वैश्या और सन्यासी

वैश्या और सन्यासी

एक वैश्या मरी और उसी दिन उसके सामने रहने वाला बूढ़ा सन्यासी भी मर गया,संयोग की बात है। देवता लेने आए सन्यासी को नरक में और वैश्या को स्वर्ग में ले जाने लगे। संन्यासी एक दम अपना डंडा पटक कर खड़ा हो गया, तुम ये कैसा अन्याय कर रहे हो? मुझे नरक में और वैश्या को स्वर्ग में ले जा रहे हो,जरूर कोई भूल हो गई है तुमसे। कोई दफ्तर की गलती रही होगी, पूछताछ करो।

वैश्या और सन्यासी

मेरे नाम आया होगा स्वर्ग का संदेश और इसके नाम नर्क का। मुझे परमात्मा का सामना कर लेने दो, दो दो बातें हो जाए, सारा जीवन बीत गया शास्त्र पढ़ने में और ये परिणाम। मुझे नाहक परमात्मा ने धोखे में डाला। उसे परमात्मा के पास ले जाया गया।

परमात्मा ने कहा इसके पीछे एक गहन कारण है। वैश्या शराब पीती थी, भोग में रहती थी, पर जब तुम मंदिर में बैठकर भजन गाते थे, धूप दीप जलाते थे, घंटियां बजाते थे, तब वह सोचती थी कब मेरे जीवन में यह सौभाग्य होगा? मैं मंदिर में बैठकर भजन कर पाऊंगी कि नहीं। वह ज़ार जार रोती थी और तुम्हारे धूप दीप की सुगंध जब उसके घर में पहुंचती थी, तो वह अपना अहोभाग्य समझती थी। घंटियों की आवाज सुनकर मस्त हो जाती थी। 

लेकिन तुम्हारा मन पूजापाठ करते हुए भी यही सोचता कि वैश्या है तो सुंदर पर वहां तक कैसे पंहुचा जाए? तुम हिम्मत नहीं जुटा पाए। तुम्हारी प्रतिष्ठा आड़े आई--गांव भर के लोग तुम्हें संयासी मानते थे।जब वैश्या नाचती थी, शराब बंटती थी, तुम्हारे मन में वासना जगती थी। 

तुम्हें रस्क था। खुद को अभागा समझते रहे। इसलिए वैश्या को स्वर्ग लाया गया और तुम्हें नरक में। वेश्या को विवेक पुकारता था तुम्हें वासना। वह प्रार्थना करती थी तुम इच्छा रखते थे वासना की। वह कीचड़ में थी पर कमल की भांति ऊपर उठती गई और तुम कमल बनकर आए थे कीचड़ में धंसे रहे। असली सवाल यह नहीं कि तुम बाहर से क्या हो? असली सवाल तो यह है कि तुम भीतर से क्या हो? भीतर ही निर्णायक है।

भारतीय राज्य के राजकीय फूल की सूची || List of State Flowers of India ||

भारतीय राज्य के राजकीय फूलों की सूची (List of State Flowers of India)

पिछले कुछ अंकों में हमने भारत के सभी राज्यों के राजकीय पशुओं के बारे में पढ़ा। आगे के अंकों में भारत राज्य के राजकीय फूलों के बारे में चर्चा करेंगे।

भारतीय राज्य के राजकीय फूलों की सूची (List of State Flowers of India)

भारत, आधिकारिक भारत गणराज्य एक दक्षिण एशियाई देश है। यह 28 राज्यों और 8 केन्द्र शासित प्रदेशों से मिलकर बना है। हर राज्य की अपनी अलग जलवायु, कला-संस्कृति, पहनावा और खान-पान है। प्रत्येक भारतीय राज्य द्वारा अपनी पहचान के लिए अलग-अलग प्रतीक निर्धारित किये गए हैं। इस लेख में भारत के सभी राज्य के राजकीय फूलों का विवरण प्रस्तुत है :-

राज्य                प्रचलित नाम वैज्ञानिक नाम


असम                 फॉक्सटेल ऑर्किड     राइन्कोस्टाइलिस रेटुसा
गोवा                          रेड जास्मिन
गुजरात                 अफ्रीकन मेरीगोल्ड
हरियाणा                 कमल                 Nelumbo nucifera
हिमाचल प्रदेश         बुरांस
जम्मू और कश्मीर बुरांस                 Rhododendron ponticum
झारखंड                 पलाश                 Butea monosperma
कर्नाटक                 कमल                Nelumbo nucifera
केरल                 अमलतास         Cassia fistula
लक्षद्वीप
मेघालय                   खोंगुप लेई        Paphiopedilum hirsutissimum
मध्य प्रदेश           white lilly         Lilium candidum
महाराष्ट्र                   जरुल                 Lagerstroemia speciosa
मणिपुर                   सिरोय कुमुदिनी Lilium mackliniae
मिज़ोरम                    लाल वांडा
नागालॅण्ड                    बुरांस
उड़ीसा                    सीता अशोक         Saraca indica
पॉण्डिचेरी
पंजाब
राजस्थान                    रोहेड़ा                 Tecomella undulata
सिक्किम                    येरूम लेयी         Cymbidium goeringii
तमिलनाडु            करी हरी                 Gloriosa superba
त्रिपुरा                    नाग केसर          Mesua ferrea
उत्तरांचल                    ब्रह्मकमल          sosuria abveleta
उत्तर प्रदेश             पलास या टेसू  Butea monosperma
पश्चिम बंगाल             प्राजक्ता          Nyctanthes arbor-tristis

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..अनुभव

मानसरोवर-1 ..अनुभव 

अनुभव - मुंशी प्रेमचंद | Anubhav by Munshi Premchand

प्रियतम को एक वर्ष की सजा हो गयी। और अपराध केवल इतना था, कि तीन दिन पहले जेठ की तपती दोपहरी में उन्होंने राष्ट्र के कई सेवकों को शर्बत-पान से सत्कार किया था। मैं उस वक़्त अदालत में खड़ी थी। कमरे के बाहर सारे नगर की राजनीतिक चेतना किसी बन्दी पशु की भाँति खड़ी चीत्कार कर रही थी। मेरे प्राणधन हथकड़ियों से जकड़े हुए लाये गये। चारों ओर सन्नाटा छा गया। मेरे भीतर हाहाकार मचा हुआ था, मानो प्राण पिघले जा रहे हों। आवेश की लहरें उठ-उठकर समस्त शरीर को रोमांचित कियें देती थी। ओह! इतना गर्व मुझे कभी न हुआ था। वह अदालत, कुर्सी पर बैठा अंग्रेज अफसर, लाल जरीदार पगड़ियाँ बाँधे हुए पुलिस के कर्मचारी, सब मेरी आँखों से तुच्छ जान पड़ते थे। बार-बार जी मे आता था, दौड़कर जीवनधन के चरणों से लिपट जाऊँ और उसी दशा में प्राण-त्याग दूँ। कितनी शाँत, अविचलित तेज और स्वाभिमान से प्रतीप्त मूर्ति थी। ग्लानि, विषाद या शोक की छाया भी न थी। नहीं, उन ओठों पर एक स्फर्ति से भरी हुई, मनोहारिणी, ओजस्वी मुस्कान थी। इस अपराध के लिए एक वर्ष का कठिन कारावास! वाह रे न्याय! तेरी बलिहारी हैं। मैं ऐसे हजार अपराध करने को तैयार थी। प्राणनाथ ने चलते समय एक बार मेरी ओर देखा; कुछ मुस्कराये, फिर उनकी मुद्रा कठोर हो गयी। अदालत से लौटकर मैंने पाँच रुपये की मिठाई मँगवायी और स्वयंसेवकों को बुलाकर खिलायी और संध्या समय मैं पहली बार कांग्रेस के जलसे में शरीक हुआ; -शरीक ही नहीं हुई, मंच पर जाकर बोली और सत्याग्रह की प्रतिज्ञा ले ली। मेरी आत्मा में इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी, नहीं कह सकती। सर्वस्व लुट जाने के बाद फिर किसका डर? विधाता का कठोर-से-कठोर आघात भी अब मेरा क्या अहित कर सकता था?

अनुभव - मुंशी प्रेमचंद | Anubhav by Munshi Premchand

दूसरे दिन मैंने दो तार दिये- एक पिताजी को, दूसरा ससुरजी को। ससुरजी पेंशन पाते थे। पिताजी जंगल के महकमें में अच्छे पद पर थे; पर सारा दिन गुज़र गया, तार का जवाब नदारद! दूसरे दिन भी कोई जवाब नहीं। तीसरे दिन दोनों महाशय के पत्र आये। दोनों ज़ामें से बाहर थे। ससुरजी ने लिखा- आशा थी, तुम लोग बुढ़ापे में मेरा पालन करोगे। तुमने उस आशा पर पानी फेर दिया। क्या अब चाहती हो, मैं भिक्षा माँगू ? मैं सरकार से पेंशन पाता हूँ । तुम्हें आश्रय देकर मैं अपनी पेंशन से हाथ नही धो सकता। पिताजी के शब्द इतने कठोर न थे; पर भाव लगभग ऐसा ही था। इसी साल उन्हें ग्रेड मिलनेवाला था। वह मुझे बुलायेंगे, तो सम्भव हैं, ग्रेड से वंचित होना पड़े। हाँ, वह मेरी सहायता मौखिक रूप से करने को तैयार थे। मैने दोनो पत्र फाड़कर फेक दिये और फिर उन्हें कोई पत्र न लिखा। हा स्वार्थ! तेरी माया कितनी प्रबल है। अपना ही पिता, केवल स्वार्थ में बाधा पड़ने के भय से, लड़को की तरफ से इतना निर्दय हो जाय? अपना ही ससुर, अपनी ही बहू की ओर से इतना उदासीन हो जाय! मगर अभी मेरी उम्र ही क्या है? अभी तो सारी दुनिया देखने को पड़ी है।

अब तक मैं अपने विषय में निश्चिंत थी; लेकिन अब यह नयी चिंता सवार हुई। इस निर्जन घर में, निराधार, निराश्रय, कैसे रहूँगी ; मगर जाऊँगी कहाँ! अगर कोई मर्द होती, तो कांग्रेस के आश्रय में चली जाती या कोई मजदूरी कर लेती। मेरे पैरो में नारीत्व की बेड़ियाँ पड़ी हुई थी। अपनी रक्षा की इतनी चिंता न थी, जितनी अपने नारीत्व की रक्षा की। अपनी जान की फ्रिक न थी; पर नारीत्व की ओर किसी की आँख भी न उठनी चाहिए।

किसी की आहट पाकर मैने नीचे देखा। दो आदमी खड़े थे। जी में आया, पूछूँ, तुम कौन हो। यहाँ क्यों खड़े हो? मगर फिर ख्याल आया, मुझे यह पूछने का क्या हक़? आम रास्ता है। जिसका जी चाहे, खड़ा हो।

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्रपर मुझे खटका हो गया। उस शंका को किसी तरह दिल से न निकाल सकती थी। वह एक चिनगारी की भाँति हृदय के अंदर समा गयी थी।

गर्मी से देह फुँकी जाती थी, पर मैंने कमरे का द्वार भीतर से बन्द कर लिया। घर में एक बड़ा-सा चाकू था। उसे निकालकर सिरहाने रख लिया। वह शंका सामने बैठी घूरती हुई मालूम होती थी।

किसी ने पुकारा। मेरे रोये खड़े हो गये। मैने द्वार से कान लगाया। कोई मेरी कुंडी खटखटा रहा था। कलेजा धक्-धक् करने लगा। वही दोनो बदमाश होगे। क्यों कुंडी खडखड़ा रहे हैं? मुझसे क्या काम हैं? मुझे झुँझलाहट आ गयी। मैने द्वार न खोला और छज्जे पर खड़ी होकर जोर से बोली- कौन कुंड़ी खड़खड़ा रहा हैं?

आवाज सुनकर मेरी शंका शांत हो गयी। कितना ढारस हो गया! यह बाबू ज्ञानचन्द थे। मेरे पति के मित्रों में इनसे ज्यादा सज्जन दूसरा नहीं हैं। मैंने नीचे जाकर द्वार खोल दिया। देखो तो एक स्त्री भी थी। वह मिसेज ज्ञानचन्द थी। यह मुझसे बड़ी थी। पहले-पहले मेरे घर आयी थी। मैंने उनके चरण-स्पर्श किये! हमारे यहाँ मित्रता मर्दो तक रहती हैं, औरतों तक नही जाने पाती।

दोनो जने ऊपर आये। ज्ञानबाबू एक स्कूल में मास्टर हैं। बड़े उदार, विद्वान, निष्कपट; पर आज मुझे मालूम हुआ कि उनकी पथ-प्रदर्शिका उनकी स्त्री हैं। वह दोहरे बदन की प्रतिभाशाली महिला थी। चेहरे पर ऐसा रौब था, मानो कोई रानी हो। सिर से पाँव तक गहनों से लदी हुई। मुख सुन्दर न होने पर भी आकर्षक था। शायद मैं उन्हें कहीं और देखती, तो मुँह फेर लेती। गर्व की सजीव प्रतिमा थीं; पर बाहर जितनी कठोर, भीतर उतनी ही दयालु।

‘घर कोई पत्र लिखा?‘ – यह प्रश्न उन्होंने कुछ हिचकते हुए किया।

मैने कहा- ‘हाँ, लिखा था।’

‘कोई लेने आ रहा हैं?’

‘जी नहीं। न पिताजी अपने पास रखना चाहते है, न ससुरजी।’

‘तो फिर?’

‘फिर क्या, अभी तो यही पड़ी हूँ ।’

‘तो मेरे घर क्यो नहीं चलती। अकेले तो इस घर में मैं न रहने दूँगी ।’

‘खुफिया के दो आदमी इस वक़्त भी डटे हुए हैं।’

‘मैं पहले ही समझ गयी थी, दोनो खुफिया के आदमी होंगे।’

ज्ञानबाबू ने पत्नी की ओर देखकर, मानो उसकी आज्ञा से कहा- तो मैं जाकर ताँगा लाऊ ?

देवीजी ने इस तरह देखा, मानो कह रही हो, क्या अभी तुम यहीं खड़े हो?

मास्टर साहब चुपके से द्वार की ओर चले।

‘ठहरो!‘ देवीजी बोली- ‘कै ताँगे लाओगे?’

‘‘कै !‘ मास्टर साहब घबरा गए।

‘हाँ कै! ! एक ताँगे पर दो-तीन सवारियाँ ही बैठेगी। सन्दूक, बिछावनस बर्तन-भाँड़े क्या मेरे सिर पर जाएँगे?’

‘तो दो लेता आऊँगा ।‘ – मास्टर साहब डरते-डरते बोले।

‘एक ताँगे में कितना सामान भर दोगे?’

‘तो तीन लेता आऊँ?’

‘‘अरे, तो जाओगे भी। जरा-सी बात के लिए घंटा भर लगा दिया।’

मै कुछ कहने न पायी थी कि ज्ञानबाबू चल दिये। मैने सकुचाते हुए कहा बहन, तुम्हें मेरे जाने से कष्ट होगा और…

देवीजी ने तीक्षण स्वर में कहा हाँ, होगा तो अवश्य। तुम दोनो जून -दो-तीन पाव आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, सिर में दो-तीन आने का तेल डालोगी। यह क्या थोडा कष्ट हैं।

मैने झेपते हुए कहा- आप तो मुझे बना रही हैं।

देवीजी ने सहृदय भाव से मेरा कन्धा पकड़कर रहा- जब तुम्हारे बाबूजी लौट आयें, तो मुझे भी अपने घर मेहमान रख लेगा। मेरा घाटा पूरा हो जाएगा। अब तो राजी हुई। चलो, असबाव बाँधो। खाट-वाट कल मँगवा लेंगे।

मैने ऐसी सहृदय, उदार, मीठी बातें करनेवाली स्त्री नही देखी। मैं उनकी छोटी बहन होती, तो भी शायद इससे अच्छी तरह न रखतीं। चिन्ता या क्रोध को तो जैसे उन्होंने जीत लिया हो। सदैव उनके मुख पर मधुर विनोद खेला करता था। कोई लड़का-बाला न था, पर मैं उन्हें कभी दु:खी नहीं देखा। ऊपर के काम लिए एक लौंडा रख लिया था। भीतर का सारा काम खुद करती। इतना कम खाकर और इतनी मेहनत करके वह कैसे इतनी हृष्ट- पुष्ट थीं, मै नही कहती सकती। विश्राम तो जैसे उनके भाग्य ही में नहीं लिखा था। जेठ की दोपहरी में भी न लेटती थीं। हाँ, मुझे कुछ न करने देती, उसपर जब देखो, कुछ खिलाने को सिर पर सवार। मुझे यहाँ बस यहीं एक तकलीफ थी।

मगर आठ ही दिन गुजरे थे कि एक दिन मैने उन्हीं दोनो खुफियों को नीचे बैठा देखा। मेरा माथा ठनका। यह अभागे यहाँ भी मेरे पीछे पड़े हैं। मैने तुरन्त बहनजी से कहा- वे दोनों बदमाश यहाँ भी मँडरा रहे हैं।

उन्होंने हिकारत से कहा- कुत्ते हैं! फिरने दो।

मै चिन्तित होकर बोली- कोई स्वाँग न खड़ा करे।

उसी बेपरवाही से बोली- भौकने क सिवा और क्या कर सकते हैं?

मैने कहा- काट भी तो सकते हैं।

हँसकर बोली- इसके डर से कोई भाग तो नही जाता न?

मगर मेरी दाल में मक्खीं पड़ गयी। बार-बार छज्जे पर जाकर उन्हें टहलते देख आती। यह सब क्यों मेरे पीछे पड़े हए हैं? आखिर मैं नौकरशाही का क्या बिगाड़ सकती हूँ । मेरी सामर्थ्य ही क्या हैं? क्या यह सब इस तरह मुझे यहाँ से भगाने पर तुले हुए हैं? इससे उन्हें क्या मिलेगा? यही तो कि मै मारी-मारी फिरूँ। कितनी नीची तबीयत हैं।

एक हफ्त और गुजर गया। खुफिया ने पिंड न छोड़ा। मेरे प्राण सूखते जाते थे। ऐसी दशा में यहाँ रहना मुझे अनुचित मालूम होता था,; पर देवीजी से कुछ न कह सकती थी।

एक दिन ज्ञानबाबू आये, तो घबराये हुए थे। मैं बरामदे में थी। परवल छील रही थी। ज्ञानबाबू ने कमरे में जाकर देवीजी को इशारे से बुलाया।

देवीजी ने बैठे-बैठे कहा- पहले कपड़े-वपड़े तो उतारो, मुँह -हाथ धोओ, कुछ खाओ, फिर जो कहना हो, कह लेना।

ज्ञानबाबू को धैर्य कहा? पेट में बात की गन्ध तक न पचती थी। आग्रह से बुलाया- तुमसे उठा नही जाता? मेरी जान आफत में हैं।

देवीजी ने बैठे-बैठे कहा- तो कहते क्यों नहीं क्या कहना हैं?

‘यहाँ आओ।’

‘क्या यहाँ और कोई बैठा हुआ हैं?’

मै यहाँ से चली। बहन ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं जोर करने पर भी न छुडा सकी। ज्ञानबाबू मेरे सामने न कहना चाहते थे, पर इतना सब्र भी न था कि जरा देर रुक जाते। बोले- प्रिंसिपल से मेरी लड़ाई हो गयी।

देवीजी ने बनाबटी गम्भीरता से कहा- सच! तुमने उसे खूब पीटा ना?

‘तुम्हें दिल्लगी सूझी हैं। यहाँ नौकरी जा रही हैं।’

‘जब यह डर था, तो लड़े क्यों?’

‘मैं थोड़ा ही लड़ा। उसने मुझे बुलाकर डाँटा’

‘बेकसूर ?’

‘अब तुमसे क्या कहूँ ।’

‘फिर वही पर्दा। मैं कह चुकी, यह मेरी बहन हैं। मैं इससे कोई पर्दा नही रखना चाहती।’

‘और, जो इन्हीं के बारे में कोई बात हो, तो?’

देवीजी ने जैसे पहेली बूझकर कहा- अच्छा! समझ गयी। कुछ खुफियों का झगड़ा होगा। पुलिस ने तुम्हारे प्रिंसिपल से शिकायत की होगी।

ज्ञान बाबू ने इतनी आसानी से अपनी पहेली का बूझा जाना स्वीकार न किया।

बोले- पुलिस ने प्रिंसिपल से नहीं, हाकिम-जिला से कहा- उसने प्रिंसिपल को बुलाकर मुझसे जवाब तलब करने का हुक्म दिया।

देवी ने अन्दाज से कहा- समझ गयी। प्रिंसिपल ने तुमसे कहा होगा कि उस स्त्री को घर से निकाल दो।

‘हाँ, यही समझ लो।’

‘तो तुमने क्या जवाब दिया?’

‘अभी कोई जवाब नहीं दिया। वहाँ खड़े-खड़े क्या कहना।’

देवीजी ने उन्हें आड़े हाथों लिया- जिस प्रश्न का एक ही जवाब हो, उसमें सोच विचार कैसा?

ज्ञान बाबू सिटपिटाकर बोले- लेकिन कुछ सोचना तो जरूरी था।

देवीजी की त्योरियाँ बदल गयी। आज मैने पहली बार उनका यह रूप देखा। बोली- तुम उस प्रिंसिपल से जाकर कह दो, मैं उसे किसी तरह नही छोड़ सकता और न माने, तो इस्तीफा दे दो, अभी जाओ। लौटकर हाथ- मुँह धोना।

मैने रोकर कहा- बहन, मेरे लिए…

देवीजी ने डाँट बतायी- तू चुप रह, नही कान पकड़ लूँगी। क्यों बीच में कूदती हैं। रहेंगे तो साथ रहेंगे, मरेंगे तो साथ मरेंगे। इस मर्दुए को मैं कहू । आधी उम्र बीत गयी और बात करना न आया। (पति से) खड़े सोच क्या रहे हो? तुम्हें डर लगता हैं, तो मैं जाकर कह आऊँ ?

ज्ञान बाबू ने खिसियाकर कहा- तो कल कह दूँगा, इस वक़्त कहाँ होगा, कौन जाने!

रात-भर मुझे नींद नहीं आयी। बाप और ससुर जिसका मुँह नहीं देखना चाहते, उसका यह आदर! राह की भिखारिन का यह सम्मान! देवी, तू सचमुच देवी हैं।

दूसरे दिन ज्ञान बाबू चले, तो देवी ने फिर कहा फैसला करके घर आना। यह न हो कि सोचकर जवाब देने की जरूरत पड़े।

ज्ञान बाबू के चले जाने के बाद मैने कहा- तुम मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रही हो बहनजी! मै यह कभी नहीं देख सकती कि मेरे कारण तुम्हें यह विपत्ति झेलनी पड़े।

देवी ने हास्य-भाव से कहा- कह चुकी; या कुछ और भी कहना हैं?

‘कह चुकी; मगर अभी बहुत कुछ कहूँ गी।’

‘अच्छा, बता तेरे प्रियतम क्यों जेल गये? इसलिए तो कि स्वयंसेवकों का सत्कार किया था। स्वयंसेवक कौन हैं? वे हमारी सेना के वीर हैं, जो हमारी लड़ाईयाँ लड़ रहे हैं। स्वयंसेवकों के भी तो बाल-बच्चे होंगे, माँ-बाप होगें, वह भी तो कोई कारोबार करते होंगं; पर देश की लड़ाई के लिए, उन्होंने सब कुछ त्याग दिया हैं। ऐसे वीरों का सत्कार करने के लिए, जो आदमी जेल में डाल दिया जाय, उसकी स्त्री के दर्शनों से भी आत्मा पवित्र होती हैं। मैं तुझ पर एहसान नहीं कर रहीं, तू मुझ पर एहसान कर रही हैं।’

मै इस दया-सागर में डुबकियाँ खाने लगी। बोलती क्या?

शाम को जब ज्ञान बाबू लौटें, तो उनके मुख पर विजय का आनन्द था।

देवी ने पूछा- हार कि जीत?

ज्ञान बाबू ने अकड़कर कहा- जीत! मैने इस्तीफा दे दिया, तो चक्कर में आ गया। उसी वक़्त जिला-हाकिम के पास गया। वहाँ न जाने मोटर पर बैठकर दोनों में क्या बातें हुई। लौटकर मुझसे बोला- आप पोलिटिकल जलसों में तो नही जाते?

मैने कहा- कभी भूलकर भी नहीं।

‘कांग्रेस के मेम्बर तो नहीं हैं?’

मैने कहा- मेम्बर क्या, मेम्बर का दोस्त भी नही।

‘कांग्रेस फंड में चन्दा तो नही देते?’

मैने कहा- कानी कौड़ी भी कभी नही देता।”

‘तो हमें आपसे कुछ नही कहना हैं। मैं आपका इस्तीफा वापस करता हूँ ।’

देवीजी ने मुझे गले से लगा लिया।

सफेद इग्रेट आर्किड || White Egret Orchid

सफेद इग्रेट आर्किड

सामान्य नाम: सफेद इग्रेट आर्किड
वैज्ञानिक नाम: हैबनेरिया रेडिएटा

सफेद इग्रेट आर्किड को सफ़ेद एग्रेट फूल, क्रेन ऑर्किड या फ्रिंज्ड ऑर्किड के नाम से भी जाना जाता है। एग्रेट फूल ( हैबनेरिया रेडिएटा ) में स्ट्रैपी, गहरे हरे रंग की पत्तियां और खूबसूरत फूल होते हैं, जो उड़ते हुए शुद्ध सफ़ेद पक्षियों की तरह दिखते हैं। सफेद इग्रेट आर्किड एशिया का मूल निवासी। इग्रेट फूल एक प्रकार का स्थलीय आर्किड है जो मांसल, मटर के आकार के कंदों से उगता है। यह मुख्य रूप से घास वाले आर्द्रभूमि, छायादार ग्लेड्स या दलदलों में उगता है।

सफेद इग्रेट आर्किड || White Egret Orchid

इसका फूल इतना सफ़ेद और इतना सुंदर होता है कि यह इग्रेट नामक सफ़ेद पक्षी की याद दिलाता है। देखने में यह एक बगुला की तरह है, जिसके पंख सफ़ेद होते हैं। यह ऑर्किड की एक जंगली किस्म है और भले ही यह एशिया में पाया जाता है, लेकिन इसे संयुक्त राज्य अमेरिका में भी उगाया जाता है। इसका फूल अपने अलग सफ़ेद पंख के साथ पूरी उड़ान में इग्रेट की तरह ही दिखता है। यह ऑर्किड की एक स्थलीय प्रजाति है जो पूर्ण और आंशिक सूर्य के प्रकाश में भी उग सकती है।

सफेद इग्रेट आर्किड || White Egret Orchid

 इग्रेट फूल अपने प्राकृतिक आवास में खतरे में है, संभवतः शहरीकरण, आवास विनाश और अत्यधिक संग्रह के कारण। इग्रेट फूल USDA प्लांट हार्डनेस ज़ोन 5 से 10 में उगाने के लिए उपयुक्त है, हालाँकि उचित देखभाल और पर्याप्त गीली घास के साथ, यह अधिक उत्तरी जलवायु को सहन कर सकता है, पर इग्रेट फूल को गमलों में उगा सकते हैं और शरद ऋतु में ठंढे तापमान आने पर इसे घर के अंदर रख सकते हैं। 

व्हाइट इग्रेट के पत्ते घास की तरह होते हैं, जिनमें से प्रत्येक 5-20 सेमी लंबा और 1 सेमी चौड़ा होता है। एक पौधे में 7 पत्ते तक होते हैं और वसंत के दौरान नए पत्ते बनते हैं। ये नई पत्तियाँ वसंत में पत्तेदार वृद्धि के रूप में शुरू होती हैं, लेकिन गर्मियों के मौसम तक पूर्ण आकार की पत्तियाँ बन जाती हैं। ये पत्तियाँ एक तने पर एक-एक करके व्यवस्थित होती हैं जो 50 सेमी तक बढ़ सकती हैं। पत्तियाँ जमीन के नीचे कंद से निकलती हैं और इसलिए वे जमीन के बहुत करीब रहती हैं।

सफेद इग्रेट आर्किड || White Egret Orchid

एक डंठल पर 1-8 फूल हो सकते हैं और प्रत्येक फूल 4 सेमी चौड़ा हो सकता है। बाह्यदल हरे और छोटे होते हैं लेकिन होंठ और पंखुड़ियाँ बर्फीले सफेद रंग की होती हैं। फूल का होंठ आकार और आकार में असाधारण होता है जिसमें तीन लोब होते हैं। बड़े लोब पार्श्व में फैले होते हैं और वे किनारे पर होते हैं जबकि तीसरा लोब छोटा होता है और नीचे की ओर इशारा करता है। वास्तव में यह बड़े लोबों की व्यवस्था है जो बगुले के शरीर की तरह दिखते हैं जबकि पंखुड़ियाँ पूरी उड़ान में बगुले के पंख बनाती हैं।

व्हाइट इग्रेट ऑर्किड एक कंद से उगता है जो केवल कुछ सेंटीमीटर लंबा होता है। इस कंद में जड़ों का एक नेटवर्क होता है और यह पौधे के विकास के शुरुआती चरण में ऊर्जा के स्रोत के रूप में कार्य करता है। बाद में, मांसल जड़ों के इस नेटवर्क से नए बल्ब बनते हैं जबकि पहला कंद धीरे-धीरे मर जाता है। लंबे समय तक व्हाइट इग्रेट की देखभाल करने के लिए 3 बल्ब तक हो सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि जड़ें भी कुछ समय बाद मर जाती हैं और बल्ब खुद ही नए पौधों को उगने देते हैं।

सफेद इग्रेट आर्किड || White Egret Orchid

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White Egret Orchid

The white egret orchid is also known as the white egret flower, crane orchid or fringed orchid. The egret flower (Habenaria radiata) has strappy, dark green leaves and beautiful flowers that look like pure white birds in flight. White Egret Orchid Native to Asia. The egret flower is a type of terrestrial orchid that grows from fleshy, pea-sized tubers. It grows mainly in grassy wetlands, shady glades or swamps.

सफेद इग्रेट आर्किड || White Egret Orchid

The flower is so white and so beautiful that it reminds one of the white bird called the egret. It looks like a heron with white wings. It is a wild variety of orchid and even though it is found in Asia, it is also grown in the United States. The flower looks just like an egret in full flight with its distinctive white wings. It is a terrestrial species of orchid that can grow in full and partial sunlight.

The Egret flower is endangered in its natural habitat, possibly due to urbanization, habitat destruction, and excessive collection. The Egret flower is suitable for growing in USDA plant hardiness zones 5 to 10, although with proper care and adequate mulch, it can tolerate more northern climates, but you can grow the Egret flower in pots and bring it indoors when frosty temperatures arrive in autumn.

The leaves of the White Egret are grass-like, each of which is 5-20 cm long and 1 cm wide. A plant has up to 7 leaves and new leaves form during the spring. These new leaves start out as leafy growth in the spring but become full-sized leaves by the summer season. These leaves are arranged one by one on a stem that can grow up to 50 cm long. The leaves grow from the tuber below ground and so they stay very close to the ground.

सफेद इग्रेट आर्किड || White Egret Orchid

There can be 1-8 flowers on a stalk and each flower can be up to 4 cm wide. The sepals are green and small but the lip and petals are snowy white in colour. The lip of the flower is extraordinary in size and shape with three lobes. The larger lobes are spread laterally and they are on the edge while the third lobe is smaller and points downwards. In fact it is the arrangement of the large lobes that look like the body of a heron while the petals form the wings of the heron in full flight.

The White Egret Orchid grows from a tuber that is only a few centimetres long. This tuber has a network of roots and it serves as a source of energy in the early stage of the plant's growth. Later, new bulbs are formed from this network of fleshy roots while the first tuber slowly dies. There can be up to 3 bulbs to care for the White Egret in the long term. Interestingly, the roots also die after some time and the bulbs themselves allow new plants to grow.

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली

दिल्ली में यमुना नदी के किनारे स्थित स्वामीनारायण मंदिर, जिसको अक्षरधाम मंदिर कहते हैं, जो विश्व का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है। अपनी वास्तुकला और भव्यता के लिए दुनियाभर में मशहूर है। यह भारत में सबसे लोकप्रिय हिंदू मंदिरों में से एक है। करीब 100 एकड़ में फैला, 141 फीट ऊंचा 316 फीट चौड़ा और 356 फीट लंबा खूबसूरती से बना अक्षरधाम मंदिर दुनिया के सबसे बड़े मंदिर परिसर के लिए गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल है। 17 दिसंबर 2007 को, अक्षरधाम मंदिर को दुनिया में सबसे बड़ा व्यापक हिंदू मंदिर होने के लिए गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में स्थान मिला। अक्षरधाम मंदिर (Akshardham Temple, Delhi) न केवल दिल्ली बल्कि दुनिया के सबसे खूबसूरत जगहों में आता है।

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

 यहां हर साल लाखों पर्यटक आते हैं। इस मंदिर को बोचासनवासी श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (BAPS) की ओर से बनाया गया है। इसे आम भक्तों- श्रद्धालुओं के लिए 6 नवंबर, 2005 को खोला गया था। विशाल मंदिर परिसर के ठीक बीच में मुख्य मंदिर बना हुआ है। 141.3 फीट ऊंचा यह मंदिर 316 फीच चौड़ा और 356 फीट लंबाई में फैला हुआ है। मुख्य मंदिर में 234 नक्काशीदार खंभे, 9 अलंकृत गुंबदों, 20 शिखर के साथ हिंदू धर्म से संबंधित 20,000 मूर्तियां हैं। इनमें वनस्पतियों और अन्य जीवो के साथ देवताओं, ऋषियों, भक्तों और संतों की प्रतिमाएं शामिल हैं।

स्वामीनारायण मंदिर परिसर 5 प्रमुख भागों में विभाजित है-गर्भगृह, मंडपम, मंडोवर, नारायण पीठ और गजेन्द्र पीठ। मंदिर में प्रवेश के दस द्वार हैं, जिसे दशद्वार कहते हैं और यह दस दिशाओं को दर्शाते हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि गुलाबी बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर से बने इस मंदिर में कहीं भी लोहे, स्टील या कंक्रीट का इस्तेमाल नहीं किया गया है। 86342 वर्ग फुट में फैले इस विशाल भव्य मंदिर को बनाने में 11 हजार से ज्यादा कारीगरों को करीब 5 साल का समय लगा।

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

केंद्रीय गर्भगृह में भगवान स्वामीनारायण की एक भव्य, सुंदर और आकर्षक प्रतिमा है। यह अक्षरधाम मंदिर भगवान स्वामीनारायण को समर्पित है। भगवान स्वामीनारायण के साथ गुणितानंद स्वामी, भगतजी महाराज, शास्त्रीजी महाराज, योगीजी महाराज और प्रमुख स्वामी महाराज की प्रतिमाए भी हैं। इसके साथ ही गर्भगृह के चारों ओर भगवान सीताराम, राधाकृष्ण, लक्ष्मीनारायण और शिवपार्वती की मूर्तियां हैं। सुबह 10 बजे और शाम 6 बजे हम भी यहां आरती में शामिल हो सकते हैं। 

अक्षरधाम मंदिर के बारे में एक और आकर्षक तथ्य यह है कि यह 10 द्वारों यानी गेट से घिरा हुआ है जो वैदिक साहित्य के अनुसार 10 दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके अलावा, ये 10 द्वार बताते हैं कि सभी दिशाओं से अच्छे आती रहेगी।

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

इस मंदिर को बनाने में किसी स्टील और कंक्रीट का इस्तेमाल नहीं किया गया है। पूरा मंदिर शुद्ध पत्थर और इतालवी संगमरमर से बना हुआ है। हैरत की बात तो ये है कि बिना स्टील और कंक्रीट के ये इमारत हजारों सालों तक टिके रहने की क्षमता रखती है।

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

नीलकंठ दर्शन में भगवान स्वामीनारायण के जीवन से जुड़ी घटनाओं को दिखाया जाता है। यहां के 76 फीट चौड़ी और 57 फीट लंबी स्क्रीन और 15.1 चैनलों के ध्वनि वाले अद्वितीय विशाल स्क्रीन थियेटर में भगवान के हिमालय के ऊंचे पहाड़ों से लेकर गहरे समुद्र तक और असम के वर्षा वनों से लेकर रामेश्वरम मंदिर तक की यात्रा का अद्भुत फिल्म देखने को मिलता है। साथ ही इसमें नाव की सवारी के साथ प्राचीन भारतीय इतिहास के हजारों वर्षों की जीवन शैली का अनुभव सिर्फ 12 मिनट में कर सकते हैं।

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

मंदिर में यज्ञपुरुष कुंड है, जो दुनिया के सबसे बड़े कुंड में आता है। इसमें 108 छोटे तीर्थ हैं, और कुंड की ओर 2870 सीढ़ियां बनी हुई हैं।

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

अक्षरधाम मंदिर में घूमने लायक खूबसूरत जगहों में से एक लोटस गार्डन है। बगीचे का निर्माण बड़े पत्थरों और कमल के आकार में किया गया है। ये गार्डन अक्षरधाम मंदिर की खूबसूरती को और बढ़ा देता है। 

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

अक्षरधाम मंदिर नारायण सरोवर नाम की झील से घिरा हुआ है। इस झील में पुष्कर सरोवर, इंद्रद्युम्न सरोवर, मानसरोवर, गंगा, यमुना, और कई अन्य सहित 151 नदियों और झीलों का पवित्र जल है। इसके अलावा, सरोवर के साथ, 108 गौमुखों का एक समूह है जो 108 देवताओं का प्रतिनिधत्व करते हैं। साथ ही अक्षरधाम मंदिर के अंदर 'प्रेमवती अहरगृह' नाम का वेजिटेरियन खाना मिलने वाला एक फूड कोर्ट है। इसे महाराष्ट्र की अजंता और एलोरा गुफाओं की थीम पर बनाया गया है।

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

मंदिर प्रागंण में बने यज्ञपुरुष कुंड में हर शाम सहज आनंद वाटर शो का आयोजन किया जाता है। सिर्फ 24 मिनट के सहज आनंद वाटर शो में आपके सामने मल्टी-कलर लेजर शो, वीडियो प्रोजेक्शन्स, वाटर जेट, पानी की लहरों और रोशनी के साथ सिम्फनी सराउंड साउंड से एक ऐसा सुंदर कार्यक्रम पेश किया जाता है कि आप खुद को एक अलग ही दुनिया में पाते हैं।

अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली || Akshardham Temple, Delhi

मंदिर के खुलने के समय सुबह 9.30 बजे से शाम 8.00 बजे तक का है, लेकिन मंदिर में प्रवेश शाम 6.30 बजे तक ही मिलेगा। मंदिर हर सोमवार को बंद रहता है।

अक्षरधाम मंदिर में प्रवेश फ्री है। आपको मंदिर के साथ गजेन्द्र पीठ, नारायण सरोवर, भारत उपवन और योगी हृदय कमल देखने के लिए कोई टिकट लेने की जरूरत नहीं है। लेकिन प्रदर्शनी, वाटर शो और अभिषेक के लिए टिकट लेने होंगे।

मंदिर के अंदर हम किसी भी प्रकार की फोटोग्राफी या वीडियोग्राफी नहीं कर सकते हैं क्योंकि सारे इलेक्ट्रॉनिक्स सामान मोबाइल, कैमरा यहां काउंटर पर जमा करने होते हैं। मंदिर परिसर में क्लॉक रूम की सुविधा उपलब्ध है। 

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी || Shree Krishna Janmashtami 26 aug

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी जिसे जन्माष्टमी या गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना जाता है। यह जन्माष्टमी विष्णु जी के 10 अवतारों में से 8 वें और 24 अवतारों में से 22 वें अवतार श्री कृष्ण के जन्म के आनंदोत्सव के रूप में मनाया जाता है। यह त्यौहार हिंदी मास के भाद्रपद के कृष्ण पक्ष (अंधेरा पख्वाडा) आठवें (अष्टमी) को मनाया जाता है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 2024 || Shri Krishna Janmashtami 2024 ||

श्री कृष्ण जन्माष्टमी भारत का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। कृष्ण देवकी और वासुदेव आनकदुंदुभी के पुत्र हैं और इनके जन्मदिन को हिंदुओं द्वारा जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है।

जब भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था,उस समय अराजकता अपने चरम पर थी।यह एक ऐसा समय था जब उत्पीड़न बड़े पैमाने पर था, सभी अपनी स्वतंत्रता से वंचित थे, बुराई सब ओर थी। या यूं कहें कि इस बुराई का नाश करने के लिए भगवान कृष्ण ने अवतार लिया था।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 2024 || Shri Krishna Janmashtami 2024 ||

कृष्ण जी भगवान विष्णु जी के अवतार हैं जो तीन लोक के 3 गुणों सतगुण, रजगुण तथा तमोगुण में सतगुण के लिए जाने जाते हैं। श्री कृष्ण के माता पिता वासुदेव और देवकी जी के विवाह के समय जब मामा कंस अपनी बहन देवकी को ससुराल पहुंचाने जा रहा था तभी आकाशवाणी हुई थी कि देवकी का आठवां पुत्र कंस को मारेगा। इस आकाशवाणी के बाद कंस ने देवकी और वासुदेव को अपने कारागार में डाल दिया और उनके सभी सातों पुत्रों का जन्म होते ही वध कर दिया। 

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 2024 || Shri Krishna Janmashtami 2024 ||

लेकिन देवकी और वासुदेव को जेल में रखने के बावजूद कंस उनके आठवें पुत्र को नहीं मार पाया। मथुरा की जेल में जन्म के तुरंत बाद श्री कृष्ण के पिता वासुदेव कृष्ण को यमुना पार अपने मित्र नंद और उनकी पत्नी यशोदा के पास ले जाते हैं। वृंदावन में श्री कृष्ण का लालन पोषण नंदलाल और यशोदा मां मिलकर बहुत प्रेम से करते है। श्री कृष्ण की अद्भुत और अलौकिक छवि से पूरा वृंदावन मोहित रहता है। गोवर्धन पर्वत को अपनी एक उंगली पर उठाकर श्री कृष्ण ने पूरे वृंदावन वासियों की रक्षा की थी और इंद्र का घमंड तोड़ा था।यह बात मथुरा के राजा कंस के पास पहुंचती है, तो वह समझ जाता है कि यही बालक मेरा भी वध करेगा। 

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 2024 || Shri Krishna Janmashtami 2024 ||

इसलिए उसने एक महायज्ञ के बहाने अपना एक मंत्री अक्रूर सिंह जी को भेजकर श्रीकृष्ण को यज्ञ में आमंत्रण देता है। श्री कृष्ण जी मथुरा आते हैं। दरवाजे पर एक ऐसा धनुष रखा था जिसे कोई साधारण इंसान उठा नहीं पाता। भगवान श्री कृष्णा उस धनुष को ऐसे तोड़ा जैसे बच्चा अपने खिलौने से खेलता है। कंस समझ गया कि ये कोई साधारण बालक नहीं। इसलिए उन्हें मारने के लिए उसने दैवीय राक्षस भेजें। अंत में कंस खुद लड़ने आया और उसका श्री कृष्ण ने वध कर दिया। बाल्यावस्था से ही श्रीकृष्ण की कई सारी लीलाएं और कथाएं हैं, जिनकी चर्चा हम एक ब्लाग में नहीं कर सकते।

सभी लोगों को श्री कृष्ण जन्मोत्सव पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। भगवान श्री कृष्ण सभी को सुख समृद्धि दें, स्वस्थ रखें।

कुछ दर्द ... शब्दों में बयां नहीं हो पाते...

कुछ दर्द ... शब्दों में बयां नहीं हो पाते...😔

कुछ दर्द ... शब्दों में बयां नहीं हो पाते...😔

धरा विकल है आहत है

हुई इंसानियत शर्मसार 

स्त्री की अस्मिता  पुकारती

रो-रोकर बारम्बार

सनातनों की इस धरा पर

हैवानियत पाव पसार रही

मानवता बलिदान हो रही

सज्जनता है दम तोड़ रही

जंग लगी शमशीरों को

कुंद पड़ी धारों को

अब तुमको चमकाना होगा

झकझोर सुप्त आत्मा को

सनातन को बचाना होगा

कर रही धरा करूण क्रंदन 

मां भारती की वेदना सुनो 

 बेटियाँ  व्यथित पुकार रहीं

कुछ उनकी पीड़ा को सुनो

धर्म युद्ध होगा फिर से 

फिर कोई कृष्णा चाहिए 

द्रोपदी की लाज बचाने को

फिर कोई गोविंद चाहिए

कृष्ण की बाट जोहती  

मां भारती की बेटियां

केशव तुम अवतार धरो

फरियाद करती बेटियाँ

बुराई एक दिन हार जाती है

बुराई का अंत

एक सांप को एक बाज़ आसमान पे ले कर उड रहा था। अचानक पंजे से सांप छूट गया और कुवें मे गिर गया बाज़ ने बहुत कोशिश की अखिर थक हार कर चला गया। सांप ने देखा कि कुवें में बड़े बड़े मेढक मौजूद थे। पहले तो डरा फिर एक सूखे चबूतरे पर जा बैठा और मेढकों के प्रधान को लगा खोजने। 

बुराई का अंत

अखिर उसने एक मेढक को बुलाया और कहा मैं सांप हूँ मेरा ज़हर तुम सब को पानी में मार देगा। ऐसा करो रोज़ एक मेढक तुम मेरे पास भेजा करो, वह मेरी सेवा करेगा और तुम सब बहुत आराम से रह सकते हो। पर याद रखना एक मेढक रोज़ रोज़ आना चाहिए। एक एक कर के सारे मेढक सांप खा गया। 

जब अकेले प्रधान मेढक बचा तब सांप चबूतरे से उतर कर पानी मे आया और बोला प्रधान जी आज आप की बारी है। प्रधान मेढक ने कहा मेरे साथ विश्वास घात ? सांप बोला जो अपनो के साथ विश्वास घात करता है उसका यही अंजाम होता है। फिर उसने प्रधान जी को गटक लिया।

कुछ देर के बाद साँप आहिस्ता आहिस्ता कुवें के ऊपर आ कर चबूतरे पर लेट गया। तभी एक बाज़ ने आ कर साँप को दबोच लिया। पहचान साँप मुझे मैं वही बाज़ हूँ जिसके बच्चे तूने पिछले साल खा लिये थे और जब तुझे पकड़ कर ले जा रहा था तब तू मेरे पंजे से छूट कर कुवें मे जा गिरा था। 

तब से मैं रोज़ तेरी हरकत पर नज़र रखता था। आज तू सारे मेढक खा कर काफी मोटा हो गया। मेरे फिर से बच्चे बड़े हो रहे है वह तुझे ज़िंदा नोच नोच कर अपने भाई बहनो का बदला लेंगे। फिर बाज़ साँप को लेकर उड़ गया अपने घोसले की तरफ। 

बुराई एक दिन हार ही जाती है वह चाहे कितनी भी ताक़तवर हो..!!

उत्तराखण्ड का राज्य पशु "कस्तूरी हिरण" || State animal of Uttarakhand "Alpine Musk deer" || Musk deers (कस्तूरी मृग)

उत्तराखण्ड का राज्य पशु "कस्तूरी हिरण

स्थानीय नाम: कस्तूरी हिरण
वैज्ञानिक नाम: 
मोसकस क्रायसोगास्टर

जैसा कि हम सभी जानते हैं की भारत के हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश के अपने अलग-अलग प्रतीक हैं जैसे कि राज्य पक्षी, राज्य पशु, राज्य फूल, राज्य वृक्ष आदि, जिसकी चर्चा पिछले कुछ अंकों से की जा रही है। उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जो देश के उत्तरी भाग में स्थित है (इसका शाब्दिक अर्थ उत्तरी भूमि है)। "देवभूमि" (देवताओं की भूमि) इस राज्य को इसके धार्मिक महत्व के कारण दिया गया एक और नाम है। 

उत्तराखण्ड का राज्य पशु "कस्तूरी हिरण"  || State animal of Uttarakhand "Alpine Musk deer"

कस्तूरी मृग या कस्तूरी हिरण उत्तराखंड का राज्य पशु है। यह हिरण प्रजाति ज़्यादातर अल्पाइन झाड़ियों और जंगली इलाकों में रहती है, मुख्य रूप से दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों के पहाड़ों में, खास तौर पर हिमालय में। ये हिरण अपने पिछले पैरों में कुछ हद तक छोटे हिरणों से मिलते-जुलते हैं, जो उनके अगले पैरों से लंबे होते हैं और इनका शरीर गठीला होता है। इनकी लंबाई लगभग 90 सेमी, ऊंचाई लगभग 60 सेमी और वजन 8 से 17 किलोग्राम के बीच होता है। इसका कोट भूरे रंग का होता है जिस पर पीले और काले रंग के धब्बे होते हैं। इस हिरण के सींग नहीं होते, लेकिन नर की पूंछ छोटी होती है।

उत्तराखण्ड का राज्य पशु "कस्तूरी हिरण"  || State animal of Uttarakhand "Alpine Musk deer"

अपनी आकर्षक खूबसूरती के साथ-साथ यह जीव नाभि से निकलने वाली खुशबू के लिए मुख्य रूप से जाना जाता है जोकि इस मृग की सबसे बड़ी खासियत है। इस मृग की नाभि में गाढ़ा तरल (कस्तूरी) होता है जिसमें मनमोहक खुशबू की धारा बहती है। कस्तूरी केवल नर मृग में ही पाया जाता है।

अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ के अनुसार कस्तूरी मृग लुप्तप्राय श्रेणी की प्रजाति है। इस वन्य जीव को उसके कस्तूरी और मांस के लिए मारे जाने का खतरा है। इसे वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची एक में रखा गया है। इसकी कस्तूरी का इत्र के अलावा कई औषधियों में इस्तेमाल होने के कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत लाखों में है। कस्तूरी मृग की यही खासियत इस निरीह हिरण की दुश्मन बन जाती है क्यूंकि इंसान अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए निरीह प्राणियों को मारने से भी गुरेज नहीं करता।

उत्तराखण्ड का राज्य पशु "कस्तूरी हिरण"  || State animal of Uttarakhand "Alpine Musk deer"

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State Animal of Uttarakhand "Musk Deer"

Local Name: Musk Deer
Scientific Name: Moschus chrysogaster

As we all know that every state and union territory of India has its own symbols like state bird, state animal, state flower, state tree etc. which has been discussed in the last few issues. Uttarakhand is a state which is located in the northern part of the country (literally means northern land). "Devbhoomi" (land of gods) is another name given to this state due to its religious significance.

उत्तराखण्ड का राज्य पशु "कस्तूरी हिरण"  || State animal of Uttarakhand "Alpine Musk deer"

Kasturi Mrig or Musk Deer is the state animal of Uttarakhand. This deer species mostly lives in alpine shrublands and wooded areas, mainly in the mountains of the southern Asian regions, especially in the Himalayas. These deer somewhat resemble small deer in their hind legs, which are longer than their front legs and have a well-built body. Their length is about 90 cm, height is about 60 cm and weight is between 8 to 17 kg. Its coat is brown with yellow and black spots. This deer does not have horns, but the male has a short tail.

Along with its attractive beauty, this creature is mainly known for the fragrance emanating from its navel, which is the biggest specialty of this deer. There is a thick liquid (musk) in the navel of this deer from which flows a stream of captivating fragrance. Musk is found only in male deer.

उत्तराखण्ड का राज्य पशु "कस्तूरी हिरण"  || State animal of Uttarakhand "Alpine Musk deer"

According to the International Union for Conservation of Nature, musk deer is an endangered species. This wild animal is in danger of being killed for its musk and meat. It has been placed in Schedule I of the Wildlife Protection Act, 1972. Its musk is used in many medicines besides perfume, due to which its price in the international market is in lakhs. This specialty of musk deer becomes the enemy of this innocent deer because man does not hesitate to kill innocent creatures to fulfill his needs.

भारतीय राज्य के राजकीय पशुओं की सूची || List of State Animals of India ||

भारतीय राज्य के राजकीय पक्षियों की सूची |(List of State Birds of India)

बद्रीनाथ धाम || Badarinath or Badarinarayana Temple || बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर

बद्रीनाथ धाम, उत्तराखण्ड

उत्तराखंड के बद्रीनाथ शहर में स्थित बद्रीनाथ मंदिर जिसे बद्रीनारायण मंदिर के नाम से भी जाना जाता है,  राज्य के चार धामों (चार महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों) में से एक है। यहाँ चार तीर्थस्थल हैं, यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ, जिन्हें सामूहिक रूप से चार धाम के नाम से जाना जाता है। ये तीर्थस्थल हर साल बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों को आकर्षित करते हैं, इस प्रकार ये पूरे उत्तरी भारत में धार्मिक यात्रा के सबसे महत्वपूर्ण केंद्र हैं। 

बद्रीनाथ धाम || Badarinath or Badarinarayana Temple || बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर

नर और नारायण पर्वत श्रृंखलाओं की गोद में,अलकनंदा नदी के बायीं तरफ बसे आदितीर्थ बद्रीनाथ धाम श्रद्धा व आस्था का अटूट केंद्र है। यह पवित्र स्थल भगवान विष्णु के चतुर्थ अवतार नर एवं नारायण की तपोभूमि है। इस धाम के बारे में कहावत है कि-"जो जाए बद्री,वो न आए ओदरी"यानि जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है उसे माता के गर्भ में दोबारा नहीं आना पड़ता। प्राणी जन्म और मृत्यु के चक्र से छूट जाता है।

बद्रीनाथ लगभग 3,100 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। माना जाता है कि मंदिर की स्थापना 8वीं शताब्दी में ऋषि आदि शंकराचार्य ने की थी। भगवान विष्णु को अपना मुख्य देवता मानते हुए यह मंदिर साल में छह महीने तक खुला रहता है। सर्दियों में भारी बर्फबारी के कारण यह दुर्गम हो जाता है।

बद्रीनाथ धाम || Badarinath or Badarinarayana Temple || बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर

जब भगवान श्रीविष्णु अपनी तपस्या के लिए उचित स्थान देखते-देखते नीलकंठ पर्वत और अलकनंदा नदी के तट पर पहुंचे, तो यह स्थान उनको अपने ध्यान योग के लिए बहुत पसंद आया। पर यह जगह तो पहले से ही शिवभूमि थी तब विष्णु भगवान ने यहां बाल रूप धारण किया और रोने लगे। उनके रुदन को सुनकर स्वयं माता पार्वती और शिवजी उस बालक के समक्ष उपस्थित हो गए और बालक से पूछा, कि उसे क्या चाहिए। बालक ने ध्यान योग करने के लिए शिव से यह स्थान मांग लिया। भगवान विष्णु ने शिव-पार्वती से रूप बदलकर जो स्थान प्राप्त किया वही पवित्र स्थल आज बद्रीविशाल के नाम से प्रसिद्द है। 

बद्रीनाथ धाम || Badarinath or Badarinarayana Temple || बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर

जब भगवान विष्णु तपस्या में लीन थे तो अचानक बहुत हिमपात होने लगा। तपस्यारत श्रीहरि बर्फ से पूरी तरह ढकने लगे। उनकी इस दशा को देखकर माता लक्ष्मी ने वहीं पर एक विशालकाय बेर के वृक्ष का रूप धारण कर लिया और हिमपात को अपने ऊपर सहन करने लगीं। माता लक्ष्मी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिमपात से बचाने के लिए कठोर तपस्या करने लगीं। काफी वर्षों के बाद जब श्रीविष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि उनकी प्रिया लक्ष्मी जी तो पूरी तरह बर्फ से ढकी हुई हैं। तब श्री हरि ने माता लक्ष्मी के तप को देखकर कहा-'हे देवी! तुमने मेरे बराबर ही तप किया है इसलिए आज से इस स्थान पर मुझे तुम्हारे साथ ही पूजा जाएगा और तुमने मेरी रक्षा बदरी वृक्ष के रूप में की है अतः आज से मुझे 'बदरी के नाथ' यानि बद्रीनाथ के नाम से जाना जाएगा।'' 

English Translate

Badrinath Dham, Uttarakhand

Badrinath Temple, also known as Badrinarayan Temple, located in the town of Badrinath in Uttarakhand, is one of the four Dhams (four important pilgrimage sites) of the state. There are four pilgrimage sites, Yamunotri, Gangotri, Kedarnath and Badrinath, which are collectively known as the Char Dham. These pilgrimage sites attract a large number of pilgrims every year, thus making them the most important centers of religious pilgrimage in the whole of northern India.

बद्रीनाथ धाम || Badarinath or Badarinarayana Temple || बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर

Aditirtha Badrinath Dham, located on the left side of the Alaknanda River, in the lap of the Nar and Narayan mountain ranges, is an unbreakable center of faith and devotion. This holy place is the Tapabhoomi of Nar and Narayan, the fourth incarnation of Lord Vishnu. There is a saying about this Dham - "Jo Jaye Badri, Wo Na Aaye Odri" i.e. the person who visits Badrinath does not have to come to the mother's womb again. The creature is freed from the cycle of birth and death.

Badrinath is situated at an altitude of about 3,100 meters. It is believed that the temple was established by sage Adi Shankaracharya in the 8th century. Considering Lord Vishnu as its main deity, this temple remains open for six months in a year. It becomes inaccessible in winter due to heavy snowfall.

When Lord Vishnu reached Neelkanth mountain and the banks of Alaknanda river while looking for a suitable place for his penance, he liked this place very much for his meditation yoga. But this place was already Shivabhoomi, then Lord Vishnu took the form of a child here and started crying. Hearing his crying, Mother Parvati and Lord Shiva themselves appeared before that child and asked the child what he wanted. The child asked for this place from Shiva to do meditation yoga. The place which Lord Vishnu got by changing form from Shiva-Parvati, the same holy place is famous today as Badrivishal.

बद्रीनाथ धाम || Badarinath or Badarinarayana Temple || बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर

When Lord Vishnu was engrossed in penance, suddenly heavy snowfall started. The meditating Shri Hari started getting completely covered with snow. Seeing his condition, Mother Lakshmi took the form of a huge plum tree and started tolerating the snowfall on herself. Mother Lakshmi started doing severe penance to protect Lord Vishnu from the sun, rain and snowfall. After many years, when Shri Vishnu completed his penance, he saw that his beloved Lakshmi ji was completely covered with snow. Then, seeing the penance of Mother Lakshmi, Shri Hari said- 'O Goddess! You have done penance to the same extent as me, so from today onwards I will be worshipped along with you at this place and you have protected me in the form of Badri tree, so from today onwards I will be known as 'Badri ke Nath' i.e. Badrinath.'

वूडू लिली || The Voodoo Lily

 वूडू लिली

सामान्य नाम: वूडू लिली
वैज्ञानिक नाम: एमोर्फोफैलस कोनजैक

वूडू लिली के पौधे फूलों के विशाल आकार और असामान्य पत्तियों के लिए जाने जाते हैं। यह एक बारहमासी पौधा है, जिसे आम तौर पर इसके दिलचस्प पत्तों के लिए जिज्ञासा के तौर पर उगाया जाता है। फूलों से सड़े हुए मांस जैसी तीखी, अप्रिय गंध आती है। यह गंध मक्खियों को आकर्षित करती है, जो फूलों को परागित करती हैं।

वूडू लिली || The Voodoo Lily

वूडू लिली, जिसे डेविल्स टंग भी कहा जाता है, एमोर्फोफैलस जीनस का सदस्य है। वूडू लिली, ए. टाइटेनम, दुनिया का सबसे बड़ा फूल है। ए. कोनजैक के फूल छोटे होते हैं, लेकिन यह अन्य बगीचे के फूलों की तुलना में अभी भी काफी बड़ा है। प्रत्येक बल्ब एक डंठल पैदा करता है, जो लगभग 6 फीट लंबा (2 मीटर) होता है, जिसके ऊपर एक विशाल पत्ती होती है। पत्ती के डंठल के मुरझाने के बाद, वूडू लिली बल्ब एक फूल का डंठल पैदा करता है। फूल वास्तव में कैला लिली के समान स्पैथ और स्पैडेक्स की व्यवस्था है। स्पैडेक्स 10 से 50 इंच (25.5 सेमी. से 1.27 मीटर) लंबा हो सकता है। फूल केवल एक या दो दिन तक रहता है।

वूडू लिली || The Voodoo Lily

वियतनाम, जापान और चीन से लेकर इंडोनेशिया तक पूर्वी एशिया के गर्म उपोष्णकटिबंधीय से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के मूल निवासी, एमोर्फोफैलस कोनजैक को कई अन्य वैज्ञानिक नामों से जाना जाता है, जिनमें ए. रिविएरी, ए. रिविएरी वर. कोनजैक, ए. मायरेई और हाइड्रोस्मे रिविएरी शामिल हैं, साथ ही कई सामान्य नाम जैसे डेविल्स टंग, ड्रैगन प्लांट, एलीफेंट याम, कोनीकू, लेपर्ड अरुम, स्नेक पाम और अम्ब्रेला अरुम शामिल हैं।

इसके स्टार्चयुक्त कंद खाने योग्य होते हैं और इस पौधे को दुनिया के कुछ हिस्सों में भोजन के लिए उगाया जाता है, जिसे जिलेटिन के शाकाहारी विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। जापानी शिराताकी नूडल्स बनाने के लिए कोनजैक आटे का उपयोग करते हैं, और स्टार्च का उपयोग एक लोकप्रिय एशियाई फल जेली स्नैक बनाने के लिए किया जाता है। फिलोडेंड्रोन परिवार (एरेसी) का यह पौधा भूमिगत कंद से एक पत्ती पैदा करता है।

वूडू लिली || The Voodoo Lily

 गोलाकार कंद 50 पाउंड और एक फुट व्यास तक बढ़ सकता है। जैसे-जैसे नई पत्ती बढ़ती है, कंद सिकुड़ता जाता है और बढ़ते मौसम के दौरान एक नया, बड़ा कंद इसकी जगह ले लेता है। मांसल पत्ती का डंठल (पेटियोल) एक बहुत ही दिलचस्प धब्बेदार गुलाबी-भूरे और जैतून के हरे रंग का होता है। 

English Translate

Voodoo Lily

Common Name: Voodoo Lily
Scientific Name: Amorphophallus konjac

वूडू लिली || The Voodoo Lily

Voodoo lily plants are known for their enormous flower size and unusual leaves. It is a perennial plant, usually grown as a curiosity for its interesting leaves. The flowers have a pungent, unpleasant odor, like rotting meat. This smell attracts flies, which pollinate the flowers.

The voodoo lily, also called the devil's tongue, is a member of the Amorphophallus genus. The voodoo lily, A. titanum, is the largest flower in the world. The flowers of A. konjac are small, but it is still quite large compared to other garden flowers. Each bulb produces a stalk, which is about 6 feet tall (2 meters), topped by a huge leaf. After the leaf stalk fades, the voodoo lily bulb produces a flower stalk. The flower is actually an arrangement of the spathe and spadex, similar to the calla lily. The spadex can grow from 10 to 50 inches (25.5 cm. to 1.27 m.) long. The flower lasts only a day or two.

वूडू लिली || The Voodoo Lily

Native to warm subtropical to tropical regions of East Asia from Vietnam, Japan and China to Indonesia, Amorphophallus konjac is known by several other scientific names, including A. rivieri, A. rivieri var. konjac, A. mairei and Hydrosme rivieri, as well as many common names such as devil's tongue, dragon plant, elephant yam, konyaku, leopard arum, snake palm and umbrella arum.

Its starchy tubers are edible and the plant is grown in some parts of the world for food, which can be used as a vegetarian alternative to gelatin. The Japanese use konjac flour to make shirataki noodles, and the starch is used to make a popular Asian fruit jelly snack. This plant of the Philodendron family (Araceae) produces a leaf from an underground tuber. The spherical tuber can grow up to 50 pounds and a foot in diameter. As the new leaf grows, the tuber shrinks and a new, larger tuber takes its place during the growing season. The fleshy leaf stalk (petiole) is a very interesting mottled pinkish-brown and olive green color.

मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..सुभागी

मानसरोवर-1 ..सुभागी

सुभागी - मुंशी प्रेमचंद | Subhagi by Munshi Premchand

और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से जौ-भर भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान होकर भी कुछ काठ का उल्लू था। सुभागी ग्यारह साल की बालिका होकर भी घर के काम में इतनी चतुर और खेती-बारी के काम में इतनी निपुण थी कि उसकी माँ लक्ष्मी दिल में डरती रहती कि कहीं लड़की पर देवताओं की आँख न पड़ जाय। अच्छे बालकों से भगवान् को भी तो प्रेम हैं। कोई सुभागी का बखान करे इसलिए अनायास ही उसे, डाँटती रहती थी। बखान से बच्चे बिगड़ जाते हैं, यह भय तो न थी, भय था- नजर का! वही सुभागी आज ग्यारह साल की उम्र में विधवा हो गयी।

सुभागी - मुंशी प्रेमचंद | Subhagi by Munshi Premchand

घर में कुहराम मचा हुआ था। लक्ष्मी पछाड़ खाती थी। तुलसी सिर पीटते थे। उन्हें देख, सुभागी भी रोती थी। बार-बार माँ से पूछती- क्यों रोती हो अम्माँ, मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी, तुम क्यो रोती हो? उसकी भोली बाते सुनकर माता का दिल और भी फटा जाता था। वह सोचती थी- ईश्वर, तुम्हारी यही लीला हैं! जो खेल खेलते हो, वह को दुःख देकर ऐसा तो पागल करते हैं। आदमी पागलपन करे, तो उसे पागलखाने में भेजते हैं; मगर तुम जो पागलपन करते हो, उसका कोई दंड़ नहीं। ऐसा खेल किस काम का कि दूसरे रोये और तुम हँसो। तुम्हें लोग दयालु कहते हैं। यही तुम्हारी दया हैं?

और सुभागी क्या सोच रही थी उसके पास कोठरी-भर रुपये होते तो वह उन्हें?, छिपाकर रख देती। फिर एक दिन चुपके से बाजार चलीं जाती और अम्माँ के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाती; दादा, जब बाकी माँगने आते, तो चट रुपये निकालकर दे देती अम्माँ-दादा कितने खुश होते!,

जब सुभागी जवान हुई तो लोग तुलसी महतो पर दबाव डालने लगे कि लड़की का कहीं घर कर दो। जवान लड़की का यो फिरना ठीक नहीं। जब हमारी बिरादरी में इसकी कोई निन्दा नहीं हैं, तो क्यों सोच-विचार करते हो?

तुलसी ने कहा- ‘भाई, मैं तो तैयार हूँ; लेकिन जब सुभागी भी माने। यह तो किसी तरह राजी नहीं होती।’

हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा- ‘बेटी, हम तेरे ही भले की कहते हैं। माँ-बाप अब बूढे हुए, उनका क्या भरोसा? तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी?’

सुभागी ने सिर झुकाकर कहा- ‘चाचा, मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँस लेकिन मेरा मन घर करने को नहीं कहता। मुझे आराम की चिन्ता नहीं हैं। मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूँ। और जो काम तुम कहो, वह सिर आँखों के बल करूँगी; मगर घर बसाने की मुझसे न कहो। जब मेरी चाल- कुचाल देखना तो मेरा सिर काट लेना। अगर सच्चे बाप की बेटी हूँगी, तो बात की भी पक्की हूँगी । फिर लज्जा रखनेवाले भगवान् हैं, मेरी क्या हस्ती हैं कि अभी कुछ कहूँ ।’

उजड्‌ड राम बोला- ‘तुम अगर सोचती हो कि भैया कमाएँगे और मैं बैठी मौज करूँगी, तो इस भरोसे न रहना। यहाँ किसी ने जन्म-भर का ठेका नहीं लिया हैं!’

रामू की दुल्हन रामू से भी दो अँगुल ऊँची थी। मटककर बोली- हमने किसी का कर्ज थोड़े ही खाया हैं कि जन्म-भर बैठे भरा करें। यहाँ तो खाने को भी महीन चाहिए, पहनने को भी महीन चाहिए, यह हमारे बूते की बात नहीं हैं।

सुभागी ने गर्व से भरे हुए स्वर में कहा- भाभी, मैंने तो तुम्हारा आसरा भी नहीं किया और भगवान ने चाहा तो कभी करूँगी भी नहीं। तुम अपनी देखो, मेरी चिन्ता न करो।

रामू की दुल्हन को जब मालूम हो गया कि सुभागी घर न करेगी, तो और भी उसके सिर हो गयी। हमेशा एक-न-एक खुचड़ लगाए रहती। उसे रुलाने में जैसे उसको मजा आता था। वह बेचारी पहर रात से उठकर कूटने-पीसने में लग जाती, चौका-बरतन करती, गोबर पाथती, फिर खेत में काम करने चली जाती। दोपहर को आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खिलाती। रात में कभी माँ के सिर में तेल डालती, कभी उसकी देह दबाती। तुलसी चिलम के भक्त थे। उन्हें बार-बार चिलम पिलाती। जहाँ तक बस चलता, माँ-बाप को कोई काम न करने देती। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती यह तो जवान आदमी हैं यह न काम करेंगे तो गृहस्थी कैसे चलेगी।

मगर रामू को यह बुरा लगता। अम्माँ और दादा को तिनका कर नहीं उठाने देती और मुझे पीसना चाहती हैं। यहाँ तक कि एक दिन वह जामे से बाहर हो गया। सुभागी से बोला- अगर उन लोगों का बड़ा मोह है, तो क्यों नही अलग लेकर रहती हो। तब सेवा करो तो मालूम हो कि सेवा कड़वी लगती हैं कि मीठी। दूसरों के बल पर वाहवाही लेना आसान हैं। बहादुर वह हैं, जो अपने बल पर काम करे।

सुभागी ने तो कुछ जवाब न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मगर उसके माँ- बाप बैठे सुन रहे थे। महतो से न रहा गया। बोले- क्या हैं रामू, उस गरीबन से क्यों लड़ते हो?

रामू पास आकर बोला- तुम बीच में क्यों कूद पड़े, मैं तो उसको कहता था।

तुलसी- जब तक मैं जीता हूँ , तुम उसे कुछ नही कह सकते। मेरे पीछे जो चाहे करना। बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर दिया।

रामू- आपको बेटी बहुत प्यारी हैं, तो उसे गले बाँधकर रखिए। मुझसे तो सहा नही जाता।

तुलसी- अच्छी बात हैं। अगर तुम्हारी यही मरजी हैं, तो यहीं होगा। मैं कल गाँव के आदमियों को बुलाकर बँटवारा कर दूगा। तुम चाहे छूट जावो, सुभागी नही छूट सकती।

रात को तुलसी लेटे तो वह पुरानी बात याद आयी, जब रामू के जन्मोत्सव में उन्होंने रुपये कर्ज लेकर जलसा किया था, और सुभागी पैदा हुई, तो घर में रुपये रहते हुए भी उन्होंने एक कौड़ी न खर्च की। पुत्र को रत्न समझा था पुत्री को पूर्व जन्म के पापों का दंड। वह रत्न कितना कठोर निकला और वह दंड कितना मगलमय।

दूसरे दिन महतो में गाँव के आदमियों का जमा करके कहा- पंचो, अब रामू को और मेरा एक में निबाह नही होता। मै चाहता हूँ कि तुम लोग इन्साफ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर अलग हो जाऊँ। रात-दिन की किचकिच अच्छी नही हैं।

गाँव के मुख्तार बाबू सजनसिंह बड़े सज्जन पुरुष थे। उन्होंने रामू को बुलाकर कहा- क्यों जी, तुम अपने माँ-बाप से अलग रहना चाहते हो? तुम्हें शर्म नहीं आती कि औरत के कहने से माँ-बाप को अलग किये देते हो? राम! राम!

रामू ने ठिठाई के साथ कहा- जब एक में न गुजर हो, तो अलग हो जाता ही अच्छा हैं।

सजनसिंह तुमको एक में क्या कष्ट होता हैं?

रामू- एक बात हो तो बताऊँ।

सजनसिंह कुछ तो बताओ।

रामू- साहब एक में मेरा इनके साथ निबाह न होगा। बस मैं और कुछ नहीं जानता।

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्र

यह कहता हुआ रामू वहाँ से चलता बना।

तुलसी- देख लिया आप लोगों ने इसका मिजाज! आप चाहे चार हिस्सों में तीन हिस्से उसे दे दें, पर अब मैं इस दुष्ट के साथ न रहूँगा। भगवान् ने बेटी को दुःख दे दिया, नही, मुझे खेती-बारी लेकर क्या करना था। जहाँ रहता, वहीं कमाता खाता! भगवान् ऐसा बेटा सातवें बैरी को भी न दे। ‘लड़के से लड़की भली, जो कुलवन्ती होय।’

सहसा सुभागी आकर बोली- दादा, यह सब बाँट-बखरा मेरे ही कारण तो हो रहा हैं, मुझे क्यों नही अलग कर देते? मैं मेहनत- मजूरी करके अपना पेट पाल लूँगी। अपने से जो कुछ बन पड़ेगा तुम्हारी सेवा करती रहूँगी, पर रहूँगी अलग। यों घर, का बारा-बाँट होना मुझसे नही देखा जाता। मैं अपने माथे पर यह कलंक नही लेना चाहती।

तुलसी ने कहा- बेटी, हम तुझे न छोड़ेगो, चाहे संसार छूट जाय! रामू का मैं मुँह नहीं देखना चाहता, उसके साथ तो रहना दूर रहा।

रामू की दुल्हन बोली- तुम किसी का मुँह नहीं देखना चाहते तो हम भी तुम्हारी, पूजा करने को व्याकुल नही हैं।

महतो दाँत पीसते हुए उठे कि बहू को मारे मगर लोगों ने पकड़ लिया।

बँटबारा होते ही महतो और लक्ष्मी को मानो पेंशन मिल गयी। पहले तो दोनों सारे दिन, सुभागी के मना करने पर भी कुछ -न-कुछ कहते ही रहते थे; पर अब उन्हें पूरा विश्राम था। पहले दोनों दूध -धी को तरसते थे। अब सुभागी ने कुछ पैसे बचाकर एक भैस ले ली। बूढ़े आदमियों की जान तो उनका भोजन हैं। अच्छा भोजन न मिले, तो वे किसके आधार पर रहें। चौधरी ने बहुत विरोध किया। कहने, घर का काम यों ही क्या कम हैं कि तू नया झंझट पाल रही हैं। सुभागी उन्हें बहलाने के लिए कहती- दादा, मुझे दूध के बिना खाना नहीं अच्छा लगता।

लक्ष्मी ने हँसकर कहा- बेटी, तू झूठ कब से बोलने लगी? कभी दूध हाथ से तो छूती नहीं, खाने की कौन कहे। सारा दूध हम लोगो के पेट मे ठूँस देती हैं।

गाँव में जहाँ देखो, सबके मुँह से सुभागी की तारीफ। लड़की नही, देवी हैं, दो मरदों का काम करती हैं, उस पर भी माँ-बाप की सेवा भी किये जाती हैं। सजनसिंह तो कहते यह उस जन्म की देवी हैं।

मगर शायद महतो को यह सुख बहूत दिन तक भोगना न लिखा था।

सात-आठ दिन से महतो को जोर का ज्वर चढ़ा हुआ था। देह पर कपड़ो का तार भी नही रहने देते। लक्ष्मी पास बैठी रो रही हैं। सुभागी पानी लिये खड़ी हैं। अभी एक क्षण पहले महतो ने पानी माँगा था; पर जब तक वह पानी लाये, उनका जी डूब गया और हाथ-पाँव ठंड़े हो गये। सुभागी उनकी यह दशा देखते ही रामू के घर गयी और बोली- भैया, चलो देखो, आज दादा न जाने कैसे हुए जाते हैं। सात दिन से ज्वर नहीं उतरा।

रामू ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा- तो क्या मैं डॉक्टर-हकीम हूँ कि देखने चलूँ? जब तक अच्छे थे, तब तक तो तुम उसके गले की हार बनी हुई थी। अब जब मरने लगे तो मुझे बुलाने आयी हो!

उसी वक़्त उसकी दुल्हन अन्दर से निकल आयी और सुभागी से पूछा- दादा को क्या हुआ दीदी?

सुभागी के पहले रामू बोल उठा- हुआ क्या हैं, अभी कोई मरे थोड़े ही जाते हैं।

सुभागी ने फिर उससे कुछ न कहा सीधे सजनसिंह के पास गयी। उसके जाने के बाद रामू हँसकर स्त्री से बोला- त्रियाचरित्र इसी को कहते हैं।

स्त्री- इसमें त्रियाचरित्र की कौन-सी बात हैं? चले क्यों नहीं जाते

रामू- मैं नही जाने का। जैसे उसे लेकर अलग हुए थे, वैसे उसे लेकर रहे। मर भी जाएँ तो न जाऊँ।

स्त्री-(हँसकर) मर जायेंगे तो आग देने तो जाओगे, तब कहाँ भागोगे?

रामू- कभी नही। सब-कुछ उनकी प्यारी सुभागी कर लेगी।

स्त्री- तुम्हारे रहते वह क्यों करने लगी।

रामू- जैसे मेरे रहते उसे लेकर अलग हुए, और कैसे।

स्त्री- नहीं जी, यह अच्छी बात नही हैं। चलो, देख आयें। कुछ भी हो, बाप ही तो हैं। फिर गाँव में कौन-सा मुँह दिखाओगे?

रामू- चुप रहो, मझे उपदेश मत दो।

उधर बाबू साहब ने ज्यों ही महतो का हालत सुनी, तुरन्त सुभागी के साथ चले आये। यहाँ पहुँते तो महतो की दशा और भी खराब हो चुकी थी। नाड़ी देखी, तो बहुत धीमी थी। समझ गये कि जिन्दगी के दिन पूरे हो गये। मौत का आतंक छाया हुआ था। सजल नेत्र होकर बोले- महतो भाई, कैसा जी हैं?

महतो जैसे नींद से जागकर बोले- बहुत अच्छा हैं भैया! अब तो चलने की बेला हैं। सुभागी के पिता अब तुम्हीं हो। उसे तुम्हीं को सौपे जाता हूँ ।

सजनसिंह रोते हुए बोले- भैया महतो, घबड़ाओ मत! भगवान् ने चाहा तो तुम अच्छे हो जाओगे। सुभागी को तो मैंने हमेशा अपनी बेटी समझा हैं और जब तक जिऊँगा, ऐसा ही समझता रहूँगा। तुम निश्चिंत रहो मेरे होते सुभागी या लक्ष्मी को कोई तिरछी आँख से न देखेगा। और इच्छा हो, तो वह भी कह दो। महतो ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा- और कुछ नहीं कहूँगा भैया! भगवान् तुम्हें सदा सुखी रखे।

सजनसिंह रामू को बुलाकर लाता हूँ। उससे जो भूल -चूक हुई हो, क्षमा कर दो।

महतो- नहीं भैया। उस पापी हत्यारे का मुँह मैं नहीं देखना चाहता। इसके बाद गोदान की तैयारियाँ होने लगी।

रामू को गाँव-भर में समझाया पर वह अन्तेष्टि करने पर राजी न हुआ। कहा-जिस पिता ने मरते समय भी मेरा मुँह देखना स्वीकार किया, न वह मेरा पिता हैं, न मैं उसका पुत्र ।

लक्ष्मी ने दाह-क्रिया की। इन थोड़े से दिनों में सुभागी ने न जाने कैसे रुपये जमा कर लिये थे कि जब तेरहवीं का सामान आने लगा, तो गाँववालों की आँखे खुल गयी। बरतन, कपड़े, घी, शक्कर, सभी सामान इफरात से जमा हो गये। रामू देख- देखकर जलता था और सुभागी उसे जलाने के लिए सबको यह सामान दिखाती थी।

लक्ष्मी ने कहा- बेटी घर देखकर खर्च करो। अब कोई कमानेवाला नहीं बैठा हैं। आप ही कुआ खोदना और पानी पीना हैं।

सुभागी बोली- बाबूजी का काम तो धूम -धाम से ही होगा अम्माँ, चाहे घर रहे या जाय। बाबूजी फिर थोड़े ही आयेगे। मैं भैया को दिखा देना चाहती हूँ कि अबला क्या कर सकती हैं! वह समझते होंगे, इन दोनो के किये कुछ न होगा। उनका घमंड़ तोड़ दूँगी।

लक्ष्मी चुप हो गयी। तेरहवीं के दिन आठ गाँव के ब्राह्मणों का भोज हुआ। चारो तरफ वाह-वाह मच गयी।

पिछने पहर का समय था; लोग भोजन करके चले गये थे। लक्ष्मी थककर सो गयी थी। केवल सुभागी बची हुई चीजें उठा-उठाकर रही थी कि ठाकुर सजनसिंह ने आकर कहा- अब तुम भी आराम करो बेटी। सवेरे यह सब ठीक कर लेना।

सुभागी ने कहा- अभी थकी नहीं हूँ दादा! आपने जोड़ लिया, कुल कितने रुपये उठे?

सजनसिंह यह पूछकर क्या करोगी बेटी?

‘कुछ नहीं, यों ही पूछती थी। ’

‘‘कोई तीन सौ रुपये उठे होंगे।’

सुभागी ने सकुचात हुए कहा- मै इन रुपयों की देनदार हूँ।

‘ तुमसे तो मैं माँगता नहीं। महतो मेरे मित्र और भाई थे। उनके साथ कुछ मेरा तो भी धर्म हैं।’

‘आपकी यही दया क्या कम हैं कि आपने मेरे ऊपर इतना विश्वास किया, मुझे कौन 300 रुपये दे देता।’

सजनसिंह सोचने लगा, इस अबला की धर्म-बुद्धि का कहीं वारपार भी हैं या नहीं।

लक्ष्मी उन स्त्रियों में थी, जिनके लिए पति-वियोग जीवन-स्रोत का बन्द हो जाना हैं। पचास वर्ष के चिर सहवास के बाद अब यह एकान्त जीवन उसके लिए पहाड़ हो गया। उसे अब ज्ञात हुआ कि मेरी बुद्धि, मेरा बल, मेरी स्मृति, मानो सबसे मैं वंचित हो गयी।

उसने कितनी बार ईश्वर से विनती की थी, मुझे स्वामी के सामने उठा लेना; मगर उसने यह विनती स्वीकार न की। मौत पर अपना काबू नहीं, तो जीवन पर भी काबू नहीं हैं?

वह लक्ष्मी, जो गाँव में अपनी बुद्धि के लिए मशहुर थी, जो दूसरों को सीख दिया करती थी, अब बौरही हो गयी हैं। सीधी-सी बात करते नहीं बनती।

लक्ष्मी का दाना-पानी उसी दिन से छूट गया। सुभागी के आग्रह पर चौके मे जाती ; मगर कौर कंठ के नीचे न उतरता। पचास वर्ष हुए, एक दिन भी ऐसा न हुआ कि पति के बिना खाये उसने खुद खाया हो। अब उस नियम को कैसे तोडे?

आखिर उसे खाँसी आने लगी। दुर्बलता ने जल्द ही खाट पर डाल दिया। सुभागी अब क्या करे! ठाकुर साहब के रुपये चुकाने के लिए दिलोजान से काम करने की जरूरत थी। यहाँ माँ बीमार पड़ गयी। अगर बाहर जाय, तो माँ अकेली रहती हैं। उसके पास बैठे, तो बाहर का काम कौन करे? माँ की दशा देखकर सुभागी समझ गयी कि इनका परवाना भी आ पहुँचा। महतों को भी तो यही ज्वर था!

गाँव में और किस फुरसत थी कि दौड-धूप करता। सजनसिंह दोनों वक़्त आते, लक्ष्मी को देखते, दवा पिलाते, सुभागी को समझाते और चले जाते; मगर लक्ष्मी का दशा बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक की पन्द्रहवें दिन वह भी संसार से सिधार गयी। अन्तिम समय रामू आया और उसके पैर छूना चाहता था; पर लक्ष्मी ने उसे ऐसी झिझकी दी कि वह उसके समीप न जा सका। सुभागी को उसने आशीर्वाद दिया- तुम्हारी जैसी बेटी पाकर तर गयी। मेरा क्रिया-कर्म तुम्हीं करना। मेरी भगवान् से यही अरजी हैं कि उस जन्म में भी तुम मेरी कोख पवित्र करो।

माता के देहान्त के बाद सुभागी के जीवन का केवल एक लक्ष्य रह गया- सजनसिंह के रुपये चुकाना। 300 रुपये पिता के क्रिया-कर्म में लगे थे। लगभग 200 रुपये माता के काम में लगे। 500 रुपये का ऋण था और उसकी जान! मगर वह हिम्मत न हारती थी। तीन साल तक सुभागी ने रात-को-रात और दिन-को- दिन न समझा। उसकी कार्य-शक्ति और पौरुष देखकर लोग दाँतो तले उँगली दबात थे। दिन-भर खेती-बारी का काम करने के बाद वह रात को चार-चार पसेरी आटा पीस डालती। तीसवे दिन 15 रुपये लेकर वह सजनसिंह के पास पहुँच जाती। इनमें कभी नागा न पड़ता। यह मानो प्रकृति का अटल नियम था।

अब चारों ओर से सगाई के पैगाम आने लगे। सभी उसके लिए मुँह फैलाये हुए थे। जिसके घर सुभागी जायेगी, उसके भाग्य फिर जायेंगे। सुभागी यही जवाब देती- अभी वह दिन नहीं आया।

जिस दिन सुभागी ने आखिरी किश्त चुकायी, उस दिन उसकी खुशी का ठिकाना न था। आज उसके जीवन का कठोर व्रत पूरा हो गया।

वह चलने लगी तो सजनसिंह ने कहा- बेटी, तुमसे मेरी एक प्रार्थना हैं, कहो कहूँ, कहो न कहूँ, मगर वचन दो कि मानोगी।

सुभागी ने कृतज्ञ भाव से देखकर कहा दादा, आपकी बात न मानूँगी तो किसकी बात मानूँगी? मेरा रोयाँ-रोयाँ आपका गुलाम हैं।

सजनसिंह अगर तुम्हारे मन में यह भाव हैं, तो मैं न कहूँगा। अब तक तुमसे इसलिए नही कहा कि तुम अपने को देनदार समझ रही थी। अब रुपये चुक गये। मेरा तुम्हारे ऊपर कोई एहसान नही हैं, रत्ती भर भी नही। बोलो कहूँ?

सुभागी- आपकी जो आज्ञा हो।

सजनसिंह देखो इनकार न करना नहीं मैं फिर तुम्हें अपना मुँह न दिखाऊँगा

सुभागी- क्या आज्ञा हैं?

सजनसिंह मेरी इच्छा है कि तुम मेरी बहू बनकर मेरे घर को पवित्र करो। मैं जाँत-पाँत का कायल हूँ , मगर तुमने मेरे सारे बन्धन तोड़ दिए। मेरा लड़का तुम्हारे नाम का पुजारी हैं। तुमने उसे बारहा देखा। बोलो, मंजूर करती हो?

सुभागी- दादा, इतना सम्मान पाकर पागल हो जाऊँगी ।

सजनसिंह तुम्हारा सम्मान भगवान् कर रहे हैं। तुम साक्षात् भगवती का अवतार हो।

सुभागी- मैं तो आपको अपना पिता समझती हूँ। आप जो कुछ करेंगे, मेरे भले के लिए करेंगें! आपके हुक्म को कैसे इनकार कर सकती हूँ।

सजनसिंह ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा- बेटी, तुम्हारा सुहाग अमर हो। तुमने मेरी बात रख ली। मुझ -सा भाग्यशाली संसार में औऱ कौन होगा।