Sunderkand-17

 सुंदरकांड 


भगवान् श्री राम की महिमा

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा॥

जब तक धनुप बाण धारण किये और कमरमें तरकस कसे हुए श्रीरामचन्द्रजी हृदयमें आकर नहीं बिराजते तब तक लोभ, मोह, मत्सर, मद और मान ये अनेक दुष्ट हृदयके भीतर निवास कर सकते हैं और जब आप आकर हृदयमें विराजते हो तब ये सब भाग जाते हैं॥ जय सियाराम जय जय सियाराम

ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥

जब तक जीवके हृदयमें प्रभुका प्रतापरूप सूर्य उदय नहीं होता तबतक रागद्वेषरूप उल्लुओं को सुख देनेवाली ममतारूप सघन अंधकारमय अंधियारी रात्रि रहा करती है॥ जय सियाराम जय जय सियाराम

अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि ब्याप त्रिबिध भव सूला॥

हे राम! अब मैंने आपके चरणकमलोंका दर्शन कर लिया है इससे अब मैं कुशल हूं और मेरा विकट भय भी निवृत्त हो गया है॥
हे प्रभु! हे दयालु! आप जिसपर अनुकूल रहते हो उसको तीन प्रकारके भय और दुःख (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) कभी नहीं व्यापते॥ जय सियाराम जय जय सियाराम

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥

हे प्रभु! मैं जातिका राक्षस हूं। मेरा स्वभाव अति अधम है। मैंने कोईभी शुभ आचरन नहीं किया है॥
तिसपरभी प्रभुने कृपा करके आनंदसे मुझको छातीसे लगाया कि जिस प्रभुके स्वरूपको ध्यान पाना मुनिलोगोंको कठिन है॥ जय सियाराम जय जय सियाराम

दोहा (Doha – Sunderkand)

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज 47

सुखकी राशि रामचन्द्रजीकी कृपासे अहो! आज मेरा भाग्य बड़ा अमित और अपार हैं क्योकि ब्रह्माजी और महादेवजी जिन चरणारविन्द-युगलकी (युगल चरण कमलों कि) सेवा करते हैं, उन चरणकमलोंका मैंने अपने नेत्रोंसे दर्शन किया 47 जय सियाराम जय जय सियाराम

प्रभु श्री रामचंद्र जी की महिमा

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही॥

बिभीषणकी भक्ति देखकर रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा! मैं अपना स्वभाव कहता हूं, सो तू सुन, मेरे स्वभावको या तो काकभुशुंडि जानते हैं या महादेव जानते है, या पार्वती जानती है। इनके सिवा दूसरा कोई नहीं जानता॥
प्रभु कहते हैं कि जो मनुष्य चराचरसे (जड़-चेतन) द्रोह रखता हो, और वह भयभीत होंके मेरे शरण जाए तो॥ जय सियाराम जय जय सियाराम

तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥

मद, मोह, कपट और नानाप्रकारके छलको छोड़कर हे सखा! मैं उसको साधु पुरुषके समान कर लेता हूँ॥
देखो, माता, पिता, बंधू, पुत्र, श्री, सन, धन, घर, सुहृद और कुटुम्ब. जय सियाराम जय जय सियाराम

सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥

इन सबके ममतारूप तागोंको इकट्ठा करके एक सुन्दर डोरी बट (डोरी बनाकर) और उससे अपने मनको मेरे चरणोंमें बांध दे। अर्थात् सबमेंसे ममता छोड़कर केवल मुझमें ममता रखें, जैसेत्वमेव माता पिता त्वमेव त्वमेव बंधूश्चा सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्व मम देवदेव
जो भक्त समदर्शी है और जिसके किसी प्रकारकी इच्छा नहीं हे तथा जिसके मनमें हर्ष, शोक, और भय नहीं है॥ जय सियाराम जय जय सियाराम

अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥

ऐसे सत्पुरुष मेरे हृदयमें कैसे रहते है, कि जैसे लोभी आदमीके मन में धन सदा बसा रहता है
हे बिभीषण! तुम्हारे जैसे जो प्यारे सन्त भक्त हैं उन्हीके लिए मैं देह धारण करता हूं, और दूसरा मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं है॥ जय सियाराम जय जय सियाराम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम 48

जो लोग सगुण उपासना करते हैं, बड़े हितकारी हैं, नीतिमें निरत है, नियममें दृढ़ है और जिनकी ब्राह्मणोंके चरणकमलों में प्रीति है वे मनुष्य मुझको प्राणों के समान प्यारे लगते हें 48

विभीषण की भगवान् श्री राम से प्रार्थना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥

हे लंकेश (लंकापति)! सुनो, आपमें सब गुण है और इसीसे आप मुझको अतिशय प्यारें लगते हो॥
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर तमाम वानरोंके झुंड कहने लगे कि हे कृपाके पुंज! आपकी जय हो॥

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात प्रेमु अपारा॥

ओर विभीषणभी प्रभुकी बाणीको सुनता हुआ उसको कर्णामृतरूप जानकर तृप्त नहीं होता था॥
और वारंवार रामचन्द्वजीके चरणकमल धरकर ऐसा आल्हादित हुआ कि वह अपार प्रेम हृदयके अंदर नहीं समाया॥

सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥

इस दशाको पहुँच कर बिभीषणने कहा कि हे देव! चराचरसहित संसारके (चराचर जगतके) स्वामी! हे शरणागतोंके पालक! हे हृदयके अंतर्यामी! सुनिए॥
पहले मेरे जो कुछ वासना थी वह भी आपके चरणकमलकी प्रीतिरूप नदीसे बह गई॥

अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥

हे कृपालू! अब आप दया करके मुझको आपकी वह पावन करनहारी भक्ति दीजिए कि जिसको महादेवजी सदा धारण करते हैं॥
रणधीर रामचन्द्रजीने एवमस्तु ऐसे कहकर तुरत समुद्रका जल मँगवाया॥ जय सियाराम जय जय सियाराम

जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥

और कहा कि हे सखा! यद्यपि तेरे किसी बातकी इच्छा नहीं है तथापि जगत्‌में मेरा दर्शन अमोघ है अर्थात् निष्फल नही है॥ ऐसे कहकर प्रभुने बिभीषणके राजतिलक कर दिया. उस समय आकाशमेंसे अपार पुष्पोंकी वर्षा हुई॥ जय सियाराम जय जय सियाराम

दोहा (Doha – Sunderkand)

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड 49()

रावणका क्रोध तो अग्निके समान है और उसका श्वास प्रचंड पवनके तुल्य है। उससे जलते हुए विभीषणको बचाकर प्रभुने उसको अखंड राज दिया 49()

दोहा (Doha – Sunderkand)

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ 49()

महादेवने दश माथे देनेपर रावणको जो संपदा दी थी वह संपदा कम समझकर रामचन्द्रजीने बिभीषणको सकुचते हुए दी 49()


15 comments:

  1. Sunderkand ka sunder varnan..

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  2. Sri ram jai ram...jai jai ram..

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  3. जय राम,जय राम,जय हनुमान

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  4. जय मारुति नन्दन

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  5. MAhaan granth.. 🙏🙏 jai shree Ram jai Hanuman 🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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  6. सुधा पाण्डेयSeptember 8, 2020 at 7:59 PM

    "सीता राम चरित अति पावन, मधुर सरस और अति मनभावन" प्रभु श्री राम और हनुमान जी की कृपा सब पर बनी रहे, तुम्हारे ब्लॉग के सौजन्य से मंगल का दिन प्रभु सुमिरन से सबके लिए मंगलमय हो

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