कुसंग का फल : पंचतंत्र / Kusang ka Fal : Panchtantra

कुसंग का फल

न ह्यविज्ञातशीलस्य प्रदातव्यः प्रतिश्रयः 

 अज्ञात या विरोधी प्रवृत्ति के व्यक्ति को आश्रय नहीं देना चाहिए।

कुसंग का फल : पंचतंत्र / Kusang ka Fal : Panchtantra

एक राजा के शयनगृह में शय्या पर बिछी सफेद चादरों के बीच एक मंदविसर्पिणी सफेद जूं रहती थी। एक दिन इधर-उधर घूमता हुआ एक खटमल वहां आ गया। उस खटमल का नाम था अग्निमुख। 

अग्निमुख को देखकर दु:खी जूं ने कहा - हे अग्निमुख! तू यहां अनुचित स्थान पर आ गया है। इससे पूर्व कि कोई आकर तुझे देखे, यहां से भाग जा। 

खटमल बोला - भगवती! घर आए हुए दुष्ट व्यक्ति का भी इतना अनादर नहीं किया जाता, जितना तू मेरा कर रही है। उससे भी कुशल क्षेम पूछा जाता है। घर बना कर बैठने वालों का यही धर्म है। मैंने आज तक अनेक प्रकार का कटु -तिक्त, कषाय- अम्ल रस का खून पिया है। केवल मीठा खून नहीं पिया। आज इस राजा के मीठे खून का स्वाद लेना चाहता हूं। तू तो रोज ही मीठा खून पीती है। एक दिन मुझे भी इसका स्वाद लेने दे। 

जूँ बोली - अग्निमुख! मैं राजा के सो जाने के बाद उसका खून पीती हूं। तू बड़ा चंचल है, कहीं मुझसे पहले ही तूने खून पीना शुरू कर दिया तो दोनों ही मारे जाएंगे। हां, मेरे पीछे रक्तदान करने की प्रतिज्ञा करे, तो एक रात भले ही ठहर जा। 

खटमल बोला - भगवती! मुझे स्वीकार है। मैं तब तक रक्त नहीं पियूंगा, जब तक तुम नहीं पी लेती। वचन भंग करूं तो मुझे देवगुरु का शाप लगे। 

इतने में राजा ने चादर ओढ़ ली। दीपक बुझा दिया। खटमल बड़ा चंचल था। उसकी जीभ से पानी निकल रहा था। मीठे खून के लालच से उसने जूँ के रक्तदान से पहले ही राजा को काट लिया। जिसका जो स्वभाव हो, वह उपदेशों से नहीं छूटता। अग्नि अपनी जलन और पानी अपनी शीतलता के स्वभाव को कहां छोड़ सकता है? मर्त्य जीव भी अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते। 

कुसंग का फल : पंचतंत्र / Kusang ka Fal : Panchtantra

अग्निमुख के पैने दातों राजा को तड़पा कर उठा दिया। पलंग से नीचे कूदकर राजा ने संतरी से कहा - देखो, इस शय्या में खटमल या जूँ  अवश्य हैं। इन्हीं में से किसी ने मुझे काटा है। संतरियों ने दीपक जलाकर चादर की तहें देखनी शुरू कर दी। इस बीच खटमल जल्दी से भागकर पलंग के पायों के जोड़ों में जा छिपा। मंदविसर्पिणी जूँ चादर की तह में ही छिपी थी। संतरियों ने उसे देखकर पकड़ लिया और मसल डाला। 

दमनक शेर से बोला - इसीलिए मैं कहता हूं कि संजीवक को मार दें। अन्यथा वह आपको मार देगा, अथवा उसकी संगति से आप जब स्वभाव - विरुद्ध काम करेंगे, अपनों को छोड़कर परायों को अपनाएंगे, तो आप पर वही आपत्ति आ जाएगी जो चण्डरव पर आई थी। 

पिंगलक ने पूछा - कैसे? 
दमनक ने कहा - सुनो :            

रंगा सियार

To be continued ...

13 comments:

  1. An outstanding story. Which gives a moral. Nicely written.

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  2. दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ देना ही श्रेयष्कर है।

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  3. ये तो.. कभी सास भी बहू थी…वाली बात हो गई 😆😆

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  4. कोई भी अपने स्वभाव के विरुद्ध नही जा सकता।
    अच्छी कहानी।

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  5. कहानियों में ही कहानी जुड़ी हुई है, अपने स्वभाव के विपरीत आचरण करने वाले भी मौका मिलते ही अपना रंग दिखा देते हैं इसलिए संगति हमेशा अच्छी होनी चाहिए।
    अच्छी कहानी

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