एक और एक ग्यारह : पंचतंत्र

एक और एक ग्यारह

बहूनामप्यससाराणां  समवायो हि दुर्जयः 

छोटे और निर्बल भी संख्या में बहुत होकर दुर्जेय हो जाते हैं। 

एक और एक ग्यारह : पंचतंत्र

जंगल में वृक्ष की एक शाखा पर चिड़ा-चिड़ी का जोड़ा रहता था। उनके अंडे भी उसी शाखा पर बने घोसले में थे। एक दिन मतवाला हाथी वृक्ष की छाया में विश्राम करने आया। वहां उसने अपनी सूंड में पकड़कर वही शाखा तोड़ दी, जिस पर चिड़ियों का घोंसला था। अंडे जमीन पर गिरकर टूट गए। 

चिड़िया अपने अंडों के टूटने से बहुत दुखी हो गई। उसका विलाप सुनकर उसका मित्र कठफोड़ा भी वहां आ गया। उसने शोकातुर चिड़ा चिड़ी को धीरज बढ़ाने का बहुत यत्न किया, किंतु उसका विलाप शांत नहीं हुआ।  चिड़िया ने कहा - यदि तू हमारा सच्चा मित्र है, तो मतवाले हाथी से बदला लेने में हमारी सहायता कर। उसको मार कर ही हमारे मन को शांति मिलेगी। 

कठफोड़ ने कुछ सोचने के बाद कहा - यह काम हम दोनों से ही नहीं होगा, इसमें दूसरों से भी सहायता लेनी पड़ेगी। एक मक्खी मेरी मित्र है; उसकी आवाज बहुत सुरीली है, उसे भी बुला लेता हूं। 

मक्खी ने भी जब कठफोड़े और चिड़िया की बात सुनी तो वह मतवाले हाथी को मारने में उनको सहयोग देने को तैयार हो गई। किंतु उसने कहा कि यह काम हम तीन का ही नहीं, हमें औरों की भी सहायता लेनी चाहिए। मेरा मित्र एक मेंढक है, उसे भी बुला लाऊँ। 

तीनों ने जाकर मेघनाद नाम के मेंढक को अपनी दुख भरी कहानी सुनाई। उनकी बात सुनकर मेंढक भी मतवाले हाथी के विरुद्ध षडयंत्र में शामिल हो गया। उसने कहा - तभी तो मैं कहती हूं कि छोटे और निर्बल भी मिल-जुल कर बड़े-बड़े जानवरों को मार सकते हैं। 

चिड़िया और हाथी की कहानी

टिटिहरा - अच्छी बात है। मैं भी दूसरे पक्षियों की सहायता से समुंद्र को सुखाने का यत्न करूंगा। 

यह कहकर उसने बगुले, सारस, मोर आदि अनेक पक्षियों को बुलाकर अपनी दुख कथा सुनाई। उन्होंने कहा- हम तो अशक्त है, किंतु हमारा राजा गरुड़ अवश्य इस संबंध में हमारी सहायता कर सकता है। तब सब पक्षी मिलकर गरुड़ के पास जाकर रोने और चिल्लाने लगे - गरुड़ महाराज! आपके रहते पक्षिकुल पर समुद्र ने यह अत्याचार कर दिया है। हम इसका बदला चाहते हैं। आज उसने टिटहरी के अंडे नष्ट किए हैं, कल वह दूसरे पंछियों के अंडों को बहा ले जाएगा। इस अत्याचार की रोकथाम होनी चाहिए। अन्यथा संपूर्ण पक्षिकुल नष्ट हो जाएगा। 

गरुड़ ने पक्षियों का रोना सुनकर उनकी सहायता करने का निश्चय किया। उसी समय उसके पास भगवान विष्णु का दूत आया। उस दूत द्वारा भगवान विष्णु ने उसे सवारी के लिए बुलाया था। गरुड़ ने दूत से क्रोधपूर्वक कहा कि विष्णु भगवान को कह दे कि वे दूसरी सवारी का प्रबंध कर लें। दूत ने गरुड़ के क्रोध का कारण पूछा तो गरुड़ ने समुद्र के अत्याचार की कथा सुनाई। 

दूत के मुख से गरुड़ के क्रोध की कहानी सुनकर भगवान विष्णु स्वयं गरुड़ के घर गए। वहां पहुंचने पर गरुड़ ने प्रणामपूर्वक विनम्र शब्दों में कहा - "भगवान! आपके आश्रय का अभिमान करके समुद्र ने मेरे साथी पक्षियों के अंडों का अपहरण कर दिया है। इस तरह मुझे भी अपमानित किया है। मैं समुद्र से इस अपमान का बदला लेना चाहता हूं।"

भगवान विष्णु बोले - "गरुड़! तुम्हारा क्रोध युक्तियुक्त है। समुद्र को ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। चलो, मैं समुद्र से उन अंडों को वापस लेकर टिटिहरी को दिलवा देता हूं। उसके बाद हमें अमरावती जाना है।"

 तब भगवान ने अपने धनुष पर अग्निबाण को चढ़ा कर समुद्र से कहा - "दुष्ट, अभी सब उन अंडों को वापस दे दे नहीं तो तुझे क्षण भर में सुखा दूंगा। 

विष्णु भगवान के भय से समुद्र ने उसी क्षण अण्डे वापस दे दिए। 

दमनक ने इन कथाओं को सुनाने के बाद संजीवकसे कहा - इसलिए मैं कहता हूं कि शत्रु पक्ष का बल जानकर ही युद्ध के लिए तैयार होना चाहिए, किंतु मुझे कैसे पता लगेगा कि पिंगलक के मन में मेरे लिए हिंसा के भाव हैं। आज तक वह मुझे सदा स्नेह की दृष्टि से देखता रहा है। उसकी वक्रदृष्टि का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। मुझे उसके लक्षण बदला तो मैं उन्हें जानकर आत्मरक्षा के लिए तैयार हो जाऊंगा। 

दमनक - उन्हें जानना कुछ भी कठिन नहीं है। यदि उनके मन में तुम्हें मारने का पाप होगा तो उसकी आंखें लाल हो जाएँगी, भवें चढ़ जाएगी और वह होठों को चाटता हुआ तुम्हारी और क्रूर दृष्टि से देखेगा। अच्छा तो यह है कि तुम रातों-रात चुपके से चले जाओ। आगे तुम्हारी इच्छा। 

यह कहकर दमनक अपने साथी करटक के पास आया। करटक ने उससे भेंट करते हुए पूछा - कहो दमनक! कुछ सफलता मिली तुम्हें अपनी योजना में?

दमनक - मैंने तो नीतिपूर्वक जो कुछ भी करना उचित था, कर दिया। अब आगे सफलता देव के अधीन है। पुरुषार्थ करने के बाद भी यदि कार्य सिद्ध न हो तो हमारा दोष नहीं। 

करटक - तेरी क्या योजना है? किस तरह नितीयुक्त काम किया है तूने? मुझे भी बता। 

दमनक - मैंने झूठ बोल कर दोनों को एक दूसरे का ऐसा बैरी बना दिया है कि भविष्य में कभी एक दूसरे का विश्वास नहीं करेंगे। 

करटक - यह तूने अच्छा नहीं किया। मित्र! दो स्नेही हृदयों में द्वेष का बीज बोना बुरा काम है। 

दमनक - करटक! तू नीति की बातें नहीं जानता, तभी ऐसा कहता है। संजीवक ने हमारे मंत्री पद को हथिया लिया। वह हमारा शत्रु था। शत्रु को परास्त करने में धर्म अधर्म नहीं देखा जाता। आत्मरक्षा सबसे बड़ा धर्म है। स्वार्थ साधन ही सबसे महान कार्य है। स्वार्थ साधन करते हुए कपट नीति से ही काम लेना चाहिए, जैसे चतुरक ने लिया था। 

कटटक ने पूछा - कैसे?

दमनक ने तब चतुर गीदड़ और शेर की यह कहानी सुनाई:

कुटिल नीति का रहस्य

To be continued ... 

16 comments:

  1. अच्छी कहानी 👌👌

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  2. अच्छी कहानी

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  3. एकता में बल है।शिक्षा मिलती है।

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  4. एक और बढ़िया कहानी।

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  5. Dal gayi post...bas thodi der ho gyi..

    Yes, everything is ok 😊

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  6. एक जोड़ एक बराबर दो

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  7. अच्छी कहानी, कपट नीति बहुत पुरानी है।

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