श्रीमद्भगवद्गीता || Shrimad Bhagwat Geeta ||अध्याय तीन ~ कर्मयोग || अनुच्छेद 01 - 08 में ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता ||

 श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagwat Geeta)

इस ब्लॉग के माध्यम से हम सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता प्रकाशित करेंगे, इसके तहत हम सभी 18 अध्यायों और उनके सभी श्लोकों का सरल अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करेंगे। 

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता के 18 अध्यायों में से अध्याय 1 और 2 के पूरे होने के बाद आज से अध्याय 3 की शुरुवात करते हैं।

अध्याय तीन       - कर्मयोग

01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता
09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन
17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिएप्रेरणा
36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश 

श्रीमद्भगवद्गीता || अध्याय तीन ~ कर्मयोग ||

अथ तृतीयोऽध्यायः ~ कर्मयोग

अध्यायतीन के अनुच्छेद 01 - 08

श्रीमद्भगवद्गीता || Shrimad Bhagwat Geeta ||अध्याय तीन ~ कर्मयोग || अनुच्छेद 01 - 08 में  ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता ||

अध्याय तीन के अनुच्छेद 01 - 08 में  ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता की व्याख्या है।

अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥3 .1॥
भावार्थ : 

अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥3 .2॥

भावार्थ : 

आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥2॥

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥3 .3॥

भावार्थ :  

श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग' है, इसी को 'संन्यास', 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसी को 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥3॥

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥3 .4॥

भावार्थ : 
मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है॥4॥

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥3 .5॥

भावार्थ : 

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥5॥
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥3 .6॥

भावार्थ : 

जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥6॥
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥3 .7॥

भावार्थ : 

किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है॥7॥

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥3 .8॥

भावार्थ :  

तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥8॥



औषधियों में विराजमान नवदुर्गा

Navdurga

4. कूष्मांडा (पेठा) : -


मां दुर्गा का चौथा रूप कुष्मांडा का है। कुष्मांडा अर्थात पेठा, इसे साधारण बोलचाल की भाषा में कुम्हड़ा (कोहड़ा) भी कहा जाता है। इस औषधि से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। यह रक्त विकार दूर कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रोगों में यह अमृत समान है। यह हृदय रोगियों के लिए भी लाभदायक होता है। कोलेस्ट्रोल को कम करने वाला, ठंडक पहुंचाने वाला और मूत्र वर्धक होता है। यह पेट की गड़बड़ियों में भी असरदायक है।
मां दुर्गा का चौथा रूप कुष्मांडा

🙏🚩जय माता दी 🚩🙏

17 comments:

  1. जय श्री कृष्ण

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  2. ॐ श्री भगवते वासुदेवाय नमः 🙏🏻

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  3. जय श्री कृष्ण

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  4. Jivan ke mod pr Gita gyan aavashyak hai. Dhanyvaad

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  5. जय श्री कृष्णा

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  6. राधे राधे

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  7. 🙏जय माँ कुष्मांडा🙏
    कितनी गुणकारी हैं कोहरे का पेठा जो इन्शान
    के शरीर मे उतपन्न रक्त विकार को दूर कर कोलेस्ट्रॉल और हृदय सम्बन्धी बीमारियों में भी काफी लाभदायक है । माँ कुष्मांडा इसमें बसती हैं इससे ज्यादा सौभाग्य और क्या हो सकती है।
    आज हृदय दिवस भी है और माता कुष्मांडा का दिवस भी कितना सुंदर और सुखद संयोग है।

    गीता जी के तृतीय अध्याय की शुरुआत भी कितनी अच्छी बातों से की गई है कि इन्शान
    मन से इंद्रियों को वश में करके सही आचरण
    करना सीख सकता है जो की इस मृत्य लोक के साथ हीं परमधाम पहुँचने का मार्ग भी प्रशस्त्र करेगी।
    🙏ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🙏

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    1. जी बिल्कुल सही कहा आपने, हमारी धर्म संस्कृति कुछ इसी प्रकार विकसित हुई है। अगर हम इसके अनुरूप जीवन यापन करें तो बहुत सी विकृतियों और विकारों से बचा जा सकता है।

      आपकी विस्तृत टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार। इसप्रकार सकारात्मक प्रतिक्रिया से प्रोत्साहन मिलता है।
      🙏जय माता दी 🙏
      🙏जय श्री कृष्णा 🙏

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  8. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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  9. Jai Shree Krishna 🙏

    Mata rani ke charano me koti koti naman..🙏🙏

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