मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..अनुभव

मानसरोवर-1 ..अनुभव 

अनुभव - मुंशी प्रेमचंद | Anubhav by Munshi Premchand

प्रियतम को एक वर्ष की सजा हो गयी। और अपराध केवल इतना था, कि तीन दिन पहले जेठ की तपती दोपहरी में उन्होंने राष्ट्र के कई सेवकों को शर्बत-पान से सत्कार किया था। मैं उस वक़्त अदालत में खड़ी थी। कमरे के बाहर सारे नगर की राजनीतिक चेतना किसी बन्दी पशु की भाँति खड़ी चीत्कार कर रही थी। मेरे प्राणधन हथकड़ियों से जकड़े हुए लाये गये। चारों ओर सन्नाटा छा गया। मेरे भीतर हाहाकार मचा हुआ था, मानो प्राण पिघले जा रहे हों। आवेश की लहरें उठ-उठकर समस्त शरीर को रोमांचित कियें देती थी। ओह! इतना गर्व मुझे कभी न हुआ था। वह अदालत, कुर्सी पर बैठा अंग्रेज अफसर, लाल जरीदार पगड़ियाँ बाँधे हुए पुलिस के कर्मचारी, सब मेरी आँखों से तुच्छ जान पड़ते थे। बार-बार जी मे आता था, दौड़कर जीवनधन के चरणों से लिपट जाऊँ और उसी दशा में प्राण-त्याग दूँ। कितनी शाँत, अविचलित तेज और स्वाभिमान से प्रतीप्त मूर्ति थी। ग्लानि, विषाद या शोक की छाया भी न थी। नहीं, उन ओठों पर एक स्फर्ति से भरी हुई, मनोहारिणी, ओजस्वी मुस्कान थी। इस अपराध के लिए एक वर्ष का कठिन कारावास! वाह रे न्याय! तेरी बलिहारी हैं। मैं ऐसे हजार अपराध करने को तैयार थी। प्राणनाथ ने चलते समय एक बार मेरी ओर देखा; कुछ मुस्कराये, फिर उनकी मुद्रा कठोर हो गयी। अदालत से लौटकर मैंने पाँच रुपये की मिठाई मँगवायी और स्वयंसेवकों को बुलाकर खिलायी और संध्या समय मैं पहली बार कांग्रेस के जलसे में शरीक हुआ; -शरीक ही नहीं हुई, मंच पर जाकर बोली और सत्याग्रह की प्रतिज्ञा ले ली। मेरी आत्मा में इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी, नहीं कह सकती। सर्वस्व लुट जाने के बाद फिर किसका डर? विधाता का कठोर-से-कठोर आघात भी अब मेरा क्या अहित कर सकता था?

अनुभव - मुंशी प्रेमचंद | Anubhav by Munshi Premchand

दूसरे दिन मैंने दो तार दिये- एक पिताजी को, दूसरा ससुरजी को। ससुरजी पेंशन पाते थे। पिताजी जंगल के महकमें में अच्छे पद पर थे; पर सारा दिन गुज़र गया, तार का जवाब नदारद! दूसरे दिन भी कोई जवाब नहीं। तीसरे दिन दोनों महाशय के पत्र आये। दोनों ज़ामें से बाहर थे। ससुरजी ने लिखा- आशा थी, तुम लोग बुढ़ापे में मेरा पालन करोगे। तुमने उस आशा पर पानी फेर दिया। क्या अब चाहती हो, मैं भिक्षा माँगू ? मैं सरकार से पेंशन पाता हूँ । तुम्हें आश्रय देकर मैं अपनी पेंशन से हाथ नही धो सकता। पिताजी के शब्द इतने कठोर न थे; पर भाव लगभग ऐसा ही था। इसी साल उन्हें ग्रेड मिलनेवाला था। वह मुझे बुलायेंगे, तो सम्भव हैं, ग्रेड से वंचित होना पड़े। हाँ, वह मेरी सहायता मौखिक रूप से करने को तैयार थे। मैने दोनो पत्र फाड़कर फेक दिये और फिर उन्हें कोई पत्र न लिखा। हा स्वार्थ! तेरी माया कितनी प्रबल है। अपना ही पिता, केवल स्वार्थ में बाधा पड़ने के भय से, लड़को की तरफ से इतना निर्दय हो जाय? अपना ही ससुर, अपनी ही बहू की ओर से इतना उदासीन हो जाय! मगर अभी मेरी उम्र ही क्या है? अभी तो सारी दुनिया देखने को पड़ी है।

अब तक मैं अपने विषय में निश्चिंत थी; लेकिन अब यह नयी चिंता सवार हुई। इस निर्जन घर में, निराधार, निराश्रय, कैसे रहूँगी ; मगर जाऊँगी कहाँ! अगर कोई मर्द होती, तो कांग्रेस के आश्रय में चली जाती या कोई मजदूरी कर लेती। मेरे पैरो में नारीत्व की बेड़ियाँ पड़ी हुई थी। अपनी रक्षा की इतनी चिंता न थी, जितनी अपने नारीत्व की रक्षा की। अपनी जान की फ्रिक न थी; पर नारीत्व की ओर किसी की आँख भी न उठनी चाहिए।

किसी की आहट पाकर मैने नीचे देखा। दो आदमी खड़े थे। जी में आया, पूछूँ, तुम कौन हो। यहाँ क्यों खड़े हो? मगर फिर ख्याल आया, मुझे यह पूछने का क्या हक़? आम रास्ता है। जिसका जी चाहे, खड़ा हो।

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्रपर मुझे खटका हो गया। उस शंका को किसी तरह दिल से न निकाल सकती थी। वह एक चिनगारी की भाँति हृदय के अंदर समा गयी थी।

गर्मी से देह फुँकी जाती थी, पर मैंने कमरे का द्वार भीतर से बन्द कर लिया। घर में एक बड़ा-सा चाकू था। उसे निकालकर सिरहाने रख लिया। वह शंका सामने बैठी घूरती हुई मालूम होती थी।

किसी ने पुकारा। मेरे रोये खड़े हो गये। मैने द्वार से कान लगाया। कोई मेरी कुंडी खटखटा रहा था। कलेजा धक्-धक् करने लगा। वही दोनो बदमाश होगे। क्यों कुंडी खडखड़ा रहे हैं? मुझसे क्या काम हैं? मुझे झुँझलाहट आ गयी। मैने द्वार न खोला और छज्जे पर खड़ी होकर जोर से बोली- कौन कुंड़ी खड़खड़ा रहा हैं?

आवाज सुनकर मेरी शंका शांत हो गयी। कितना ढारस हो गया! यह बाबू ज्ञानचन्द थे। मेरे पति के मित्रों में इनसे ज्यादा सज्जन दूसरा नहीं हैं। मैंने नीचे जाकर द्वार खोल दिया। देखो तो एक स्त्री भी थी। वह मिसेज ज्ञानचन्द थी। यह मुझसे बड़ी थी। पहले-पहले मेरे घर आयी थी। मैंने उनके चरण-स्पर्श किये! हमारे यहाँ मित्रता मर्दो तक रहती हैं, औरतों तक नही जाने पाती।

दोनो जने ऊपर आये। ज्ञानबाबू एक स्कूल में मास्टर हैं। बड़े उदार, विद्वान, निष्कपट; पर आज मुझे मालूम हुआ कि उनकी पथ-प्रदर्शिका उनकी स्त्री हैं। वह दोहरे बदन की प्रतिभाशाली महिला थी। चेहरे पर ऐसा रौब था, मानो कोई रानी हो। सिर से पाँव तक गहनों से लदी हुई। मुख सुन्दर न होने पर भी आकर्षक था। शायद मैं उन्हें कहीं और देखती, तो मुँह फेर लेती। गर्व की सजीव प्रतिमा थीं; पर बाहर जितनी कठोर, भीतर उतनी ही दयालु।

‘घर कोई पत्र लिखा?‘ – यह प्रश्न उन्होंने कुछ हिचकते हुए किया।

मैने कहा- ‘हाँ, लिखा था।’

‘कोई लेने आ रहा हैं?’

‘जी नहीं। न पिताजी अपने पास रखना चाहते है, न ससुरजी।’

‘तो फिर?’

‘फिर क्या, अभी तो यही पड़ी हूँ ।’

‘तो मेरे घर क्यो नहीं चलती। अकेले तो इस घर में मैं न रहने दूँगी ।’

‘खुफिया के दो आदमी इस वक़्त भी डटे हुए हैं।’

‘मैं पहले ही समझ गयी थी, दोनो खुफिया के आदमी होंगे।’

ज्ञानबाबू ने पत्नी की ओर देखकर, मानो उसकी आज्ञा से कहा- तो मैं जाकर ताँगा लाऊ ?

देवीजी ने इस तरह देखा, मानो कह रही हो, क्या अभी तुम यहीं खड़े हो?

मास्टर साहब चुपके से द्वार की ओर चले।

‘ठहरो!‘ देवीजी बोली- ‘कै ताँगे लाओगे?’

‘‘कै !‘ मास्टर साहब घबरा गए।

‘हाँ कै! ! एक ताँगे पर दो-तीन सवारियाँ ही बैठेगी। सन्दूक, बिछावनस बर्तन-भाँड़े क्या मेरे सिर पर जाएँगे?’

‘तो दो लेता आऊँगा ।‘ – मास्टर साहब डरते-डरते बोले।

‘एक ताँगे में कितना सामान भर दोगे?’

‘तो तीन लेता आऊँ?’

‘‘अरे, तो जाओगे भी। जरा-सी बात के लिए घंटा भर लगा दिया।’

मै कुछ कहने न पायी थी कि ज्ञानबाबू चल दिये। मैने सकुचाते हुए कहा बहन, तुम्हें मेरे जाने से कष्ट होगा और…

देवीजी ने तीक्षण स्वर में कहा हाँ, होगा तो अवश्य। तुम दोनो जून -दो-तीन पाव आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, सिर में दो-तीन आने का तेल डालोगी। यह क्या थोडा कष्ट हैं।

मैने झेपते हुए कहा- आप तो मुझे बना रही हैं।

देवीजी ने सहृदय भाव से मेरा कन्धा पकड़कर रहा- जब तुम्हारे बाबूजी लौट आयें, तो मुझे भी अपने घर मेहमान रख लेगा। मेरा घाटा पूरा हो जाएगा। अब तो राजी हुई। चलो, असबाव बाँधो। खाट-वाट कल मँगवा लेंगे।

मैने ऐसी सहृदय, उदार, मीठी बातें करनेवाली स्त्री नही देखी। मैं उनकी छोटी बहन होती, तो भी शायद इससे अच्छी तरह न रखतीं। चिन्ता या क्रोध को तो जैसे उन्होंने जीत लिया हो। सदैव उनके मुख पर मधुर विनोद खेला करता था। कोई लड़का-बाला न था, पर मैं उन्हें कभी दु:खी नहीं देखा। ऊपर के काम लिए एक लौंडा रख लिया था। भीतर का सारा काम खुद करती। इतना कम खाकर और इतनी मेहनत करके वह कैसे इतनी हृष्ट- पुष्ट थीं, मै नही कहती सकती। विश्राम तो जैसे उनके भाग्य ही में नहीं लिखा था। जेठ की दोपहरी में भी न लेटती थीं। हाँ, मुझे कुछ न करने देती, उसपर जब देखो, कुछ खिलाने को सिर पर सवार। मुझे यहाँ बस यहीं एक तकलीफ थी।

मगर आठ ही दिन गुजरे थे कि एक दिन मैने उन्हीं दोनो खुफियों को नीचे बैठा देखा। मेरा माथा ठनका। यह अभागे यहाँ भी मेरे पीछे पड़े हैं। मैने तुरन्त बहनजी से कहा- वे दोनों बदमाश यहाँ भी मँडरा रहे हैं।

उन्होंने हिकारत से कहा- कुत्ते हैं! फिरने दो।

मै चिन्तित होकर बोली- कोई स्वाँग न खड़ा करे।

उसी बेपरवाही से बोली- भौकने क सिवा और क्या कर सकते हैं?

मैने कहा- काट भी तो सकते हैं।

हँसकर बोली- इसके डर से कोई भाग तो नही जाता न?

मगर मेरी दाल में मक्खीं पड़ गयी। बार-बार छज्जे पर जाकर उन्हें टहलते देख आती। यह सब क्यों मेरे पीछे पड़े हए हैं? आखिर मैं नौकरशाही का क्या बिगाड़ सकती हूँ । मेरी सामर्थ्य ही क्या हैं? क्या यह सब इस तरह मुझे यहाँ से भगाने पर तुले हुए हैं? इससे उन्हें क्या मिलेगा? यही तो कि मै मारी-मारी फिरूँ। कितनी नीची तबीयत हैं।

एक हफ्त और गुजर गया। खुफिया ने पिंड न छोड़ा। मेरे प्राण सूखते जाते थे। ऐसी दशा में यहाँ रहना मुझे अनुचित मालूम होता था,; पर देवीजी से कुछ न कह सकती थी।

एक दिन ज्ञानबाबू आये, तो घबराये हुए थे। मैं बरामदे में थी। परवल छील रही थी। ज्ञानबाबू ने कमरे में जाकर देवीजी को इशारे से बुलाया।

देवीजी ने बैठे-बैठे कहा- पहले कपड़े-वपड़े तो उतारो, मुँह -हाथ धोओ, कुछ खाओ, फिर जो कहना हो, कह लेना।

ज्ञानबाबू को धैर्य कहा? पेट में बात की गन्ध तक न पचती थी। आग्रह से बुलाया- तुमसे उठा नही जाता? मेरी जान आफत में हैं।

देवीजी ने बैठे-बैठे कहा- तो कहते क्यों नहीं क्या कहना हैं?

‘यहाँ आओ।’

‘क्या यहाँ और कोई बैठा हुआ हैं?’

मै यहाँ से चली। बहन ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं जोर करने पर भी न छुडा सकी। ज्ञानबाबू मेरे सामने न कहना चाहते थे, पर इतना सब्र भी न था कि जरा देर रुक जाते। बोले- प्रिंसिपल से मेरी लड़ाई हो गयी।

देवीजी ने बनाबटी गम्भीरता से कहा- सच! तुमने उसे खूब पीटा ना?

‘तुम्हें दिल्लगी सूझी हैं। यहाँ नौकरी जा रही हैं।’

‘जब यह डर था, तो लड़े क्यों?’

‘मैं थोड़ा ही लड़ा। उसने मुझे बुलाकर डाँटा’

‘बेकसूर ?’

‘अब तुमसे क्या कहूँ ।’

‘फिर वही पर्दा। मैं कह चुकी, यह मेरी बहन हैं। मैं इससे कोई पर्दा नही रखना चाहती।’

‘और, जो इन्हीं के बारे में कोई बात हो, तो?’

देवीजी ने जैसे पहेली बूझकर कहा- अच्छा! समझ गयी। कुछ खुफियों का झगड़ा होगा। पुलिस ने तुम्हारे प्रिंसिपल से शिकायत की होगी।

ज्ञान बाबू ने इतनी आसानी से अपनी पहेली का बूझा जाना स्वीकार न किया।

बोले- पुलिस ने प्रिंसिपल से नहीं, हाकिम-जिला से कहा- उसने प्रिंसिपल को बुलाकर मुझसे जवाब तलब करने का हुक्म दिया।

देवी ने अन्दाज से कहा- समझ गयी। प्रिंसिपल ने तुमसे कहा होगा कि उस स्त्री को घर से निकाल दो।

‘हाँ, यही समझ लो।’

‘तो तुमने क्या जवाब दिया?’

‘अभी कोई जवाब नहीं दिया। वहाँ खड़े-खड़े क्या कहना।’

देवीजी ने उन्हें आड़े हाथों लिया- जिस प्रश्न का एक ही जवाब हो, उसमें सोच विचार कैसा?

ज्ञान बाबू सिटपिटाकर बोले- लेकिन कुछ सोचना तो जरूरी था।

देवीजी की त्योरियाँ बदल गयी। आज मैने पहली बार उनका यह रूप देखा। बोली- तुम उस प्रिंसिपल से जाकर कह दो, मैं उसे किसी तरह नही छोड़ सकता और न माने, तो इस्तीफा दे दो, अभी जाओ। लौटकर हाथ- मुँह धोना।

मैने रोकर कहा- बहन, मेरे लिए…

देवीजी ने डाँट बतायी- तू चुप रह, नही कान पकड़ लूँगी। क्यों बीच में कूदती हैं। रहेंगे तो साथ रहेंगे, मरेंगे तो साथ मरेंगे। इस मर्दुए को मैं कहू । आधी उम्र बीत गयी और बात करना न आया। (पति से) खड़े सोच क्या रहे हो? तुम्हें डर लगता हैं, तो मैं जाकर कह आऊँ ?

ज्ञान बाबू ने खिसियाकर कहा- तो कल कह दूँगा, इस वक़्त कहाँ होगा, कौन जाने!

रात-भर मुझे नींद नहीं आयी। बाप और ससुर जिसका मुँह नहीं देखना चाहते, उसका यह आदर! राह की भिखारिन का यह सम्मान! देवी, तू सचमुच देवी हैं।

दूसरे दिन ज्ञान बाबू चले, तो देवी ने फिर कहा फैसला करके घर आना। यह न हो कि सोचकर जवाब देने की जरूरत पड़े।

ज्ञान बाबू के चले जाने के बाद मैने कहा- तुम मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रही हो बहनजी! मै यह कभी नहीं देख सकती कि मेरे कारण तुम्हें यह विपत्ति झेलनी पड़े।

देवी ने हास्य-भाव से कहा- कह चुकी; या कुछ और भी कहना हैं?

‘कह चुकी; मगर अभी बहुत कुछ कहूँ गी।’

‘अच्छा, बता तेरे प्रियतम क्यों जेल गये? इसलिए तो कि स्वयंसेवकों का सत्कार किया था। स्वयंसेवक कौन हैं? वे हमारी सेना के वीर हैं, जो हमारी लड़ाईयाँ लड़ रहे हैं। स्वयंसेवकों के भी तो बाल-बच्चे होंगे, माँ-बाप होगें, वह भी तो कोई कारोबार करते होंगं; पर देश की लड़ाई के लिए, उन्होंने सब कुछ त्याग दिया हैं। ऐसे वीरों का सत्कार करने के लिए, जो आदमी जेल में डाल दिया जाय, उसकी स्त्री के दर्शनों से भी आत्मा पवित्र होती हैं। मैं तुझ पर एहसान नहीं कर रहीं, तू मुझ पर एहसान कर रही हैं।’

मै इस दया-सागर में डुबकियाँ खाने लगी। बोलती क्या?

शाम को जब ज्ञान बाबू लौटें, तो उनके मुख पर विजय का आनन्द था।

देवी ने पूछा- हार कि जीत?

ज्ञान बाबू ने अकड़कर कहा- जीत! मैने इस्तीफा दे दिया, तो चक्कर में आ गया। उसी वक़्त जिला-हाकिम के पास गया। वहाँ न जाने मोटर पर बैठकर दोनों में क्या बातें हुई। लौटकर मुझसे बोला- आप पोलिटिकल जलसों में तो नही जाते?

मैने कहा- कभी भूलकर भी नहीं।

‘कांग्रेस के मेम्बर तो नहीं हैं?’

मैने कहा- मेम्बर क्या, मेम्बर का दोस्त भी नही।

‘कांग्रेस फंड में चन्दा तो नही देते?’

मैने कहा- कानी कौड़ी भी कभी नही देता।”

‘तो हमें आपसे कुछ नही कहना हैं। मैं आपका इस्तीफा वापस करता हूँ ।’

देवीजी ने मुझे गले से लगा लिया।

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