द्वितीय तंत्र: मित्र संप्राप्ति

द्वितीय तंत्र: मित्र संप्राप्ति

द्वितीय तंत्र: मित्र संप्राप्ति

दक्षिण देश के एक प्रांत में महिलारोप्य नाम का एक नगर था। वहां एक विशाल वटवृक्ष की शाखाओं पर लघुपतनक नाम का कौवा रहता था। एक दिन वह अपने आहार की चिंता में शहर की ओर चला ही था कि उसने देखा कि एक काले रंग, फटे पांव और बिखरे बालों वाला यमदूत की तरह भयंकर व्याध उधर ही चला आ रहा है। कौवे को वृक्ष पर रहने वाले अन्य पक्षियों की भी चिंता थी। उन्हें व्याध के चंगुल से बचाने के लिए वह पीछे लौट पड़ा और वहां सब पक्षियों को सावधान कर दिया कि जब यह व्याघ वृक्ष के पास भूमि पर अनाज के दाने बिखेरे तब कोई भी पक्षी उन्हें चुगने के लालच से ना जाए। उन दानों को कालकूट की तरह जहरीला समझे। 

कौवा अभी यह कह ही रहा था कि व्याध ने वटवृक्ष के नीचे आकर दाने विखेर दिए और स्वयं दूर जाकर झाड़ी के पीछे छुप गया। पक्षियों ने भी लघुपतनक का उपदेश मानकर दाने नहीं चुगे। वे इन दानों को हलाहल विष की तरह मानते रहे। 

किंतु इस बीच में व्याध के सौभाग्य से कबूतरों का एक दल परदेश से उड़ता हुआ वहां आया। उनका मुखिया चित्रग्रीव नाम का कबूतर था। लघुपतनक के बहुत समझाने पर भी वह भूमि पर बिखरे हुए उन दानों को चुगने के लालच को ना रोक सका। परिणाम यह हुआ कि वह अपने परिवार के साथियों समेत जाल में फंस गया। लोभ का यही परिणाम होता है। लोभ से विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है। स्वर्णमय हिरण के लोभ से श्री राम यह ना सोच सके कि कोई हिरण सोने का नहीं हो सकता। 


जाल में फंसने के बाद चित्रग्रीव ने अपने साथी कबूतरों को समझा दिया कि वे अब अधिक फड़फड़ाये नहीं या उड़ने की कोशिश ना करें, नहीं तो व्याध उन्हें मार देगा। इसीलिए वह अब अधमरे से हुए जाल में बैठ गए। व्याध ने भी उन्हें शांत देखकर मारा नहीं। जाल समेटकर वह आगे चल पड़ा। चित्रग्रीव ने जब देखा कि अब व्याध निश्चिंत हो गया है और उसका ध्यान दूसरी ओर गया है, तभी उसने अपने साथियों को जाल समेत उड़ जाने का संकेत किया। संकेत पाते ही सब कबूतर जाल लेकर उड़ गए। व्याध को बहुत दुख हुआ। पक्षियों के साथ उसका जाल भी हाथ से निकल गया था। लघुपतनक भी उन उड़ते हुए कबूतरों के साथ उड़ने लगा। 

चित्रग्रीव ने जब देखा कि अब व्याध का डर नहीं है, तो उसने अपने साथियों को कहा - व्याध तो लौट गया। अब चिंता की कोई बात नहीं। चलो, हम महिलारोप्य शहर के पूर्वोत्तर भाग की ओर चलें। वहां मेरा घनिष्ट मित्र हिरण्यक नाम का चूहा रहता है। उससे हम अपने जाल को कटवा लेंगे। तभी हम आकाश में स्वच्छंद घूम सकेंगे। 

वहां हिरण एक नाम का चूहा अपने 100 बिलों वाले दुर्ग में रहता था। इसीलिए उसे डर नहीं लगता था। चित्रग्रीव ने उसके द्वार पर पहुंचकर आवाज लगाई। वह बोला - मित्र हिरण्यक! शीघ्र आओ। मुझ पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है। 

उसकी आवाज सुनकर हिरण्यक अपने ही बिल में छुपे छुपे प्रश्न किया? तुम कौन हो? कहां से आए हो? क्या प्रयोजन है? 

चित्रग्रीव ने कहा - मैं चित्रग्रीव नाम का कपोतराज हूं। तुम्हारा मित्र हूं। तुम जल्दी बाहर आओ: मुझे तुमसे विशेष काम है। 

यह सुनकर हिरण्यक चूहा अपने बिल से बाहर आया। वहां अपने परम मित्र चित्रग्रीव को देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ, किंतु चित्रग्रीव को अपने साथियों समेत जाल में फंसा देखकर वह चिंतित भी हो गया। उसने कहा - मित्र! यह क्या हो गया तुम्हें? 

चित्रग्रीव ने कहा - जीभ के लालच में हम जाल में फंस गए। तुम हमें जाल से मुक्त कर दो। 

हिरण्यक जब चित्रग्रीव के जाल का धागा काटने लगा, तब उसने कहा - पहले मेरे साथियों के बंधन काट दो। बाद में मेरे काटना। 

चित्रग्रीव - यह मेरे आश्रित हैं, अपने घर बार को छोड़कर मेरे साथ आए हैं। मेरा धर्म है कि पहले इनकी सुख सुविधा को दृष्टि में रखूँ। अपने अनुचरों  में किया हुआ विश्वास बड़े से बड़े संकट से रक्षा करता है।

हिरण्यक चित्रग्रीव की यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सब के बंधन काटकर चित्रग्रीव से कहा मित्र! अब अपने घर जाओ। विपत्ति के समय फिर मुझे याद करना। उन्हें भेज कर हिरण्यक चूहा अपने बिल में घुस गया। चित्रग्रीव भी परिवार सहित अपने घर चला गया। 

लघुपतनक कौवा यह सब दूर से देख रहा था। वह हिरण्यक के कौशल और उसकी सज्जनता पर मुग्ध हो गया। उसने मन ही मन सोचा यद्यपि मेरा स्वभाव है कि मैं किसी का विश्वास नहीं करता, किसी को अपना हितैषी नहीं मानता, तथापि इस चूहे के गुणों से प्रभावित होकर मैं इसे अपना मित्र बनाना चाहता हूं। 

यह सोचकर वह हिरण्यक के दरवाजे पर जाकर चित्रग्रीव के समान ही आवाज बनाकर हिरण्यक को पुकारने लगा। उसकी आवाज सुनकर हिरण्यक ने सोचा यह कौन सा कबूतर है? क्या इसके बंधन कटने से रह गए हैं? 

हिरण ने पूछा - तुम कौन हो? 

लघुपतनक - मैं लघुपतनक नाम का एक कौवा हूं। 

हिरण्यक - मैं तुम्हें नहीं जानता, तुम अपने घर चले जाओ।

लघुपतक - मुझे तुमसे बहुत जरूरी काम है। एक बार दर्शन तो दे दो। 

हिरण्यक - मुझे तुम्हें दर्शन देने का कोई प्रयोजन दिखाई नहीं देता। 

लघुपतनक - चित्रग्रीव के बंधन काटते देखकर मुझे तुमसे बहुत प्रेम हो गया है। कभी मैं बंधन में पड़ जाऊंगा तो तुम्हारी सेवा में आना पड़ेगा। 

हिरण्यक - तुम भोक्ता हो मैं तुम्हारा भोजन हूं। हम में प्रेम कैसा? जाओ दो प्रकृति के विरोधी जीवों में मैत्री नहीं हो सकती। 

लघुपतनक - मैं तुम्हारे द्वार पर मित्रता की भीख लेकर आया हूं। तुम मैत्री नहीं करोगे तो मैं यही प्राण दे दूंगा। 

हिरण्यक - हम सहज बैरी हैं। हमसे मैत्री नहीं हो सकती। 

लघुपतक - मैंने तो कभी तुम्हारे दर्शन भी नहीं किए। हम से बैर कैसा? 

हिरण्यक - वैर दो तरह का होता है - सहज और कृत्रिम। तुम मेरे सहज बैरी हो। 

लघुपतक - मैं दो तरह के वैरों का लक्षण सुनना चाहता हूं। 

हिरण्यक - जो वैर कारण से हो वह कृत्रिम होता है। कारणों से ही उस वैर का अंत भी हो सकता है। स्वभाविक वैर निष्कारण होता है, उसका अंत हो ही नहीं सकता है। 

लघुपतनक में बहुत विरोध किया, किंतु हिरण्यक ने मैत्री के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। तब लघुपतनक ने कहा - यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास ना हो तो तुम अपने दिल में छुपे रहो। मैं बिल के बाहर बैठा बैठा ही तुमसे बातें कर लिया करूंगा। 

हिरण्यक ने लघुपतनक की यह बात मान ली। किंतु लघुपतनक को सावधान करते हुए कहा - कभी मेरे दिल में प्रवेश करने की चेष्टा मत करना।  कौवा इस बात को मान गया। उसने शपथ ली कि कभी वह ऐसा नहीं करेगा। 

तब से दोनों मित्र बन गए। ये नित्य प्रति परस्पर बातचीत करते थे। दोनों के दिन बड़े सुख से कटते थे। कौवा कभी इधर उधर से अन्य संग्रह करके चूहे को भेंट भी देता था। मित्रता में आदान-प्रदान स्वभाविक था। धीरे-धीरे दोनों की मैत्री घनिष्ट होती गई। दोनों एक क्षण भी एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे। 

बहुत दिन बाद एक दिन आंखों में आंसू भरकर लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा - मित्र! अब मुझे इस देश से विरक्ति हो गई है, इसलिए दूसरे देश में चला जाऊंगा। 

कारण पूछने पर उसने कहा - इस देश में अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ गया है। लोग स्वयं भूखे मर रहे हैं। एक दाना भी नहीं रहा। घर - घर में पक्षियों के पकड़ने के लिए जाल बिछ गए हैं। मैं तो भाग्य से ही बच गया। ऐसे देश में रहना ठीक नहीं। 

हिरण्यक - कहां जाओगे? लघुपतनक दक्षिण दिशा की ओर एक तालाब है। वहां मंथरक नाम का एक कछुआ रहता है। वह भी मेरा वैसा ही घनिष्ट मित्र है, जैसे तुम हो। उसकी सहायता से मुझे पेट भरने योग्य अन्न, मांस आदि अवश्य मिल जाएगा। 

हिरण्यक - यही बात है, तो मैं भी तुम्हारे साथ जाऊंगा। मुझे भी यहां बड़ा दुख है। 

लघुपतनक - अब तुम्हें किस बात का दुख है? 

हिरण्यक - यह मैं वहीं पहुंचकर तुम्हें बताऊंगा। 

लघुपतनक - किंतु मैं तो आकाश में उड़ने वाला हूं, मेरे साथ तुम कैसे जाओगे? 

द्वितीय तंत्र: मित्र संप्राप्ति

हिरण्यक - मुझे अपने पंखों पर बिठाकर वहां ले चलो। 

लघुपतनक यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि वह सपात आदि आठों प्रकार की उड़ने की गतियों से परिचित है। वह उसे सुरक्षित निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचा देगा। यह सुनकर हिरण्यक चूहा लघुपतनक कौवे की पीठ पर बैठ गया। दोनों आकाश में उड़ते हुए तालाब के किनारे पहुंचे। 

मंथरक ने जब देखा कि कोई कौवा चूहे को पीठ पर बिठाकर आ रहा है, तो वह डर के मारे पानी में घुस गया। लघुपतनक को उसने पहचाना नहीं। 

तब लघुपतनक हिरण्यक को थोड़ी दूर छोड़ कर पानी में लटकती हुई शाखा पर बैठकर जोर जोर से पुकारने लगा - मंथरक - मंथरक, मैं तेरा मित्र लघुपतनक आया हूं। आकर मुझसे मिल। 

लघुपतनक की आवाज सुनकर मंथरक खुशी से नाचता हुआ बाहर आया। दोनों ने एक दूसरे का आलिंगन किया।  हिरण्यक भी तब वहां आ गया और मंथरक को प्रणाम कर के वहां बैठ गया। 

द्वितीय तंत्र: मित्र संप्राप्ति

मंथरक ने लघुपतनक से पूछा - यह चूहा कौन है? भक्छय होते हुए भी इसे अपनी पीठ पर कैसे लाया? 

लघुपतनक - एक हिरण्यक नाम का चूहा मेरा अभिन्न मित्र है। बड़ा गुनी है। फिर भी किसी दुख से दुखी होकर मेरे साथ यहां आ गया है। इसे अपने देश से वैराग्य हो गया है। 

मंथरक - वैराग्य का कारण! 

लघुपतनक - यह बात मैंने भी पूछी थी। इसने कहा था, वही चल कर बताऊंगा। मित्र हिरण्यक! अब तुम अपने वैराग्य का कारण बतलाओ। हिरण अपने तब यह कहानी सुनाई।

धन सब क्लेशों की जड़ है

To be continued ...

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