मिर्जा ग़ालिब
Born: 27 December 1797, Agra
Died: 15 February 1869, Gali Qasim Jan, Delhi
Full name: Mirza Asadullah Baig Khan
नाराज़ तो नहीं थे तेरे जाने से,
मगर हैरान इस बात से थे कि तुमने मुड़ कर देखा तक नहीं..
शेर हो, गजल हो, शायरी हो और मोहब्बत करने वालों की महफिल हो, वहां गालिब साहब खुद ब खुद पहुंच जाते। जी हां आज बात करते हैं उर्दू के बेहद मशहूर शायर मिर्जा ग़ालिब की। आज ग़ालिब जी की 226वीं जयंती है। मिर्जा गालिब का पूरा नाम मिर्जा असदुल्लाह बेग खान है। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 में उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ। उनके पिता का नाम अबदुल्ला बेग और माता का नाम इज्जत उत निसा बेगम था। आज मिर्ज़ा ग़ालिब जी की जयंती पर जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी कुछ बातें और अनछुये पहलू के बारे में.......
गालिब जी के आधिकारिक नाम से शायद कुछ लोग वाकिफ ना हों, पर गालिब के नाम से वे हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब वैसे तो फारसी में शायरी किया करते थे, लेकिन उर्दू जुबान शायरी के तौर पर वह बहुत मशहूर हुए। गालिब जब सिर्फ 5 साल के थे तभी पिता का साया उनके सिर से उठ गया और इसके बाद चाचा द्वारा उनका पालन-पोषण किया जाने लगा, लेकिन कुछ समय बाद चाचा का भी निधन हो गया। फिर वे अपने ननिहाल आ गए। 13 साल की उम्र में उनका निकाह उमराव बेगम से हुआ। मिर्जा गालिब की कोई संतान नहीं है।
मिर्जा गालिब ने 11 साल की उम्र में ही उर्दू और फारसी में गद्य और पद्य लेखन की शुरुआत कर दी। गालिब की शायरी से महफिलों में तालियां बजने लगती थी। वे खड़े-खड़े ही शे'र और गजलें बना लिया करते थे। यही कारण है कि गालिब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान समेत दुनियाभर में करोड़ों दिलों के पसंदीदा शायर हैं। गालिब की कई गजलें और शेर लोगों के जुबां पर रहते हैं। 1850 में शहंशाह बहादुर जफर ने मिर्जा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज्म-उद-दौला के खिताब से नवाजा। इसके बाद उन्हें मिर्जा नोशा का खिताब भी मिला।
गालिब ने शायरी और गजल को एक नया रूप दिया। गालिब के पहले गजल को केवल प्रेम के संदर्भ में देखा जाता है, लेकिन उन्होंने गजल में ही जीवन के दर्शन और रहस्य को दर्शाया। उर्दू शायरी में किसी शख्स का नाम सबसे ज्यादा लिया जाता हैं, तो वह हैं मिर्ज़ा ग़ालिब। मिर्ज़ा ग़ालिब मुग़ल शासन के दौरान ग़ज़ल गायक, कवि और शायर हुआ करते थे। उर्दू भाषा के फनकार और शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम आज भी काफी अदब से लिया जाता हैं। उनके द्वारा लिखी गई गज़लें और शायरियाँ आज भी युवाओं और प्रेमी जोड़ों को अपनी और आकर्षित करती हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरियाँ बेहद ही आसान और कुछ पंक्तियों में हुआ करती थी, जिसके कारण यह जन-मन में पहुँच गयी।
मैं आधा मुसलमान हूं, क्योंकि मैं शराब पीता हूं : गालिब
हुआ यूँ कि जब गालिब को पहली बार 1857 के विद्रोह के बाद गिरफ्तार किया गया था। उस समय कई मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया था। उन्हें जब कर्नल ब्रून के सामने पेश किया गया तो उनसे पूछा गया कि क्या आप मुसलमान हैं। तो उनका जवाब था कि मैं आधा मुसलमान हूं। क्योंकि मैं शराब पीता हूं। लेकिन सुअर का मांस नहीं खाता। वे विनोद प्रिय व्यक्ति थे। 1841 में भी उनकी गिरफ्तारी जुए के आरोप में हुई थी। जिसमें उन्हें 6 महीने की कैद के साथ जुर्माना लगाया गया था।
मिर्ज़ा ग़ालिब की मुत्यु
मिर्ज़ा ग़ालिब के अंतिम साल गुमनामी में कटे लेकिन जीवन के अंतिम क्षण तक वे हाजिर जवाबी रहे। जब वह अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर थे तब दिल्ली में महामारी फ़ैली हुई थी। उन्होंने अपने चहिते शागिर्द को तंज भरे लिहाज में पत्र लिखकर बताया “भई कैसी वबा (महामारी)? जब सत्तर बरस के बुड्ढे-बुढ़िया को न मार सकी।”
इसका उदाहरण एक और जगह देखने को मिलता है। अंतिम दिनों में ग़ालिब के शरीर में बेहद ही दर्द रहता था। वह बिस्तर पर ही दर्द से करहाते रहते थे। एक दिन दर्द से कराह रहे थे, तब मजरूह (नौकर) आया और देखा तो उनके पैर दबाने लगा। ग़ालिब ने उसे ऐसा करने से मना किया तो मजरूह बोला, "आपको बुरा लग रहा है, तो आप मुझे पैर दबाने की मज़दूरी दे दीजिएगा।" इस पर ग़ालिब ने कहा, ‘ठीक है। पैर दबाने के बाद जब मजरूह ने अपनी मज़दूरी मांगी तो ग़ालिब दर्द के बावजूद हंसते हुए बोले- "कैसी उजरत (मज़दूरी) भाई? तुमने मेरे पांव दाबे, मैंने तुम्हारे पैसे दाबे, हिसाब बराबर।"
15 फरवरी 1869 को मिर्जा गालिब की मृत्यु हो गई। उन्हें हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के पास दफनाया गया। हैरत की बात यह थी कि मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे महान कवि की मृत्यु होने के दो दिन पश्चात् यह खबर पहली बार उर्दू अखबार अकमल-उल-अख़बार में छपी। रोचक बात यह हैं कि शादी को कैद बताने वाले इस शायर की पत्नी उमराव बेगम की मौत एक साल बाद हो गयी। दोनों की कब्र दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में बनायीं गयी। मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी में दर्द की झलक मिलती हैं, जिससे पता चलता हैं कि जिंदगी एक अनवरत संघर्ष है जो मौत के साथ खत्म होती है।
मिर्जा गालिब की प्रेम कहानी कभी पूरी नहीं हुई
गालिब के पिता 1803 में एक युद्ध में मारे गए। इसके बाद उसके मामा ने उसे पालने की कोशिश की लेकिन 1806 में हाथी से गिरकर उनकी मौत हो गई। मां के बारे में ज्यादा जिक्र नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनकी मृत्यु भी जल्दी हो गई थी। गालिब की मां कश्मीरी थीं। बचपन की घटनाओं ने गालिब को एक बहुत ही संजीदा इंसान बना दिया। गालिब का भाई मिर्जा यूसुफ भी स्कित्जोफ्रेनिया नामक बीमारी का शिकार हो गए थे और वो भी युवा अवस्था में ही चल बसे।
1810 में महज 13 साल की उम्र में नवाब इलाही बक्श की बेटी उमराव बेगम गालिब की पत्नी बनी। गालिब को अपनी पत्नी से लगाव तो था, लेकिन उनका रिश्ता कभी मोहब्बत की दहलीज को पार नहीं कर पाया था। गालिब ने अपने शेर और खतों में लिखा था कि शादी दूसरी जेल की तरह है। पहली जेल जिंदगी ही है, जिसका संघर्ष उसके साथ ही खत्म होता है।
कुछ रिपोर्ट्स मानती हैं कि गालिब को मुगल जान नामक एक गाने वाली से काफी लगाव हो गया था। गालिब अपनी शादी से खुश नहीं थे और मुगल जान के पास जाते थे। पर मुगल जान पर जान छिड़कने वाले वो अकेले नहीं थे। उस समय का एक और शायद हातिम अली मेहर भी मुगल जान के लिए पलकें बिछाए हुए था। मुगल जान ने जब ये बात गालिब को बताई तो गालिब को गुस्सा नहीं आया और ना ही वो हातिम को अपना दुश्मन समझने लगे। गालिब और हातिम के बीच कोई बड़ी दरार बनती उससे पहले ही मुगल जान की मौत हो गई। उस वक्त हातिम और गालिब दोनों ही दुखी थे। गालिब ने एक खत के जरिए हातिम को बताया कि दोनों एक ही तरह का दुख महसूस कर रहे हैं।
आशिकी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होते तक'
गालिब का प्यार मुगल जान के लिए अनोखा था। वो प्यार तो करते थे, लेकिन ये भी जानते थे कि उसे पा नहीं सकते। मुगल जान गालिब के लिए एक कल्पना और पूरा ना हो सकने वाला ख्वाब दोनों थी।
मुगल जान के जाने के बाद गालिब की जिंदगी में एक और महिला के आने की बात कही जाती है, लेकिन गालिब और उस महिला जिसे तुर्की बताया जाता है उसका प्यार भी ज्यादा नहीं चल पाया। वो एक इज्जतदार घराने से थी और समाज की बंदिशों और बदनामी के डर से उसने अपनी जिंदगी खत्म कर ली थी। इसके बाद गालिब दुखों के सागर में डूब गए थे और 'हाय हाय' नामक गजल लिखी थी। ये गजल बताती है कि गालिब खुद उस महिला की कितनी इज्जत करते थे। तो यूं था मिर्जा गालिब का प्यार जो कभी मुकम्मल नहीं हो पाया।
'दर्द से मेरे है तुझको बेकरारी हाय हाय,
क्या हुई जालिम तेरी गफलत शायरी हाय हाय'
बच्चों की मौत का दुख रहा जिंदगी भर
गालिब की शादीशुदा जिंदगी की एक कमी उनकी संतानें भी थीं। गालिब की 7 संतानें हुईं, लेकिन उनमें से कोई भी कुछ महीनों से ज्यादा जिंदा नहीं रह पाईं।
उनकी जिंदगी की ये सारी बातें उन्हें अकेला करती गईं और गालिब की शायरी निखरती गई।
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है
ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है
शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हाँ भला कर तिरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले