श्रीमद्भगवद्गीता ||अध्याय छः - आत्मसंयमयोग || अनुच्छेद 05 - 10 ||

 श्रीमद्भगवद्गीता ||अध्याय छः आत्मसंयमयोग ||

अथ षष्ठोऽध्यायः  ~ आत्मसंयमयोग 

अध्याय छः के अनुच्छेद 05 - 10

अध्याय छः के अनुच्छेद 05-10 में आत्म-उद्धार की प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण एवं एकांत साधना का महत्व बताया गया है। 

संपूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता || Sampurn Shrimad Bhagwat Geeta ||

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥

भावार्थ : 

अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है॥5॥

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥

भावार्थ : 

जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है॥6॥

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥

भावार्थ : 

सरदी-गरमी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक्‌ प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं॥7॥

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥

भावार्थ : 

जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है॥8॥

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥

भावार्थ : 

सुहृद् (स्वार्थ रहित सबका हित करने वाला), मित्र, वैरी, उदासीन (पक्षपातरहित), मध्यस्थ (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है॥9॥

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥

भावार्थ : 

मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए॥10॥

11 comments:

  1. सत्य वचन मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और स्वयं ही शत्रु है।
    जय श्री कृष्ण

    ReplyDelete
  2. 🙏🏻🙏🏻 जय श्री राधे कृष्णा रूपा जी 🙏🏻🙏🏻
    🙏🏻🪷 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः 🪷🙏🏻

    ReplyDelete
  3. ओम नमो भगवते वासुदेवाय।

    ReplyDelete
  4. जय श्री कृष्ण 🙏

    ReplyDelete
  5. Jai shree krishna

    ReplyDelete