मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ.. मानसरोवर-1 ..तावान

मानसरोवर-1 ..तावान

तावान - मुंशी प्रेमचंद | Taawan - Munshi Premchand

छकौड़ीलाल ने दुकान खोली और कपड़े के थानों को निकाल-निकाल रखने लगा कि एक महिला, दो स्वयंसेवकों के साथ उसकी दुकान को छंकने आ पहुँचीं। छकौड़ी के प्राण निकल गये।

महिला ने तिरस्कार करके कहा- क्यों लाला, तुमने सील तोड़ डाली न? अच्छी बात हैं, देखें तुम कैसे एक गिरह कपड़ा भी बेच लेते हो? भले आदमी, तुम्हें शर्म नहीं आती कि देश में यह संग्राम छिड़ा हुआ है और तुम विलायती कपड़ा बेच रहे हो; डूब मरना चाहिए! औरतें तक घरों से निकल पड़ी हैं, फिर भी तुम्हें लज्जा नही आती! तुम जैसे कायर देश में न होते, तो उसकी यह अधोगति न होती!

तावान - मुंशी प्रेमचंद | Taawan - Munshi Premchand

छकौड़ी ने वास्तव में कल कांग्रेस की सील तोड़ डाली थी। यह तिरस्कार सुनकर उसने सिर नीचा कर लिया। उसके पास कोई सफाई न थी, जवाब न था। उसकी दुकान बहुत छोटी थी। ठेली पर कपड़े लगाकर बेचा करता था। यही जीविका थी। इसी पर वृद्धा माता, रोगिणी स्त्री और पाँच बेटे-बेटियों का निर्वाह होता था। जब स्वराज्य-संग्राम छिड़ा और सभी बजाज विलायती कपड़ो पर मुहरें लगवाने लगे, तो उसने भी मुहर लगवा ली। दस-पाँच थान स्वदेशी कपड़ो के उधार लाकर दुकान पर रख लिए; पर कपड़ों का मेल न था, इसलिए बिक्री कम होती थी। कोई भूला-भटका ग्राहक आ जाता, तो रुपये-आठ आने बिक्री हो जाती। दिन-भर दूकान में तपस्या-सी करके पहर रात को लौट जाता था।

गृहस्थी का खर्च इस बिक्री से क्या चलता! कुछ दिन कर्ज-वर्ज लेकर काम चलाया, फिर गहने बेचने की नौबत आयी। यहाँ तक कि अब घर में कोई ऐसी चीज न बची, जिससे दो-चार महीने पेट का भूत सिर से टाला जाता। उधर स्त्री का रोग असाध्य होता जाता था। बिना किसी कुशल डॉक्टर को दिखाये काम न चल सकता था। इसी चिन्ता में डूब -उतरा रहा था कि विलायती कपड़े का एक ग्राहक मिल गया, जो एक मुश्त दस रुपये का माल लेना चाहता था। इस प्रलोभन को वह रोक न सका।

स्त्री ने सुना, तो कानों पर हाथ रखकर बोली- मैं मुहर तोड़ने को कभी न कहूँगी। डॉक्टर तो कुछ अमृत पिला न देगा। तुम नक्कू क्यों बनो? बचना होगा, बच जाऊँगी, मरना होगा, मर जाऊँगी, बेआबरूई तो न होगी। मै जीकर ही घर का क्या उपकार कर रही हूँ ? और सबको दिक कर रही हूँ । देश को स्वराज्य मिले, सब सुखी हो, बला से मैं मर जाऊँगी ! हजारों आदमी जेल जा रहे हैं, कितने घर तबाह हो गये, तो क्या सबसे ज्यादा प्यारी मेरी जान हैं?

पर छकौड़ी इतना पक्का न था। अपना बस चलते, वह स्त्री को भाग्य के भरोसे न छोड़ सकता था। उसने चुपके से मुहर तोड़ डाली और लागत के दामों दस रुपये के कपड़े बेच लिये।

अब डॉक्टर को कैसे ले जाय। स्त्री से परदा रखता? उसने जाकर साफ़-साफ़ सारा वृत्तांत कह सुनाया और डॉक्टर को बुलाने चला।

स्त्री ने उसका हाथ पकड़कर कहा- मुझे डॉक्टर की जरूरत नहीं, अगर तुमने जिद की, तो दवा की तरफ आँखें भी न उठाऊँगी

सम्पूर्ण मानसरोवर कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद्र

छकौड़ी और उसकी माँ ने रोगिणी को बहुत समझाया; पर वह डॉक्टर को बुलाने पर राज़ी न हुई। छकौड़ी ने दसों रुपयों को उठाकर घर- कुइयाँ में फेंक दिये और बिना कुछ खाये-पीये, किस्मत को रोता-झीकता दुकान पर चला आया। उसी वक़्त पिकेट करने वाले आ पहुँचे और उसे फटकारना शुरू कर दिया। पड़ोस के दुकानदार ने कांग्रेस-कमेटी में जाकर चुगली खायी थी।

छकौड़ी ने महिला के लिए अंदर से लोहे की एक टूटी, बेरंग कुर्सी निकाली और लपककर उसके लिए पान लाया। जब पान खाकर कुर्सी पर बैठी, तो उसनें अपराध के लिए क्षमा माँगी। बोला- बहनजी, बेसक मुझसे यह अपराध हुआ हैं, लेकिन मैने मजबूर होकर मुहर तोड़ी। अबकी मुझे मुआफी दीजिए। फिर ऐसी खता न होगी।

देशसेविका ने थानेदारों के रौब के साथ कहा- यों अपराध क्षमा नही हो सकता। तुम्हें इसका तावान देना होगा। तुमने कांग्रेस के साथ विश्वासघात किया हैं और इसका तुम्हें दंड मिलेगा। आज ही बायकाट-कमेटी में यह मामला पेश होगा।

छकौड़ी बहुत ही विनीत, बहुत ही सहिष्णु था; लेकिन चिताग्नि में तपकर उसका हृदय उस दशा को पहुँच गया था, जब एक चोट भी चिनगारियाँ पैदा कर देती हैं। तिनककर बोला- तावान तो मैं न दे सकता हूँ, न दूँगा। हाँ, दुकान भले ही बन्द कर दूँ। और दुकान भी क्यों बन्द करूँ अपना माल हैं जिस जगह चाहूँ बेच, सकता हूँ। अभी जाकर थाने में लिखा दूँ, तो बायकाट कमेटी को भागने की राह न मिले। जितना ही दबता हूँ, उतनी ही आप लोग दबाती हैं।

महिला ने सत्याग्रह-शक्ति के प्रदर्शन का अवसर पाकर कहा- हाँ, जरूर पुलिस में रपट करो, मैं तो चाहती हूँ। तुम उन लोगों को यह धमकी दे रहे हो, जो तुम्हारे ही लिए अपने प्राणों का बलिदान कर रहे हैं। तुम इतने स्वार्थान्ध हो गये हो कि अपने स्वार्थ के लिए देश का अहित करते तुम्हें लज्जा नही लाती! उस पर मुझे पुलिस की धमकी देते हो! बायकाट-कमेटी जाय या रहे, पर तुम्हें तावान देना पड़ेगा, अन्यथा दुकान बन्द करनी पड़ेगी।

यह कहते-कहते महिला का चहेरा गर्व से तेजवान हो गया। कई आदमी जमा हो गये और सब-के -सब छकौड़ी को बुरा -भला कहने लगे। छकौड़ी को मालूम हो गया कि पुलिस की धमकी देकर उसने बहुत बड़ा अविवेक किया है। लज्जा और अपमान से उसकी गर्दन झुक गयी और मुँह जरा-सा निकल आया। फिर गर्दन न उठायी।

सारा दिन गुजर गया और धेले की बिक्री न हुई। आखिर हारकर उसने दुकान बन्द कर दी और घर चला गया।

दूसरे दिन प्रातःकाल बायकाट-कमेटी ने एक स्वयंसेवक द्वारा उसे सूचना दे दी कि कमेटी ने उस पर 101रू. का दंड दिया हैं।

छकौड़ी जानता था कि कांग्रेस की शक्ति से सामने वह सर्वथा अशक्त है। उसकी जुबान से जो धमकी निकल गयी थी उस पर घोर पश्चाताप हुआ, लेकिन कीर कमान से निकल चुका था। दुकान खोलना व्यर्थ हैं। वह जानता था। उसकी धेले की बिक्री न होगी। 101रु. देना उसके बूते से बाहर था। दो-तीन दिन तो वह चुपचाप बैठा रहा। एक दिन रात को दुकान खोलकर सारी गाँठें घर उठा लाया, और चुपके -चुपके बेचने लगा। पैसे की चीज धेले में लुटा रहा था और वह भी उधार। जीने के लिए कुछ आधार तो चाहिए।

मगर उसकी यह चाल कांग्रेस से छिपी न रही। चौथे ही दिन गोइंदो ने कांग्रेस को खबर पहुँचा दी। उसी दिन तीसरे पहर छकौड़ी के घर की पिकेटिंग शुरू हो गयी। अबकी सिर्फ पिकेटिंग न थी, स्यापा भी था। पाँच-छह स्वयंसेविकाएँ औऱ इतने ही स्वयंसेवक द्वार पर स्यापा करने लगे।

छकौड़ी आँगन में सिर झुकाये खड़ा था। कुछ अक़्ल काम न करती थी, इस विपत्ति को कैसे टाले। रोगिणी स्त्री सायबान में लेटी हुई थी वृद्धा माता उसके, सिरहाने बैठी पंखा झूल रही थी और बच्चे बाहर स्यापे का आनन्द उठा रहे थे।

स्त्री ने कहा- इन सबसे पूछते नहीं, खाएँ क्या?

छकौड़ी बोला- किससे पूछूँ, जब कोई सुने भी!

जाकर कांग्रेसवालों से कहो हमारे लिए कुछ इंतजाम कर दे‘, हम अभी कपड़े को जला देंगे। ज्यादा नही, 25 रु. ही महीना दे दें।’

‘वहाँ भी कोई नहीं सुनेगा।’

‘तुम जाओ भी, या यहीं से कानून बघारने लगे।’

क्या जाऊँ, उलटे और लोग हँसी उड़ाएँगे। यहाँ तो जिसने दुकान खोली, उसे दुनिया लखपती ही समझने लगती हैं।’

तो खड़े-खड़े ये गालियाँ सुनते रहोगे?’

‘तुम्हारे कहने से कहो, चला जाऊँ, मगर वहाँ ठठोली के सिवा और कुछ न होगा।’

हाँ मेरे कहने से जाओ। जब कोई न सुनेगा, तो हम भी कोई और राह ‘ निकालेंगे।’

छकौड़ी ने मुँह लटकाए कुर्ता पहना और इस तरह कांग्रेस-दफ्तर चला, जैसे कोई मरणासन्न रोगी को देखने के लिए वैद्य को बुलाने जाता हैं।

कांग्रेस-कमेटी के प्रधान ने परिचय के बाद पूछा- तुम्हारे ही ऊपर तो बायकाट- कमेटी ने 101रु. का तावान लगाया हैं?

‘जी हाँ!’

‘तो रुपया कब दोगे?’

‘मुझमें तावान देने की सामर्थ्य नही हैं। आपसे सत्य कहता हूँ, मेरे घर में दो दिन से चूल्हा नही जला। घर की जो जमा-जथा थी, वह सब बेचकर खा गया। अब आपने तावान लगा दिया दुकान बन्द करनी पड़ी। घर पर कुछ माल बेचने लगा। वहाँ स्यापा बैठ गया। अगर आपकी यही इच्छा हो कि हम सब दाने बगैर मर जायँ, तो मार डालिए और मुझे कुछ नहीं कहना हैं।’

छकौड़ी जो बात कहने घर ले चला था, वह उसके मुँह से निकली। उसने देख लिया, यहाँ कोई उस पर विचार करने वाला नहीं हैं!

प्रधान ने गम्भीर-भाव से कहा- तावान तो देना ही पड़ेगा। अगर तुम्हें छोड़ दूँ तो इसी तरह और लोग भी करेंगे। फिर विलायती कपड़े की रोकथाम कैसे होगी?

मैं आपसे जो कह रहा हूँ उस पर आपको विश्वास नही आता?’

‘मैं जानता हूँ, तुम मालदार आदमी हो।’

मेरे घर की तलाशी ले लीजिए।’

‘मैं इन चकमों में नही आता।’

छकौड़ी ने उद्दंड होकर कहा- तो यह कहिए कि आप सेवा नही कर रहे हैं, गरीबो का खून चूस रहे हैं। पुलिस वाले कानूनी पहलू से लेते हैं, आप गैरकानूनी पहलू से लेते हैं। नतीजा एक हैं। आप भी अपमान करते है, वह भी अपमान करते हैं। मैं कसम खा रहा हूँ कि मेरे घर में खाने के लिए एक दाना नहीं हैं मेरी स्त्री खाट पर पड़ी-पड़ी मर रही हैं कफर भी आपको विश्वास नहीं आता। आप मुझे कांग्रेस का काम करने के लिए नौकर रख लीजिए। 25 रु. महीने दीजिएगा। इससे ज्यादा अपनी गरीबी का क्या प्रमाण दूँ अगर मेरा काम संतोष के लायक न हो, तो एक महीने के बाद मुझे निकाल दीजिएगा। यह समझ लीजिए कि जब मैं आपकी गुलामी करने को तैयार हुआ हूँ, तो इसीलिए कि मुझे दूसरा कोई आधार नहीं हैं। व्यापारी लोग, अपना बस चलते, किसी की चाकरी नही करते। जमाना बिगड़ा हुआ हैं, नही 101रु. के लिए इतना हाथ-पाँव न जोड़ता।

प्रधानजी हँसकर बोले- यह तो तुमने नयी चाल चली।’

‘चाल नही चल रहा हूँ, अपनी विपत्ति-कथा कह रहा हूँ ।’

कांग्रेस के पास इतने रुपये नही हैं कि वह मोटों को खिलाती फिरे।’

‘अब भी आप मुझे मोटा कहे जायँगे।’

‘तुम मोटे ही हो।’

‘‘मुझ पर जरा भी दया न कीजिएगा?’

प्रधान ज्यादा गहराई से बोले- छकौड़ीलालजी, मुझे पहले तो इसका विश्वास नहीं आता कि आपकी हालत इतनी खराब हैं, और अगर विश्वास आ भी जाये, तो मैं कुछ नही कर सकता। इतने महान् आन्दोलन में कितने ही घर तबाह हुए और होंगे। हम लोग सभी तबाह हो रहे हैं। आप समझते हैं, हमारे सिर कितनी बड़ी जिम्मेदारी हैं ? आपका तावान मुआफ़ कर दिया जाय, तो कल ही आपके बीसियों भाई अपनी मुहरें तोड़ डालेंगे और हम उन्हें किसी तरह कायल न कर सकेंगे । आप गरीब हैं, लेकिन सभी भाई तो गरीब नही हैं। तब तो सभी अपनी गरीबी के प्रमाण देने लगेंगे। मैं किस-किस की तलाशी लेता फिरूँगा। इसलिए जाइए, किसी तरह रुपये का प्रबन्ध कीजिए और दुकान खोलकर कारोबार कीजिए। ईश्वर चाहेगा, तो वह दिन भी आयेगा जब आपका नुकसान पूरा होगा।

छकौड़ी घर पहुँचा, तो अँधेरा हो गया था। अभी तक उसके द्वार पर स्यापा हो रहा था। घर में जाकर स्त्री से बोला- आखिर वही हुआ, जो मैं कहता था। प्रधानजी को मेरी बातों पर विश्वास नहीं आया।

स्त्री का मुरझाया हुआ बदन उत्तेजित हो उठा। उठ खड़ी हुई और बोली- अच्छी बात हैं, हम उन्हें विश्वास दिला देंगे। मैं अब कांग्रेस दफ्तर के सामने मरूँगी। मेरे बदन उसी दफ्तर के सामने भूख से विकल हो-होकर तड़पेंगे। कांग्रेस हमारे साथ सत्याग्रह करती हैं, तो हम भी उसके साथ सत्याग्रह करके दिखा दें। मैं इस मरी हुई दशा में कांग्रेस को तोड़ डालूँगी। जो अभी इतने निर्दयी हैं, वह अधिकार पा जाने पर क्या न्याय करेंगे एक इक्का बुला लो खाट की जरूरत नही। वहीं, सड़क किनारे मेरी जान निकलेगी। जनता ही के बल पर तो वह कूद रहे हैं। मै दिखा दूँगी, जनता तुम्हारे साथ नहीं, मेरे साथ हैं।

इस अग्निकुंड के सामने छकौड़ी की गर्मी शान्त हो गयी। कांग्रेस के साथ इस रूप में सत्याग्रह की कल्पना ही से वह काँप उठा। सारे शहर में हलचल पड़ जायेगी, हजारो आदमी आकर यह दशा देखेंगे। सम्भव है, कोई हंगामा ही हो जाय। ये सभी बाते इतनी भयंकर थी कि छकौड़ी का मन कातर हो गया। उसने स्त्री को शान्त करने की चेष्टा करते हुए कहा- इस तरह चलना उचित नहीं हैं अम्बे! मैं एक बार प्रधानजी से मिलूँगा अब रात हुई, स्यावा बन्द हो जायेगा। कल देखी जायेगी। अभी तो तुमने पथ्य भी नहीं लिया। प्रधानजी बेचारे बड़े असमंजस में पड़े हुए हैं। कहते है, अगर आपके साथ रियायत कर दें, तो फिर कोई शासन ही न रह जायेंगा। मोटे-मोटे आदमी भी मुहरें हरें तोड़ डालेंगे और जब कुछ कहा जायेगा, तो आपकी नज़ीर पेश कर देंगे।

अम्बा एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ी छकौड़ी का मुँह देखती रही, फिर धीरे से खाट पर बैठ गयी। उसकी उत्तेजना गहरे विचार में परिणत हो गयी। कांग्रेस की और अपनी जिम्मेदारी का ख्याल आ गया। प्रधानजी के कथन कितने सत्य थे, यह उससे छिपा न रहा।

उसने छकौड़ी से कहा- तुमने आकर यह बात न कही थी।

छकौड़ी बोला- उस वक़्त मुझे इसकी याद न थी।

‘प्रधानजी ने कहा हैं, या तुम अपनी तरफ से मिला रहे हो।’

नहीं उन्होंने खुद कहा मैं अपनी तरफ से क्यों मिलाता ?’

‘बात तो उन्होंने ठीक ही कहीं!’

हम तो मिट जायेंगे!’

‘हम तो यों ही मिटे हुए हैं!’

‘रुपये कहाँ से आवेंगे? भोजन के लिए तो ठिकाना ही नहीं, दंड कहाँ से दें?’

‘और कुछ नहीं हैं, घर तो हैं। इसे रेहन रख दो और अब विलायती कपड़े भूल कर भी नहीं बेचना। सड़ जायँ, कोई परवाह नही। तुमने सील तोड़कर आफ़त सिर ली। मेरी दवा-दारू की चिन्ता न करो। ईश्वर की जो इच्छा होगी, वही होगा। बाल- बच्चे भूखे मरते हैं, मरने दो। देश में करोड़ों आदमी ऐसे हैं, जिनकी दशा हमारी दशा से भी खराब हैं। हम न रहेंगे देश तो सुखी होगा।’

छकौड़ी जानता था; अम्बा जो कहती हैं, वह करके रहती हैं, कोई उज्र नही सुनती। वह सिर झुकाए, अम्बा पर झुँझलाता हुआ घर से निकलकर महाजन के घर की ओर चला।

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