उड़ते के पीछे भागना : पंचतंत्र

 उड़ते के पीछे भागना 

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि ।।

जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के पीछे भटकता है,
उसका निश्चित धन भी नष्ट हो जाता है।

उड़ते के पीछे भागना : पंचतंत्र

एक स्थान पर तीक्ष्णविषाण नाम का एक बैल रहता था। बहुत उन्मत्त होने के कारण उसे किसान ने छोड़ दिया था। अपने साथी बैलों से भी छूटकर जंगल में ही मतवाले हाथी की तरह बेरोक-टोक घूमा करता था।

उसी जंगल में प्रलोभक नाम का एक गीदड़ भी था। एक दिन वह अपनी पत्नी सहित नदी के किनारे बैठा था कि वह बैल वहीं पानी पीने आ गया। बेल के मांसल कन्धों पर लटकते हुए मांस को देखकर गीदड़ी ने गीदड़ से कहा-स्वामी, इस बैल की लटकती हुई लोथ को देखो। न जाने किस दिन यह जमीन पर गिर जाए। इसके पीछे-पीछे जाओ-जब यह ज़मीन पर गिरे, ले आना।

गीदड़ ने उत्तर दिया-प्रिये! न जाने यह लोथ गिरे या न गिरे। कब तक इसका पीछा करूँगा? इस व्यर्थ के काम में मुझे मत लगाओ। हम यहाँ चैन से बैठे हैं। जो चूहे इस रास्ते से जाएँगे, उन्हें मारकर ही हम भोजन कर लेंगे। तुझे यहाँ अकेली छोड़कर जाऊँगा तो शायद कोई दूसरा गी ही इस घर को अपना बना ले। अनिश्चित लाभ की आशा में निश्चित वस्तु का परित्याग कभी अच्छा नहीं होगा।

गीदड़ी बोली- मैं नहीं जानती थी कि तू इतना कायर और आलसी है। तुझमें इतना भी उत्साह नहीं है। जो थोड़े से धन से सन्तुष्ट हो जाता है, वह थोड़े से धन को भी गँवा बैठता है। इसके अतिरिक्त अब मैं चूहे के माँस से ऊब गई हूँ। बैल के ये मांस-पिण्ड अब गिरने ही वाले दिखाई देते हैं। इसलिए अब इसका पीछा करना चाहिए।

तब से गीदड़-गीदड़ी दोनों बैल के पीछे घूमने लगे। उनकी आँखें उसके लटकते मांस-पिण्ड पर लगी थीं, लेकिन वह मांस-पिण्ड 'अब गिरा, तब गिरा', लगते हुए भी गिरता नहीं था। अन्त में दस-पन्द्रह दिन इसी तरह बैल का पीछा करने के बाद एक दिन गीदड़ ने कहा-प्रिये! न मालूम यह गिरे भी या नहीं, इसलिए अब इसकी आशा छोड़कर अपनी राह लो।

कहानी सुनने के बाद पौरुष ने कहा- यदि यही बात है, धन की इच्छा इतनी ही प्रबल है, तो तू फिर वर्धमानपुर चला जा। वहाँ दो बनियों के पुत्र हैं, एक गुप्तधन, दूसरा उपभुक्तधन। इन दोनों प्रकार के धनों का स्वरूप जानकर तू किसी एक का वरदान माँगना। यदि तू उपयोग की योग्यता के "तू बिना धन चाहेगा तो तुझे गुप्तधन दे दूंगा। और यदि खर्च के लिए धन चाहेगा तो उपभुक्त धन दे दूँगा।

यह कहकर वह देवता लुप्त हो गया। सोमिलक उसके आदेशानुसार फिर वर्धमान पुर पहुँचा। शाम हो गई थी। पूछता-पाछता वह गुप्तधन के घर चला गया। घर पर उसका किसी ने सत्कार नहीं किया। इसके विपरीत उसे भला-बुरा कहकर गुप्तधन और उसकी पत्नी ने घर से बाहर धकेलना चाहा। किन्तु सोमिलक अपने संकल्पों का पक्का था। सबके विरुद्ध होते हुए भी वह घर में घुसकर जा बैठा। भोजन के समय उसे गुप्तधन ने रूखी-सूखी रोटी दे दी। उसे खाकर वह वहीं सो गया। स्वप्न में उसने फिर दोनों देव देखें। वे बातें कर रहे थे। एक कह रहा था-हे पोरुष! तूने गुप्तधन को भोग्य से इतना अधिक धन क्यों दे दिया कि उसने सोमिलक को भी रोटी गुप्तधन को दे दी। - पौरुष ने उत्तर दिया- मेरा इसमें दोष नहीं। मुझे पुरुष के हाथों धर्म-पालन करवाना ही है, उसका फल देना तेरे अधीन है।

दूसरे दिन गुप्तधन पेचिस से बीमार हो गया और उसे उपवास करना पड़ा। इस तरह उसकी क्षतिपूर्ति हो गई।

सोमिलक अगले दिन सुबह उपभुक्तधन के घर गया। वहाँ उसने भोजनादि द्वारा उसका सत्कार किया। सोने के लिए सुन्दर शय्या भी दी। सोते-सोते उसने फिर सुना, वही दोनों देव बातें कर रहे थे। एक कह रहा था-हे पौरुष! इसने सोमिलक का सत्कार करते हुए बहुत धन व्यय कर दिया है। अब इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी?-दूसरे ने कहा- हे भाग्य! सत्कार के लिए धन व्यय करना मेरा धर्म था, इसका फल देना तेरे अधीन है।

सुबह होने पर सोमिलक ने देखा कि राजदरबार से एक राजपुरुष राजप्रसाद के रूप में धन की भेंट लाकर उपभुक्तधन को दे रहा था। यह देखकर सोमिलक ने विचार किया कि यह संचयरहित उपयुक्त धन ही गुप्तधन से श्रेष्ठ है। जिस धन का दान कर दिया जाए या सत्कार्यों में व्यय कर दिया जाए वह धन संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है।

मन्थरक ने ये कहानियाँ सुनाकर हिरण्यक से कहा कि इस कारण तुझे भी धन-विषयक चिन्ता नहीं करनी चाहिए। तेरा जमीन में गड़ा हुआ खजाना चला गया तो जाने दे। भोग के बिना उसका तेरे लिए उपयोग भी क्या था । उपार्जित धन का सबसे अच्छा संरक्षण यह है कि उसका दान कर दिया जाए। शहद की मक्खियाँ इतना मधु संचय करती हैं, किन्तु उपयोग नहीं कर सकतीं। इस संचय से क्या लाभ?

मन्थरक कछुआ, लघुपतनक कौवा और हिरण्यक चूहा वहाँ बैठे-बैठे यही बातें कर रहे थे कि वहाँ चित्राँग नाम का हरिण कहीं से दौड़ता-हाँफता आ गया। एक व्याघ उसका पीछा कर रहा था। उसे आता देखकर कौवा उड़कर वृक्ष की शाखा पर बैठ गया। हिरण्यक पास के बिल में घुस गया और मन्थरक तालाब के पानी में जा छिपा।

कोवे ने हरिण को अच्छी तरह देखने के बाद मन्थरक से कहा-मित्र मन्थरक! यह तो हरिण के आने की आवाज है। एक प्यासा हरिण पानी पीने के लिए तालाब पर आया है। उसी का यह शब्द है, मनुष्य का नहीं।

मन्थरक- यह हरिण बार-बार पीछे मुड़कर देख रहा है और डरा हुआ-सा है। इसलिए यह प्यास नहीं, बल्कि व्याध के डर से भागा हुआ है। देख तो सही इसके पीछे व्याध आ रहा है या नहीं।

दोनों की बात सुनकर चित्राँग हरिण बोला-मन्थरक! मेरे भय का कारण तुम जान गए हो। मैं व्याध के बाणों से डरकर बड़ी कठिनाई से यहाँ पहुँच पाया हूँ। तुम मेरी रक्षा करो। अब तुम्हारी शरण में हूँ। मुझे कोई ऐसी जगह बतलाओ जहाँ व्याध न पहुँच सके।

मन्थरक ने हरिण को घने जंगलों में भाग जाने की सलाह दी। किन्तु लघुपतनक ने ऊपर से देखकर बतलाया कि व्याध दूसरी दिशा में चले गए हैं, इसलिए अब डर की कोई बात नहीं है। इसके बाद चारों मित्र तालाब के किनारे वृक्षों की छाया में मिलकर देर तक बातें करते रहे।

कुछ समय बाद एक दिन जब कछुआ, कौवा और चूहा बातें कर रहे थे, शाम हो गई। बहुत देर बाद भी हरिण नहीं आया तीनों को सन्देह होने लगा कि कहीं वह व्याध के जाल में तो नहीं फँस गया; अथवा शेर, बाघ आदि ने उस पर हमला न कर दिया हो। घर में बैठे स्वजन अपने प्रवासी प्रियजनों के सम्बन्ध में सदा शकित रहते हैं।

बहुत देर तक भी चित्राँग हरिण नहीं आया तो मन्थरक कछुए ने लघुपतनक कौवे को जंगल में जाकर हरिण को खोजने की सलाह दी। लघुपतनक ने कुछ दूर जाकर ही देखा कि वहाँ चित्राँग एक जाल में बँधा हुआ है। लघुपतनक उसके पास गया। उसे देखकर चित्राँग की आँखों में आँसू आ गए। वह बोला- अब मेरी मृत्यु निश्चित है। अन्तिम समय में तुम्हारे दर्शन करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। प्राण-विसर्जन के समय मित्र-दर्शन बड़ा सुखद होता है। मेरे अपराध क्षमा करना।

लघुपतनक ने धीरज बाँधते हुए कहा-घबराओ मत। मैं अभी हिरण्यक चूहे को बुला लाता हूँ। वह तुम्हारे जाल काट देगा।

यह कहकर वह हिरण्यक के पास चला गया और शीघ्र ही उसे पीठ पर बिठाकर ले आया। हिरण्यक अभी जाल काटने की विधि सोच ही रहा था कि लघुपतनक ने वृक्ष के ऊपर से दूर पर किसी को देखकर कहा-यह तो बहुत बुरा हुआ।

हिरण्यक ने पूछा- क्या कोई व्याध आ रहा है?

लघुपतनक- नहीं, व्याध तो नहीं, किन्तु मन्थरक कछुआ इधर चला आ रहा है।

हिरण्यक - तब तो खुशी की बात है। दुःखी क्यों होता है?

लघुपतनक - दुःखी इसलिए होता हूँ कि व्याध के आने पर मैं ऊपर उड़ जाऊँगा, हिरण्यक बिल में घुस जाएगा, चित्राँग भी छलाँगें मारकर घने जंगल में घुस जाएगा; लेकिन यह मन्थरक कैसे अपनी जान बचाएगा? यही सोचकर चिन्तित हो रहा हूँ।

मन्थरक के वहाँ आने पर हिरण्यक ने मन्थरक से कहा- मित्र! तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया। अब भी वापस लौट जाओ, कहीं व्याध न आ जाए।

मन्थरक ने कहा-

मित्र! मैं अपने मित्र को आपत्ति में जानकर वहाँ नहीं रह सका। सोचा उसकी आपत्ति में हाथ बंटाऊँगा, तभी चला आया ।

ये बातें हो ही रही थीं कि उन्होंने व्याध को उसी ओर आते देखा। उसे देखकर चूहे ने उसी क्षण चित्राँग के बन्धन काट दिए। चित्राँग भी उठकर घूम-घूमकर पीछे देखता हुआ आगे भाग खड़ा हुआ। लघुपतनक वृक्ष पर उड़ गया। हिरण्यक पास के बिल में घुस गया।

व्याध अपने जाल में किसी को न पाकर बड़ा दुःखी हुआ। वहाँ से वापस जाने का मुड़ा ही था कि उसकी दृष्टि धीरे-धीरे जाने वाले मन्थरक पर पड़ गई। उसने सोचा, आज हरिण तो हाथ आया नहीं, कछुए को ही ले चलता हूँ। कछुए को ही आज भोजन बनाऊँगा। उससे ही पेट भरूँगा- यह सोचकर वह कछुए को कन्धे पर डालकर चल दिया। उसे ले जाते देख हिरण्यक और लघुपतनक को बड़ा दुःख हुआ। दोनों मित्र मन्थरक को बड़े प्रेम और आदर से देखते थे। चित्राँग ने भी मन्थरक को व्याध के कन्धों पर देखा तो व्याकुल हो गया। तीनों मित्र मन्थरक की मुक्ति का उपाय सोचने लगे।

कौए ने एक उपाय ढूँढ निकाला। वह यह कि चित्राँग व्याध के मार्ग में तालाब के किनारे जाकर लेट जाए। मैं तब उसे चोंच मारने लगूँगा। व्याध समझेगा कि हरिण मरा हुआ। वह मन्थरक को ज़मीन पर रखकर इसे लेने के लिए जब आएगा तो हिरण्यक जल्दी-जल्दी मन्थरक के बन्धन काट दें। मन्थरक तालाब में घुस जाए और चित्राँग छलाँगें मारकर घने जंगल में चला जाए। मैं उड़कर वृक्ष पर चला ही जाऊँगा। सभी बच जाएँगे, मन्थरक भी छूट जाएगा।

तीनों मित्रों ने यही उपाय किया। चित्राँग तालाब के किनारे मृतवत् जा लेटा। कौवा उसकी गर्दन पर सवार होकर चोंच चलाने लगा। व्याध ने देखा तो समझा कि हरिण जाल से छूटकर दौड़ता-दौड़ता यहाँ मर गया है। उसे लेने के लिए वह जालवद्ध कछुए को जमीन पर छोड़कर आगे बढ़ा तो हिरण्यक ने अपने वज्र समान तीखे दाँतों से जाल के बन्धन काट दिए। मन्थरक पानी में घुस गया चित्राँग भी दौड़ गया।

व्याध ने चित्राँग को हाथ से निकलकर जाते देखा तो आश्चर्य में डूब गया। वापस जाकर जब उसने देखा कि कछुआ भी जाल से निकलकर भाग गया है। तब उसके दुःख की सीमा न रही। वहीं एक शिला पर बैठकर विलाप करने लगा।

दूसरी ओर चारों मित्र, लघुपतनक, मन्थरक, हिरण्यक और चित्राँग प्रसन्नता से फूले न समाते थे। मित्रता के बल पर ही चारों ने व्याध से मुक्ति पाई थी।

मित्रता में बड़ी शक्ति है। मित्र संग्रह करना जीव की सफलता में बड़ा सहायक है। विवेकी व्यक्ति को सदा मित्र प्राप्ति में प्रयत्नशील रहना चाहिए।

उल्लू का राज्याभिषेख 

To be continued ...

11 comments:

  1. बेहद रोचक और तथ्य पूर्ण 👏🏻👏🏻

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  2. very nice story

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  3. रोचक और शिक्षा प्रद कहानी 👍👌

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  4. सबक लेने योग्य कहानी

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  5. अच्छी और शिक्षाप्रद कहानी, सच्चे मित्र अगर साथ हों तो बड़ी से बड़ी परेशानियों से बचा जा सकता है।

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  6. संघे शक्ति

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  7. जो है उसमें खुश रहना है
    लालच का मुंह मत खोलो
    ज्यादा पाने की लालसा में
    कम को कमियाँ मत बोलो
    ज्यादा पाने के चक्कर में
    जो है उसको खोना पड़ेगा
    पछतावा होने के बाद फिर
    आपको यूँ ही रोना पड़ेगा
    लालच होती है बुरी बला
    जानता हर अच्छा-भला
    समझदार होकर इंसान
    तु इस राह पर क्यों चला
    🙏नरेश"राजन"हिन्दुस्तानी🙏

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  8. Very nice story...

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