सार्वजनिक जीवन में मर्यादा से रहें ..क्यों?
हमारी भारतीय संस्कृति सदैव हमें मर्यादित और अनुशासित जीवन जीने की प्रेरणा देती है। इसी जीवन का परिणाम है कि हमारे यहां "जीवेत शरदः शतम" की अवधारणा की गई है। मनुष्य के शरीर के साथ मन का भी स्वस्थ होना आवश्यक है। बहुत से रोग हमारे मन मे उत्पन्न दूषित विचारों के द्वारा उत्पन्न होते हैं ।
हमारी पुरातन संस्कृति में वस्त्रों का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। अवसर के अनुरूप,विभिन्न प्रकार के वस्त्र, भारतीय संस्कृति की ही देन है। जिस प्रकार किसी को मनचाही स्पीड में गाड़ी चलाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि रोड सार्वजनिक है, ठीक उसी प्रकार किसी भी इंसान को (विशेषकर अगर वो महिला या लड़की है),ऐसे वस्त्र, जो उसके शरीर को बेपर्दा करते हों, उसे पहनने का अधिकार नहीं है। हम जिस समाज मे जीते हैं, उस समाज के नियमों को मानना हमारा धर्म भी है और कर्तव्य भी। सार्वजनिक जीवन में किसी लड़की को ऐसे वस्त्र नहीं पहनने चाहिए जो उसके शरीर को आंशिक रूप से अनावृत करते हों। कोई एकांत रोड में, अकेले स्पीड में गाड़ी चला सकते हैं, घर में या कहीं एकांत जगह में चाहे जैसे कपड़े पहन सकते हैं, कोई समस्या नहीं होगी। मगर सार्वजनिक जीवन में, सार्वजनिक स्थान में, सभी को समाज के नियम मानने हीचाहिए।
जिस प्रकार भोजन जब स्वयं के पेट में जा रहा हो तो केवल स्वयं की रुचि अनुसार बनेगा, लेकिन जब वह भोजन परिवार खायेगा तो सबकी रुचि व मान्यता देखनी पड़ेगी। उसी प्रकार समाज में रहते हुए हमें सभी की रुचियों और भावनाओं का ख्याल भी रखना होगा। लड़कियों का उत्तेजक और भद्दे वस्त्र पहनने का मुद्दा उठाना उतना ही जरूरी है, जितना लड़को का शराब पीकर गाड़ी चलाने का मुद्दा। दोनों ही स्थितियों में एक्सीडेंट की संभावना बनी रहती है। अपनी इच्छा केवल घर की चहारदीवारी में उचित है। घर से बाहर सार्वजनिक जीवन मे कदम रखते ही सामाजिक मर्यादा का, समाज के कानून का पालन सभी को करना चाहिए।
घूंघट और बुर्का अगर गलत है, तो उतना ही गलत न्यून और उत्तेजक वस्त्र पहनना भी है। बड़ी उम्र की लड़कियों का बच्चों सी फ़टी निक्कर पहनकर,छोटी टॉप पहनकर फैशन के नाम पर घूमना भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है। जीवन भी गिटार या वीणा जैसा वाद्य यंत्र ही है, इसे ज्यादा कसना भी गलत है और ज्यादा ढील देना भी गलत है। आज आधुनिक समाज में सँस्कार की जरूरत स्त्री व पुरुष दोनों को है। गाड़ी के दोनों पहिये में संस्कार की हवा चाहिए, एक भी पंचर हुआ तो जीवन अशांत और बाधित होगा।
कम कपडे पहनना यदि आधुनिक होने की निशानी है, तो सबसे आधुनिक जानवर है, जिनके संस्कृति में कपड़े ही नहीं हैं। अतः हमें जानवर से रेस न करके अपनी सम्रद्ध सभ्यता व संस्कृति को स्वीकार करना चाहिए। कुत्ते को अधिकार है कि वह कहीं भी टांग उठाकर पेशाब कर सकता है,परंतु सभ्य इंसान को यह अधिकार नहीं है। उसे सभ्यता से बन्द टॉयलेट उपयोग करना होगा। इसी तरह पशु को अधिकार है बिना कपड़ों के घूमने का, लेकिन सभ्य इंसान को उचित वस्त्रों का उपयोग सार्वजनिक जीवन में करना ही चाहिए। ऐसे वस्त्र जो हमारी सभ्यता और सस्कृति को पोषित और पल्लवित कर सकें।
बिल्कुल सही कहा आपने
ReplyDeleteआज का लेख उन सभी युवा पीढ़ी के लिए एक आईना है जो तथाकथित फैशन के मोह में अपनी संस्कृति और मर्यादा को भूल गए हैं।
ReplyDeleteपठनीय आलेख।
साधुवाद।
सुंदर लेखन । अद्भुद।
ReplyDeleteAbsalutly Right 👌👌
ReplyDeleteभारतीय संस्कृति की पहचान बताने वाला यह लेख वास्तव में अत्यधिक सराहनीय है।
ReplyDeleteAbsolutely correct...
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteIt's Very true
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ✌🏻
ReplyDeleteहमारी आने वाली पीढ़ी को पाश्चात्य संस्कृति ज्यादा भाने लगी है... और ग्लोबल होती दुनिया में संस्कार पीछे छूटने लगा है..
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर एवं उपयोगी बात बताई है
ReplyDeleteNice post
ReplyDeleteहां, अगर आपके पास नियम नहीं हैं... तो आपके पास कुछ भी नहीं है।
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteNice post
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