर हिरण्यक से कहा कि इस कारण तुझे भी धन-विषयक चिन्ता नहीं करनी चाहिए। तेरा जमीन में गड़ा हुआ खजाना चला गया तो जाने दे। भोग के बिना उसका तेरे लिए उपयोग भी क्या था । उपार्जित धन का सबसे अच्छा संरक्षण यह है कि उसका दान कर दिया जाए। शहद की मक्खियाँ इतना मधु संचय करती हैं, किन्तु उपयोग नहीं कर सकतीं। इस संचय से क्या लाभ?

मन्थरक कछुआ, लघुपतनक कौवा और हिरण्यक चूहा वहाँ बैठे-बैठे यही बातें कर रहे थे कि वहाँ चित्राँग नाम का हरिण कहीं से दौड़ता-हाँफता आ गया। एक व्याघ उसका पीछा कर रहा था। उसे आता देखकर कौवा उड़कर वृक्ष की शाखा पर बैठ गया। हिरण्यक पास के बिल में घुस गया और मन्थरक तालाब के पानी में जा छिपा।

कोवे ने हरिण को अच्छी तरह देखने के बाद मन्थरक से कहा-मित्र मन्थरक! यह तो हरिण के आने की आवाज है। एक प्यासा हरिण पानी पीने के लिए तालाब पर आया है। उसी का यह शब्द है, मनुष्य का नहीं।

मन्थरक- यह हरिण बार-बार पीछे मुड़कर देख रहा है और डरा हुआ-सा है। इसलिए यह प्यास नहीं, बल्कि व्याध के डर से भागा हुआ है। देख तो सही इसके पीछे व्याध आ रहा है या नहीं।

दोनों की बात सुनकर चित्राँग हरिण बोला-मन्थरक! मेरे भय का कारण तुम जान गए हो। मैं व्याध के बाणों से डरकर बड़ी कठिनाई से यहाँ पहुँच पाया हूँ। तुम मेरी रक्षा करो। अब तुम्हारी शरण में हूँ। मुझे कोई ऐसी जगह बतलाओ जहाँ व्याध न पहुँच सके।

मन्थरक ने हरिण को घने जंगलों में भाग जाने की सलाह दी। किन्तु लघुपतनक ने ऊपर से देखकर बतलाया कि व्याध दूसरी दिशा में चले गए हैं, इसलिए अब डर की कोई बात नहीं है। इसके बाद चारों मित्र तालाब के किनारे वृक्षों की छाया में मिलकर देर तक बातें करते रहे।

कुछ समय बाद एक दिन जब कछुआ, कौवा और चूहा बातें कर रहे थे, शाम हो गई। बहुत देर बाद भी हरिण नहीं आया तीनों को सन्देह होने लगा कि कहीं वह व्याध के जाल में तो नहीं फँस गया; अथवा शेर, बाघ आदि ने उस पर हमला न कर दिया हो। घर में बैठे स्वजन अपने प्रवासी प्रियजनों के सम्बन्ध में सदा शकित रहते हैं।

बहुत देर तक भी चित्राँग हरिण नहीं आया तो मन्थरक कछुए ने लघुपतनक कौवे को जंगल में जाकर हरिण को खोजने की सलाह दी। लघुपतनक ने कुछ दूर जाकर ही देखा कि वहाँ चित्राँग एक जाल में बँधा हुआ है। लघुपतनक उसके पास गया। उसे देखकर चित्राँग की आँखों में आँसू आ गए। वह बोला- अब मेरी मृत्यु निश्चित है। अन्तिम समय में तुम्हारे दर्शन करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। प्राण-विसर्जन के समय मित्र-दर्शन बड़ा सुखद होता है। मेरे अपराध क्षमा करना।

लघुपतनक ने धीरज बाँधते हुए कहा-घबराओ मत। मैं अभी हिरण्यक चूहे को बुला लाता हूँ। वह तुम्हारे जाल काट देगा।

यह कहकर वह हिरण्यक के पास चला गया और शीघ्र ही उसे पीठ पर बिठाकर ले आया। हिरण्यक अभी जाल काटने की विधि सोच ही रहा था कि लघुपतनक ने वृक्ष के ऊपर से दूर पर किसी को देखकर कहा-यह तो बहुत बुरा हुआ।

हिरण्यक ने पूछा- क्या कोई व्याध आ रहा है?

लघुपतनक- नहीं, व्याध तो नहीं, किन्तु मन्थरक कछुआ इधर चला आ रहा है।

हिरण्यक - तब तो खुशी की बात है। दुःखी क्यों होता है?

लघुपतनक - दुःखी इसलिए होता हूँ कि व्याध के आने पर मैं ऊपर उड़ जाऊँगा, हिरण्यक बिल में घुस जाएगा, चित्राँग भी छलाँगें मारकर घने जंगल में घुस जाएगा; लेकिन यह मन्थरक कैसे अपनी जान बचाएगा? यही सोचकर चिन्तित हो रहा हूँ।

मन्थरक के वहाँ आने पर हिरण्यक ने मन्थरक से कहा- मित्र! तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया। अब भी वापस लौट जाओ, कहीं व्याध न आ जाए।

मन्थरक ने कहा-

मित्र! मैं अपने मित्र को आपत्ति में जानकर वहाँ नहीं रह सका। सोचा उसकी आपत्ति में हाथ बंटाऊँगा, तभी चला आया ।

ये बातें हो ही रही थीं कि उन्होंने व्याध को उसी ओर आते देखा। उसे देखकर चूहे ने उसी क्षण चित्राँग के बन्धन काट दिए। चित्राँग भी उठकर घूम-घूमकर पीछे देखता हुआ आगे भाग खड़ा हुआ। लघुपतनक वृक्ष पर उड़ गया। हिरण्यक पास के बिल में घुस गया।

व्याध अपने जाल में किसी को न पाकर बड़ा दुःखी हुआ। वहाँ से वापस जाने का मुड़ा ही था कि उसकी दृष्टि धीरे-धीरे जाने वाले मन्थरक पर पड़ गई। उसने सोचा, आज हरिण तो हाथ आया नहीं, कछुए को ही ले चलता हूँ। कछुए को ही आज भोजन बनाऊँगा। उससे ही पेट भरूँगा- यह सोचकर वह कछुए को कन्धे पर डालकर चल दिया। उसे ले जाते देख हिरण्यक और लघुपतनक को बड़ा दुःख हुआ। दोनों मित्र मन्थरक को बड़े प्रेम और आदर से देखते थे। चित्राँग ने भी मन्थरक को व्याध के कन्धों पर देखा तो व्याकुल हो गया। तीनों मित्र मन्थरक की मुक्ति का उपाय सोचने लगे।

कौए ने एक उपाय ढूँढ निकाला। वह यह कि चित्राँग व्याध के मार्ग में तालाब के किनारे जाकर लेट जाए। मैं तब उसे चोंच मारने लगूँगा। व्याध समझेगा कि हरिण मरा हुआ। वह मन्थरक को ज़मीन पर रखकर इसे लेने के लिए जब आएगा तो हिरण्यक जल्दी-जल्दी मन्थरक के बन्धन काट दें। मन्थरक तालाब में घुस जाए और चित्राँग छलाँगें मारकर घने जंगल में चला जाए। मैं उड़कर वृक्ष पर चला ही जाऊँगा। सभी बच जाएँगे, मन्थरक भी छूट जाएगा।

तीनों मित्रों ने यही उपाय किया। चित्राँग तालाब के किनारे मृतवत् जा लेटा। कौवा उसकी गर्दन पर सवार होकर चोंच चलाने लगा। व्याध ने देखा तो समझा कि हरिण जाल से छूटकर दौड़ता-दौड़ता यहाँ मर गया है। उसे लेने के लिए वह जालवद्ध कछुए को जमीन पर छोड़कर आगे बढ़ा तो हिरण्यक ने अपने वज्र समान तीखे दाँतों से जाल के बन्धन काट दिए। मन्थरक पानी में घुस गया चित्राँग भी दौड़ गया।

व्याध ने चित्राँग को हाथ से निकलकर जाते देखा तो आश्चर्य में डूब गया। वापस जाकर जब उसने देखा कि कछुआ भी जाल से निकलकर भाग गया है। तब उसके दुःख की सीमा न रही। वहीं एक शिला पर बैठकर विलाप करने लगा।

दूसरी ओर चारों मित्र, लघुपतनक, मन्थरक, हिरण्यक और चित्राँग प्रसन्नता से फूले न समाते थे। मित्रता के बल पर ही चारों ने व्याध से मुक्ति पाई थी।

मित्रता में बड़ी शक्ति है। मित्र संग्रह करना जीव की सफलता में बड़ा सहायक है। विवेकी व्यक्ति को सदा मित्र प्राप्ति में प्रयत्नशील रहना चाहिए।

उल्लू का अभिषेक

एक एव हितार्थाय तेजस्वी पार्थिवो भुवः

एक राजा के रहते दूसरे को राजा बनाना उचित नहीं 

एक बार हंस, तोता, बगुला, कोयल, चातक, कबूतर, उल्लू आदि सब पक्षियों ने सभा करके यह सलाह की कि उनका राजा वैनतेय केवल वासुदेव की भक्ति में लगा रहता है, व्याधों से उनकी रक्षा का कोई उपाय नहीं करता, इसलिए पक्षियों का कोई अन्य राजा चुन लिया जाए। कई दिनों की बैठक के बाद सबने यह सम्मति से सर्वांग सुन्दर उल्लू को राजा चुना।

अभिषेक की तैयारियाँ होने लगी। विविध तीर्थों से पवित्र जल मंगाया गया, सिंहासन पर रत्न जड़े गए, स्वर्णघट भरे गए, मंगलपाठ शुरू हो गया, ब्राह्मणों ने वेद-पाठ शुरू कर दिया, नर्तकियों ने नृत्य की तैयारी कर ली; उलूकराज राज्यसिंहासन पर बैठने ही वाले थे कि कहीं से एक कौवा आ गया।

कौवे ने सोचा, यह समारोह कैसा? यह उत्सव किसलिए? पक्षियों ने भी कौवे को देखा तो आश्चर्य में पड़ गए। उसे तो किसी ने बुलाया ही नहीं था। फिर भी उन्होंने सुन रखा था कि कौवा सबसे चतुर कूट राजनीतिज्ञ पक्षी है; इसलिए उससे मन्त्रणा करने के लिए सब पक्षी उसके चारों ओर इकट्ठे हो गए।

उलूकराज ने राज्याभिषेक की बात सुनकर कौवे ने हँसते हुए कहा-यह चुनाव ठीक नहीं हुआ। मोर, हँस, कोयल, सारस, चक्रवाक, शुक आदि सुन्दर पक्षियों के रहते दिवान्ध उल्लू और टेढ़ी नाक वाले अप्रियदर्शी पक्षी को राजा बनाना उचित नहीं है। वह स्वभाव से ही रौद्र है और कटुभाषी है। फिर अभी तो वैनतेय राजा बैठा है। एक राजा के रहते दूसरे को राज्यासन देना विनाशक है। पृथ्वी पर एक ही सूर्य होता है; वह अपनी आभा से सारे संसार की प्रकाशित कर देता है। एक से अधिक सूर्य होने पर प्रलय हो जाती है। प्रलय में बहुत-से सूर्य निकल आते हैं; उनसे संसार में विपत्ति ही आती है, कल्याण नहीं।

राजा एक ही होता है। उसके नाम-कीर्तन से ही काम बन जाते हैं, चन्द्रमा के नाम से ही खरगोशों ने हाथियों से छुटकारा पाया था।

पक्षियों ने पूछा- कैसे?

कौवे ने तब खरगोश और हाथी की यह कहानी सुनाई।

बड़े नाम की महिमा

गजराज और मूषकराज

20 comments:

  1. नई खोज वंई कहानी

    मानव पंचतत्व से बने इसी मै मिल जायेगे
    यही सनातन सत्य है

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  2. पंचतंत्र में बहुत अच्छी कहानियां है

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  3. Panchtanra pandit Vishnu Sharma द्वारा रचित कहानी संग्रह है।जो राजा अमर शक्ति के तीन मूर्ख पुत्रों को कुशल प्रशासक बनाने हेतु रची व सुनाई गई थी।

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  4. शायद ही बच्चों को ये कहानियां पढ़ने को मिलती। हैरी पॉटर, बैटमैन आदि के समय में इन कहानियों को जीवंत रखना थोड़ा मुश्किल है। ऐसे में ये प्रयास बहुत ही सराहनीय है। कहानियों को पढ़ने का इंतज़ार रहेगा।

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  5. मुझे भी काफी समय से पंचतंत्र को पढ़ने की इच्छा थी। अब इस ब्लॉग के माध्यम से इसकी कहानियां पढ़ने को मिलेंगी।
    बहुत ही उत्तम प्रयास।

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  6. अच्छा रहेगा.. अच्छा प्रयास,बचपन में कुछ कहानियां पढ़ी हुई है पर भूल गया है अब तरोताजा हो जाएगा😄

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  7. इतनी अद्भुत कहानी से औगत कराने के लिए आप का कोटि कोटि धन्यवाद🙏🙏

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  8. पंचतंत्र की कथाओं का इंतजार रहेगा..

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