हनुमान धारा, चित्रकूट || Hanuman Dhara, Chitrakoot

हनुमान धारा, चित्रकूट

चित्रकूट भगवान श्रीराम की तपोस्थली है। ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीराम ने अपने 14 वर्ष के वनवास के दौरान 11 साल चित्रकूट में बिताए थे। धर्म नगरी के प्राचीन हनुमान धारा तीर्थ स्थल से श्रद्धालुओं की आस्था वर्षों पुरानी है। इस धारा का जल हनुमानजी को स्पर्श करता हुआ बहता है। इसीलिए इसे हनुमान धारा कहते हैं। मान्यता है कि इसके दर्शन से प्रत्येक व्यक्ति तनाव मुक्त हो जाता है तथा मनोकामना भी पूर्ण होती है।

हनुमान धारा, चित्रकूट || Hanuman Dhara, Chitrakoot

हनुमान धारा के बारे में कहा जाता है की जब श्री हनुमान जी ने लंका में आग लगाई उसके बाद उनकी पूंछ में लगी आग को बुझाने के लिए वो इस जगह आये, जिन्हें भक्त हनुमान धारा कहते हैं। यह विन्ध्यास के शुरुआत में राम घाट से 4 किलोमीटर दूर है। एक चमत्कारिक पवित्र और ठंडी जल धारा पर्वत से निकल कर हनुमान जी की मूरत की पूँछ को स्नान कराकर नीचे कुंड में चली जाती है। 

कहा जाता है की जब हनुमानजी ने लंका में अपनी पूँछ से आग लगाई थी तब उनकी पूँछ पर भी बहूत जलन हो रही थी। तब हनुमानजी ने भगवन श्री राम से विनती की। हे प्रभु! मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे मैं इस जलन से मुक्ति पा सकूं। तब श्री राम ने अपने बाण के प्रहार से इसी जगह पर एक पवित्र धारा बनाई, जो हनुमान जी की पूँछ पर लगातार गिरकर पूँछ के जलन को कम करती रही। यह जगह पर्वत माला पर है। वर्तमान में यह स्थान चित्रकूट उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित है। यह पड़ोस में ही स्थित मध्य प्रदेश के सतना ज़िले के चित्रकूट नगर से जुड़ा हुआ है।


हनुमान धारा, चित्रकूट || Hanuman Dhara, Chitrakoot

यह स्थान पर्वतमाला के मध्यभाग में स्थित है। पहाड़ के सहारे हनुमानजी की एक विशाल मूर्ति के ठीक सिर पर दो जल के कुंड हैं, जो हमेशा जल से भरे रहते हैं और उनमें से निरंतर पानी बहता रहता है। पहाड़ी के शिखर पर स्थित हनुमान धारा में हनुमान की एक विशाल मूर्ति है। मूर्ति के सामने तालाब में झरने से पानी गिरता है। आज भी यहां वह जल धारा के निरंतर गिरती है। जिस कारण इस स्थान को हनुमान धारा के रूप में जाना जाता है। धारा का जल पहाड़ में ही विलीन हो जाता है। उसे लोग प्रभाती नदी या पातालगंगा कहते हैं।

भारत के तीर्थों में चित्रकूट को इसलिए भी गौरव प्राप्त है क्योंकि इसी में भक्तराज हनुमान की सहायता से भक्त शिरोमणि तुलसीदास को प्रभु श्री राम के दर्शन हुए। यहां पर पंचमुखी हनुमान की प्रतिमा है। यह लगभग 100 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। जब श्रीराम लंका विजय से वापस लौट रहे थे, तब उन्होंने हनुमान के विश्राम के लिए इस स्थल का निर्माण किया था। यहीं पर पहाड़ी की चोटी पर `सीता रसोई' स्थित है। हनुमान धारा से ठीक 100 सीढ़ी ऊपर सीता रसोई है, जहां माता सीता ने भोजन बनाकर भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जी को खिलाया था।

हनुमान धारा, चित्रकूट || Hanuman Dhara, Chitrakoot

English Translate

Hanuman Dhara, Chitrakoot

Chitrakoot is the holy place of Lord Shri Ram. It is believed that Lord Shri Ram spent 11 years in Chitrakoot during his 14 years of exile. The faith of devotees in the ancient Hanuman Dhara pilgrimage site of Dharmanagari is years old. The water of this stream flows touching Hanumanji. That is why it is called Hanuman Dhara. It is believed that by seeing it every person becomes stress free and his wishes are also fulfilled.

हनुमान धारा, चित्रकूट || Hanuman Dhara, Chitrakoot

It is said about Hanuman Dhara that after Shri Hanuman ji set fire to Lanka, he came to this place to extinguish the fire in his tail, which devotees call Hanuman Dhara. It is 4 kilometers from Ram Ghat at the beginning of Vindhyas. A miraculous holy and cold water stream emerges from the mountain and goes down into the pond, bathing the tail of Hanumanji's idol.

It is said that when Hanumanji set fire to Lanka with his tail, there was a lot of burning sensation on his tail. Then Hanumanji requested Lord Shri Ram. Oh God! Please tell me some solution by which I can get rid of this irritation. Then, with the strike of his arrow, Shri Ram created a sacred stream at this very place, which continuously fell on Hanuman ji's tail, reducing the burning sensation in the tail. This place is on the mountain range. Presently this place Chitrakoot is situated in Banda district of Uttar Pradesh. It is connected to the neighboring Chitrakoot city of Satna district of Madhya Pradesh.

This place is situated in the central part of the mountain range. There are two water ponds right on the head of a huge idol of Hanumanji on the support of the mountain, which are always filled with water and water keeps flowing from them continuously. There is a huge statue of Hanuman in Hanuman Dhara situated on the top of the hill. Water falls from a waterfall into the pond in front of the statue. Even today that water stream falls continuously here. Due to which this place is known as Hanuman Dhara. The water of the stream merges into the mountain itself. People call it Prabhati river or Patalganga.

हनुमान धारा, चित्रकूट || Hanuman Dhara, Chitrakoot

Chitrakoot also has pride among the pilgrimage sites of India because it is here that with the help of Bhaktaraj Hanuman, devotee Shiromani Tulsidas had the darshan of Lord Shri Ram. There is a statue of Panchmukhi Hanuman here. It is situated on a hill about 100 meters high. When Shri Ram was returning from conquering Lanka, he built this place for the resting place of Hanuman. 'Sita Rasoi' is situated here on the top of the hill. Just 100 steps above Hanuman Dhara is Sita Rasoi, where Mother Sita had prepared food and fed it to Lord Shri Ram and Lakshman ji.

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial) जुआनज़ैंग (Xuan Zang)( Hsuen Tsang ) Memorial

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)

जैसा कि हम सभी जानते हैं भारतीय संस्कृति भारत के विस्तृत इतिहास, साहित्य, विलक्षण भूगोल, विभिन्न धर्मों तथा उनकी परम्पराओं का सम्मिश्रण है। भारत एक ऐसा देश है, जहां धार्मिक विविधता और सहिष्णुता को कानून और समाज दोनों की मान्यता प्राप्त है। खैर, चलिए आज हम बात करेंगे बिहार के नालंदा जिले में स्थित ह्वेन त्सांग स्मारक की जिसका निर्माण चीनी विद्वान भिक्षु और यात्री हेनसांग के सम्मान में किया गया था। ह्वेन त्सांग नालंदा विश्वविद्यालय के एक छात्र थे, बाद में वे नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षक भी बन गए।

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)

ह्वेन त्सांग एक लोकप्रिय चीनी यात्री थे, जो 633 ईस्वी में नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म और रहस्यवाद का अध्ययन करने के लिए भारत आये और वह 12 वर्षों तक यहां रहे। त्सांग ने देश भर की यात्रा की और बौद्ध धर्म पर गहन अध्ययन के लिए तक्षशिला का भी दौरा किया।  

सूरजपुर झील के किनारे प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों के पास (लगभग एक से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर)  जिस स्थान पर वे अपने शिक्षक आचार्य शील भद्र से योग सीखते थे, वहीं पर इस स्मारक को बनाया गया है, जो वर्तमान में बिहार के सबसे प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों में से एक है। ह्वेन त्सांग मेमोरियल हॉल नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापत्य शैली का एक विशिष्ट अनुस्मारक है। पूरे भवन परिसर को पारंपरिक चीनी मंदिर के रूप में डिजाइन किया गया है।

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)
ह्वेन त्सांग मेमोरियल हॉल का मुख्य द्वार बाहर से 

निर्माण में लग गए 24 साल

इस ह्वेन सांग मेमोरियल हॉल का निर्माण कार्य 1960 में शुरू किया गया था, जिसे बनाने में 24 साल लगे और यह 1984 में बनकर तैयार हुआ। इस मेमोरियल हॉल का निर्माण भारत चीन के सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया था। इस हॉल का निमार्ण का फैसला 1957 में किया गया था। अपने प्रवास के दौरान, त्सांग ने कई दस्तावेज एकत्र किए जो बौद्ध लेखन के इतिहास का एक प्रमुख स्रोत है। ये सभी मेमोरियल हॉल में अच्छी तरह से संरक्षित हैं।

प्राचीन नालंदा की शैली पर ही है बना

यह स्मारक कक्ष प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की शैली के आधार पर ही बनाया गया है। इस जगह पर ह्वेन त्सांग के जीवन के बारे में बहुत कुछ जानने को है। स्मारक के अंदर प्रदर्शित कुछ चित्रों में भगवान बुद्ध की चंदन और सुनहरी मूर्तियों के साथ ह्वेन त्सांग की रचनाएं और भारत और चीन में बौद्ध धर्म के बारे में काफ़ी सारी अध्ययन की किताबें और रचनाएं रखी हुई हैं। बेहद सुकून और शांति वाली जगह है। कभी बिहार घूमने का मन हुआ तो यहाँ भी जरूर जाइए। 

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)
ह्वेन त्सांग मेमोरियल हॉल का मुख्य द्वार अंदर से 

20 वर्ष की अवस्था में बौद्ध भिक्षु बने ह्वेन सांग

ह्वेनसांग का जन्म 630 ईसा के लगभग एक सामान्य परिवार में हुआ था। 3 भाइयों में सबसे छोटे थे और उनका स्वभाव अपने दोनों भाइयों से कुछ अलग ही था। युवा अवस्था में आते ही बौद्ध धर्म का आकर्षण उनमें ऐसा जागा कि उन्होंने बौद्ध भिक्षु बनने का संकल्प लिया। 20 वर्ष की अवस्था में बौद्ध भिक्षु बनने के बाद उन्होंने चीनी बौद्धविहारों में इस धर्म-दर्शन को गंभीरता से जानना चाहा, लेकिन उनकी ज्ञानपिपासा वहां शान्त न हो सकी। उसके बाद उन्होंने निश्चय किया कि वह भारत जाकर वहां के मूल का अध्ययन करेंगे। वह मध्य एशिया के रास्ते ताशकन्द, समरकन्द तथा काबुल होते हुए 1 वर्ष की यात्रा कर भारत पहुंचे। 

सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करते हुए वे मगध की राजधानी पाटलीपुत्र पहुंचे, जो उस समय ज्ञान, शिक्षा व संस्कृति का केन्द्र थी। यहां पर उनकी ज्ञान पिपासा शान्त हुई। उन्होंने यहाँ के मन्दिरों, स्तूपों, उघैर विहारों का दर्शन किया। बोधगया जाकर महात्मा बुद्ध के दर्शन की अनुभूति उन्हें प्राप्त हुई, जिसके बाद वह ज्ञान के सबसे बडे केन्द्र नालंदा विश्वविद्यालय पहुंचे। 

ह्वेनसांग की जापानी पेंटिंग (ह्वेन त्सांग)
ह्वेनसांग की जापानी पेंटिंग (ह्वेन त्सांग) 

निर्माण का प्रस्ताव "जगदीश कश्यप" द्वारा रखा गया था 

ह्वेन त्सांग द्वारा किए गए कार्यों की स्मृति में इस स्मारक हॉल के निर्माण का प्रस्ताव "जगदीश कश्यप" द्वारा रखा गया था। वह एक बौद्ध विद्वान थे और 1950 के दशक में वह नव नालंदा महाविहार के निदेशक थे। वह ह्वेन त्सांग के नाम पर एक स्मारक हॉल का निर्माण करके उन्हें सम्मानित करने के लिए एक स्मारक बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने झोउ एनलाई, जो उस समय पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के प्रधान मंत्री थे, से ह्वेन त्सांग से संबंधित अवशेषों को मेमोरियल हॉल में रखने के लिए भेजने का आग्रह भी किया था।

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)
प्रज्ञा पारमिता हृदय सूत्र शिलालेख से सुसज्जित घंटी

1957 दलाई लामा ने चीनी सरकार की ओर से कुछ बौद्ध आध्यात्मिक पाठ के साथ जुआनज़ैंग से संबंधित एक अवशेष उपहार में दिया। मूल रूप से अवशेष तियानजिन में महान करुणा के मंदिर में रखा गया था । इसके साथ ही त्रिपिटक के इकतालीस खंडों वाली बहुमूल्य पुस्तकों का एक सेट और लगभग चार लाख की धनराशि भी इस पहल के लिए उपहार स्वरूप भेजी गई। इन्हें वर्ष 1957 में भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्राप्त किया गया था । भारत सरकार ने इस पहल के लिए पांच लाख की अतिरिक्त धनराशि प्रदान की। निर्माण कार्य 1960 में शुरू हुआ और लगभग सत्ताईस वर्षों में 1984 में पूरा हुआ। 1960 के दशक की शुरुआत में भारत-चीन युद्ध हुआ था और यही कारण हो सकता है कि मेमोरियल हॉल के निर्माण में इतने साल लग गए। चूँकि जनता की भावनाएँ हमलावर के पक्ष में नहीं थीं इसलिए शायद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

कौन थे "जगदीश कश्यप"

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)
भिक्षु 'जगदीश कश्यप जी  

शुरुवात में "जगदीश कश्यप" आर्य समाज में थे और एक प्रचारक के पद तक पहुंचे, बाद में श्रीलंका में जीवन के दौरान उनका परिचय बौद्ध धर्म से हुआ, जिसे उन्होंने अपनी भावी जीवन शैली के रूप में अपनाया। वह भारत वापस आये और स्वतंत्रता के बाद 1951 में वह पाली संस्थान के निदेशक बने जिसे अब हम नव नालंदा महाविहार के नाम से जानते हैं। उन्होंने इस संस्थान को शुरू करने और विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो अब एक डीम्ड विश्वविद्यालय है। अपने जीवनकाल में उन्होंने लगभग इकतालीस खंडों में कई त्रिपिटक ग्रंथों का अनुवाद किया।

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)
हॉल के अंदर बुद्ध की मूर्ति

English Translate 

Hieun Tsang Memorial

As we all know, Indian culture is a combination of India's extensive history, literature, unique geography, various religions and their traditions. India is a country where religious diversity and tolerance are recognized by both law and society. Well, today we will talk about the Hiuen Tsang Memorial located in Nalanda district of Bihar, which was built in honor of the Chinese scholar, monk and traveler Hien Tsang. Hiuen Tsang was a student of Nalanda University, later he also became a teacher at Nalanda University.

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)

Hiuen Tsang was a popular Chinese traveller, who came to India in 633 AD to study Buddhism and mysticism at Nalanda University and stayed here for 12 years. Tsang traveled across the country and also visited Takshashila for in-depth study on Buddhism.

This memorial has been built near the ruins of the ancient Nalanda University on the banks of Surajpur Lake (at a distance of about one to one and a half kilometres), at the place where he used to learn yoga from his teacher Acharya Sheel Bhadra, which is currently one of the most famous in Bihar. One of the famous tourist places. The Hiuen Tsang Memorial Hall is a distinctive reminder of the architectural style of Nalanda University. The entire building complex is designed as a traditional Chinese temple.

It took 24 years to build

The construction work of this Hiuen Tsang Memorial Hall was started in 1960, which took 24 years to build and it was completed in 1984. This memorial hall was built with the aim of enhancing cultural relations between India and China. The decision to construct this hall was taken in 1957. During his stay, Tsang collected many documents which form a major source for the history of Buddhist writing. All of these are well preserved in the Memorial Hall.

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)
Inside view of Xuanzang Memorial Hall

It is built on the same style as ancient Nalanda.

This memorial hall has been built on the basis of the style of the ancient Nalanda University. There is a lot to know about the life of Hiuen Tsang at this place. Some of the paintings displayed inside the memorial include sandalwood and golden statues of Lord Buddha along with the works of Hiuen Tsang and a number of study books and works about Buddhism in India and China. It is a very peaceful and peaceful place. If you ever feel like visiting Bihar, then definitely visit here.

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)


Hiuen Tsang became a Buddhist monk at the age of 20.

Hiuen Tsang was born in an ordinary family around 630 AD. He was the youngest among 3 brothers and his nature was somewhat different from that of his two brothers. As soon as he reached his young age, he became so attracted to Buddhism that he resolved to become a Buddhist monk. After becoming a Buddhist monk at the age of 20, he wanted to seriously learn about this religious philosophy in Chinese Buddhist monasteries, but his thirst for knowledge could not be quenched there. After that he decided that he would go to India and study its origins. He reached India after traveling for one year through Central Asia via Tashkent, Samarkand and Kabul.

While touring the whole of India, he reached Pataliputra, the capital of Magadha, which was the center of knowledge, education and culture at that time. Here his thirst for knowledge was quenched. He visited the temples, stupas and monasteries here. He went to Bodh Gaya and experienced the darshan of Mahatma Buddha, after which he reached Nalanda University, the biggest center of knowledge.

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)

The proposal for construction was put forward by "Jagadish Kashyap"

The construction of this memorial hall to commemorate the works done by Hiuen Tsang was proposed by "Jagadish Kashyap". He was a Buddhist scholar and in the 1950s he was the director of Nava Nalanda Mahavihara. He wanted to create a memorial to honor Xuanzang by building a memorial hall in his name. For this, he also requested Zhou Enlai, who was the Prime Minister of the People's Republic of China at that time, to send the remains belonging to Xuanzang to be placed in the Memorial Hall.

1957 The Dalai Lama gifts a relic belonging to Xuanzang along with some Buddhist spiritual texts on behalf of the Chinese government. Originally the relic was kept in the Temple of Great Compassion in Tianjin. Along with this, a set of valuable books containing forty-one volumes of Tripitaka and an amount of approximately Rs. four lakhs were also sent as a gift for this initiative. These were received by the then Prime Minister of India, Jawaharlal Nehru in the year 1957. The Government of India provided additional funds of Rs 5 lakh for this initiative. Construction work began in 1960 and was completed in 1984, taking approximately twenty-seven years. There was an India-China war in the early 1960s and this may be the reason why the construction of the memorial hall took so many years. Since public sentiment was not in favor of the attacker, it was probably shelved.

ह्वेन त्सांग स्मारक (Hieun Tsang memorial)

Who was "Jagdish Kashyap"

Initially "Jagadish Kashyap" was in the Arya Samaj and rose to the position of a preacher, later during his life in Sri Lanka he was introduced to Buddhism, which he adopted as his future lifestyle. He returned to India and after independence in 1951 he became the director of the Pali Institute which we now know as Nava Nalanda Mahavihara. He played an important role in starting and developing this institution, which is now a deemed university. During his lifetime he translated several Tripitaka texts in about forty-one volumes.


मिलूँ भी जब मिलूँ मैं तुमसे

मिलूँ भी जब मिलूँ मैं तुमसे

Rupa OOs ki ek Boond

मिलूँ भी जब मिलूँ मैं तुमसे   

तेरी आरज़ुओं को मुट्ठियों में समेटे

हर सांस को बाँहों में लपेटे

कुछ अपना - सा बिखर जाता है मुझमें

मिलूँ भी जब मिलूँ मैं तुमसे

ऐसा लगे मानो मिलूँ मैं मुझसे!

मीलों के फासले ये कैसे

पर चाँद हर रोज़ है मिलाता तुमसे

इनायत की है, बादलों से मैंने

उनकी कुछ पसीने की बूंद से ही

महका देना फ़िज़ा यूँ जैसे

हर चुस्की लेकर तेरी

कुछ चाय - सा उबाल आता मुझमें

मिलूँ भी जब मिलूँ मैं तुमसे

ऐसा लगे मानो मिलूँ मैं मुझसे!

हर पहेली में छुपा तू एक राज़

जैसे हर राह में मिलूँ तुझसे

फिर से हमराज़ कैसे

करवटें तो लाख काटी मैंने

तेरी सिलवटों में

मुस्करा कर मुँह फेर

जाना ये तेरा मिजाज़ जैसे

हर पतझड़ समेट तेरी

कुछ बसंत - सा खिल जाता मुझमें

मिलूँ भी जब मिलूँ मैं तुमसे

ऐसा लगे मानो मिलूँ मैं मुझसे !

कुछ अंदर ही अंदर झूम रहा है

करूंं इबादत या करूंं सजदा

कि दिल सातवें आसमां पर झूम रहा है

मेरी रूह की हर गली बीच

तेरा ही गुल खिला है

हर नुक्कड़ और नज़ारे में

बस तू ही तू मुझको मिला है

हर कीचड़ में तुझको पा कर

कुछ कमल - सा खिल जाता है मुझमें

मिलूँ भी जब मिलूँ मैं तुमसे

ऐसा लगे मानो मिलूँ मैं मुझसे !

कुछ खाली कुछ गुमनाम - सा है

प्यार है जो तेरा

बड़ा कत्लेआम - सा है

बेचैन कर देती है

वो निगाहें ही तेरी

तू जो मिला है

ऐसे जैसे कोई इनाम - सा है

हर लौ में जल कर उनकी

कुछ शमाँ - सा जल जाता मुझमें

मिलूँ भी जब मिलूँ मैं तुमसे

ऐसा लगे मानो मिलूँ मैं मुझसे !

Rupa OOs ki ek Boond

समझदार दोस्त

समझदार दोस्त

बहुत समय पहले की बात है, दो अरबी दोस्तों को एक बहुत बड़े खजाने का नक्शा मिला, खजाना किसी रेगिस्तान के बीचो-बीच था। खजाने तक पहुँचने के लिए दोनों ने योजना बनानी शुरू की।

समझदार दोस्त

वहाँ तक का सफर बहुत लम्बा था और रास्ते में भूख- प्यास से मर जाने का भी खतरा था। बहुत विचार करने पर दोनों ने तय किया कि इस योजना में एक और समझदार दोस्त को शामिल किया जाए, ताकि वे एक और ऊंट अपने साथ ले जा सकें जिस पर खाने-पीने का ढ़ेर सारा सामान भी आ जाए और खजाना अधिक होने पर वे उसे ऊंट पर ढो भी सकें।

पर सवाल ये उठा कि चुनाव किसका किया जाए?

बहुत सोचने के बाद गुरु और बबलू को चुना गया। दोनों हर तरह से बिलकुल एक तरह के थे और कहना मुश्किल था कि दोनों में अधिक बुद्धिमान कौन है? इसलिए एक प्रतियोगिता के जरिये सही व्यक्ति (दोनों में से एक) का चुनाव करने का फैसला किया गया।

दोनों दोस्तों ने उन्हें एक निश्चित स्थान पर बुलाया और बोले, “आप लोगों को अपने-अपने ऊंट पर सवार होकर सामने दिख रहे रास्ते पर आगे बढ़़ना है। कुछ दूर जाने के बाद ये रास्ता दो अलग-अलग रास्तों में बंट जाएगा- एक सही और एक गलत। जो इंसान सही रास्ते पर जाएगा वही हमारा तीसरा साथी बनेगा और खजाने का एक-तिहाई हिस्सा उसका होगा।”

दोनों ने आगे बढ़ना शुरू किया और उस बिंदु पर पहुँच गए जहाँ से रास्ता बंटा हुआ था।

वहां पहुँच कर गुरु ने इधर-उधर देखा, उसे दोनों रास्तों में कोई अंतर समझ नहीं आया और वह जल्दी से बांये तरफ बढ़़ गया। जबकि, बबलू बहुत देर तक उन रास्तों की ओर देखता रहा और उन पर आगे बढ़ने के नतीजे के बारे में सोचता रहा।

करीब 1 घंटे बाद बायीं ओर के रास्ते पर धूल उड़ती दिखाई दी। गुरु बड़ी तेजी से उस रास्ते पर वापस आ रहा था।उसे देखते ही बबलू मुस्कुराया और बोला, “गलत रास्ता ?”

“हाँ, शायद!”, गुरु ने जवाब दिया।

दोनों दोस्त छुप कर यह सब देख रहे थे और वे तुरंत उनके सामने आये और बोले, “बधाई हो!”

“शुक्रिया!”, बबलू ने फ़ौरन जवाब दिया। “तुम्हे नहीं, हमने गुरु को चुना है।”, दोनों दोस्त एक साथ बोले। 

“पर गुरु तो गलत रास्ते पर आगे बढ़ा था… फिर उसे क्यों चुना जा रहा है?”, बबलू गुस्से में बोला।

“क्योंकि उसने ये पता लगा लिया कि गलत रास्ता कौन है और अब वो सही रास्ते पर आगे जा सकता है, जबकि तुमने पूरा वक़्त बस एक जगह बैठ कर यही सोचने में गँवा दिया कि कौन सा रास्ता सही है और कौन सा गलत। समझदारी किसी चीज के बारे में ज़रूरत से ज्यादा सोचने में नहीं बल्कि एक समय के बाद उस पर काम करने और तजुर्बे से सीख लेने में है।”, दोस्तों ने अपनी बात पूरी की, और खजाने की तरफ चल दिये, बबलू बैठा बैठा वहीं पछताता रहा। 


*शिक्षा*

हमारे जीवन में भी कभी न कभी ऐसा स्थान(समय) आता है जहाँ हम निर्णय नहीं कर पाते कि कौन सा रास्ता सही है और कौन सा गलत और ऐसे में बहुत से लोग बस सोच-विचार करने में अपना काफी समय बर्बाद कर देते हैं, जबकि ज़रुरत इस बात की है कि चीजों को विश्लेषण करने की बजाय गुरु की तरह अपने विकल्प को समझ करके निर्णय लिया जाए और अपने अनुभव के आधार पर आगे बढ़ा जाए।

सारिपुत्र स्तूप (Shariputra Stupa), Nalanda

सारिपुत्र स्तूप

सारिपुत्र राजगीर के ऐतिहासिक स्थानों में से एक है। सारिपुत्र गौतम बुद्ध के दो प्रिय शिष्यों में से एक थे और इनकी अस्थियों को यही पर रखा गया था। सारि उनकी माँ का नाम था और एक पक्षी का नाम भी था और पुत्र का अर्थ लड़का होता है। यह नालन्दा में नालन्दा विश्वविद्यालय खंडहर परिसर के अंदर स्थित एक प्राचीन बौद्ध स्तूप है। इसे महान स्तूप के रूप में भी जाना जाता है, यह नालंदा में अवश्य देखने योग्य स्थानों में से एक है। बुद्ध के अनुयायी सारिपुत्र के सम्मान में मौर्य सम्राट अशोक द्वारा यह तीसरी शताब्दी में निर्मित किया गया था।

सारिपुत्र स्तूप (Shariputra Stupa), Nalanda

सारिपुत्र स्तूप, जिसे नालन्दा स्तूप के नाम से भी जाना जाता है, नालन्दा विश्वविद्यालय के खंडहरों के बीच मौजूद उल्लेखनीय उत्खननों में से एक है। यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल, यह नालंदा में सबसे महत्वपूर्ण स्मारक है और इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के प्रमाण के रूप में खड़ा है। इसका निर्माण ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बुद्ध के अनुयायी सारिपुत्र के सम्मान में किया गया था। बुद्ध के नक्शेकदम पर चलकर मोक्ष प्राप्त करने में सक्षम होने के बाद सारिपुत्र एक प्रसिद्ध अर्हत बन गए।

सारिपुत्र स्तूप (Shariputra Stupa), Nalanda
Detail of Sariputra's stupa

स्तूप में गौतम बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों में से एक सारिपुत्र की अस्थियाँ हैं। स्तूप के शीर्ष पर पिरामिड का आकार है। स्तूप के चारों ओर सीढ़ियों की कई कतारें, इसके शीर्ष तक ले जाती हैं। निर्माण की सात परतें इसके विशाल आकार को स्पष्ट करती हैं, जिससे यह देखने लायक बनता है। सुंदर मूर्तियां और मन्नत स्तूप संरचना के पार्श्व में हैं। इन मन्नत स्तूपों का निर्माण ईंटों से किया गया है और इन पर पवित्र बौद्ध ग्रंथों के अंश अंकित किए गए हैं। ऐसा माना जाता है कि इन स्तूपों का निर्माण भगवान बुद्ध की राख के ऊपर किया गया था। सभी मन्नत स्तूपों में सबसे आकर्षक पांचवां स्तूप है, जिसे इसके कोने के टावरों के साथ अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है। ये मीनारें गुप्त-युग की कला के उत्कृष्ट पैनलों से सजी हैं जिनमें भगवान बुद्ध की प्लास्टर आकृतियाँ और जातक कथाओं के दृश्य शामिल हैं। स्तूप के शीर्ष भाग में एक तीर्थ कक्ष है, जिसमें एक कुरसी है, जिसका उपयोग मूल रूप से भगवान बुद्ध की एक बड़ी मूर्ति रखने के लिए किया गया होगा। म्यांमार में ग्वे बिन टेट कोन स्तूप को नालंदा स्तूप से प्रभावित माना जाता है।

सारिपुत्र स्तूप (Shariputra Stupa), Nalanda
Sariputra's stupa with remains of other stupas

English Translate

Sariputra Stupa

Sariputra is one of the historical places of Rajgir. Sariputra was one of the two favorite disciples of Gautam Buddha and his ashes were kept here. Sari was his mother's name and was also the name of a bird and Putra means boy. It is an ancient Buddhist stupa located inside the Nalanda University ruins complex in Nalanda. Also known as the Great Stupa, it is one of the must-see places in Nalanda. It was built in the 3rd century by the Maurya emperor Ashoka in honor of Sariputra, a follower of Buddha.

सारिपुत्र स्तूप (Shariputra Stupa), Nalanda

Sariputra Stupa, also known as Nalanda Stupa, is one of the notable excavations present among the ruins of Nalanda University. A UNESCO World Heritage Site, it is the most important monument in Nalanda and stands as a testament to its rich cultural heritage. It was built in the 3rd century BC by the Maurya emperor Ashoka in honor of Sariputra, a follower of Buddha. Sāriputra became a famous arhat after he was able to attain salvation by following in the footsteps of the Buddha.

सारिपुत्र स्तूप (Shariputra Stupa), Nalanda

The stupa houses the bones of Sariputra, one of the two chief disciples of Gautam Buddha. The top of the stupa is in the shape of a pyramid. Several rows of stairs surround the stupa, leading to its top. The seven layers of construction explain its immense size, making it a sight to behold. Beautiful sculptures and votive stupas flank the structure. These votive stupas are constructed of bricks and have passages from sacred Buddhist texts inscribed on them. It is believed that these stupas were built over the ashes of Lord Buddha. The most attractive of all the votive stupas is the fifth stupa, which is well preserved with its corner towers. These towers are decorated with exquisite panels of Gupta-era art that include stucco figures of Lord Buddha and scenes from the Jataka tales. The top part of the stupa has a shrine chamber, with a pedestal, which may have originally been used to house a large statue of Lord Buddha. The Gwe Bin Tet Kon Stupa in Myanmar is considered to be influenced by the Nalanda Stupa.

विश्व पेंगुइन दिवस 25 अप्रैल "World Penguin Day 25 April"

 विश्व पेंगुइन दिवस "World Penguin Day"

25 अप्रैल (आज) विश्व पेंगुइन दिवस है !

25 अप्रैल को प्रतिवर्ष दुनिया भर में विश्व पेंगुइन दिवस मनाया जाता है। पेंगुइन की 18 प्रजातियाँ हैं, और उनके सभी प्राकृतिक आवास दक्षिणी गोलार्ध में हैं।

विश्व पेंगुइन दिवस 25 अप्रैल "World Penguin Day 25 April"

पानी में रहने वाला पक्षी जो उड़ने में असमर्थ है जी हां आज पेंगुइन (Penguin) से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियां आप लोगों के साथ साझा कर रही हूं। वैसे तो हर पक्षी खूबसूरत होता है, परंतु पेंग्विन लोगों को अपनी तरफ ज्यादा आकर्षित करती है। इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि पेंगुइन (Penguin) आसानी से हर जगह देखने को नहीं मिलती। पेंगुइन (Penguin) (पीढ़ी स्फेनिस्कीफोर्मेस, प्रजाति स्फेनिस्कीडाई) जलीय समूह के उड़ने में असमर्थ पक्षी हैं, जो केवल दक्षिणी गोलार्द्ध, विशेष रूप से अंटार्कटिक में पाए जाते हैं। 

विश्व पेंगुइन दिवस 25 अप्रैल "World Penguin Day 25 April"

पानी में जीवन के लिए अत्यधिक अनुकूलित, पेंगुइन विपरीत रंगों, काले और सफ़ेद रंग के बालों वाला पक्षी है और उनके पंख हाथ (फ्लिपर) बन गये हैं। पानी के नीचे तैराकी करते हुए अधिकांश पेंगुइन पकड़ी गयी छोटी मछलियों, मछलियों, स्क्विड और अन्य जलीय जंतुओं को भोजन बनाते हैं। वे अपना लगभग आधा जीवन धरती पर और आधा जीवन महासागरों में बिताते हैं।

विश्व पेंगुइन दिवस 25 अप्रैल "World Penguin Day 25 April"

जानते हैं पेंगुइन से जुड़ी कुछ रोचक बातें

  1. इस धरती पर पेंगुइन की लगभग 17 प्रजातियां हैं, जिनमें से करीब 13 प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं।
  2. पेंगुइन दिखने में बहुत ही प्यारे होते हैं, लेकिन चिंता का विषय है की अब इनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है, जिसकी सबसे बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन है।
  3. पेंगुइन पक्षी अंडे देने वाली प्रजाति है। पेंग्विन अपना ज्यादातर जीवन पानी में बिताते हैं, किंतु अंडे देने के लिए यह धरती पर आ जाते हैं।
  4. अधिकांश पेंगुइन एक समय में दो अंडे देते हैं।
  5. पेंगुइन की समस्त प्रजातियों में केवल किंग पेंगुइन और एंपरर एक समय में एक अंडा देते हैं।
  6. पेंगुइन के अंडे को परिपक्व होकर बाहर आने में (Hatch) 65-75 दिन का समय लगता है।
  7. पेंगुइन के अंडों की देखभाल करने का काम पिता पेंगुइन का है। अंडा देने के बाद माँ पेंगुइन लंबे शिकार के लिए निकल जाती है। पिता पेंगुइन अपने नर्म पैरों पर अंडे को लिए (गर्माहट के लिए) महीनों तक खड़ा रहता है। महीनों तक पिता पेंगुइन भोजन नहीं करता। जब मां शिकार से लौट आती है, तब पिता पेंगुइन अंडा उसे सौंप देता है।विश्व पेंगुइन दिवस 25 अप्रैल "World Penguin Day 25 April"
  8. पेंगुइन का सबसे पुराना जीवाश्म 60 मिलियन वर्ष पुराना है। 
  9. पुरातत्वविदों द्वारा पाया गया सबसे बड़ा पेंगुइन जीवाश्म 5 फीट तक लंबा है।
  10. पेंगुइन मांसाहारी होते हैं। यह अपना भोजन समुंद्र से प्राप्त करते हैं। यह मछलियां, केकड़े, झींगे आदि को अपना भोजन बनाते हैं। एक वयस्क पेंग्विन एक डुबकी लगा कर एक बार में करीब 30 मछलियां पकड़ सकता है।
  11. पेंगुइन दक्षिण अफ्रीका, अंटार्कटिका, न्यूजीलैंड, अर्जेंटीना और ऑस्ट्रेलिया के बर्फीले इलाकों में पाए जाते हैं। 
  12. पेंगुइन की कुछ प्रजातियाँ घोसला भी बनाती हैं। इसके लिए वे छोटे-छोटे पत्थरों को पंक्तिबद्ध रख कर एक गोलाकार स्थान बनाते हैं।
  13. पेंगुइन बहुत ही ज्यादा सामाजिक पक्षी हैं। समुद्र में आमतौर पर ये समूह में तैरते हैं और समूहों में भोजन भी करते हैं।
  14. ताजा पानी के लिए पेंगुइन बर्फ को खा जाते हैं। पेंगुइन समुद्र का खारा पानी भी पी सकते हैं, क्योंकि इनके पास एक विशेष प्रकार की ग्रंथि होती है, जो उनके रक्त प्रवाह से नमक को छानने का काम करती है।
  15. पेंगुइन कम से कम 30 मिनट तक अपनी सांसे रोक सकते हैं। विश्व पेंगुइन दिवस 25 अप्रैल "World Penguin Day 25 April"
  16. प्रतिवर्ष 25 अप्रैल को विश्व पेंगुइन दिवस "World Penguin Day" मनाया जाता है।
  17. पेंगुइन के दांत नहीं होते हैं। यह अपना शिकार खाने के लिए अपने चोंच का उपयोग करते हैं।
  18. पेंगुइन पानी में लगभग 900 फुट की गहराई तक तैर सकते हैं। यह पानी के अंदर लगभग 15 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से तैर सकते हैं।
  19. पेंगुइन अपना आधा जीवन पानी में बिताते हैं। पेंग्विन के पंख होते हैं, परंतु यह उड़ नहीं सकते। बस यह तैरना ही जानते हैं।
  20. पेंगुइन को अपने पंखों का बहुत ज्यादा ख्याल रखना पड़ता है। सही तरीके से देखभाल नहीं करने पर इनके पंख पानी के अनुकूल नहीं रहते। इस काम के लिए ये अपने पंखों पर विशेष प्रकार का तेल लगाते हैं, जो कि उनके पूँछ के पास से स्रावित होता है।
  21. पेंगुइन की देखने की क्षमता जमीन के मुकाबले पानी के अंदर अधिक होती है। ऐसा भी माना जाता है की पेंगुइन धरती पर बहुत ही कम दूरी तक देख पाते हैं।
  22. पेंगुइन के पंख 1 साल में एक बार नष्ट हो जाते हैं तथा पुनः दोबारा से नए पंख आते हैं। नए पंख आने की प्रक्रिया में कुछ वक्त लगता है, उस वक्त पर वे अपना समय जमीन के ऊपर और बर्फ पर बिताते हैं।
  23. पेंगुइन अपने पैरों की सहायता से चलते हैं और बर्फ पर यह अपने पेट की सहायता से फिसलते हैं।विश्व पेंगुइन दिवस 25 अप्रैल "World Penguin Day 25 April"
  24. पेंगुइन की सबसे बड़ी प्रजाति "एंपरर पेंगुइन" है, जिसकी ऊंचाई करीब 3 फुट होती है और वजन लगभग 35 किलो और इसकी सबसे छोटी प्रजाति "लिटिल ब्लू पेंग्विन" है, जिसकी ऊंचाई करीब 16 इंच और वजन 1 किलो है।
  25. पेंगुइन का औसत जीवनकाल 15 से 20 साल तक का होता है।
  26. पेंगुइन ठंडी जगह पर रहते हैं और यह अपने शरीर को गर्म रखने के लिए एक खेल खेलते हैं। जब तापमान कम हो जाता है, तो यह एक गोला बनाते हैं। गोले के अंदर जो पेंग्विन होता है, उसके चारों तरफ गोल गोल अन्य पेंग्विन चक्कर लगाते हैं। जब अंदर वाले पेंग्विन का शरीर गर्म हो जाता है, तो वह गोले के बाहर आ जाता है और दूसरा पेंगुइन गोले के अंदर चला जाता है। इस तरीके से पेंग्विन अपने शरीर का तापमान नियंत्रित करते हैं।
  27. नवजात पेंगुइन पानी में उतरने योग्य नहीं होते, जब तक कि इनके पंख नहीं आ जाते।
  28. पेंगुइन बड़े-बड़े झुंडों में रहना पसंद करते हैं। एक झुंड में 200 से 1000 या उससे भी अधिक पेंगुइन हो सकते हैं।विश्व पेंगुइन दिवस 25 अप्रैल "World Penguin Day 25 April"
  29. पेंगुइन की अब तक की सबसे बड़ी कॉलोनी दक्षिण सैंडविच द्वीपसमूह के Zavodovski Island में देखी गयी थी, जहाँ इनकी संख्या 20 लाख के आसपास थी।
  30. पेंग्विन में पानी के अंदर सांस लेने की क्षमता नहीं होती, यह पानी के अंदर 10 से 15 मिनट तक बिना सांस लिए रह सकते हैं।
  31. पेंगुइन जमीन पर बेहद अदूरदर्शी होती हैं। पेंग्विन की आंखें जमीन की तुलना में पानी के भीतर ज्यादा बेहतर काम करती हैं।
  32. समुद्र के अंदर सबसे ज्यादा गहराई में गोता लगाने का रिकॉर्ड सम्राट पेंगुइन (Emperor Penguin) के नाम दर्ज है, जो की 1,850 फीट गहराई तक पहुँच गया था और इस दौरान वह 22 मिनट तक बिना सांस लिए पानी के अंदर गोता लगाता रहा।विश्व पेंगुइन दिवस 25 अप्रैल "World Penguin Day 25 April"
  33. पेंगुइन 6 फीट ऊंची छलांग लगा सकते हैं।
  34. पेंगुइन एक दुसरे को बुलाने के लिए अलग-अलग आवाजें निकालते हैं, अब यहाँ सोंचने वाली बात है कि हजारों की झुण्ड में सभी को अलग-अलग आवाज से बुलाना कितना कठिन काम होगा।

वन्यजीव सफारी (The Wild life safari) / चिड़ियाघर सफारी, राजगीर /जू-सफारी (Zoo safari) /नेचर सफारी (Nature Safari), Rajgir -2

नेचर सफारी (Nature Safari)

ज़ू सफारी के बाद आज चलते हैं नेचर सफारी की तरफ। हमलोग एक दिन ज़ू सफारी गए और अगले दिन नेचर सफारी। एक दिन में दोनों कवर करना थोड़ा हेक्टिक होगा, बाकि सबका अपने समय के अनुसार अपनी प्लानिंग। ज़ू सफारी में हम जानवरों के बीच थे और नेचर सफारी में बहुत कुछ था। 

ग्लास ब्रिज (Glass Bridge), Rajgir, Bihar

नेचर सफारी में हम खूबसूरत नजारों के बीच लुत्फ उठा सकते हैं - 👇

  • जू-सफारी (वन्यजीव सफ़ारी/ Zoo safari), 
  • ग्लास ब्रिज (Glass Bridge), 
  • पार्क (Park), 
  • सस्पेंशन ब्रिज (Suspension Bridge), 
  • जिपलाइन (Zipline), 
  • स्काई बाइकिंग (Sky Biking), 
  • राइफल शूटिंग (Rifle Shooting), 
  • वाल क्लाइम्बिंग (Wall Climbing), 
  • आर्चरी (Archery)
  • मड हट (Mud Hut) 
वन्यजीव सफारी (The Wild life safari) / चिड़ियाघर सफारी, राजगीर /जू-सफारी (Zoo safari) /नेचर सफारी (Nature Safari), Rajgir

जैसा कि पहले के ब्लॉग में बताया था नेचर सफारी में अलग अलग एक्टिविटी के चार्जेज अलग हैं। 

Nature Safari Activity Rate list
Nature Safari Activity Rate list

ग्लास ब्रिज (Glass Bridge)

सबसे पहले चलते हैं ग्लॉस ब्रिज (ग्लॉस स्काई वॉक) पर। चीन में ही नहीं बल्कि बिहार में भी है, दुनिया का सबसे खूबसूरत ब्रिज, राजगीर में बना यह ग्लास ब्रिज अपने आप में अनूठा है। बिहार के इस ग्लास ब्रिज का उद्गाटन 27 मार्च 2021 को मुख्यमंत्री ने किया था, इसके बाद इसे पर्यटकों के लिए खोल दिया गया था। पूर्वोत्तर भारत का यह पहला ग्लास ब्रिज अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल राजगीर में है। राजगीर के इस ग्लास ब्रिज को चीन के हांगझोऊ ब्रिज की तर्ज पर बनाया गया है। दुनिया में कुछ गिनी चुनी जगह हैं, जहां इतने बड़े ग्लास के ब्रिज देखने को मिलेंगे। राजगीर का ग्लास ब्रिज भारत का दूसरा सबसे बड़ा ग्लास ब्रिज है। 
ग्लास ब्रिज (Glass Bridge), Rajgir, Bihar

कांच का ये पुल 200 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। ये 6 फीट चौड़ा है। पुल को काफी मजबूती से बनाया गया है।  राजगीर ब्रिज खूबसूरत जंगलों के बीच बना हुआ है, यहां जाकर 200 फीट की ऊंचाई से हम बिहार के खूबसूरत नजारे देख सकते हैं। यहां खड़े होकर प्रकृति को देखने का जो मजा है, वो शायद ही किसी पहाड़ी जगह पर देखने को मिल सकता है, क्यूंकि जब इस ब्रिज पर खड़े होकर नीचे देखते हैं तो लगता है मानो हम हवा में खड़े हैं और मानो जैसे सांसें थम जाती हैं। 
ग्लास ब्रिज (Glass Bridge), Rajgir, Bihar

ग्लास ब्रिज के डी सेक्टर यानी लास्ट प्वॉइंट पर एक साथ 10 लोग खड़े हो सकते हैं, जबकि ब्रिज के अन्य हिस्सों पर 40 लोग एक साथ घूम सकते हैं। ग्लास की मजबूती को लेकर फिक्र करने की जरुरत नहीं है, इसकी मोटाई 45 एमएम है जो तीन लेयर में है, फिर भी सांसे थोड़ी देर के लिए थमती जरूर हैं। 

पहाड़ी के उपर इस ब्रिज पर चलते हुए हम 85 फीट आगे अंतिम छोर पर पहुंचते हैं। मजे की बात यह है कि यह अंतिम छोर बिल्कुल हवा में है। मतलब की यह ब्रिज एक पहाड़ी को दूसरे पहाड़ी से जोड़ती नहीं है। 

सस्पेंशन ब्रिज (Suspension Bridge)

राजगीर की पहाड़ियों के बीच स्थित नेचर सफारी का हवा में हिलता-डुलता सस्पेंशन ब्रिज। यह राजगीर की पांच पहाड़ियों में शामिल वैभव गिरी की दो पर्वत श्रृंखलाओं को आपस में जोड़ता है। 300 फीट ऊपर हैंग कर रहे इस ब्रिज पर एक बार में 25 लोगों को ही चढ़ने की इजाजत दी जाती है। नेचर सफारी परिसर स्थित सस्पेंशन ब्रिज लगभग 25 करोड़ की लागत से थ्री लेयर सुरक्षा प्रणाली से लैस है। एक बार में इस ब्रिज पर 25 पर्यटकों से अधिक को जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। 

सस्पेंशन ब्रिज (Suspension Bridge), Rajgir, Bihar

सबसे खास बात यह है कि सस्पेंशन ब्रिज दो छोटी पहाड़ियों के बीच गहरी खाई के ऊपर हैंग करता है। इस खाई की गहराई लगभग 300 फीट है। जबकि पुल की भी लंबाई 300 फीट है। सस्पेंशन ब्रिज की चौड़ाई लगभग साढ़े पांच फीट। पुल को प्लाइवुड सनमाइका को लोहे के रोप में मढ़ाई कर गहरी खाई के ऊपर से हैंग करवाया गया है। पुल के दोनों ओर लोहे की पतली जारी का लेयर लगाया गया है। ब्रिज के बीच में तैनात गार्ड लगातार गश्त कर ज्यादा देर खड़े पर्यटकों को सचेतकर आगे बढ़ने का निर्देश देते रहते हैं।

जिपलाइन (Zipline)


यहाँ पर जिप लाइनिंग का भी मज़ा ले सकते है। नेचर सफारी में वैभारगिरी पर्वत शृंखला के बीच एक जिप लाइन भी है। इसके लिए दो पहाड़ियों को जिप लाइन के माध्यम से एक दूसरे से जोड़ा गया है जिससे की पर्यटक पुली के सहारे लटक कर रस्सी के इस छोर से दूसरे छोर तक जा सकते हैं। 
जिप लाइन वीडियो 👆🏻

यह 500 मीटर दूर अगली पहाड़ी की छोर तक है। इसमें लोहे की रस्सी पर लाकर बेल्ट से बंधे पर्यटक हवा की सैर करते हैं। 250 फीट गहरी घाटियों और खाई के ऊपर इस पर्वतीय शृंखला को पार करते हैं। जिप लाइन के तीन फेज में बने ए से बी प्वाइंट पर जाना होता है। पुन: बी से सी प्वाइंट तक के बीच हवा की सैर करते पर्यटक उड़ते पक्षियों की तरह महसूस करते हैं।

टिकट लेने के बाद कुछ दुरी पैदल चलकर एक पहाड़ी पर पहुंचना होता है। वहाँ से ज़िप लाइनिंग शुरू होती। यहाँ से दूसरी पहाड़ी पर जाते हैं और वहाँ मौजूद कर्मी तुरंत बिना रुके आगे बढ़ा देता है और फिर शैलानी पहली पहाड़ी पर पहुँच जाते।  

स्काई बाइकिंग (Sky Biking/cycling)

स्काई साइकिलिंग वीडियो 👆🏻

यहाँ पर स्काई साइकिलिंग का भी मज़ा ले सकते है। नेचर सफारी के कैंप एरिया परिसर में जिप लाइन साइक्लिंग का रोमांच भी पर्यटकों को लुभाता है। यह लोहे के रोप से बना है। जमीन से 20 फीट ऊपर लोहे के रोप पर साइकिल चलाने के दौरान थ्रिल का एहसास होता है।  इसके लिए दो पहाड़ियों को जिप लाइन के माध्यम से एक दूसरे से जोड़ा गया है, जिसकी लंबाई सौ मीटर है, जिसपर साइकिलिंग की जाती है। इसपर पर्यटक साइकिलिंग करते हुए एक छोर से दूसरे छोर पर जाते हैं। वहाँ साइकिल घुमाई जाती है और जाने वाले वापस इस छोर पर पहुँच जाते हैं।

मड हाउस & ट्री-हाउस

ट्री-हाउस, Rajgir, Bihar
नेचर सफारी के द्वारा बिहार सरकार ईको-टूरिज़्म को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देना चाहती है और उनका ये प्रयास है की लोग प्रकृति के और भी करीब आए। इसीलिए उन्होंने नेचर सफारी में मड हाउस का निर्माण करवाया है। जिसे मिट्टी और भूसे की मदद से बनाया गया है। इसके अलावा ट्री-हाउस भी बनया गया है, जिससे पहले के लोग कैसे पेड़ों पर रहते थे इसका अनुभव यहाँ आने वाले पर्यटक भी कर सकें। इसका शुल्क 500 रुपये है।

राइफल शूटिंग & तीरंदाजी


नेचर सफारी में आर्चरी यानि तीरंदाजी तथा राइफल शूटिंग रेंज भी बनाया गया है। तीरंदाजी में लगभग दस मीटर दूर लक्ष्य को टारगेट करते हैं। निशाना साधते लोग एकबारगी धनुष-बाण चलाने जैसा महसूस करते हैं। वहीं दूसरी ओर राइफल शूटिंग रेंज में 15 मीटर दूर टारगेट को भेदना होता है। वहाँ मौजूद कर्मी उसको चलाने का तरीका बताता है। वैसे तो उसके बताने पर राइफल के होल से मुझे दिख नहीं रहा था, फिर भी पांच में से दो गोलियाँ निशाने पर थीं। 


राजगीर का यह सफर यादगार रहा।  उम्मीद है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। 

हनुमान जयंती 2024 (Hanuman Jayanti / Hanuman Janmotsav)

हनुमान जयंती

हनुमान जयंती एक हिन्दू पर्व है। यह चैत्र माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह माना जाता है कि इस दिन हनुमानजी का जन्म हुआ था। हनुमान जयंती हर साल राम नवमी के छह दिन बाद चैत्र पूर्णिमा को मनाई जाती है। इस साल हनुमान जयंती मंगलवार, 23 अप्रैल 2024 आज मनाया जा रहा है। मंगवार का दिन हनुमान जी की पूजा के लिए समर्पित है, ऐसे में इसी दिन हनुमान जयंती का होना बहुत शुभ माना जा रहा है। 

हनुमान जयंती 2024 (Hanuman Jayanti / Hanuman Janmotsav)

विष्णु जी के 7वें अवतार राम और शिव जी के 11वें रुद्रावतार हैं हनुमान

भगवान राम का जन्म श्रीहरि विष्णु के 7वें अवतार के रूप में धरती पर त्रेतायुग में हुआ। वहीं हनुमान जी को भगवान शिव का 11वां रूद्रावतार कहा जाता है। विष्णु जी के 7वें अवतार यानी भगवान राम का जन्म धरती लोक पर असुरों के संहार के लिए मानव रूप में हुआ, लेकिन इससे शिवजी चिंतित हो गए और रामजी की सहायता के लिए उन्होंने स्वयं हनुमानजी के रूप में जन्म लेकर रामजी की सहायता की। 

हनुमान जयंती 2024 (Hanuman Jayanti / Hanuman Janmotsav)

तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में लिखा है, ‘भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचंद्रजी के काज संवारे.’  अर्थात  रामजी सबके बिगड़े कार्य बनाते हैं, लेकिन हनुमान जी राम जी के काम बनाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि, हनुमान जी का जन्म प्रभु राम की सहायता और बिगड़े काम बनाने के लिए हुआ। 

हनुमान जयंती 2024 (Hanuman Jayanti / Hanuman Janmotsav)

सभी भक्तों को हनुमान जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ 🙏

विश्व पृथ्वी दिवस 2024 || World Earth day 2024

विश्व पृथ्वी दिवस

लोगों के भीतर पर्यावरण के प्रति जागरुकता फैलाने और धरती को बचाने के लिए प्रति वर्ष 22 अप्रैल के दिन दुनियाभर में "विश्व पृथ्वी दिवस" मनाया जाता है। पहला पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल 1970 को संयुक्त राज्य अमेरिका में मनाया गया था। यह दिन पृथ्वी और इसके पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाने और इसकी सुरक्षा के लिए कार्रवाई करने का प्रतीक है। 

विश्व पृथ्वी दिवस 2024 || World Earth day 2024

औद्योगिक क्रांति के बाद से कार्बन उत्सर्जन काफी बढ़ा है। इसका बुरा असर हमारी पृथ्वी पर पड़ रहा है। इसके अलावा आज के इस पूंजीवादी विकास के मॉडल ने विभिन्न स्तरों पर प्रकृति को काफी क्षति पहुंचाया है। इस कारण पृथ्वी के संरक्षण की जरूरत महसूस हुई है। ऐसे में विकास की दौड़ के साथ-साथ प्रकृति के साथ संतुलन बनाने की आवश्यकता है। इस कारण पृथ्वी दिवस की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाती है।

इस दिन लोग धरती को बचाने के लिए संकल्प लेते हैं। स्कूलों में अलग-अलग तरह के कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। कई सामाजिक कार्यकर्ता पृथ्वी को बचाने के लिए जुलूस और नुक्कड़ नाटक का भी आयोजन करते हैं।

पृथ्वी दिवस की शुरुआत कैसे हुई

पृथ्वी दिवस का विचार पहली बार 1969 में यूनेस्को सम्मेलन में शांति कार्यकर्ता जॉन मैककोनेल द्वारा दिया गया था। प्रारंभ में, इस दिन की अवधारणा पृथ्वी का सम्मान करने और उस पर शांति बनाए रखने के लिए थी। 

विश्व पृथ्वी दिवस 2024 || World Earth day 2024

1990 में डेनिस हेस ने विश्व स्तर पर इस दिन को मनाने का विचार बनाया और इसमें 141 देशों ने भाग लिया। साल 2016 में, पृथ्वी दिवस को जलवायु संरक्षण के लिए समर्पित कर दिया गया। इसके लिए एक अंतर-सरकारी संधि, पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। 2020 में पृथ्वी दिवस की 50वीं वर्षगांठ भी मनाई गई थी।

विश्व पृथ्वी दिवस 2024 थीम 

हर साल पृथ्वी दिवस को एक थीम के साथ मनाया जाता है। इस साल पृथ्वी दिवस की थीम "पृथ्वी बनाम प्लास्टिक (Planet Vs Plastic)" है। इसके माध्यम से बढ़ते प्लास्टिक के उपयोग से मानव स्वास्थ्य को जिन जोखिमों का सामना करना पड़ रहा है। उसके प्रति लोगों को जागरुक करना है। इसके अलावा तेजी से बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण पर रोक लगाने के लिए वैश्विक संगठनों का ध्यान इस ओर खींचना है।

विश्व पृथ्वी दिवस 2024 || World Earth day 2024


English Translate 

World Earth Day

"World Earth Day" is celebrated across the world on 22 April every year to spread environmental awareness among people and save the earth. The first Earth Day was celebrated on 22 April 1970 in the United States. This day symbolizes raising awareness of the Earth and its environment and taking action to protect it.
विश्व पृथ्वी दिवस 2024 || World Earth day 2024

Carbon emissions have increased significantly since the Industrial Revolution. It is having a bad effect on our earth. Apart from this, today's model of capitalist development has caused considerable damage to nature at various levels. For this reason the need for conservation of the earth has been felt. In such a situation, there is a need to maintain balance with nature along with the race for development. For this reason the role of Earth Day becomes very important.

On this day people take a pledge to save the earth. Different types of programs are organized in schools. Many social workers also organize processions and street plays to save the earth.

How did Earth Day start?

The idea of Earth Day was first proposed by peace activist John McConnell at a UNESCO conference in 1969. Initially, the concept of this day was to honor the earth and maintain peace on it.

In 1990, Dennis Hayes came up with the idea of celebrating this day globally and 141 countries participated in it. In the year 2016, Earth Day was dedicated to climate protection. For this, an inter-governmental treaty, the Paris Agreement, was signed. The 50th anniversary of Earth Day was also celebrated in 2020.

World Earth Day 2024 Theme

विश्व पृथ्वी दिवस 2024 || World Earth day 2024
Every year Earth Day is celebrated with a theme. The theme of Earth Day this year is “Planet Vs Plastic”. Through this, the risks that human health is facing due to the increasing use of plastic. People have to be made aware about it. Apart from this, the attention of global organizations has to be drawn towards this to stop the rapidly increasing plastic pollution.

महावीर जयंती 2024 || Mahavir Jayant 2024

महावीर जयंती

हिंदू पंचांग के अनुसार हर साल चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म उत्सव मनाया जाता है। इस बार महावीर जयंती  21 अप्रैल (आज) को मनाई जाएगी। भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे। उनका जन्म ईसा पूर्व 599 वर्ष माना जाता है। उनके पिता राजा सिद्धार्थ और माता रानी त्रिशला थीं और बचपन में उनका नाम वर्द्धमान था।

महावीर जयंती 2024 || Mahavir Jayant 2024

महावीर जयंती जैन समुदाय का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। चैत्र माह के 13वें दिन यानी चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को जैन दिगंबर और श्वेतांबर एक साथ मिलकर इस उत्सव को मनाते हैं।

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक है। उनका जीवन त्याग और तपस्या से परिपूर्ण था। उन्होंने एक लंगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा। हिंसा, पशु बलि, जाती पाती के भेदभाव जिस युग में बढ़ गए उसी, युग में ही भगवान महावीर ने जन्म लिया। उन्होंने दुनिया को सत्य अहिंसा का पाठ पढ़ाया। पूरी दुनिया को उपदेश दिया।

महावीर स्वामी के माता-पिता जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (पार्श्वनाथ महावीर से 250 वर्ष पूर्व हुए थे) के अनुयायी थे। महावीर जब शिशु अवस्था में थे, तब इंद्र और देव ने उन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाकर प्रभु का जन्म कल्याणक मनाया। महावीर स्वामी का बचपन राजमहल में बिता। युवावस्था में यशोदा नामक राजकन्या से महावीर का विवाह हुआ तथा प्रियदर्शना नामक उन्हें एक पुत्री भी हुई। जब वे 28 वर्ष के थे तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया। बड़े भाई नंदी वर्धन के आग्रह पर महावीर 2 वर्षों तक घर में रहे। आखिर 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी के दिन दीक्षा ग्रहण की।

महावीर जयंती 2024 || Mahavir Jayant 2024

महावीर स्वामी ने तप संयम और साधना की और पंच महाव्रत रूपी धर्म चलाया। उन्हें इस बात का अनुभव हो गया था कि इंद्रियों, विषय - वासनाओं के सुख दूसरों को दुख पहुंचा करके ही पाए जा सकते हैं। अतः उन्होंने सबसे प्रेम का व्यवहार करते हुए दुनियाभर को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। महावीर कहते थे कि धर्म सबसे उत्तम है। अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। महावीर स्वामी कहते थे जो धर्मात्मा है जिनके मन में सदा धर्म रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।

महावीर स्वामी ने अपने प्रवचनों में धर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह क्षमा पर सबसे अधिक जोर दिया और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों के मुख्य अंश थे। महावीर स्वामी ने चतुर्भुज संघ की स्थापना की। देश के विभिन्न भागों में घूमकर महावीर स्वामी ने अपना पवित्र संदेश फैलाया।

उन्होंने दुनिया को पंचशील के सिद्धांत बताएं। इसके अनुसार के सिद्धांत सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा और क्षमा है। उन्होंने अपने कुछ खास उद्देश्यों के माध्यम से दुनिया को सही राह दिखाने की कोशिश की है। अनेक प्रवचनों से दुनिया का सही मार्गदर्शन किया है।

महावीर जयंती 2024 || Mahavir Jayant 2024

महावीर स्वामी के पंचशील सिद्धांत

सत्य: सत्य के बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैर कर पार कर जाता है।

अहिंसा: इस लोक में जितने भी त्रस जीव (एक, दो, तीन, चार और पांच इंद्रिय वाले जीव) आदि की हिंसा मत कर, उनको उनके पद पर जाने से ना रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो। यही अहिंसा का संदेश भगवान महावीर अपने उपदेशों से हमें देते हैं।

अपरिग्रह: अपरिग्रह पर भगवान महावीर कहते हैं कि जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसे संग्रह करने की सम्मति देता है, उसको दुखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। यही संदेश अपरिग्रह के माध्यम से भगवान महावीर दुनिया को देना चाहते हैं।

ब्रम्हचर्य : महावीर स्वामी ब्रम्हचर्य के बारे में बहुत ही अनमोल उपदेश देते हैं कि ब्रम्हचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मार्चय श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष, स्त्रियों से संबंध नहीं रखते वह मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं।

क्षमा: क्षमा के बारे में भगवान महावीर कहते हैं- 'मैं सब जीवो से क्षमा चाहता हूं। जगत के सभी जीवो के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूं। सब जीवों से मैं सारे अपराधो की क्षमा मांगता हूं। सब जीवो ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें में क्षमा करता हूं।'

महावीर जयंती 2024 || Mahavir Jayant 2024

वे यह भी कहते हैं- 'मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की वृत्तीयों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पापवृत्तीय प्रकट की हो, और शरीर से जो-जो पापवृत्तियां की हो, मेरी वह सभी पापवृत्तियां विफल हों। मेरे वे सारे पाप मिथ्या हों।

उन्होंने अपने जीवन काल में अहिंसा का भरपूर विकास किया। महावीर को 'वर्धमान', 'वीर', 'अतिवीर' भी कहा जाता है। पूरे विश्व को अध्यात्म का पाठ पढ़ाने वाले भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्ण अमावस्या की रात्रि में पावापुरी नगरी में मोक्ष प्राप्त किया।

भगवान महावीर के निर्वाण समय उपस्थित अट्ठारह गणराजाऔं ने रत्नों के प्रकाश से उस रात्रि को आलोकित करके भगवान महावीर का निर्वाण उत्सव मनाया।