फूंक फूंक कर पग धरो : पंचतंत्र / Fuk Fuk kar pag dharo : Panchtantra

फूंक फूंक कर पग धरो

सेवाधर्मः परमगहनो...
सेवा धर्म बड़ा कठिन धर्म है।  
फूंक फूंक कर पग धरो : पंचतंत्र / Fuk Fuk kar pag dharo : Panchtantra

एक जंगल में मदोत्कट नाम का शेर रहता था। उसके नौकर चाकरों में कौवा, गीदड़, बाघ, चीता आदि अनेक पशु थे। एक दिन वन में घूमते घूमते एक ऊंट वहां आ गया। शेर ने ऊंट को देखकर अपने नौकरों से पूछा - "यह कौन सा पशु है? जंगली है या ग्राम्य? 

कौवे ने शेर के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा - "स्वामी, यह पशु ग्राम्य है और आपका भोज्य है। आप इसे खाकर भूख मिटा सकते हैं। 

शेर ने कहा - "नहीं यह हमारा अतिथि है। घर आए को मारना उचित नहीं। शत्रु भी अगर घर आए, तो उसे नहीं मारना चाहिए। फिर यह तो हम पर विश्वास करके हमारे घर आया है। इसे मारना पाप है। इसे अभयदान देकर मेरे पास लाओ। मैं इससे वन में आने का प्रयोजन पूछूंगा।" 

शेर की आज्ञा सुनकर अन्य पशु ऊंट को, जिसका नाम क्रथनक था, शेर के दरबार में लाए। ऊंट ने अपनी दुख भरी कहानी सुनाते हुए बताया कि वह अपने साथियों से बिछड़ कर जंगल में अकेला रह गया है। शेर ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा - "अब तुझे ग्राम में जाकर भार ढोने की कोई आवश्यकता नहीं है। जंगल में रहकर हरी भरी घास से सानंद पेट भरो और स्वतंत्रता पूर्वक खेलो कूदो।" 

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शेर का आश्वासन मिलने पर ऊँट जंगल में आनंद से रहने लगा। कुछ दिन बाद उस वन में एक मतवाला हाथी आ गया। मतवाले हाथी से अपने अनुचर पशुओं की रक्षा करने के लिए शेर को हाथी से युद्ध करना पड़ा। युद्ध में जीत तो शेर की ही हुई, किंतु हाथी ने भी जब एक बार शेर को सूँड़ में लपेट कर घुमाया, तो उसका अस्थि पंजर हिल गया। हाथी का एक दांत भी शेर की पीठ में चुभ गया था। इस युद्ध के बाद शेर बहुत घायल हो गया था और नए शिकार के योग्य नहीं रहा था। शिकार के अभाव में उसे बहुत दिन से भोजन नहीं मिला था। उसके अनुचर भी जो शेर के अवशिष्ट भोजन से ही पेट पालते थे, कई दिनों से भूखे थे। 

एक दिन उन सब को बुला कर शेर ने कहा - "मित्रों! मैं बहुत घायल हो गया हूं, फिर भी यदि कोई शिकार तुम मेरे पास तक ले आओ, तो मैं उसको मार कर तुम्हारे पेट भरने योग्य मांस अवश्य तुम्हें दे दूंगा।" 

शेर की बात सुनकर चारों अनुचर ऐसे शिकार की खोज में लग गए। किंतु कोई फल ना निकला। तब कौवे और गीदड़ में मंत्रणा हुई। गीदड़ बोला काकराज! अब इधर- उधर भटकने का क्या लाभ? क्यों नहीं इस ऊँट क्रथनक को मारकर ही भूख मिटाएं? 

कौवा बोला - तुम्हारी बात तो ठीक है, किंतु स्वामी ने उसे अभय वचन दिया हुआ है। 

गीदड़ बोला - मैं ऐसा उपाय करूंगा, जिससे स्वामी उसे मारने को तैयार हो जाएं। आप यहीं रहें, मैं स्वयं जाकर स्वामी से निवेदन करता हूं। 

गीदड़ ने तब शेर के पास जाकर कहा - "स्वामी! हमने सारा जंगल छान मारा है, किंतु कोई भी पशु हाथ नहीं आया। अब तो हम सभी इतने भूखे प्यासे हो गए हैं कि एक कदम आगे नहीं चला जाता आपकी भी दशा ऐसी ही है आज्ञा दें तो क्रथनक को ही मार कर उससे भूख शांत की जाए। 

गीदड़ की बात सुनकर शेर ने क्रोध से कहा - "पापी! आगे कभी यह बात मुख से निकाली तो उसी क्षण तेरे प्राण ले लूंगा। जानता नहीं कि उसे मैंने अभय वचन दिया है।" 

गीदड़ - "स्वामी! मैं आपको वचन भंग करने के लिए नहीं कह रहा। आप उस का स्वयं वध ना कीजिए, किंतु यदि वही स्वयं आपकी सेवा में प्राणों की भेंट लेकर आए, तब तो उसके वध में कोई दोष नहीं है। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो हम में से सभी आपकी सेवा में अपने शरीर की भेंट लेकर आपकी भूख शांत करने के लिए आएंगे। जो प्राण स्वामी के काम ना आए उनका क्या उपयोग। स्वामी के नष्ट होने पर अनुचर स्वयं नष्ट हो जाते हैं। स्वामी की रक्षा करना उनका धर्म है।" 

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मदोत्कट- यदि तुम्हारा यही विश्वास है तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं। 

शेर से आश्वासन पाकर गीदड़ अपने अन्य अनुचर साथियों के पास गया और उन्हें लेकर फिर शेर के सामने उपस्थित हो गया। वह सब अपने शरीर के दान से स्वामी की भूख शांत करने आए थे। गीदड़ उन्हें यह वचन देकर लाया था कि शेर शेष सभी पशुओं को छोड़कर ऊंट को ही मारेगा। 

सबसे पहले कौवे ने शेर के सामने जाकर कहा - स्वामी! मुझे खाकर अपनी जान बचाईए, जिससे मुझे स्वर्ग मिले। स्वामी के लिए प्राण देने वाला स्वर्ग जाता है। वह अमर हो जाता है। 

गीदड़ ने कौवे से कहा - अरे कौवे तू इतना छोटा है कि तेरे खाने से स्वामी की भूख बिल्कुल शांत नहीं होगी। तेरे शरीर में मांस ही कितना है जो कोई खाएगा? मैं अपना शरीर स्वामी को अर्पण करता हूं। 

गीदड़ ने जब अपना शरीर भेंट किया तो बाघ ने उसे हटाते हुए कहा - तू भी बहुत छोटा है, तेरे नख कितने बड़े और विषैले हैं कि जो खाएगा उसे जहर चढ़ जाएगा। इसलिए तू अभय है। मैं अपने को स्वामी को अर्पण करुंगा। मुझे खाकर वे अपनी भूख शांत करें। 

उसे देखकर क्रथनक ने सोचा कि वह भी अपने शरीर को अर्पण कर दे। जिन्होंने ऐसा किया था, उसमें से शेर ने किसी को भी नहीं मारा था। इसीलिए उसे भी मरने का डर नहीं था। यही सोचकर क्रथनक ने भी आगे बढ़कर बाघ को एक ओर हटा दिया और अपने शरीर को शेर को अर्पण किया। तब शेर का इशारा पाकर गीदड़, चीता, बाघ आदि पशु ऊंट पर टूट पड़े और उसका पेट फाड़ डाला। सबने उसके मांस से अपनी भूख शांत की। 

संजीवक ने दमक से कहा - तभी मैं कहता हूं कि छल - कपट से भरे वचन सुनकर किसी को उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए और यह कि राजा के अनुचर जिसे मरवाना चाहे उसे किसी न किसी उपाय से मरवा ही देते हैं।निसंदेह किसी ने मेरे विरुद्ध राजा पिंगलक को उकसा दिया है। अब दमनक भाई मैं एक मित्र के नाते तुझ से पूछता हूं कि मुझे क्या करना चाहिए? 

दमनक - मैं तो समझता हूं कि ऐसे स्वामी की सेवा का कोई लाभ नहीं है। अच्छा है कि तुम यहां से जाकर किसी दूसरे देश में घर बनाओ। ऐसी उल्टी राह पर चलने वाले स्वामी का परित्याग करना ही अच्छा है। 

संजीवक - दूर जाकर भी अब छुटकारा नहीं है। बड़े लोगों से शत्रुता लेकर कोई कहीं शांति से नहीं बैठ सकता। अब तो युद्ध करना ही ठीक जंचता है। युद्ध में एक बार ही मौत मिलती है, किंतु शत्रु से डर कर भागने वाला तो प्रतिक्षण चिंतित रहता है। उस चिंता से एक बार की मृत्यु कहीं अच्छी है। 

दकनक ने जब संजीवक को युद्ध के लिए तैयार देखा तो वह सोचने लगा, कहीं ऐसा ना हो, यह अपने पैने सिंघों से स्वामी पिंगलक का पेट फाड़ दे। ऐसा हो गया तो महान अनर्थ हो जाएगा। इसलिए वह फिर संजीवक को देश छोड़कर जाने की प्रेरणा करता हुआ बोला - मित्र! तुम्हारा कहना भी सच है, किंतु स्वामी और नौकर के युद्ध से क्या लाभ? विपक्षी बलवान हो तो क्रोध को पी जाना ही बुद्धिमता है। बलवान से लड़ना अच्छा नहीं। अन्यथा उसकी वही गति होती है, जो टिटिहरे से लड़कर समुंद्र की हुई थी। 

संजीवक ने पूछा - कैसे? 

दमनक ने तब टिटिहरे की यह कथा सुनाई।

घड़े - पत्थर का न्याय

To be continued ...

17 comments:

  1. आच्छी कहानी। पंचतंत्र की कहानियां सचमुच बहुत प्रेरणादायक होती हैं।

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  2. Very knowledgeable story.which gives a good lesson.

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  3. एक अच्छी सीख देती अच्छी कहानी, टीटीहरे की कहानी का इंतजार

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  4. दूसरों के बहकावे में आकर समर्पण उचित नहीं है।

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  5. शिक्षाप्रद कहानी..

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